Saturday, March 27, 2010

भूल गया सब कुछ .... याद रहे मगर बख्शी साहब के लिखे सरल सहज गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 386/2010/86

नंद बक्शी उन गीतकारों मे से हैं जिन्होने संगीतकारों की कई पीढ़ियों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए हिट काम किया है। जहाँ एक तरफ़ सचिन देव बर्मन के साथ काम किया है, वहीं उनके बेटे राहुल देव बर्मन के साथ भी एक लम्बी पारी खेली है। कल्याणजी-आनंदजी के धुनों पर भी गानें लिखे हैं और विजु शाह के भी। चित्रगुप्त - आनंद मिलिंद, श्रवण - संजीव दर्शन आदि। फ़िल्म 'देवर' में संगीतकार रोशन के साथ भी काम किया है, और रोशन साहब के बेटे राजेश रोशन के साथ तो बहुत सारी फ़िल्मों में उनका साथ रहा। आज हम आपको बक्शी साहब का लिखा और राजेश रोशन का स्वरबद्ध किया हुआ एक गीत सुनवाना चाहेंगे। इस गीत के बारे में ख़ुद आनंद बक्शी साहब से ही जानिए, जो उन्होने विविध भारती के जयमाला कार्यक्रम में कहे थे: "मरहूम रोशन मेरे मेहरबान दोस्तों में से थे। उनके साथ मैंने काफ़ी गीत लिखे हैं। मुझे ख़ुशी है कि उनका बेटा राजेश उनके नाम को रोशन कर रहा है। राजेश रोशन के साथ मुझे फ़िल्म 'जुली' में काम करने का मौका मिला। तो फ़िल्म 'जुली' का गीत, जिसे लता और किशोर ने गाया है, आप इसे सुनिए।" दोस्तों, हम ज़रूर सुनेंगे यह गीत, लेकिन उससे पहले आपको बता दें कि 'जुली' फ़िल्म का यह युगल गीत लता-किशोर के सदाबहार युगल गीतों में शामिल किया जाता है। फ़िल्म के चरित्रों के मुताबिक़ थोड़ा सा वेस्टर्ण टच इस गीत को दिया गया है। थोड़ा सा नशीलापन, थोड़ी सी सेन्सुयलिटी का स्वाद इस गीत में मिलता है। यह वह दौर था जब 'आइ लव यू' पर गानें बनने लगे थे। आज वह चलन ख़त्म हो गया है, मुझे याद नहीं पिछली बार किस फ़िल्मी गीत में ये शब्द आए थे। कुछ चर्चित गीत जिनमें 'आइ लव यू' का इस्तेमाल हुआ है, वे हैं "मेरी सोनी मेरी तमन्ना" (यादों की बारात), "काटे नहीं कटते दिन ये रात" (मिस्टर इण्डिया), "इलु इलु" (सौदागर), "अंग्रेज़ी में कहते हैं" (ख़ुद्दार), वगेरह। हाँ, याद आया, आख़िरी बार फ़िल्म 'मुझसे दोस्ती करोगे' में सोनू निगम और अलिशा चिनॊय ने गाया था "ओ माइ डारलिंग् आइ लव यू"!

आनंद बक्शी साहब के करीयर संबंधित जानकारी का सिलसिला आगे बढ़ाते हुए आज हम आपको बताना चाहेंगे उन ४० गीतों के बारे में जो नॊमिनेट हुए थे फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए। ये हैं वो गीत:

वर्ष - नामांकन - पुरस्कार
1967 सावन का महीना (मिलन)
1969 कोरा काग़ज़ था (आराधना) ; बड़ी मस्तानी है (जीने की राह)
1970 बिंदिया चमकेगी (दो रास्ते)
1971 ना कोई उमंग है (कटी पतंग)
1972 चिंगारी कोई भड़के (अमर प्रेम)
1973 हम तुम एक कमरे में (बॊबी); मैं शायर तो नहीं (बॊबी)
1974 गाड़ी बुला रही है (दोस्त)
1975 आएगी जरूर चिट्ठी (दुल्हन); महबूबा महबूबा (शोले)
1976 मेरे नैना सावन भादों (महबूबा)
1977 परदा है परदा (अमर अक्बर ऐंथनी)
1978 मैं तुल्सी तेरे आंगन की (शीर्षक गीत); आदमी मुसाफ़िर है (अपनापन) आदमी मुसाफ़िर है (अपनापन)
1979 सावन के झूले पड़े (जुर्माना); डफ़ली वाले (सरगम)
1980 शीशा हो या दिल हो (आशा); ओम शांति ओम (कर्ज़); दर्द-ए-दिल (कर्ज़); बने चाहे दुश्मन ज़माना (दोस्ताना)
1981 सोलह बरस की (एक दूजे के लिए); तेरे मेरे बीच में (एक दूजे के लिए); याद आ रही है (लव स्टोरी) तेरे मेरे बीच में (एक दूजे के लिए);
1983 जब हम जवां होंगे (बेताब)
1984 सोहनी चनाब दे किनारे (सोहनी महिवाल)
1985 ज़िंदगी हर कदम (मेरी जंग)
1989 लगी आज सावन की (चांदनी)
1993 चोली के पीछे क्या है (खलनायक); जादू तेरी नज़र (डर)
1994 तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त (मोहरा)
1995 तूझे देखा तो यह जाना सनम (दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे) तूझे देखा...
1997 भोली सी सूरत (दिल तो पागल है); आइ लव माइ इण्डिया (परदेस); ज़रा तसवीर से तू (परदेस)
1999 ताल से ताल मिला (ताल); इश्क़ बिना (ताल) इश्क़ बिना (ताल)
2000 हम को हम ही से चुरा लो (मोहब्बतें)
2001 उड़ जा काले कावां (ग़दर एक प्रेम कथा)




क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी ने संगीतकार रोशन के लिए पहली बार फ़िल्म 'सी.आइ.डी गर्ल' में गीत लिखे थे। उसके बाद आई थी फ़िल्म 'देवर'।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में शब्द है -"जिंदगी" गीत बताएं -३ अंक.
2. अमिताभ बच्चन प्रमुख भूमिका में थे इस फिल्म में, नाम बताएं - २ अंक.
3. कौन थे इस फिल्म के निर्देशक -२ अंक.
4. एल पी के संगीत निर्देशन में किस गायक ने इसे गाया था -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी एकदम सही पहचाना गीत, पाबला जी जो आपने जवाब दिया वो तो सवाल में ही है :), अवध जी सही जवाब दिया, आपको जो दो गीत हैं वो हर कसौटी पर खरे नहीं उतरते, गौर कीजिये. पदम सिंह जी आपका अंदाज़ खूब भाया जवाब देने का. अनीता सिंह जी आपका खाता खुला है २ अंकों से बधाई, अनुपम जी लेट भले हुए, पर उपस्तिथि जरूर दर्ज की आपने शुक्रिया

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: मैं एक भारतीय



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में शरद जोशी की कहानी "बुद्धिजीवियों का दायित्व" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक कहानी "मैं एक भारतीय", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "मैं एक भारतीय" का कुल प्रसारण समय 3 मिनट 15 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

"मैं एक भारतीय" का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



पतझड़ में पत्ते गिरैं, मन आकुल हो जाय। गिरा हुआ पत्ता कभी, फ़िर वापस ना आय।।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

कमलाकन्नन ने उनकी बात समझ कर उनसे बात करना शुरू किया।
(अनुराग शर्मा की "मैं एक भारतीय" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Sixty Sixth Story, Main Ek Bhartiya: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2010/11. Voice: Anurag Sharma

Friday, March 26, 2010

बागों में बहार आई, होंठों पे पुकार आई...जब बख्शी साहब ने आवाज़ मिलाई लता के साथ इस युगल गीत में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 385/2010/85

'मैंशायर तो नहीं', आनंद बक्शी के लिखे गीतों पर आधारित इस शृंखला में आज हम सुनेंगे ख़ुद बक्शी साहब की ही आवाज़ में एक गीत, लेकिन उस गीत के ज़िक्र से पहले हम आपको उनके जीवन से जुड़ी कुछ अहम तारीख़ों से रु-ब-रु करवाना चाहेंगे। ये हैं वो तारीख़ें -
माँ का निधन - १९४०
कैम्ब्रिज कॊलेज, रावलपिण्डी से निवृत्ति - ६ मार्च १९४३
'रॊयल इण्डियन नेवी' में भर्ती - १२ जुलाई १९४४
'रॊयल इण्डियन नेवी' से मुक्ति - ५ अप्रैल १९४६
देश विभाजन के बाद रावलपिण्डी से पलायन - २ अक्तुबर १९४७
'कॊर्प्स ऒफ़ सिग्नल्स' में भर्ती - १५ अक्तुबर १९४७
'कॊर्प्स ऒफ़ सिग्नल्स' से मुक्ति - १२ अप्रैल १९५०
बम्बई में पहली बार काम की तलाश में आगमन - १९५१
ई.एम.ई (The Corps of Electrical and Mechanical Engineers) में भर्ती - १६ फ़रवरी १९५१
कमला मोहन से विवाह - २ अक्तुबर १९५४
ई.एम.ई से मुक्ति - २७ अगस्त १९५६
बम्बई में दूसरी बार आगमन - अक्तुबर १९५६


