Saturday, February 27, 2010

देख ली तेरी खुदाई...न्याय शर्मा, जयदेव और तलत ने रचा निराशा का एक संसार



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 358/2010/58

'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़', इस शृंखला की आज है आठवीं कड़ी, और पिछले सात ग़ज़लों की तरह आज की ग़ज़ल भी ग़मज़दा ही है। १९६३ की फ़िल्म 'किनारे किनारे' तो फ़िल्म की हैसियत से तो नहीं चली थी, लेकिन इस फ़िल्म के गीत संगीत ने लोगों के दिलों में अच्छी ख़ासी जगह ज़रूर बनाई, जो जगह आज भी बरक़रार है। न्याय शर्मा के लिखे गीत और ग़ज़लें थीं, तो जयदेव का संगीत था। मन्ना डे और मुकेश के साथ साथ इस फ़िल्म में तलत महमूद साहब ने भी एक ऐसी ग़ज़ल गाई जो उनके करीयर की एक बेहद लोकप्रिय और कामयाब ग़ज़ल साबित हुई। याद है ना आपको "देख ली तेरी खुदाई बस मेरा दिल भर गया"? आज इसी ग़ज़ल को यहाँ सुनिए और हमें यक़ीन है कि एक लम्बे समय से आपने इस ग़ज़ल को नहीं सुना होगा। वैसे हमने इस फ़िल्म से मुकेश की आवाज़ में "जब ग़म-ए-इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ" ग़ज़ल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवा चुके हैं और इस फ़िल्म से संबंधित जानकारी भी दे चुके हैं और न्याय शर्मा से जुड़ी कुछ बातें भी आपके साथ बाँटा हैं। आज करते हैं तलत महमूद साहब की ही बातें। पुरस्कारों की बात करें तो तलत साहब को जिन प्रमुख पुरस्कारों से नवाज़ा गया है, वो कुछ इस प्रकार हैं - भारत सरकार का पद्मभूषण, महाराष्ट्र राज्य सरकार फ़िल्म पुरस्कार, आशिर्वाद पुरस्कार, मध्य प्रदेश शासन का लता मंगेशकर पुरस्कार, अलामी उर्दू कॊन्फ़्रेन्स पुरस्कार, बॊम्बे फ़िल्म क्रिटिक्स अवार्ड, ग़ालिब अवार्ड, नौशाद अली अवार्ड, फ़िल्म जर्नलिस्ट्स अवार्ड, सिने-गोअर ऐसोसिएशन अवार्ड, बेग़म अख़्तर अवार्ड, ई.एम.आई. लाइफ़ टाइम अचीवमेण्ट अवार्ड, लायन क्लब अवार्ड, और रोटरी कल्ब अवार्ड प्रमुख। लेकिन दोस्तों, इनसे भी बढ़कर जो पुरस्कार तलत साहब को मिला, वह है लाखों, करोड़ों लोगों का प्यार, उनके चाहनेवालों की मोहब्बत, जो उन्हे बेशुमार मिली और आज भी उनके जाने के इतने सालों के बाद भी उन्हे मिल रही है। इससे बढ़कर और क्या पुरस्कार हो सकता है किसी कलाकार के लिए!

