Sunday, February 13, 2011

सुर संगम में आज - बेगम अख्तर की आवाज़ में ठुमरी और दादरा का सुरूर



सुर संगम - 07

कुछ लोगों का यह सोचना है कि मॊडर्ण ज़माने में क्लासिकल म्युज़िक ख़त्म हो जाएगी; उसे कोई तवज्जु नहीं देगा, पर मैं कहती हूँ कि यह ग़लत बात है। ग़ज़ल भी क्लासिकल बेस्ड है। अगर सही ढंग से पेश किया जाये तो इसका जादू भी सर चढ़ के बोलता है।


"आप सभी को मेरा सलाम, मुझे आप से बातें करते हुए बेहद ख़ुशनसीबी महसूस हो रही है। मुझे ख़ुशी है कि मैंने ऐसे वतन में जनम लिया जहाँ पे फ़न और फ़नकार से प्यार किया जाता है, और मैंने आप सब का शुक्रिया अपनी गायकी से अदा किया है"। मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर जी के इन शब्दों से, जो उन्होंने कभी विविध भारती के किसी कार्यक्रम में श्रोताओं के लिए कहे थे, आज के 'सुर-संगम' का हम आगाज़ करते हैं। बेगम अख़्तर एक ऐसा नाम है जो किसी तारुफ़ की मोहताज नहीं। उन्हें मलिका-ए-ग़ज़ल कहा जाता है, लेकिन ग़ज़ल गायकी के साथ साथ ठुमरी और दादरा में भी उन्हें उतनी ही महारथ हासिल है। ३० अक्तुबर १९७४ को वो इस दुनिया-ए-फ़ानी से किनारा तो कर लिया, लेकिन उनकी आवाज़ का जादू आज भी सर चढ़ कर बोलता है। आज के संगीत में जब चारों तरफ़ शोर-शराबे का माहौल है, ऐसे में बेगम अख्तर जैसे फ़नकारों की गाई रचनाओं को सुन कर मन को कितनी शांति, कितना सुकून मिलता है, वह केवल अच्छे संगीत-रसिक ही महसूस कर सकता है। और बेगम अख़्तर जी ने भी तो उसी कार्यक्रम में कहा था, "कुछ लोगों का यह सोचना है कि मॊडर्ण ज़माने में क्लासिकल म्युज़िक ख़त्म हो जाएगी; उसे कोई तवज्जु नहीं देगा, पर मैं कहती हूँ कि यह ग़लत बात है। ग़ज़ल भी क्लासिकल बेस्ड है। अगर सही ढंग से पेश किया जाये तो इसका जादू भी सर चढ़ के बोलता है।" दोस्तों, बेगम अख़्तर की गाई हुई एक बेहद मशहूर ग़ज़ल हम आपको थोड़ी देर में सुनवाएँगे, पहले आइए सुनते हैं एक दादरा "हमरी अटरिया प आओ सांवरिया"।

दादरा - हमरी अटरिया प आओ सांवरिया (बेगम अख़्तर)


बेगम अख़्तर का असली नाम अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के फ़ैज़ाबाद में ७ अक्तुबर १९१४ को हुआ था। उनके पिता अस्ग़र हुसैन, जो पेशे से एक वकील थे, ने मुश्तरी नामक महिला से अपनी दूसरी शादी की, लेकिन बाद में उन्हे तलाक़ दे दिया और इस तरह से मुश्तरी की दो बेटियाँ ज़ोहरा और बिब्बी (अख़्तरीबाई) भी पितृप्रेम से वंचित रह गए। पिता के अभाव को अख़्तरीबाई ने रास्ते का काँटा नहीं बनने दिया और स्वल्पायु से ही संगीत में गहरी रुचि लेने लगीं। जब वो मात्र सात वर्ष की थीं, तभी वो चंद्राबाई नामक थिएटर आर्टिस्ट के संगीत से प्रभावित हुईं। पटना के प्रसिद्ध सारंगी वादक उस्ताद इम्दाद ख़ान से उन्हें बाक़ायदा संगीत सीखने का मौका मिला; उसके बाद पटियाला के अता मोहम्मद ख़ान ने भी उन्हें संगीत की बारीकियाँ सिखाई। तत्पश्चात् अख़्तरीबाई अपनी वालिदा के साथ कलकत्ते का रुख़ किया और वहाँ जाकर संगीत के कई दिग्गजों जैसे कि मोहम्मद ख़ान, अब्दुल वाहीद ख़ान और सुताद झंडे ख़ान से संगीत की तालीम ली। १५ वर्ष की आयु में उन्होंने अपना पहला पब्लिक पर्फ़ॊमैन्स दिया। १९३४ में बिहार के भूकम्प प्रभावित लोगों की मदद के लिए आयोजित एक जल्से में उन्होंने अपना गायन प्रस्तुत किया जिसकी तारीफ़ ख़ुद सरोजिनी नायडू ने की थी। इस तारीफ़ का यह असर हुआ कि अख़्तरीबाई ने ग़ज़ल गायकी को बहुत गंभीरता से लिया और एक के बाद एक उनके गाये ग़ज़लों, दादरा और ठुमरी के रेकोर्ड्स जारी होते गए। तो क्यों न हम भी इन्हीं रेकॊर्ड्स में से एक यहाँ बजाएँ! ग़ज़ल तो हम सुन चुके हैं, आइए एक ठुमरी का आनंद लिया जाए।