आनंद बक्शी के दादाजी सुघरमल वैद बक्शी रावलपिण्डी में ब्रिटिश राज के दौरान सुपरिंटेंडेण्ट ऒफ़ पुलिस थे। उनके पिता मोहन लाल वैद बक्शी रावलपिण्डी में एक बैंक मैनेजर थे, और जिन्होने देश विभाजन के बाद इण्डियन आर्मी को सेवा प्रदान की। आनंद बक्शी साहब को घर में प्यार से 'नंद' और 'नंदो' कहकर परिवार वाले पुकारा करते थे। उनका पूरा नाम था आनंद प्रकाश। नेवी में बतौर सोलजर उनका कोड नाम था 'आज़ाद'। आनंद बक्शी ने केवल १० वर्ष की आयु में अपनी माँ सुमित्रा को खो दिया और अपनी पूरी ज़िंदगी मातृ प्रेम के पिपासु रह गए। उनकी सौतेली माँ ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। इस तरह से आनंद अपनी दादीमाँ के और करीब हो गए। आनंद बक्शी साहब ने अपनी माँ के प्यार को सलाम करते हुए कई गानें भी लिखे जैसे कि "माँ तुझे सलाम" (खलनायक), "माँ मुझे अपने आंचल में छुपा ले" (छोटा भाई), "तू कितनी भोली है" (राजा और रंक) और "मैंने माँ को देखा है" (मस्ताना)। दोस्तों, ये तो थी कुछ जानकारी आनंद बक्शी साहब के व्यक्तिगत जीवन से जुड़ी हुई। और आइए अब बात करते हैं आज के गाने की। जैसा कि शुरु में ही हमने बताया था कि आज गूंजने वाली है बक्शी साहब की ही आवाज़, तो आप ने अंदाज़ा लगा लिया होगा कि हम कौन सा गीत बजा रहे हैं। जी हाँ, फ़िल्म 'मोम की गुड़िया' से लता जी के साथ उनका गाया हुआ "बाग़ों में बहार आई, होठों पे पुकार आई, आजा आजा आजा आजा मेरी रानी"।

'मोम की गुड़िया' सन् १९७२ की फ़िल्म थी। यह मोहन कुमार की फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे रतन चोपड़ा और तनुजा। यह कम बजट की फ़िल्म थी, जिसमें संगीतकार थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यही वह फ़िल्म थी जिसमें पहली बार आनंद बक्शी को गीत गाने का मौका मिला था। हुआ युं कि एक बार मोहन कुमार ने बक्शी साहब को एक चैरिटी फ़ंक्शन में गाते हुए सुन लिया था। उसके बाद उन्होने एल.पी को राज़ी करवाया कि वो कम से कम एक गीत बक्शी साहब से गवाए 'मोम की गुड़िया' में। और इस तरह से बक्शी साहब ने एक एकल गीत गाया "मैं ढूंढ रहा था सपनों में"। यह गीत सब को इतनी पसंद आई कि मोहन कुमार ने सब को आश्चर्य चकित करते हुए घोषणा कर दी कि आनंद बक्शी एक डुएट भी गाएँगे लता मंगेशकर के साथ। और इस तरह से बनी "बाग़ों में बहार आई"। इस गीत के रिकार्डिंग् के बाद बक्शी साहब ने लता जी को फूलों का एक गुलदस्ता उपहार में दिया उनके साथ युगल गीत गाने के लिए। फ़िल्म के ना चलने से ये गानें भी ज़्यादा सुनाई नहीं दिए, लेकिन इस युगल गीत को आनंद बक्शी पर केन्द्रित हर कार्यक्रम में शामिल किया जाता है। तो आइए आनंद बक्शी के लिखे इस गीत में हम उनके शब्दों के साथ साथ उनकी अनोखी आवाज़ का भी मज़ा लें।



क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी ने १९६६ की फ़िल्म 'पिकनिक' में एक भिखारी की भूमिका अदा की थी।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. फिल्म में नायिका ने नाम पर फिल्म का नाम था, और ये फिल्म का शीर्षक गीत है जिसमें नायिका का नाम बहुत बार आता है, गीत बताएं-३ अंक.
2. इस युगल गीत में लता के साथ किस गायक की आवाज़ है - २ अंक.
3. फिल्म "देवर" में बख्शी साहब ने गीत लिखे थे, उस फिल्म को इस फिल्म के साथ आप कैसे जोड़ सकते हैं-२ अंक.
4. अपने ज़माने की इस चर्चित प्रेम कहानी में किस अभिनेत्री ने प्रमुख भूमिका निभाई थी -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी लगातार सही जवाबों के छक्के लगाकर ६१ अंकों पर आ चुकी हैं, शरद जी हैं ७८ अंकों पर, अवध जी ४४ तो पदम सिंह जी छंलाग लगा कर ३४ अंकों पर आ गए हैं, पाबला जी पिछले कुछ दिनों से हजारी लगा कर ८ अंकों पर तो आ गए हैं पर अभी अनुपम जी (१०) से पीछे हैं, हाँ, रोहित जी (७) और संगीता जी (४) से जरूर आगे हैं अब.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, March 25, 2010

सोच के ये गगन झूमे....लता और मन्ना दा का गाया एक बेशकीमती गीत बख्शी साहब की कलम से



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 384/2010/84

६०के दशक के अंतिम साल, यानी कि १९६९ में एक फ़िल्म आई थी 'ज्योति'। फ़िल्म कब आई कब गई किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। लेकिन इस फ़िल्म में कम से कम एक गीत ऐसा था जो आज तक हमें इसे याद करने पर मजबूर कर देता है। आनंद बक्शी का लिखा, सचिन देव बर्मन का संगीतबद्ध किया, और लता मंगेशकर व मन्ना डे का गाया वह गीत है "सोच के ये गगन झूमे, अभी चांद निकल आएगा, झिलमिल चमकेंगे तारे"। जहाँ एक तरफ़ लता जी के गाए इन बोलों में एक आशावादी भाव सुनाई देता है, वहीं अगले ही लाइन में मन्ना डे साहब गाते हैं कि "चांद जब निकल आएगा, देखेगा ना कोई गगन को, चांद को ही देखेंगे सारे", जिसमें थोड़ा सा अफ़सोस ज़ाहिर होता है। चांद और गगन के द्वारा अन्योक्ति अलंकार का प्रयोग हुआ है। अगर कहानी मालूम ना हो तो इसका अलग अलग अर्थ निकाला जा सकता है। फ़िल्म 'ज्योति' की कहानी का निचोड़ भी शायद इन्ही शब्दों से व्यक्त किया जा सकता हो। ख़ैर, बस यही कहेंगे कि यह एक बेहद उम्दा गीत है बक्शी साहब का लिखा हुआ। फ़िल्म के ना चलने से इस गीत की गूंज बहुत ज़्यादा सुनाई नहीं दी, लेकिन अच्छे गीतों के क़द्रदान आज भी इस गीत को भूले नही हैं। आनंद बक्शी पर केन्द्रित 'मैं शायर तो नहीं' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज इसी गीत की बारी। चन्द्रा मित्र निर्मित इस फ़िल्म को निर्देशित किया था दुलाल गुहा ने और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे अभि भट्टाचार्य, तरुन बोस, संजीव कुमार, निवेदिता, अरुणा ईरानी व सारिका प्रमुख। प्रस्तुत गीत संजीव कुमार और निवेदिता पर फ़िल्माया गया है।

आनंद बक्शी साहब पर केन्द्रित इस शृंखला में हम हर रोज़ उनसे जुड़ी कुछ बातें आप तक पहुँचा रहे हैं, इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आज हम लेकर आए हैं विविध भरती के 'जयमाला' कार्यक्रम का एक अंश। क्योंकि शुरुआती दिनों में बक्शी साहब का फ़ौज से गहरा नाता रहा है, तो जब वे 'जयमाला' कार्यक्रम में फ़ौजी भाइयों से मुख़ातिब हुए, तो उन्होने अपने दिल के जज़्बात फ़ौजी भाइयों के लिए कुछ इस तरह से व्यक्त किया था - "मेरे प्यारे फ़ौजी भाइयों, हम बहुत पुराने साथी हैं। आज ज़िंदगी ने मुझे बहुत दूर ला फेंका है, पर मैं आप को भूला नहीं हूँ। उम्मीद है कि आप भी मुझे याद करते होंगे। और अगर आप भूल गए हों तो आपको याद दिला दूँ कि मैं चार साल 'सिग्नल्स' में 'टेलीफ़ोन ऒपरेटर' रहा हूँ, और इतना ही अरसा 'ई.एम.ई कोर' में ईलेक्ट्रिशियन रहा हूँ। वहाँ भी मैं आप लोगों के दिल बहलाता था। मुझे वो दिन याद हैं जब सर्द रातों को पहाड़ों के नीचे बैठ कर लाउड स्पीकर में गानें सुना करता था और सोचा करता था कि क्या ऐसा भी दिन आएगा कि जब लाउड स्पीकर के नीचे बैठ कर लोग मेरे गीत सुनेंगे! बेशक़ वह दिन आया, लेकिन एक बात कहूँ आप से? वहाँ आप के साथ चैन और सुकून था, और यहाँ? ख़ैर छोड़िए!" बक्शी साहब की बातें जारी रहेंगी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आगे भी, फ़िल्हाल सुनते हैं "सोच के ये गगन झूमे"। इस गीत की धुन को सुन कर शायद आपको एक और गीत की धुन याद आ जाए। राजेश रोशन द्वारा संगीतबद्ध 'आख़िर क्यों' फ़िल्म के गीत "एक अंधेरा लाख सितारे" की धुन काफ़ी मिलती जुलती है इस गीत से जिस जगह लता जी गाती हैं "झिलमिल चमकेंगे तारे"। कहिए, ठीक कहा ना मैंने!