तलत महमूद अनेक बार विदेश यात्रा की हैं और हर बार उनके शोज़ में हज़ारों की संख्या में उनके चाहने वाले जमा हुए, हर जगह भीगी आँखों से लोगों ने उनके गाए गीतों को स्वीकारा, खड़े होकर उन्हे सम्मान दिया। सन् १९५६ में तलत पहले भारतीय पार्श्वगायक बने जो किसी दूसरे देश में जाकर व्यावसायिक कॊन्सर्ट में हिस्सा लिया। वह एक ६ शोज़ का टूर था ईस्ट अफ़्रीका क। लेकिन उनकी लोकप्रियता का यह नतीजा हुआ कि केवल ६ शोज़ से बात नही बनी, पब्लिक डीमाण्ड को देखते हुए उन्हे २५ शोज़ करने पड़े। १९६१ में कराची स्टेडियम में ५८,००० की भीड़ जमा हो गई, जिनमें से ज़्यादातर महिलाएँ थीं, केवल तलत साहब को सुनने के लिए। ई.एम.आई कराची ने तलत साहब को सम्मान स्वरूप एक सिल्वर डिस्क भेंट की, और इस तरह से तलत साहब भारत के पहले डिस्क पाने वाले गायक बनें। १९६८ में तलत साहब की वेस्ट इंडीज़ के त्रिनिदाद में ज़बरदस्त स्वागत हुआ उनके कॊन्सर्ट तो बाद की बात थी, उनके स्वागत में एयरपोर्ट पर ही हज़ारों की भीड़ जमा हो गई थी। तलत फ़ैन कल्ब की बैज लगाए हुए लोग सड़क के दोनों तरफ़ कतार में खड़े हो गए थे एयरपोर्ट से लेकर शहर तक। एक खुली लिमोसीन गाड़ी ने तलत को एयरपोर्ट से होटल तक पहुँचाया और तलत साहब गाड़ी से अपने चाहनेवालों के लिए हाथ हिला रहे थे। स्थानीय समाचार पत्रों ने तलत साहब के कॊन्सर्ट का मुख्य पृष्ठ पर जगह दी। उस देश में जहां बॊक्सिंग् बेहद लोकप्रिय खेल है, कभी बॊक्सिंग् को भी इस तरह का कवरेज नहीं मिला था। यहीं बात ख़तम नहीं हुई, वहाँ का बेहद पॊपुलर ग्रूप 'वेस्ट इंडीज़ स्टील बैण्ड' ने एक कैलीप्सो शैली का गीत बनाया "तलत महमूद वी आर प्राउड ऐण्ड ग्लैड, टू हैव अ पर्सोनलिटी लाइक यू हेयर इन त्रिनिदाद"। इस गीत को रेडियो पर बार बार बजाया गया, एयरपोर्ट पर बजाया गया, और सभी म्युज़िक दुकानों पर लगातार बजाया गया। दोस्तों, ये थी तलत साहब की विदेशों में लोकप्रियता की कुछ बातें। और आइए अब सुना जाए आज की ग़ज़ल, जिसके कुल तीन शेर इस प्रकार हैं।

देख ली तेरी ख़ुदाई बस मेरा दिल भर गया,
तेरी रहमत चुप रही मैं रोते रोते मर गया।

मेरे मालिक क्या कहूँ तेरी दुआओं का फ़रेब,
मुझ पे युं छाया कि मुझको घर से बेघर कर गया।

वो बहारें नाचती थी झूमती थी बदलियाँ,
अपनी क़िस्मत याद आते ही मेरा जी डर गया।



क्या आप जानते हैं...
कि तलत महमूद साहब के गीतों पर आधारित एक बैले (नृत्यनाटिका) की रचना की थी न्यु यॊर्क की The Joel Jay Fisher Ballet Company ने।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मतले में ये दो शब्द है - "सहारा" और "दर्द", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. फिल्म के निर्देशक ने ही इस गज़ल को लिखा है, उनका नाम बताएं - ३ अंक.
3. गज़ल के संगीतकार का नाम बताएं- २ अंक.
4. फिल्म के नाम में ३ अक्षर हैं जिसमें से एक है- "ख्वाब", फिल्म का नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना - यदि आप ओल्ड इस गोल्ड में कोई विशेष गीत सुनना चाहते हैं या पेश करने के इच्छुक हैं, या कोई भी अन्य जानकारी हमारे साथ बांटना चाहते हैं तो हमें oig@hindyugm.com पर भी संपर्क कर सकते हैं

पिछली पहेली का परिणाम-
पाबला जी आने का शुक्रिया, प्रेम और आशीर्वाद बनाये रखियेगा, पर ये क्या आपके चक्कर में हमारी इंदु जी जवाब देते देते रह गयी खैर शरद जी ने तीन अंक कमाए, हमारे पास जो रिकॉर्डिंग हैं उसमें ये शेर पहला ही है, सुनकर देखिये, अवध जी आपका भी अनुमान एकदम सही है, बधाई...
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: हमारा मुल्क - इब्ने इंशा



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में असगर वज़ाहत की एक कहानी "आग" का पॉडकास्ट सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं इब्ने इंशा की लघुकथा "हमारा मुल्क", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी "हमारा मुल्क" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 19 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट नवभारत टाइम्स पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



और तो कोई बस न चलेगा हिज्र के दर्द के मारों का।
~ इब्ने इंशा
(1927-1978)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

नहीं, इसमें पाकिस्तानी कौम नहीं रहती।
(इब्ने इंशा की "हमारा मुल्क" से एक अंश)


नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंक से डाऊनलोड कर लें:
VBR MP3
#Sixty Second Story, Hamara Mulk: Ibne Insha/Hindi Audio Book/2010/7. Voice: Anurag Sharma

Friday, February 26, 2010

जब छाए कहीं सावन की घटा....याद आते हैं तलत साहब और भी ज्यादा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 357/2010/57