ठुमरी - ना जा बलम परदेस (बेगम अख़्तर)


अख़्तरीबाई का ताल्लुख़ फ़िल्मी गीतों से भी रहा है। इस क्षेत्र में उनकी योगदान को हम फिर किसी दिन आप तक पहूँचाएँगे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के ज़रिए, यह हमारा आप से वादा है। १९४५ में अख़्तरीबाई ने बैरिस्टर इश्तिआक़ अहमद अब्बासी से विवाह किया और वो बन गईं बेगम अख़्तर। लेकिन विवाह के बाद पति की सख़्ती की वजह से बेगम अख़्तर लगभग पाँच वर्षों के लिए गा नहीं सकीं और आख़िरकार बीमार पड़ गईं। उनकी बिगड़ती हालत को देखकर चिकित्सक ने उन्हें दोबारा गाने का सलाह दी. और इस तरह से १९४९ को बेगम अख़्तर वापस रेकॊर्डिंग् स्टुडिओ पहुँचीं और लखनऊ रेडिओ स्टेशन के लिए तीन ग़ज़लें गाईं और जल्द ही स्वस्थ हो उठीं। फिर उन्होंने स्टेज पर गाने का सिलसिला जारी रखा और आजीवन यह सिलसिला जारी रहा। उम्र के साथ साथ उनकी आवाज़ भी और ज़्यादा मचियोर और पुर-असर होती चली गई, जिसमें गहराई और ज़्यदा होती गई। अपनी ख़ास अंदाज़ में वो ग़ज़लें और उप-शास्त्रीय संगीत की रचनाएँ गाया करतीं। जो भी ग़ज़लें वो गातीं, उनकी धुनें भी वो ख़ुद ही बनातीं, जो राग प्रधान हुआ करती थी. वैसे दूसरे संगीतकारों के लिए भी गाया, और ऐसे ही एक संगीतकार थे हमारे ख़य्याम साहब जिन्हें यह सुनहरा मौका मिला बेगम साहिबा से गवाने का। सुनिए ख़य्याम साहब के शब्दों में (सौजन्य: संगीत सरिता, विविध भारती):