क्या आप जानते हैं...
कि 'काग़ज़ के फूल' फ़िल्म के लिए सचिन देव बर्मन ने पहले आनंद बक्शी का नाम प्रोपोज़ किया था। पर गुरु दत्त साहब को एक बड़े नाम की तलाश थी। इसलिए उन्होने बक्शी साहब का नाम गवारा नहीं किया।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. गीत में नायक नायिका "राजा- रानी" कहकर संबोधित कर रहे हैं एक दूजे को, गीत बताएं-३ अंक.
2. लता जी के साथ जिस गायक ने अपनी आवाज़ मिलाई है इस गीत में वो इस फिल्म में पहली बार बतौर गायक दुनिया को सुनाई दिए थे, किसकी बात कर रहे हैं हम - २ अंक.
3. तनूजा और रतन चोपड़ा अभिनीत इस फिल्म के निर्देशक कौन है -२ अंक.
4. कौन हैं संगीतकार जोड़ी -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शुक्रिया इंदु जी, इस गीत ने आपको इतने करीब से स्पर्श किया ये जानकार बेहद खुशी हुई. शरद जी, पदम जी और रोमेंद्र जी आप सब को भी बधाई. इंदु जी आपका विशेष शुक्रिया, आपने भूल सुधार की हमारी, पदम् जी आपको ३ अंक जरूर मिलेंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, March 24, 2010

कुछ तो लोग कहेंगें...बख्शी साहब के मिजाज़ को भी बखूबी उभारता है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 383/2010/83

नंद बक्शी साहब के लिखे गीतों पर आधारित इस लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं' को आगे बढ़ाते हुए हम आ पहुँचे थे १९६७ की फ़िल्म 'मिलन' पर। इसके दो साल बाद, यानी कि १९६९ में जब शक्ति सामंत ने एक बड़ी ही नई क़िस्म की फ़िल्म 'आराधना' बनाने की सोची तो उसमें उन्होने हर पक्ष के लिए नए नए प्रतिभाओं को लेना चाहा। बतौर नायक राजेश खन्ना और बतौर नायिका शर्मीला टैगोर को चुना गया। अब हुआ युं कि शुरुआत में यह तय हुआ था कि रफ़ी साहब बनेंगे राजेश खन्ना की आवाज़। लेकिन उन दिनों रफ़ी साहब एक लम्बी विदेश यात्रा पर गए हुए थे। इसलिए शक्तिदा ने किशोर कुमार का नाम सुझाया। उन दिनो किशोर देव आनंद के लिए गाया करते थे, इसलिए सचिनदा पूरी तरह से शंका-मुक्त नहीं थे कि किशोर गाने के लिए राज़ी हो जाएंगे। शक्ति दा ने किशोर को फ़ोन किया, जो उन दिनों उनके दोस्त बन चुके थे बड़े भाई अशोक कुमार के ज़रिए। किशोर ने जब गाने से इनकार कर दिया तो शक्तिदा ने कहा, "नखरे क्युँ कर रहा है, हो सकता है कि यह तुम्हारे लिए कुछ अच्छा हो जाए"। आख़िर में किशोर राज़ी हो गए। शुरु शुरु में सचिनदा बतौर गीतकार शैलेन्द्र को लेना चाह रहे थे, लेकिन यहाँ भी शक्तिदा ने सुझाव दिया कि क्युँ ना सचिनदा की जोड़ी उभरते गीतकार आनंद बक्शी के साथ बनाई जाए। और यहाँ भी उनका सुझाव रंग लाया। जब तक रफ़ी साहब अपनी विदेश यात्रा से लौटते, इस फ़िल्म के करीब करीब सभी गाने रिकार्ड हो चुके थे सिवाय दो गीतों के, जिन्हे फिर रफ़ी साहब ने गाया। इस तरह से आनंद बक्शी को पहली बार सचिन देव बर्मन के साथ काम करने का मौका मिला। 'आराधना' के बाद आई शक्ति दा की अगली फ़िल्म 'कटी पतंग' जिसमें आनंद बक्शी की जोड़ी बनी सचिन दा के बेटे पंचम यानी राहुल देव बर्मन के साथ, और इस फ़िल्म ने भी सफलता के कई झंडे गाढ़े। 'कटी पतंग' की सफलता के जशन अभी ख़तम भी नहीं हुआ था कि शक्तिदा की अगली फ़िल्म 'अमर प्रेम' आ गयी १९७१ में और एक बार फिर से वही कामयाबी की कहानी दोहरायी गई। आनंद बक्शी, राहूल देव बर्मन और किशोर कुमार की अच्छी-ख़ासी तिकड़ी बन चुकी थी और इस फ़िल्म के गाने भी ऐसे गूंजे कि अब तक उनकी गूंज सुनाई देती है। तो चलिए, आज हम 'अमर प्रेम' से सुनते हैं "कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना"।

'अमर प्रेम' की कहानी आधारित थी विभुति भुशण बंदोपाध्याय की उपन्यास पर। यह फ़िल्म १९७० की अरबिंदो मुखर्जी की बंगला फ़िल्म 'निशिपद्म' का हिंदी रीमेक था। एक अच्छे घर के नौजवान लड़के का एक वेश्या के प्रति पवित्र प्रेम की कहानी है 'अमर प्रेम' जो मानवीय मूल्यों और संबंधों की एक बार फिर से मूल्यांकन करने पर हमें मजबूर कर देती है। इस गीत में ही जैसे कहा गया है कि लोग तो बातें करते ही रहेंगे, उनकी तरफ़ ध्यान देकर हम अपनी ज़िंदगी क्यों ख़राब करें। अगर हमें लगता है कि जो हम कर रहे हैं वह सही है, तो फिर ज़माने की बातों से क्या डरना! आनंद बक्शी साहब के स्टाइल के मुताबिक़ उन्होने बड़े ही बोलचाल वाली भाषा का प्रयोग करते हुए इस गीत के अल्फ़ाज़ लिखे हैं। "कुछ रीत जगत की ऐसी है हर एक सुबह की शाम हुई, तू कौन है तेरा नाम है क्या सीता भी यहाँ बदनाम हुई, फिर क्यों संसार की बातों से भीग गए तेरे नैना"। अगर ऐसे गीत लिखने के बाद भी लोग बक्शी साहब की समालोचना करते हैं तो वो बेशक़ करते रहें, उनके लिए ख़ुद बक्शी साहब ही कह गए हैं कि "कुछ तो लोग कहेंगे"। ख़ैर, अब इस गीत के संदर्भ में हम रुख़ करेंगे विविध भारती पर प्रसारित प्यारेलाल जी के 'उजाले उनकी यादों के' कार्यक्रम की ओर, जिसमें उन्होने आनंद बक्शी साहब के बारे में बहुत सी बातें की थी और इस गीत के बारे में कुछ ऐसे विचार व्यक्त किए थे। प्यारेलाल जी से बातचीत कर रहे हैं कमल शर्मा।

प्र: प्यारे जी, क्योंकि बक्शी साहब की बात चल रही है, उनका लिखा कोई गाना जो आपको बहुत ज़्यादा अपील करता हो, म्युज़िक के पॊयण्ट ऒफ़ विउ से भी और कहानी के तरफ़ से भी।

उ: उनका तो देखिए, हर गाने में कुछ ना कुछ बात होती ही है। लेकिन जो पंचम का गाना है "कुछ तो लोग कहेंगे", मैं समझता हूँ बहुत ही बढ़िया बात कही है उन्होने। यह ऐसा बनाया है कि जैसे हम बात करते हैं, और पंचम ने भी क्या ट्युन बनाई, "कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना, छोड़ो बेकार की बातं में कहीं बीत ना जाए रैना", 'beautiful things'!

प्र: जीवन के दर्शन को बड़े आसान से शब्दों में...

उ: बिल्कुल! उसको देखिए ना "कुछ तो लोग कहेंगे", ज़रूर बक्शी जी ने पहले कहा होगा, तो उसको कैसे (गीत को गाते हुए), ये सब चीज़ें जो हैं ना, अंडर करण्ट चीज़ होती है, जो लोग समझते हैं, नहीं समझते हैं, गायकी समझिए ४०% काम करता है संगीतकार का, हम लोग काम जो करते हैं यह पूरा टीम वर्क है, ये लोग नहीं समझते हैं.




क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी को फ़िल्म 'अमर प्रेम' के "चिंगारी कोई भड़के" गीत के लिए फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया था, लेकिन उस साल यह पुरस्कार गया हसरत जयपुरी की झोली में फ़िल्म 'अंदाज़' के गीत "ज़िंदगी एक सफ़र है सुहाना" के लिए।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में ये शब्द एक से अधिक बार आता है अलग अलग सन्दर्भों में -"गगन", गीत बताएं-३ अंक.
2. संजीव कुमार और निवेदिता पर फ़िल्माया गाया था ये गीत, संगीतकार बताएं- २ अंक.
3. लता मंगेशकर के साथ किस गायक की आवाज़ है इस गीत में -२ अंक.
4. फिल्म का नाम बताएं -३ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी बधाई, पाबला जी और शरद जी भी दो अंकों का इजाफा कर गए हैं खाते में, पर पदम सिंह जी चूक गए, रोमेंद्र सागर और कृष्ण मुरारी जी, आप दोनों का स्वागत है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है.. ग़ालिब के ज़ख्मों को अपनी आवाज़ से उभार रही हैं मरियम



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७६

र कड़ी में हम ग़ालिब से जुड़ी कुछ नई और अनजानी बातें आपके साथ बाँटते हैं। तो इसी क्रम में आज हाज़िर है ग़ालिब के गरीबखाने यानि कि ग़ालिब के निवास-स्थल की जानकारी। (अनिल कान्त के ब्लाग "मिर्ज़ा ग़ालिब" से साभार):