र्द भरे गीतों के हमदर्द तलत महमूद की मख़मली आवाज़ और कोमल स्वभाव से यही निचोड़ निकलता है कि फूल से भी चोट खाने वाला नाज़ुक दिल था उनका। और वैसी ही उनके गीत जो आज भी हमें सुकून देते हैं, हमारे दर्द के हमदर्द बनते हैं। तलत साहब का रहन सहन, उनका स्वभाव, उनके गीतों की ही तरह संजीदा और उनके दिल वैसा ही नाज़ुक था, बिल्कुल उनके नग़मों की तरह; सॊफ़्ट स्पोकेन नेचर वाली तलत साहब के अमर, लाजवाब गीतों और ग़ज़लों को आज भी चाहते हैं लोग। और यही वजह है कि इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर हमने आयोजित की है उनकी गाई हुई ग़ज़लों पर आधारित एक ख़ास शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। आज हम जिस ग़ज़ल को सुनवाने जा रहे हैं वह है सन् १९६० की एक फ़िल्म का। दोस्तों, ५० का दशक तलत महमूद का दशक था। या युं कहिए कि ५० के दशक मे तलत साहब सब से ज़्यादा सक्रीय भी रहे और सब से ज़्यादा उनके कामयाब गानें इस दशक में बनें। ६० के दशक के आते आते फ़िल्म संगीत में जो बदलाव आ रहे थे, गीतों से और फ़िल्मों से मासूमियत जिस तरह से कम होती जा रही थी, ऐसे में तलत साहब का कोमल अंदाज़ भी किरदारों के पक्ष में नहीं जा रहा था। फलस्वरूप, तलत साहब के गानें कम होते चले गए। और एक समय के बाद उन्होने ख़ुद ही फ़िल्मों के लिए गाना छोड़ दिया। लेकिन फिर भी ६० के दशक में उन्होने कई लाजवाब गानें गाए हैं। पिछली ६ कड़ियों में ५० के दशक के ग़ज़लों को सुनने के बाद आज और अगली दो और कड़ियों में हम आपको ६० के दशक में तलत साहब द्वारा गाई तीन ग़ज़लें सुनवाने जा रहे हैं। आज सुनिए १९६० की फ़िल्म 'रेशमी रूमाल' से राजा मेहन्दी अली ख़ान का लिखा और बाबुल का स्वरबद्ध किया हुआ "जब छाए कहीं सावन की घटा, रो रो के ना करना याद मुझे"।

दोस्तों, 'रेशमी रूमाल' फ़िल्म का एक युगल गीत हमने आपको 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की कड़ी नं. १२७ में सुनवाया था "ज़ुल्फ़ों की घटा लेकर सावन की परी आई"। उस कड़ी में हमने आपको ना केवल इस फ़िल्म से संबम्धित जानकारियाँ दी थी, बल्कि संगीतकार बाबुल का भी परिचय करवाया था। उस गीत में और आज के गीत में एक समानता तो है, और वह है "सावन"। राजा मेहन्दी अली ख़ान साहब के अलग अलग नज़रिए पर ग़ौर कीजिएगा दोस्तों। एक तरफ़ ख़ुशमिज़ाज अंदाज़ में सावन का मानवीकरण हुआ है कि जैसे सावन एक परी हो और बादल उसके काले घने बाल। वहीं दूसरी तरफ़ आज की ग़ज़ल में सावन के आ जाने से जुदाई के दर्द के और ज़्यादा बढ़ जाने की व्याख्या हुई है। युं तो तंस लिखने में माहिर समझे जाते रहे ख़ान साहब, पर उनको पहली पहली प्रसिद्धी मिली थी रमेश सहगल की देश भक्ति फ़िल्म 'शहीद' से। इस फ़िल्म के "वतन की राह में वतन के नौजवान शहीद हों" गीत से उस समय हर देशवासी के दिल में देश भक्ति की लहर दौड़ गई थी। राजा साहब के गीतों में उर्दू ग़ज़ल की क्लासिकल शायरी की झलक मिलती है। उनके गीतों में मोहब्बत करने वाला घुट घुट कर आँसू बहाता है। शायद लोगों को अपनी दर्द भरी कहानी इन गीतों और ग़ज़लों में नज़र आती है जिसकी वजह से लोग उनके ऐसे गीतों को पसंद करते हैं और उन्हे बार बार याद करते हैं। राजा साहब और मदन मोहन की ट्युनिंग् बहुत अच्छी जमी थी और इस जोड़ी ने एक से बढ़कर एक लाजवाब ग़ज़लें फ़िल्म संगीत को दिए हैं। लेकिन आज की ग़ज़ल को बाबुल ने स्वरबद्ध किया है, और क्या ख़ूब किया है। दोस्तों, इस ग़ज़ल को सुनते हुए आप एक चीज़ जो ज़रूर महसूस करेंगे वह यह कि अब तक जितनी भी ग़ज़लें इस शृंखला में बजी हैं, उन से इस ग़ज़ल का ऒर्केस्ट्रेशन उन्नत है। फ़र्क वही है जो ५० और ६० के दशक के फ़िल्म संगीत का है। आइए आनंद उठाते हैं इस ग़ज़ल का, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर-