"जब मैं छोटा था, उस वक़्त बेगम अख़्तर जी की गायी हुई ग़ज़लें सुना करता था। तो आप समझ सकते हैं कि जब मुझे उनके लिए ग़ज़लें कम्पोज़ करने का मौका मिला तो कैस लगा होगा! एक बार वो मुझे मिलीं तो कहने लगीं कि 'ख़य्याम साहब, मैं चाहती हूँ कि आप मेरे लिए ग़ज़लें कम्पोज़ करें, मैं आपके लिए गाना चाहती हूँ। तो पहले तो मैंने उनसे कहा कि मैं क्या आपके लिए ग़ज़लें बनाऊँगा, आप ने इतने अच्छे अच्छे ग़ज़लें गायी हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि 'नहीं, आप कम्पोज़ कीजिए, मैं ६ ग़ज़लों का एक पूरा ऐल्बम करना चाहती हूँ, आप बताइए कि जल्द से जल्द कब हम रिकोर्ड कर सकते हैं?'। मैंने कहा कि देखिए मुझे एक ग़ज़ल के लिए एक महीना चाहिए, ऐसे ६ ग़ज़लों के लिए ६ महीने लग जाएँगे। उन्होंने कहा 'ठीक है'। फिर मैंने ग़ज़लें कम्पोज़ करनी शुरु की। अब रिहर्सल का वक़्त आया, उस वक़्त उनकी उम्र भी हो गई थी, तो उनके गले से वो आवाज़, वो काम नहीं निकल के आ रहा था जैसा कि मैं चाह रहा था। लेकिन क्योंकि वो इतती बड़ी फ़नकारा हैं, मैं उनसे नहीं कह सकता था कि आप यहाँ ग़लत गा रही हैं, या आप से नहीं हो पा रहा है। लेकिन वो इतनी बड़ी कलाकार हैं कि वो इस बात को समझ गयीं कि उनसे ठीक से नहीं गाया जा रहा है। उन्होंने मुझसे कहा कि 'ख़य्याम साहब, मैं ठीक से गा नहीं पा रही हूँ'। हमने फिर मिल कर वो ग़ज़लें तैयार की, और ग़ज़लें रेकॊर्ड हो जाने के बाद बेग़म अख़्तर जी मुझसे कहने लगीं कि 'ख़य्याम साहब, आप ने मुझसे यह काम कैसे करवा लिया? मुझे तो लग ही नहीं रहा कि इतना अच्छा मैंने गाया है!' यह उनका बड़प्पन था।"

तो लीजिए दोस्तों, वादे के मुताबिक़ बेगम अख़्तर जी की आवाज़ में अब एक ऐसी ग़ज़ल की बारी जिसकी तर्ज़ ख़य्याम साहब ने ही बनाई है, "मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा...", पेश-ए-ख़िदमत है।

ग़ज़ल: मेरे हमनफ़स मेरे हमनवा (बेगम अख़्तर)


अहमदाबाद में बेगम अख़्तर ने अपना अंतिम कॊन्सर्ट प्रस्तुत करते वक़्त उनकी तबियत ख़राब होने लगी और उन्हें उसी वक़्त अस्पताल पहुँचाया गया। ३० अक्तुबर १९७४ को ६० वर्ष की आयु में उन्होंने अपनी सहेली नीलम गमादिया की बाहों में दम तोड़ा, जिनकी निमंत्रण से ही बेगम अख़्तर अहमदाबाद आई थीं अपने जीवन का अंतिम पर्फ़ॊर्मैन्स देने के लिए। बेगम अख़्तर को लोगों का इतना प्यार मिला है कि वह प्यार आज भी क़ायम है, उनके जाने के चार दशक बाद भी उनकी गायकी के कायम आज भी करोड़ों में मौजूद हैं। पद्मश्री, संगीत नाटक अकादमी और मरणोपरांत पद्मभूषण से सम्मानित बेगम अख़्तर संगीताकाश की एक चमकता सितारा हैं जिनकी चमक युगों युगों तक बरकरार रहेगी।

तो दोस्तों, यह था आज का 'सुर-संगम', हमें आशा है आपको पसंद आया होगा। इस स्तंभ के लिए आप अपने विचार, सुझाव और आलेख हमें oig@hindyugm.com के पते पर लिख भेज सकते हैं। शाम ६:३० बजे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साथ हम फिर हाज़िर होंगे, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, नमस्कार!

प्रस्तुति-सुजॉय चटर्जी



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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2 श्रोताओं का कहना है :

भारतीय नागरिक - Indian Citizen का कहना है कि -

आप बहुत अच्छा काम कर हैं जिसकी तारीफ कुछ शब्दों में करना सम्भव ही नहीं..

Sudoku Puzzles का कहना है कि -

The classic mind games existed decades ago, who still remembers well now? I don't want to talk about their appeal but about the value, they bring to players. In addition to being highly entertaining, mind games also help us passively train our brains, and I think that's very helpful. One of those classic games is Sudoku, currently, sudoku is being collected by Sudoku Puzzles and is completely free for everyone. Why don't we try to experience and evaluate this game when the benefits it brings are undeniable?

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