ग़ालिब का यूँ तो असल वतन आगरा था लेकिन किशोरावस्था में ही वे दिल्ली आ गये थे । कुछ दिन वे ससुराल में रहे फिर अलग रहने लगे । चाहे ससुराल में या अलग, उनकी जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा दिल्ली की 'गली क़ासिमजान' में बीता । सच पूंछें तो इस गली के चप्पे-चप्पे से उनका अधिकांश जीवन जुड़ा हुआ था । वे पचास-पचपन वर्ष दिल्ली में रहें, जिसका अधिकांश भाग इसी गली में बीता । यह गली चाँदनी चौक से मुड़कर बल्लीमारान के अन्दर जाने पर शम्शी दवाख़ाना और हकीम शरीफ़खाँ की मस्जिद के बीच पड़ती है । इसी गली में ग़ालिब के चाचा का ब्याह क़ासिमजान (जिनके नाम पर यह गली है ।) के भाई आरिफ़जान की बेटी से हुआ था और बाद में ग़ालिब ख़ुद दूल्हा बने आरिफ़जान की पोती और लोहारू के नवाब की भतीजी, उमराव बेगम को ब्याहने इसी गली में आये । साठ साल बाद जब बूढ़े शायर का जनाज़ा निकला तो इसी गली से गुज़रा ।

जनाब हमीद अहमदखाँ ने ठीक ही लिखा है :
"गली के परले सिरे से चलकर इस सिरे तक आइए तो गोया आपने ग़ालिब के शबाब से लेकर वफ़ात तक की तमाम मंजिलें तय कर लीं ।"


इन बातों से मालूम होता है कि ग़ालिब वास्तव में आगरा के रहने वाले थे। तो क्यों ना हम आगरा की गलियों का मुआयना कर लें, क्या पता उन गलियों में हमें गज़ल कहते हुए ग़ालिब मिल जाएँ। ("मिर्ज़ा ग़ालिब का घर हुआ ग़ायब" पोस्ट से साभार):

शहर के इतिहासकार और वयोवृद्ध बताते हैं कि कालां महल इलाक़े में एक बड़ी हवेली हुआ करती थी, जहाँ सन् १७९७ में ग़ालिब का जन्म हुआ था। लेकिन कालां महल इलाक़े में कोई भी उस जगह के बारे में पक्के तौर पर नहीं कह सकता, जहाँ मियाँ ग़ालिब का जन्म हुआ था। हालाँकि एक इमारत है, जो ग़ालिब की हवेली की ली गई एक बहुत पुरानी तस्वीर से मिलती-जुलती है। बचपन में मुंशी शिव नारायण को ग़ालिब द्वारा लिखे गए एक पत्र से उनकी हवेली के बारे में जानकारी मिलती है, जिसमें उन्होंने अपने घर के बारे में काफ़ी कुछ लिखा है। उन्हीं को लिखे एक अन्य ख़त में उन्होंने आर्थिक तंगी के चलते पैतृक सम्पत्ति छोड़ने की इच्छा का भी उल्लेख किया है। उन्होंने अपनी सम्पत्ति १८५७ के गदर के आस-पास सेठ लक्ष्मीचंद को बेच दी थी।

अब एक स्कूल ट्रस्ट उस सम्पत्ति का मालिक है, लेकिन ट्रस्ट प्रबंधन के मुताबिक़ उस सम्पत्ति का ग़ालिब से कुछ लेना-देना नहीं है। पुराने रिकॉर्ड के मुताबिक़ वहाँ जो ख़ूबसूरत बग़ीचा था, वह कब का ग़ायब हो चुका है और अब वहाँ एक बड़ा सा पानी का टेंक है। इमारत के वर्तमान मालिक के हिसाब से ग़ालिब का उस भवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। हालाँकि तथ्य कुछ और ही बयान करते हैं। १९५७ में ग़ालिब की सालगिरह के मौक़े पर मशहूर उर्दू शायद मैकश अकबराबादी की एक तस्वीर है, जो प्रधानाचार्य के वर्तमान दफ़्तर के ठीक सामने ली गई है।

ग़ालिब से जुड़े विभिन्न कार्यक्रम १९६० तक बाक़ायदा वहीं आयोजित किए जाते रहे हैं। ट्रस्ट द्वारा बड़े पैमाने पर की गई तोड़-फोड़ और निर्माण के चलते अब भवन काफ़ी बदल चुका है। विख्यात शायर फिराक़ गोरखपुरी और अभिनेता फ़ारुक़ शेख़, जिन्होंने ग़ालिब पर एक फ़िल्म का निर्माण किया था, भी इस इमारत को देखने आए थे। ऐतिहासिक तथ्य पुख़्ता तौर पर इशारा करते हैं कि वही भवन मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्मस्थल है, जहाँ आज एक गर्ल्स इंटर कॉलेज चल रहा है। हालाँकि इस बारे में अभी और शोध की ज़रूरत है कि क्या वही इमारत ग़ालिब की पुश्तैनी हवेली है।

हद ये है कि हमारे देश के सबसे बड़े शायर का घर वीरानियों में गुम है... वीरानियाँ क्या. हमें तो यह भी नहीं पता कि ग़ालिब जब आगरा में थे तो कहाँ रहा करते थे। चलिए... इस बात का शुक्र है कि भले हीं ग़ालिब के निशान ज़मीन से मिट गए हों, लेकिन लोगों के दिलों में जो स्थान ग़ालिब ने बनाया है, उसे कोई मिटा नहीं सकता.. वक़्त के साथ वे निशान और भी पुख्ता होते जा रहे हैं। इसी बात पर क्यों न हम ग़ालिब के चंद शेरों पर नज़र दौड़ा लें:

छोड़ूँगा मैं न उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़िर कहे बग़ैर

"ग़ालिब" न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर


पिछली महफ़िल में हमने ग़ालिब के जो ख़त पेश किए थे, उनमें ग़म और दु:खों की भरमार थी। माहौल को बदलते हुए आज हम वे दो ख़त पेश कर रहे हैं, जिनसे ग़ालिब का मज़ाकिया लहजा झलकता है। तो ये रहे दो ख़त:

१) ग़ालिब ने अपने एक दोस्त को रमज़ान के महीने में ख़त लिखा। उसमें लिखते हैं "धूप बहुत तेज़ है। रोज़ा रखता हूँ मगर रोज़े को बहलाता रहता हूँ। कभी पानी पी लिया, कभी हुक़्क़ा पी लिया,कभी कोई टुकड़ा रोटी का खा लिया। यहाँ के लोग अजब फ़हम र्खते हैं, मैं तो रोज़ा बहलाता हूँ और ये साहब फ़रमाते हैं के तू रोज़ा नहीं रखता। ये नहीं समझते के रोज़ा न रखना और चीज़ है और रोज़ा बहलाना और बात है"।

२) एक दोस्त को दिसम्बर १८५८ की आखरी तारीखों में ख़त लिखा। उस दोस्त ने उसका जवाब जनवरी १८५९ की पहली या दूसरी तारीख को लिख भेजा। उस खत के जवाब में उस दोस्त को ग़ालिब ख़त लिखते हैं। "देखो साहब ये बातें हमको पसन्द नहीं। १८५८ के ख़त का जवाब १८५९ में भेजते हैं और मज़ा ये के जब तुमसे कहा जाएगा तो ये कहोगे के मैंने दूसरे ही दिन जवाब लिखा है"।

अब हुआ ना माहौल कुछ खुशनुमा। बदले माहौल में निस्संदेह हीं आपमें अब गज़ल सुनने की तलब जाग चुकी होगी। गज़ल तो हम सुना देंगे, लेकिन क्या करें ग़ालिब की लेखनी दु:खों से ज्यादा दूर नहीं रह पाती, इसलिए अगर यह गज़ल सुनकर आप भावुक हो गएँ तो इसमें हमारी कोई गलती न होगी। तो लीजिए पेश है "ग़ालिब का है अंदाज़-ए-बयाँ और" एलबम से "मरियम"(इनके बारे में हमें ज़्यादा कुछ पता नहीं चल सका, इसलिए पूरी की पूरी कड़ी हमने ग़ालिब के नाम कर दी, हाँ आवाज़ में वह नशा है वह खनक है, जो यकीनन हीं आपको बाँधकर रखेगी।) की आवाज़ में यह गज़ल:

हर एक बात पे कहते हो तुम कि 'तू क्या है'
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़-ए-गुफ़्तगू क्या है

जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो जो अब राख, जुस्तजू क्या है

रगों में दौड़ने-फिरने के हम नहीं ____
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है

रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे कहिए कि आरज़ू क्या है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "अहद" और शेर कुछ यूँ था-

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का अहद कर गये आये जो ख़्वाब में

इस शब्द की सबसे पहले पहचान की अवनींद्र जी ने,लेकिन चूँकि उन्होंने तब कोई शेर पेश नहीं किया, इसलिए "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से नवाज़ा जाता है अवनींद्र जी के बाद महफ़िल में उपस्थित होने वाले शरद जी को। शरद जी, इस बार आप पूरे रंग में दीखे और उस रंगे में आपने महफ़िल को भी रंग दिया। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

मैनें एहद किया था न उस से मिलूंगा मैं
वो रेत पे लकीर थी पत्थर पे नहीं थी । (स्वरचित)

ग़म तो ये है कि वो अहदे वफ़ा टूट गया
बेवफ़ा कोई भी हो तुम न सही हम ही सही (राही मासूम रज़ा) शुभान-अल्लाह... इस शेर का तो मैं फ़ैन हो गया :)

सीमा जी, आपने दो किश्तों में ४ शेर पेश किए... माज़रा क्या है? :) मज़ाक कर रहा हूँ बस :) यह रही आपकी पेशकश:

कहा था किसने के अहद-ए-वफ़ा करो उससे
जो यूँ किया है तो फिर क्यूँ गिला करो उससे (अहमद फ़राज़)

अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहोत थे जागे सुबह हुई आराम किया (मीर तक़ी 'मीर') .. इस शेर को पढकर जाने क्यों मुझे गुलज़ार साहब की पंक्तियाँ याद आ रही हैं... सारी जवानी कतरा के काटी, पीरी में टकरा गए हैं (दिल तो बच्चा है जी)

तुम्हारे अह्द-ए-वफ़ा को अहद मैं क्या समझूं
मुझे ख़ुद अपनी मोहब्बत का ऐतबार नहीं (साहिर लुधियानवी)

अवनींद्र जी, आपने रूक-रूक कर जो शेरों की बौछार की, उससे मैं भींगे बिना नहीं रह सका। अब चूँकि सारे हीं शेर यहाँ डाले नहीं जा सकते, इसलिए लकी ड्रा के सहारे मैंने इन दो शेरों को चुना है :)

ऐ ज़िन्दगी एक एहद मांगता हूँ तुझसे
फ़िर येही खेल हो तो मेरे साथ ना हो (स्वरचित )

वो जब से उम्र कि बदरिया सफ़ेद हो गयी
एहदे वफ़ा तो छोड़ो मुस्कुराता नहीं कोई (स्वरचित ) हा हा हा... क्या खूब कहा है आपने

नीलम जी, आपको हमारी महफ़िल और हमारी पेशकश पसंद आई, इसके लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रिया। आपने कहा कि आपका शेर चोरी का है, कोई बात नही, लेकिन इस शेर के मालिक का नाम तो बता देतीं। वैसे शेर कमाल का है:

और क्या अहदे वफ़ा होते हैं
लोग मिलते हैं,जुदा होते हैं

शन्नो जी, आपने अनजाने में हीं महफ़िल को जो दुआ दी, उससे मेरा दिल बाग-बाग हो गया... वाह क्या कहा है आपने:

हमें किसी की अहदे वफ़ा का इल्म नहीं
हम और हमारी महफ़िल बरक़रार रहे

मनु जी, आपको समझना इतना आसान नहीं। आप महफ़िल में आए, बड़े दिनों बाद आए, इससे हमें बड़ी हीं खुशी हासिल हुई, लेकिन खतों को पढने के बाद गज़ल सुनना ज़रूरी नहीं समझा.. यह मामला मुझे समझ नहीं आया। थोड़ा खुलकर समझाईयेगा।

सुमित जी और पूजा जी आप लोगों की दुआओं के कारण हीं महफ़िल आज अपनी ७६वीं कड़ी तक पहुँच सकी है। अपना प्यार (और/या) आशीर्वाद इसी तरह बनाए रखिएगा :)

मंजु जी, शेर कहने में आपने बड़ी हीं देर कर दी। अच्छी बात यह है कि आपको वह पता ( http://www.ebazm.com/dictionary.htm ) मिल चुका है, जहाँ से शब्दों के अर्थ मालूम पड़ जाएँगे। यह रहा आपका शेर:

निभानी नहीं आती उसे रस्म अहद वफा की ,
टूटती हैं चूडियाँ हर दिन बेवफाई से .

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, March 23, 2010

सावन का महीना पवन करे सोर.....और बिन सावन ही मचा शोर बख्शी साहब से सीधे सरल गीतों का



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 382/2010/82

मैं शायर तो नहीं'। गीतकार आनंद बक्शी पर केन्द्रित इस लगु शृंखला की दूसरी कड़ी में आपका स्वागत है। कल हमने आनंद बक्शी साहब के जीवन के शुरुआती दिनों का हाल आपको बताया था, और हम आ पहुँचे थे सन् १९६५ पर जिस साल उनकी पहली कामयाब फ़िल्म 'जब जब फूल खिले' प्रदर्शित हुई थी। दोस्तों, कल हमने यह कहा था कि 'जब जब फूल खिले' की अपार कामयाबी के बाद आनंद बक्शी को फिर कभी पीछे मुड़ कर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ी। यह बात 'ब्रॊड सेन्स' में शायद सही थी, लेकिन हक़ीक़त कुछ युं थी कि इस फ़िल्म के बाद परदेसी बने आनंद बक्शी की तरफ़ किसी ने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। और जैसे 'जब जब...' फ़िल्म का गीत "यहाँ मैं अजनबी हूँ" उन्ही पर लागू हो गया। उनके तरफ़ इस उदासीन व्यवहार का कारण था उस समय हर संगीतकार का अपना गीतकार हुआ करता था, जैसे शंकर जयकिशन के लिए लिखते थे शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, नौशाद के लिए शक़ील, कल्याणजी-आनंदजी के लिए इंदीवर वगेरह। यहाँ तक कि सचिन देव बर्मन ने भी उन्हे नया समझ कर उनकी ओर ध्यान नहीं दिया। पर तक़दीर को भी अपना रंग दिखाना था, आनंद बक्शी के सूखे जीवन में भी सावन की सुरीली फुहार आनी ही थी, और वह आकर रही। आप हमारा इशारा समझ गए होंगे। जी हाँ, सन् १९६७ में, यानी कि 'जब जब फूल खिले' के दो साल बाद, जब फ़िल्मकार एल. वी. प्रसाद ने फ़िल्म 'मिलन' की योजना बनाई तो संगीतकार के रूप में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को और बतौर गीतकार आनंद बक्शी को चुना गया। सुनिल दत्त, नूतन और जमुना अभिनीत इस फ़िल्म के सुमधुर संगीत के लिए लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार दिया गया। नूतन को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री और जमुना को सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री के पुरस्कार मिले।

'मिलन' का सब से मक़बूल गीत था "सावन का महीना पवन करे सोर", जिसके लिए आनंद बक्शी साहब को नॊमिनेट किया गया था फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए। हालाँकि उन्हे यह पुरस्कार नहीं मिल पाया, लेकिन इस गीत ने वह असर छोड़ा कि आज भी यह गीत बक्शी साहब के लिए बेहतरीन गीतों में गिना जाता है। लोक शैली में लिखे हुए इस गीत को बारिश या सावन पर बनने वाले गीतों की श्रेणी में बहुत उपर के स्थान दिया जाता रहा है। आज प्रस्तुत है यही गीत 'मैं शायर तो नहीं' शृंखला के तहत। लता मंगेशकर और मुकेश की युगल आवाज़ें हैं इस गीत में। यहाँ एक बात कहना ज़रूरी है कि जब भी लता जी और मुकेश जी एक साथ स्टेज शोज़ पर गए हैं, इस गीत को ज़रूर ज़रूर गाए हैं। गीत की शुरुआत में जो नोक झोंक है "शोर" और "सोर" को लेकर, उसका जनता तालियों की गड़गड़ाहट के साथ स्वागत करती आई है हर शो में। सन् १९७६ में आनंद बक्शी साहब तशरीफ़ लाए थे विविध भारती के स्टुडियो में 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम प्रस्तुत करने हेतु। उसमें इस गीत को बजाते हुए उन्होने कहा था - "'मिलन' फ़िल्म के एक गीत का मुखड़ा लिख कर मैं बीमार पड़ गया। डॊक्टर ने बाहर जाने से रोक लगा दी। तो मैंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को अपने घर पर बुला लिया। देखने लायक नज़ारा था। एक तरफ़ मैं लेटा हूँ, एक तरफ़ लक्ष्मी-प्यारे मुझे अंतरे का मीटर समझा रहे हैं, डॊकटर मेरी नस पकड़े खड़े हैं, और मैं गीत के बोल सोच रहा हूँ। जब यह गीत बना तो सावन के बादलों की ही तरह इस गीत ने काफ़ी शोर मचाया।" आनंद बक्शी के गीतों की खासियत थी मोहब्बत के मुख्तलिफ रंग जो उनके चाहनेवालों के लिए सावन की बौछार की तरह थी। तो आइए दोस्तों, आज का यह गीत सुनें, और सावन के नज़ारों के साथ साथ बक्शी साहब के घर के उस नज़ारे को भी महसूस करें जिसका वर्णन अभी बक्शी साहब ने दिया।



क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी ने करीब २५० फ़िल्मों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के साथ काम किया, और फ़िल्म 'दोस्ती' को छोड़कर उन सभी फ़िल्मों में गीत लिखे जिनके लिए लक्ष्मी-प्यारे को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिले।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है "रीत", गीत बताएं -३ अंक.
2. विभुति भुशण बंदोपाध्याय की उपन्यास पर आधारित थी ये फिल्म नाम बताएं- २ अंक.
3. इसी कहानी पर अरबिंदो मुखर्जी ने १९७० में जो बांगला फिल्म बनायीं थी उसका रिमेक थी ये क्लास्सिक, कौन थे मुख्या अभिनेता और अभिनेत्री -२ अंक.
4. आनंद बख्शी साहब को इस फिल्म के एक अन्य गीत के लिए नामांकन मिला था, पर किस गीतकार ने उनसे बाज़ी मार ली बताएं -३ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
बहुत खूब शरद जी आपके निर्णय का हम भी स्वागत करते हैं, पर अवध जी सही जवाब लाये और पदम जी और इंदु जी भी...सभी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, March 22, 2010

एक था गुल और एक थी बुलबुल...एक मधुर प्रेम कहानी आनंद बक्षी की जुबानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 381/2010/81