जब छाए कहीं सावन की घटा रो रो के ना करना याद मुझे,
ऐ जान-ए-तमन्ना ग़म तेरा कर दे ना कहीं बरबाद मुझे।

जो मस्त बहारें आईं थीं वो रूठ गईं उस गुल्शन से,
जिस गुल्शन में दो दिन के लिए क़िस्मत ने किया आबाद मुझे।

वो राही हूँ पल भर के लिए जो ज़ुल्फ़ के साए में ठहरा,
अब लेके चली है दूर कहीं ऐ इश्क़ तेरी बेदाद मुझे।

ऐ याद-ए-सनम अब लौट भी जा क्यों आ गई तू समझाने को,
मुझको मेरा ग़म काफ़ी है तू और ना कर नाशाद मुझे।



क्या आप जानते हैं...
कि सुविख्यात बांसुरी वादक पंडित हरि प्रसाद चौरसिया की पहली फ़िल्मी रिकार्डिंग् तलत महमूद साहब की गाई ग़ज़ल "फिर वही शाम वही ग़म वही तन्हाई है" (फ़िल्म: जहाँ आरा) के लिए थी।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मतले के बाद के पहले शेर की पहली पंक्ति में शब्द है - "मालिक", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस फिल्म का निर्माण खुद गीतकार ने किया था, उनका नाम बताएं - ३ अंक.
3. मुकेश की आवाज़ में इसी फिल्म का एक दर्द भरा गीत जो ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है वो कौन सा है- २ अंक.
4. गज़ल के संगीतकार कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना - यदि आप ओल्ड इस गोल्ड में कोई विशेष गीत सुनना चाहते हैं या पेश करने के इच्छुक हैं, या कोई भी अन्य जानकारी हमारे साथ बांटना चाहते हैं तो हमें oig@hindyugm.com पर भी संपर्क कर सकते हैं

पिछली पहेली का परिणाम-
जबरदस्त टक्कर जारी है, कल इंदु जी ने ३ अंक कमाए तो शरद जी भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, अवध जी आपका अंदाज़ हिंट देने का हमें तो खूब भाया...
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, February 25, 2010

हर शाम शाम-ए-ग़म है, हर रात है अँधेरी...शेवन रिज़वी का दर्द और तलत का अंदाज़े बयां



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 356/2010/56

'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' की आज की कड़ी में फिर एक बार शायर शेवन रिज़्वी का क़लाम पेश-ए-ख़िदमत है। दोस्तों, तलत महमूद ने "शाम-ए-ग़म" पर बहुत सारे गीत गाए हैं। दो जो सब से ज़्यादा मशहूर हुए, वो हैं "शाम-ए-ग़म की क़सम आज ग़मगीं हैं हम, आ भी जा" और "फिर वही शाम, वही ग़म, वही तन्हाई है, दिल को समझाने तेरी याद चली आई है"। हमने इन दो गीतों का ज़िक्र यहाँ इसलिए किया क्योंकि आज जिस ग़ज़ल की बारी है इस महफ़िल में, वह भी 'शाम-ए-ग़म' से ही जुड़ा हुआ है। जैसा कि हमने बताया शेवन रिज़्वी की लिखी हुई ग़ज़ल, तलत साहब की आवाज़ और संगीत है हाफ़िज़ ख़ान का। जी हाँ, वही हाफ़िज़ ख़ान, जो ख़ान मस्ताना के नाम से गाने गाया करते थे, ठीक वैसे ही जैसे सी. रामचन्द्र चितलकर के नाम से। ख़ैर, यह ग़ज़ल है फ़िल्म 'मेरा सलाम' का, जो बनी थी सन् १९५७ में। इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे भारत भूषण और बीना राय। तलत साहब ने इस फ़िल्म में आज की इस ग़ज़ल के अलावा एक और मशहूर ग़ज़ल गाई थी "सलाम तुझको ऐ दुनिया अब आख़िरी है सलाम, छलकने वाला है अब मेरी ज़िंदगी का जाम"। दोस्तों, तलत साहब पर केन्द्रित इस शृंखला में हम ना केवल उनकी गाई ग़ज़लें सुनवा रहे हैं, बल्कि उनसे जुड़ी हुई तमाम बातें भी बताते जा रहे हैं। आज पेश है उन्ही के द्वारा प्रस्तुत 'जयमाला' कार्यक्रम का एक अंश जिसमें वो बात कर रहे हैं कुंदन लाल सहगल साहब की। "कुंदन लाल सहगल की हस्ती किसी तारीफ़ की मोहताज नहीं। सभी गायकों की तरह मैं भी उनका पुजारी रहा हूँ। उनके गीतों से मुझे इश्क़ है। अपना अक़ीदा है कि अल्लाह ताला ने आसमान-ओ-ज़मीन के जितने सुर, लय, और दर्द थे, उनके गले में भर दिया था। सहगल साहब से मेरी पहली मुलाक़ात कलकत्ते में हुई थी, जब उनकी फ़िल्म 'मेरी बहन' की शूटिंग् चल रही थी, और मेरी न्यु थिएटर्स में नई नई एंट्री हुई थी। वह पहली मुलाक़ात आज भी मेरे ज़हन में है।" दोस्तों, सहगल साहब के गीतों से इश्क़ की बात जो तलत साहब ने कही, यह शायद उसी इश्क़ का नतीजा कह लीजिए या सहगल साहब का आशिर्वाद कि तलत साहब आगे चलकर इस देश के प्रथम श्रेणी के गायक बनें।

संगीतकार हाफ़िज़ ख़ान और गायक तलत महमूद की अगर एक साथ बात करें, तो श्री पंकज राग द्वारा लिखित किताब 'धुनों की यात्रा' से हमें पता चला कि तलत ने अपने कुछ बेहद ख़ूबसूरत गीत हाफ़िज़ ख़ान के संगीत निर्देशन में गाए, और इस तथ्य की ओर कम ही लोगों का ध्यान गया है। यह एक रोचक तथ्य है कि एच. एम. वी के तलत के 'रेयर जेम्स' कैसेट्स में सर्वाधिक संख्या (तीन) हाफ़िज़ ख़ान की स्वरबद्ध रचनाओं की है। 'मेहरबानी' के "मिटने दे मेरी ज़िंदगी" और 'लकीरें' के "दिल की धड़कन पे गा" के अलावा 'मेरा सलाम' का सुदर, दर्द भरा "हर शाम शाम-ए-ग़म है" भी इस संकलन में शामिल है। तीनों ही गीत शेवन रिज़्वी के लिखे हुए हैं और इन सभी गीतों में इंटरल्युड्स में वायलिन का तीव्र उपयोग संवेदना को उभारने के लिए बड़े सशक्त तरीके से किया गया है। इसी फ़िल्म में आशा भोसले और तलत का गाया दोगाना "हसीन चाँद सितारों का वास्ता आ जा" धीमी लहराती लय का बड़ा लोकप्रिय गीत रहा था। इस गीत में वाद्य यंत्रों का प्रयोग अत्यंत हल्का और न्यूनतम रखा गया है जो गीत को और असरदार बनाता है। इस गीत को हम फिर किसी दिन के लिए सुरक्षित रखते हैं, और आइए अब सुना जाए आज की ग़ज़ल, जिसके कुल चार शेर इस तरह से हैं-

हर शाम शाम-ए-ग़म है हर रात है अंधेरी,
अपना नहीं है कोई क्या ज़िंदगी है मेरी।

ग़म सहते सहते ग़म की तकदीर बन गया हूँ,
जा ऐ बहार-ए-दुनिया हालत ना पूछ मेरी।

कामान-ए-ज़िंदगी में कुछ भी नहीं बचा है,
एक दर्द रह गया है और एक याद तेरी।

खुशियों का एक दिन भी आया ना ज़िंदगी में,
पछता रहा हूँ मैं तो दुनिया में आके तेरी।



क्या आप जानते हैं...
- कि तलत महमूद और दिलीप कुमार ६० के दशक में रोज़ाना बान्द्रा जीमखाना के बैडमिंटन कोर्ट में मिला करते थे। यही नहीं दिलीप साहब का पूरा परिवार तलत और उनकी पत्नी के बेहद क़रीब थे और अक्सर ये लोग मिला करते थे।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मतले में शब्द हैं - "सावन", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस बेहद खूबसूरत ग़ज़ल के संगीतकार कौन हैं - ३ अंक.
3. इस फिल्म का एक युग्म गीत ओल्ड इस गोल्ड में बज चुका है, उसमें भी 'सावन" शब्द था मुखड़े में, फिल्म का नाम बताएं- २ अंक.
4. इस गज़ल के शायर कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