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी सुननेवालों व पाठकों का हम फिर एक बार इस महफ़िल में हार्दिक स्वागत करते हैं। दोस्तों, इन दिनों आप जम कर आनंद ले रहे होंगे IPL Cricket matches के सीज़न का। अपने अपने शहर के टीम को सपोर्ट भी कर रहे होंगे। क्रिकेट खिलाड़ियो की बात करें तो उनमें से कुछ बल्लेबाज़ हैं, कुछ गेंदबाज़, और कुछ हैं ऐसे जिन्हे हम 'ऒल राउंडर' कहते हैं। यानी कि जो क्रिकेट के मैदान पर दोनों विधाओं में पारंगत है, गेंदबाज़ी मे भी और बल्लेबाज़ी में भी। कुछ इसी तरह से फ़िल्म संगीत के मैदान में भी कई खिलाड़ी ऐसे हुए हैं, जो अपने अपने क्षेत्र के 'ऒल-राउंडर' रहे हैं। ये वो खिलाड़ी हैं जो ज़रूरत के मुताबिक़, बदलते वक़्त के मुताबिक़, तथा व्यावसायिक्ता के साथ साथ अपने स्तर को गिराए बिना एक लम्बी पारी खेली हैं। ऐसे 'ऒलराउंडर' खिलाड़ियों में एक नाम आता है गीतकार आनंद बक्शी का। जी हाँ, आनंद बक्शी साहब, जिन्होने फ़िल्मी गीत लेखन में एक नई क्रांति ही ला दी थी। बक्शी साहब को फ़िल्मी गीतों का 'ऒल-राउंडर' कहना किसी भी तरह की अतिशयोक्ति नहीं है। ज़िंदगी की ज़ुबान का इस्तेमाल करते हुए उन्होने अपने गीतों को सरल, सुंदर और कर्णप्रिय बनाया। उनके गीतों की अपार सफलता और लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है। थोड़े बहुत हल्के फुल्के काव्यों का और अधिक से अधिक आम बोलचाल वाली भाषा का इस्तेमाल उनके गीतों की खासियत रही है। उनके लिखे लोकप्रिय गीतों की अगर हम फ़ेहरिस्त बनाने बैठे तो पता नहीं कितने महीने गुज़र जाएँगे। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के अंतर्गत हम यहाँ एक छोटी सी कोशिश कर रहे हैं बक्शी साहब के लिखे १० बेहद सुंदर गीतों को आप के साथ बाँटने की। यूँ तो ये गानें इतने ज़्यादा लोकप्रिय हैं कि आप ने बहुत बहुत बार इन्हे सुने होंगे और आज भी बजते ही रहते हैं, लेकिन हम आशा करते हैं कि बक्शी साहब को समर्पित इस लघु शृंखला के अंतर्गत इन्हे फिर एक बार सुनने का कुछ और ही मज़ा आपको आएगा। तो प्रस्तुत है आज से लेकर अगले दस दिनों तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लघु शृंखला 'मैं शायर तो नहीं'।

आनंद बक्शी का जन्म रावलपिण्डी में २१ जुलाई १९३० में हुआ था जो कि अब पाक़िस्तान में है। बचपन से ही बड़ा आदमी बनने का उनका सपना था। फ़िल्में देखने का उन्हे बहुत शौक था। अपने सपनों को साकार करने के लिए वे घर से भाग गए और नौसेना में भर्ती हो गए। कुछ ही दिनों में वहाँ सैनिक विद्रोह के कारण नौकरी से हाथ धोना पड़ा। देश विभाजन के बाद वे लखनऊ अपने परिवार के पास आ गए और टेलीफोन ओपरेटर की नौकरी में लग गए। वहाँ पे उनका मन नहीं लगा और वे सीधे बम्बई आ पहुँचे। पर वहाँ उनको किसी ने भाव नहीं दिया। कई दिनों तक संघर्ष करने के बाद उनकी मुलाक़ात हुई अभिनेता भगवान दादा से जिन्होने उन्हे अपनी १९५८ की फ़िल्म 'बड़ा आदमी' में पहली बार गीत लिखने का मौका दिलवा दिया। इस फ़िल्म में गीत लिख कर वो बड़े तो नहीं बने पर उस राह पर चल ज़रूर पड़े। १९६२ में फ़िल्म आई 'मेहंदी लगी मेरे हाथ'। इस फ़िल्म के गानें भी पसंद किए गए, लेकिन बहुत ज़्यादा लोगों को पता नहीं चल पाया कि ये गानें लिखे किसने थे। कुछ साल बाद १९६५ में उन्होने लिखे फ़िल्म 'जब जब फूल खिले' के गानें जिनकी लोकप्रियता ने उन्हे रातों रात शीर्ष के गीतकारों की श्रेणी में ला खड़ा कर दिया। और इसके बाद आनंद बक्शी फिर कभी ज़िंदगी में पीछे मुड़ कर नहीं देखे। तो दोस्तों, ऐसे में बेहद ज़रूरी बन जाता है हमारे लिए भी कि बक्शी साहब पर केन्द्रित इस शृंखला का पहला गीत 'जब जब फूल खिले' फ़िल्म से बजाने की। इस फ़िल्म की अपार सफलता के पीछे इसके गीत संगीत का एक बेहद मह्त्वपूर्ण हाथ रहा है, इस बात को कोई झुठला नहीं सकता। चाहे "परदेसियों से ना अखियाँ मिलाना" हो या "ये समा, समा है ये प्यार का", या फिर "अफ़्फ़ु ख़ुदाया", "यहाँ मैं अजनबी हूँ", या फिर वह सदाबहार रफ़ी-सुमन डुएट "ना ना करते प्यार तुम्ही से कर बैठे"। और इस फ़िल्म में एक और गीत भी था जो इन सब से बिल्कुल अलग था। गीत क्या साहब, यह एक कहानी थी गुल और बुलबुल की जिसे बक्शी साहब ने लिखा और मोहम्मद रफ़ी साहब ने गाया। साथ में फ़िल्म की नायिका नंदा की भी आवाज़ शामिल थी संवाद के तौर पर। आज के लिए हमने इसी गीत को चुना है। इस अनोखे गीत का ज़िक्र इसलिए भी ज़रूरी हो जाता है कि उस वक़्त बक्शी साहब नए नए आए थे और एक नए गीतकार की तरफ़ से इस तरह का बिल्कुल ही अलग क़िस्म का गीत वाक़ई आश्चर्य की बात थी। तो लीजिए दोस्तों, गुल और बुलबुल की कहानी का आप भी आनंद उठाइए। कल्यानजी-आनंदजी का संगीत है, गीत फ़िल्माया गया है शशि कपूर और नंदा पर।



क्या आप जानते हैं...
कि आनंद बक्शी ने करीब ४५०० फ़िल्मी गीत लिखे, ४० बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार के लिए नामांकित हुए, और ४ बार उन्होने यह पुरस्कार जीता। इन सभी ४० गीतों की फ़ेहरिस्त आगे चलकर इस शृंखला में हम आपको देंगे।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक अंतरा शुरू होता है इस शब्द से -"रामा"-३ अंक.
2. इस फिल्म के लिए मुख्या अभिनेत्री और सह अभिनेत्री दोनों को फिल्म फेयर पुरस्कार मिले, दोनों के नाम बताएं- २ अंक.
3. कौन हैं इस मधुर गीत के संगीतकार -२ अंक.
4. इस युगल गीत में लता जी के साथ किस गायक की आवाज़ है -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी भी ५० के आंकडे पर आ चुकी हैं, पर अभी भी शरद जी २० अंकों से आगे हैं. पाबला जी, स्वागत है आपका

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

तू गन्दी अच्छी लगती है....दिबाकर, स्नेह खनवलकर और कैलाश खेर का त्रिकोणीय समीकरण



ताज़ा सुर ताल १२/२०१०

सजीव - 'ताज़ा सुर ताल' में आज हम एक ऐसी फ़िल्म के संगीत की चर्चा करने जा रहे हैं, जिसके शीर्षक को सुन कर शायद आप लोगों के दिल में इस फ़िल्म के बारे में ग़लत धारणा पैदा हो जाए। अगर फ़िल्म के शीर्षक से आप यह समझ बैठे कि यह एक सी-ग्रेड अश्लील फ़िल्म है, तो आपकी धारणा ग़लत होगी। जिस फ़िल्म की हम आज बात कर रहे हैं, वह है 'लव, सेक्स और धोखा', जिसे 'एल.एस.डी' भी कहा जा रहा है।

सुजॊय - सजीव, मुझे याद है जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उस वक़्त भी एक फ़िल्म आई थी 'एल.एस.डी', जिसका पूरा नाम था 'लव, सेक्स ऐण्ड ड्रग्स', लेकिन वह एक सी-ग्रेड फ़िल्म ही थी। लेकिन क्योंकि 'लव, सेक्स ऐण्ड धोखा' उस निर्देशक की फ़िल्म है जिन्होने 'खोसला का घोंसला' और 'ओए लकी लकी ओए' जैसी अवार्ड विनिंग् फ़िल्में बनाई हैं, तो ज़ाहिर सी बात है कि हमें इस फ़िल्म से बहुत कुछ उम्मीदें लगानी ही चाहिए।

सजीव - सच कहा, दिबाकर बनर्जी हैं इस फ़िल्म के निर्देशक। क्योंकि मुख्य धारा से हट कर यह एक ऒफ़बीट फ़िल्म है, तो फ़िल्म के कलाकार भी ऒफ़बीट हैं, जैसे कि अंशुमन झा, श्रुती, राज कुमार यादव, नेहा चौहान, आर्य देवदत्ता, हेरी टेंग्री और अमित सियाल। फ़िल्म में संगीत दिया है स्नेहा खनवलकर ने।