विशेष सूचना - यदि आप ओल्ड इस गोल्ड में कोई विशेष गीत सुनना चाहते हैं या पेश करने के इच्छुक हैं, या कोई भी अन्य जानकारी हमारे साथ बांटना चाहते हैं तो हमें oig@hindyugm.com पर भी संपर्क कर सकते हैं

पिछली पहेली का परिणाम-
अवध जी अब आप भी डबल फिगर में आ चुके हैं, बधाई...इंदु जी एकदम सही जवाब है और क्लू देने के बाद भी कोई दूसरा सामने नहीं आया, ताज्जुब है :), अवध जी आपकी पसंद के ये दोगाना भी जरूर बजेगा यहाँ, थोडा सा इन्तेज़ार बस...अरे शरद जी आप भी हाज़िर हैं...बहुत बढ़िया २ अंक सुरक्षित.
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

'काव्यनाद' और 'सुनो कहानी' की बम्पर सफलता





हिन्द-युग्म ने 19वें विश्व पुस्तक मेले (जो 30 जनवरी से 7 फरवरी 2010 के दरम्यान प्रगति मैदान, नई दिल्ली में आयोजित हुआ) में बहुत-सी गतिविधियों के अलावा दो नायाब उत्पादों का भी प्रदर्शन और विक्रय किया। वे थे प्रेमचंद की 15 कहानियों का ऑडियो एल्बम ‘सुनो कहानी’ और जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं के संगीतबद्ध स्वरूप का एल्बम ‘काव्यनाद’। ये दोनों एल्बम विश्व पुस्तक मेला में सर्वाधिक बिकने वाले उत्पादों में से थे। दोनों एल्बमों की 500 से भी अधिक प्रतियों को साहित्य प्रेमियों ने खरीदा। इस एल्बम के ज़ारी किये जाने से पहले हिन्द-युग्म के संचालकों को भी इसकी इस लोकप्रियता और सफलता का अंदाज़ा नहीं था। 1 फरवरी 2010 को प्रगति मैदान के सभागार में इन दोनों एल्बमों के विमोचन का भव्य समारोह भी आयोजित किया गया जिसमें वरिष्ठ कवि अशोक बाजपेयी, प्रसिद्ध कथाकार विभूति नारायण राय और संगीत-विशेषज्ञ डॉ॰ मुकेश गर्ग ने भाग लिया। ‘काव्यनाद’ और ‘सुनो कहानी’ कहानी की इस सफलता के बाद ऑल इंडिया रेडियो के समाचार-प्रभाग के रितेश पाठक ने जब हिन्द-युग्म के प्रमुख संचालक शैलेश भारतवासी से प्रतिक्रिया माँगी तो शैलेश ने कहा-
लोग साहित्य के साथ हुए इन नये प्रयोगों को सराह रहे हैं। हमारे स्टॉल पर कई सारे ऐसे आगंतुक भी पधार रहे हैं जिन्होंने इन एल्बमों के बारे में अखबारों या वेबसाइटों पर पढ़ा और बिना ज्यादा पड़ताल के ही अपने और अपने मित्रों-सम्बंधियों के लिए ये एल्बम खरीद कर ले जा रहे हैं। हमारी पूरी टीम मेले के रेस्पॉन्स से बहुत खुश है।

इसके बाद हिन्द-युग्म से बहुत से स्कूलों-कॉलेजों ने ईमेल के द्वारा इन एल्बमों के सम्बंध में जानकारी माँगी है। कई विद्यालयों के प्राचार्यों ने यहाँ तक कहा कि ये अभिनव प्रयोग विद्यार्थियों और अभिभावकों के लिए बहुत उपयोगी हैं और इन्हें हर विद्यार्थी और अभिभावक तक पहुँचाया जाना चाहिए। हिन्द-युग्म का मानना है कि साहित्य का तकनीक के साथ सकारात्मक ताल-मेल भी हो सकता है, बस हमारी दृष्टि साफ हो कि हमें साहित्य और भाषा को किस ओर लेकर जाना है।

कई ऐसे साहित्यप्रेमी भी मेले में हिन्द-युग्म के स्टॉल पर आये जिन्होंने पहले खरीदकर इन्हें सुना और फोन द्वारा या स्टॉल पर दुबारा आकर इनकी भूरी-भूरी प्रसंशा की। बहुत से लोगों ने नागार्जुन, धूमिल, मुक्तिबोध इत्यादि कवियों की कविताओं को संगीतबद्ध करने की सलाह दी। कइयों ने कहाँ कि ‘काव्यनाद’ जैसा प्रयोग ही किसी एक कवि की 10 या 10 से अधिक कविताओं को लेकर किये जाने की ज़रूरत है। वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी स्टॉल पर पधारे और कहा कि ऐसे कथाकारों की कहानियों को कथाकारों की ही आवाज़ में संरक्षित करने की ज़रूरत है जो बहुत वरिष्ठ हैं और जिनकी कहानियाँ महत्वपूर्ण हैं। हिन्द-युग्म ने पाठकों, श्रोताओं और साहित्यकारों को इस दिशा में नित नये प्रयोग करते रहने का विश्वास दिलाया।

हिन्द-युग्म ने अपनी कार्ययोजना में यह भी जोड़ा है कि इन एल्बमों को दुनिया भर के उन स्कूलों में ज़रूर से ज़रूर पहुँचाना है जहाँ हिन्दी प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक या प्राच्य भाषा के तौर पर पढ़ाई जाती है। दक्षिण भारत से आये एक हिन्दी के अध्यापक ने प्रेमचंद की कहानियों के एल्बम को गैरहिन्दी भाषियों के लिए हिन्दी भाषा सीखने और समझने का एक उपकरण भी माना।

हिन्द-युग्म के ये एल्बम होली के बाद भारत के सभी हिन्दी प्रदेशों के प्रमुख म्यूजिक स्टोर पर उपलब्ध कराये जाने की योजना बनाई है। हिन्द-युग्म ने इन एल्बमों को ऑनलाइन बेचने का भी प्रबंध किया है और मूल्य केवल लागत मूल्य के बराबर रखा है।

हिन्द-युग्म की आवाज़-टीम अपनी इस सफलता से बहुत उत्साहित है और नये और पुराने कवियों की कविताओं के साथ एक साथ प्रयोग करना चाहती है। हिन्द-युग्म वर्ष 2010 में कविता पर लघु फिल्म बनाने की भी योजना बना रहा है। हिन्द-युग्म कुछ महान कविताओं पर फिल्म निर्माण के बाद उसे दुनिया के सभी लघु फिल्म समारोहों में प्रदर्शित करना चाहती है। ‘काव्यनाद’ की कुछ संगीतबद्ध कविताओं को लेकर भी हिन्दी भाषा पर एक डाक्यूमेंटरी फिल्म बनाने की योजना पर काम कर रहा है।

‘काव्यनाद’ के बनने की कहानी भी अपने आप में अभूतपूर्व है। शैलेश बताते हैं- ‘मई 2010 में डैलास, अमेरिका से साहित्यप्रेमी आदित्य प्रकाश का फोन आया, बातों-बातों में उन्होंने कहा कि शैलेश आपकी आवाज़ टीम वाले इतने सारे गीतों को कम्पोज करते हैं, कभी उनसे कविता को संगीतबद्ध करने को कहिए। और उसी समय मैंने उनके साथ मिलकर गीतकास्ट प्रतियोगिता को आयोजित करने की योजना बनाई। आदित्य प्रकाश ने अपनी ओर से विजेताओं को नगद इनाम भी देने का वचन दिया। जब इस प्रतियोगिता के पहले अंक के लिए (यानी जयशंकर प्रसाद की कविता ‘अरूण यह मधुमय देश हमारा’ के लिए) प्रविष्टियाँ आईं तो मेरे साथ-साथ आदित्य प्रकाश भी बहुत खुश हुए। उन्होंने इन प्रविष्टियों को रेडियो सलाम नमस्ते के ‘कवितांजलि’ कार्यक्रम में बजाया और पूरी दुनिया के साहित्य प्रेमियों ने इस प्रयोग को सर-आँखों पर बिठा लिया। उसी समय आदित्य प्रकाश के साथ मिलकर हमने यह तय किया के छायावादी युगीन चारों स्तम्भ कवियों की 1-1 कविताओं के साथ यह प्रयोग किया जाय। इसके लिए शेर बहादुर सिंह, डॉ॰ ज्ञान प्रकाश सिंह और अशोक कुमार से सहयोग मिला और इन्होंने पहले आयोजन से दोगुनी राशि को इनाम में देने का हमारा आवेदन स्वीकार कर लिया और श्रोताओं ने खुद सुना कि गीकास्ट प्रतियोगिता के हर नये अंक की प्रविष्टियाँ अपने पिछले अंक से बेहतर थीं।“