सुजॊय - सजीव, इसका मतलब महिला संगीतकरों में एक और नाम जुड़ गया है इस फ़िल्म से, जो एक बहुत ही अच्छी बात है। तो चलिए, शुरु करते हैं गीतों का सिलसिला, पहला गीत कैलाश खेर की आवाज़ में। जिस तरह से पिछले साल में "ईमोसनल अत्याचार" गीत आया था, क्या पता हो सकता है कि यह गीत इस साल वही कमाल कर दिखाए।

सजीव - यह तो वक़्त ही बताएगा, लेकिन हम इतना ज़रूर कह सकते हैं कि यह आम गीतों से अलग है। भले ही इस तरह के गीत हम गुनगुना नहीं सकते, लेकिन गीत के बोलों में सच्चाई है। इसे लिखा भी दिबाकर बनर्जी ने ही है। गीत की शुरुआत एक लड़की के चीख़ने से होती है, फिर गोलियों की आवाज़ें, और फिर गीत शुरु होता है तेज़ झंकार बीट्स के साथ। लड़की की पहले जान बचाना और फिर उसकी तसवीर उतार कर उन्हे बेचने का अपराध इस गीत के बोलों में ज़ाहिर होता है। "तस्वीर उतारूँगा, मेले में दिखाउँगा, जो देखेगा उसकी अखियाँ नचवाउँगा, हवस की तरकारी दाला गरम भुणक का छोंका..."।

सुजॉय- कुछ ऐसा जो कभी सुना नहीं आज तक हिंदी फ़िल्मी गीतों में, सुनिए

गीत: लव सेक्स और धोखा


सुजॊय - सजीव, अभी गीत से पहले आप बता रहे थे लड़की की तस्वीर उतार कर उसे बेचने की बात। तो जहाँ तक इस फ़िल्म की कहानी की बात है, यह फ़िल्म में दरअसल तीन कहानियाँ हैं। और तीनों कहानियों में जो कॊमॊन चीज़ें हैं, वो हैं लव, सेक्स और धोखा। एक और चीज़ जो इनमें कॊमॊन है, वह है कैमरा। जी हाँ, तीनों कहानियों मे किसी ना किसी तरीके से तस्वीर उतारने की घटना है। दूसरा गाना सुनने से पहले मैं इनमें से एक कहानी का पार्श्व बताना चाहूँगा। प्रभात एक जर्नलिस्ट है जो अपने करीयर को एक नई ऊँचाई तक ले जाना चाहता है। और इसके लिए वह एक स्टिंग् ऒपरेशन के ज़रिए सनसनी पैदा करने की सोचता है। वह पॊप स्टार लोकी लोकल पर स्टिंग् ऒपरेशन करता है जो उभरते मॊडेल्स को अपने विडियोज़ में काम देने के बदले उनसे शारीरिक संबंध स्थापित करता है। लेकिन इस स्टिंग् ऒपरेशन के दौरान प्रभात एक मुसीबत में फँस जाता है।

सजीव - अब है दूसरे गीत की बारी। इसे भी कैलाश खेर ने ही गाया है। यह गीत वार करता है आज के दौर में चलने वाले रीयल्टी टीवी शोज़ पर। जिस तरह से टी.आर.पी बढ़ाने के लिए अपने अपने रीयल्टी शोज़ में टीवी चैनल सनसनी के सामान जुटाने में लगे हैं, उसी तरफ़ इशारा है इस गीत का।

सुजॊय - सजीव, किसी को मैंने एक बार कहते हुए सुना था कि 'Reality TV Shows are more scripted than any other show', हो सकता है इसमें सच्चाई हो। ख़ैर, यह गीत "तैनु टीवी पे वेखिया" पंजाबी संगीत पर आधारित है, और कैलाश खेर ने "दुनिया ऊट पटांगा" और "ओए लकी लकी ओए" गीतों की तरह इसे भी लोकप्रिय रंग देने की पूरी कोशिश की है।

गीत: तैनु टीवी पे वेखिया


सजीव - सुजॊय, तुमने तीन में से पहली कहानी का ज़िक्र किया था। दूसरी कहानी जो है, उसमें एक जवान लड़का आदर्श जो जल्दी जल्दी पैसे कमा कर अमीर बनना चाहता है, चाहे इसके लिए उसे कोई भी राह इख़्तियार करनी पड़े। ऐसे में वह क्या करता है कि एक सेल्स गर्ल रश्मी के साथ एक झूठा प्रेम संबंध बनाता है। आदर्श का प्लान यह है कि वह रश्मी को बहकागा और एक कैमरे के ज़रिए दोनों के शारीरिक संबंध वाले दृश्यों को कैद कर उसे बाज़ार में बेच कर पैसे बनाएगा।

सुजॊय - यानी कि लव, सेक्स और धोखा?

सजीव - बिल्कुल! है तो आम कहानी, लेकिन देखना यह है कि दिबाकर इस आम कहानी को किस तरह से ख़ास बनाते हैं! ख़ैर, आगे बढ़ते हैं और अब सुनते हैं स्नेहा खनवलकर की ही आवाज़ में एक हिंग्लिश गीत "आइ काण्ट होल्ड इट एनी लॊंगर"। एक बेहद नए क़िस्म का गीत है जिसमें राजस्थानी लोक संगीत को अंग्रेज़ी शब्दों के साथ मिलाया गया है। चिड़ियों की अलग अलग ध्वनियों का भी ख़ूबसूरत इस्तेमाल सुनाई देता है इस गीत में। मानना पड़ेगा कि स्नेहा ने गायन और संगीत, दोनों ही में इस गीत में कमाल कर दिखाया है।

सुजॉय - सच है सजीव, इस तरह के प्रयोग के लिए संगीतकारा निश्चित ही बधाई की हक़दार हैं. मुझे ओए लकी का "तू राजा की राजदुलारी" गीत याद आ रहा है जिसको स्नेह ने बेहद मेहनत से संवारा था, और जो आज भी एक कल्ट सोंग की तरह सुना जाता है.

गीत: आइ काण्ट होल्ड इट एनी लॊंगर


सुजॊय - और अब तीसरी कहानी की बारी। राहुल एक फ़िल्म विद्यार्थी है जिसकी डिप्लोमा फ़िल्म एक तरह से गुरु दक्षिणा है उसके प्रेरना स्त्रोत आदित्य चोपड़ा की फ़िल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे' को। राहुल को उसके फ़िल्म की नायिका श्रुति से प्यार हो जाता है। उनकी प्रेम कहानी भी उसी तरह से आगे बढ़ती है ठीक जिस तरह से डी.डी.एल.जे की कहानी आगे बढ़ी थी। फ़िल्मी अंदाज़ में राहुल और श्रुति मंदिर में जाकर शादी कर लेते हैं। श्रुति को यह विश्वास था कि एक बार शादी हो जाए तो उसके घरवाले उन्हे अपना लेंगे। लेकिन उसे क्या पता था कि एक उसके लिए एक भयानक धोखा इंतज़ार कर रहा है!

सजीव - इसी कहानी से संबंधित जो गीत है, वह है "मोहब्बत बॊलीवुड स्टाइल"। निहिरा जोशी और अमेय दाले की आवाज़ों में यह गीत है जिसमें वही चोपड़ा परिवार के फ़िल्म के संगीत की कुछ झलक मिलती है। यश राज फ़िल्म्स की सालों से चली आ रही रोमांस के सक्सेस फ़ॊर्मुला की तरफ़ गुदगुदाने वाले अंदाज़ से तीर फेंका गया है। यहाँ तक कि चरित्र का नाम भी राहुल रहा गया है जैसे कि अक्सर यश चोपड़ा की फ़िल्मों में हुआ करता है। कुल मिलाकर ठीक ठाक गीत है, वैसे कुछ बहुत ज़्यादा ख़ास बात भी नहीं है। कम से कम पिछले गीत वाली बात नहीं है, और ना ही यश चोपड़ा के फ़िल्मों के रोमांटिक गीतों के साथ इसकी कोई तुलना हो सकती है।

सुजॉय - हाँ पर मुझे जो बीच बीच में संवाद बोले गए हैं वो बहुत बढ़िया लगे, सुनते हैं...

गीत: मोहब्बत बॊलीवुड स्टाइल.


सुजॊय - तो सजीव, कुल मिलाकर इस फ़िल्म के बारे में जो राय बनती है, वह यही है कि यह फ़िल्म आज के युवा समाज की कुछ सच्चाइयों की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित करवाना चाहती है, ख़ास कर मुंबई जैसे बड़े शहरों में जो हो रहा है। जल्दी जल्दी पैसे और शोहरत कमाने की होड़ में आज की युवा पीढ़ी अपराध की राह अख़तियार कर रहे हैं। यह फ़िल्म शायद फ़ैमिली ऒडिएन्स को थिएटरों में आकर्षित ना करें, लेकिन युवाओं को यह फ़िल्म पसंद आएगी, ऐसी उम्मीद की जा रही है।

सजीव - चलिए अब सुना जाए आज का अंतिम गीत। कैलाश खेर की आवाज़ में एक और गीत "तू गंदी अच्छी लगती है"। गीत शब्दों से जितना बोल्ड है, उतना ही बोल्ड है कैलाश खेर की गायकी। फ़िल्म के सिचुएशन की वजह से शायद इस गीत में थोड़ी अश्लीलता की ज़रूरत थी। दोस्तों, हम नहीं कह रहे कि इस तरह के गानें हमें पसंद आने चाहिए या इनका स्वागत करना चाहिए, यह तो अपनी अपनी राय है, हमारा उद्देश्य यही है कि जिस तरह का संगीत आज बन रहा है, जिस तरह की फ़िल्में आ रही हैं, उनका ज़िक्र हम यहाँ पर करते हैं, आगे इन्हे ग्रहण करना है या एक बार सुन कर भुला देना है, यह आप पर निर्भर करता है।

सुजॊय - व्यक्तिगत पसंद की अगर बात करें तो मुझे स्नेहा की आवाज़ में "आइ काण्ट होल्ड इट" ही अच्छी लगी है, बाकी सारे सो-सो लगे। तो चलिए चलते चलते यह अंतिम गीत भी सुन लेते हैं।

सजीव - एक बात और दिबाकर ने इस फिल्म से बतौर गीतकार एक ताजगी भरे चलन की शुरूआत की है, बानगी देखिये "मैं सात जनम उपवासा हूँ और सात समुन्दर प्यासा हूँ, जी भर के तुझको पी लूँगा...." और "जो कहते हैं ये कुफ्र खता, काफ़िर है क्या उनको क्या पता..."....सुनकर देखिये..

गीत: तू गंदी अच्छी लगती है


"एल एस डी" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
जहाँ सदियाँ के संगीत में सब कुछ घिसा पिटा था, एल एस डी उसके ठीक विपरीत एक दम तारो ताज़ा संगीत श्रोताओं को पेश करता है. इंडस्ट्री की इकलौती महिला संगीतकारा स्नेह के लिए जम कर तालियाँ बजनी चाहिए, चूँकि फिल्म की विषय वस्तु काफी बोल्ड है, संगीत भी इससे अछूता नहीं रह सकता था. पारंपरिक श्रोताओं को ये सब काफी अब्सर्ड लग सकता है, पर फिर कैलाश खेर की उन्दा गायिकी और दिबाकर के बोल्ड शब्दों के नाम एक एक तारा और स्नेह के लिए २ तारों को मिलकर ४ तारों की रेटिंग है आवाज़ के टीम की एल एस डी के संगीत एल्बम को. वैसे अल्बम में आपको कैलाश के दो बोनस गीत भी सुनने को मिलेंगें....

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ३४- "कित गए हो खेवनहार", "दोस्त बन के आए हो दोस्त बन के ही रहना" तथा 'एल.एस.डी' के गीत "आइ काण्ट होल्ड इट" में क्या समानता है?

TST ट्रिविया # ३५- दिबाकर बनर्जी ने १९९८ के एक टीवी शो में बतौर 'शो पैकेजर' काम किया था। बताइए उस शो का नाम।

TST ट्रिविया # ३६- ऊपर हमने "तू राजा की" गीत का जिक्र किया था, कौन हैं इस गीत के गायक


TST ट्रिविया में अब तक -
अरे भाई कोई तो सीमा जी की चुनौती स्वीकार करें, खैर सीमा जी को एक बार फिर से बधाई

Sunday, March 21, 2010

इतनी शक्ति हमें देना दाता....एक प्रार्थना जो हर दिल को सकून देती है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 380/2010/80

'१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में ये सुमधुर गानें इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी में प्रस्तुत है एक प्रार्थना गीत। १९८६ में एक फ़िल्म आई थी 'अंकुष' और इस फ़िल्म के लिए एक ऐसा प्रार्थना गीत रचा गया कि जिसे सुन कर लगता है कि किसी स्कूल का ऐंथेम है। "इतनी शक्ति हमें देना दाता, मन का विश्वास कमज़ोर हो ना, हम चले नेक रस्ते पे हमसे भूल कर भी कोई भूल हो ना"। फ़िल्म 'गुड्डी' में "हम को मन की शक्ति देना" गीत की तरह इस गीत ने भी अपना अमिट छाप छोड़ा है। फ़िल्म तो थी ही असाधारण, लेकिन आज इसफ़िल्म के ज़िक्र से सब से पहले इस गीत की ही याद आती है। सुष्मा श्रेष्ठ और पुष्पा पगधरे की आवाज़ों में यह गीत है जिसे लिखा है अभिलाश ने और स्वरबद्ध किया है कुलदीप सिंह ने। जी हाँ, कल और आज मिलाकर हमने लगातार दो गीत सुनवाए कुलदीप सिंह के संगीत में। कल के गीत की तरह आज का यह गीत भी कुलदीप सिंह के गिने चुने फ़िल्मी गीतों में एक बेहद ख़ास मुकाम रखता है। 'अंकुष' का निर्माण एन. चन्द्रा ने किया था और उन्होने ही फ़िल्म को निर्देशित भी किया था। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे नाना पाटेकर, रबिया अमीन, अर्जुन चक्रबर्ती, मदन जैन, और निशा पालसीकर प्रमुख। यह एक ऒफ़बीट फ़िल्म थी और जिसकी कहानी कुछ युवाओं की कहानी थी जो बेमक़सद दिन भर गलियों, सड़कों पर घूमा करते हैं, एक दूसरे से मार पीट करते हैं, लोगों को तंग करते हैं। उनकी ज़िदगी में दो औरतों का पदर्पण होता है , एक वृद्ध महिला हैं और उनकी युवती बेटी अनीता जो एक स्कूल टीचर है। अनीता को उन गुंडे लड़कों का चाल चलन बिल्कुल पसंद नहीं, लेकिन बाद वह धीरे धीरे महसूस करती है कि ये युवक दरसल इस करप्ट समाज के सताए हुए हैं और सही दिशा मिले तो ये ज़िंदगी के सही मार्ग पर चल सकते हैं। बहुए ही अच्छी फ़िल्म है और सभी को यह फ़िल्म देखनी चाहिए। और इस पूरी कहानी का निचोड़ मौजूद है इस प्रार्थना गीत में। क्या ख़ूब कहा गया है इसमें कि "हम ना सोचें हमे क्या मिला है, हम यह सोचें किया क्या है अर्पण, फूल ख़ुशियों की बाटें सभी को, सब का जीवन ही बन जाए मधुवन"। वैसे इस गीत के दो वर्ज़न है, पुरुष वर्ज़न को अशोक खोसला, मुरलीधर, घनश्याम वास्वानी, शेखर शंकर और उनके साथियों ने गाया था। लेकिन आज हम आपको इसका फ़ीमेल वर्ज़न सुनवा रहे हैं।

हम शुक्रगुज़ार हैं विविध भारती के कि जिसने अपने समय के चर्चित और कमचर्चित कलाकारों को आमंत्रित किया, उनसे मुलाक़तें की, और एक ऐसे धरोहर का निर्माण किया कि जिससे हम सभी लाभांवित हो रहे हैं और आगे भी होते रहेंगे। संगीतकार कुलदीप सिंह को विविध भारती ने आमंत्रित किया था। २९ जून २००५ को 'इनसे मिलिए' कार्यक्रम में प्रसारित इस मुलाक़ात में कुलदीप जी ने बताया कि वो फ़िल्म जगत में कैसे आए, और आज के इस गीत का भी उल्लेख किया था। आइए जानें उन्ही के शब्दों में। "मैं थिएटर प्लेज़ के म्युज़िक कॊम्पोज़ किया करता था, वहाँ रमण कुमार साहब मुझे सब से बड़ा म्युज़िक डिरेक्टर मानते थे। तो उन्होने जब अपनी फ़िल्म 'साथ साथ' प्लैन की तो बिना किसी दोराय के उन्होने मुझे चुन लिया और इस तरह से मैं फ़िल्म लाइन में आ गया।" और अब फ़िल्म 'अंकुष' के बारे में कुलदीप जी बताते हैं - "चन्द्रा साहब आए मेरे पास और कहने लगे कि हम सब एक टीम बना कर काम कर रहे हैं, सारे नए लोग हैं, लो बजट की एक फ़िल्म बना रहे हैं, आप साथ देंगे क्या? मेरे लिए ख़ुशकिस्मती थी और मैं राज़ी हो गया।" और दोस्तों, इस तरह से इतना ख़ूबसूरत गीत हम सब की नज़र किया कुलदीप सिंह ने। इस गीत को एक बार सुन कर दिल नहीं भरता। एक अजीब सी शांति मिलती है इस गीत को सुनते हुए। आज की तनाव भरी ज़िंदगी में, दफ़्तर से घर लौटने के बाद अगर इस गीत को सुनें तो यक़ीनन पूरे दिन भर की थकान दूर हो जाती है। दिन भर अगर हमारा मन यहाँ वहाँ की बातों में भटक जाता है तो यह गीत फिर से एक बार हमें जीवन का सही मार्ग दिखा जाता है। बड़ी शक्ति है इस गीत में। '१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला की अंतिम कड़ी में यह गीत सुन कर आपको भी ज़रूर अच्छा लग रहा होगा। अब यह शृंखला समाप्त करने की हमें दीजिए इजाज़त, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के बारे में अपनी राय, सुझाव और फ़रमाइशें हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। धन्यवाद!



क्या आप जानते हैं...
कि गायिका पुष्पा पगधरे ने ओ. पी. नय्यर के संगीत में फ़िल्म 'बिन माँ के बच्चे' में गीत गाया था- "अपनी भी एक दिन ऐसी मोटर कार होगी" और "जो रात को जल्दी सोये और सुबह को जल्दी जागे"।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. रफ़ी साहब की मधुर आवाज़ में है ये गीत, गीत बताएं-३ अंक.
2. जन्म रावलपिण्डी में २१ जुलाई १९३० को जन्मे गीतकार को समर्पित है ये श्रृखला, कौन हैं ये गीतकार- २ अंक.
3. एक प्रेम कहानी है इस गीत में बयां, कौन हैं सगीतकार -२ अंक.
4. शशि कपूर नायक हैं फिल्म के, नायिका बताएं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
एक बार फिर सभी को बहुत बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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