शैलेश ने आगे बताया कि जब हमने छायावादी युगीन कवियों तक इस प्रयोग को सफल बना लिया तो आदित्य प्रकाश के साथ यह तय किया कि आने वाले विश्व पुस्तक मेला में क्यों न इन कविताओं को एक एल्बम निकाला जाय। हमें लगा कि एल्बम निकाले जाने के लिए 4 कविताएँ कम हैं इसलिए कमल किशोर सिंह, दीपक चौरसिया 'मशाल', डॉ॰ शिरीष यकुन्डी, डॉ॰ प्रशांत कोले, डॉ॰ रघुराज प्रताप सिंह ठाकुर और शैलेश त्रिपाठी की मदद से रामधारी सिंह दिनकर और मैथिली शरण गुप्त की एक-एक कविता को संगीतबद्ध किये जाने की प्रतियोगिता रखी गई। लेकिन इतने मात्र से तो एल्बम की समाग्री ही बनी, एल्बम को बज़ार तक लाने के लिए भी धन की आवाश्यकता थी। लेकिन मैं आदित्य प्रकाश, ज्ञान प्रकाश सिंह और बिस्वजीत का धन्यवाद देना चाहूँगा जिन्होंने इस काम के लिए भी हमारी हर सम्भव मदद की।

आवाज़ के संचालक सजीव सारथी कहते हैं कि हमें उम्मीद है कि हमारे इन सभी साहित्यानुरागियों का सहयोग पहले की तरह यथावत बना रहेगा और और हम जल्द ही कुछ और अभिनव और पहले से कई गुना बेहतर गुणवत्ता के प्रयोग करेंगे। हमने काव्यनाद की समीक्षा की भी शुरूआत की है। काव्यनाद की समीक्षा अभी कुछ दिनों पहले ही मैंने सुजॉय के साथ मिलकर 'ताज़ा सुर ताल' में की है। भविष्य में अन्य संगीत विशेषज्ञों से भी हम इसकी समीक्षा करवायेंगे।

Wednesday, February 24, 2010

तेरा ख़याल दिल को सताए तो क्या करें...तलत साहब को उनकी जयंती पर ढेरों सलाम



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 355/2010/55

ज २४ फ़रवरी है, फ़िल्म जगत के सुप्रसिद्ध पार्श्व गायक तलत महमूद साहब का जनमदिवस। उन्ही को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास पेशकर इन दिनों आप सुन रहे हैं 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। दोस्तों, इस शृंखला में हमने दस ऐसे लाजवाब ग़ज़लों को चुना है जिन्हे दस अलग अलग शायर-संगीतकार जोड़ियों ने रचे हैं। अब तक हमने साहिर - सचिन, मजरूह - जमाल सेन, नक्श ल्यायलपुरी - स्नेहल, और शेवन रिज़्वी - धनीराम/ख़य्याम की रचनाएँ सुनवाए हैं। आज एक और नायाब जोड़ी की ग़ज़ल पेश-ए-ख़िदमत है। यह जोड़ी है प्रेम धवन और पंडित गोबिन्दराम की। लेकिन आज की ग़ज़ल का ज़िक्र अभी थोड़ी देर में हम करेंगे, उससे पहले आपको हम बताना चाहेंगे कि किस तरह से तलत महमूद साहब ने अपना पहला फ़िल्मी गीत रिकार्ड करवाया था। तलत महमूद जब बम्बई में जमने लगे थे तब एक अफ़वाह फैल गई कि वो गाते वक़्त नर्वस हो जाते हैं। उनके गले की लरजिश को नर्वसनेस का नाम दिया गया। इससे उनके करीयर पर विपरीत असर हुआ। तब संगीतकार अनिल बिस्वास ने यह बताया कि उनके गले की यह कम्पन ही उनकी आवाज़ की खासियत है। जब तलत महमूद ने कोशिश कर के बिना कम्पन के गीत गाना शुरु किया तो अनिल दा उनसे बेहद नाराज़ हो गए, और कहा कि मुझे तुम्हारे गले की वह लरजिश ही चाहिए और उसी लरजिश की वजह से मैंने तुम्हे अपना गाना दिया है। इससे तलत साहब का हौसला बढ़ा और अनिल दा के संगीत निर्देशन में फ़िल्म 'आरज़ू' के लिए उनका पहला फ़िल्मी गीत "अए दिल मुझे ऐसी जगह ले चल" रिकार्ड हुआ। उसके बाद तलत साहब ने पीछे मुड़कर दुबारा नहीं देखा और एक के बाद एक बेहतरीन गीत और ग़ज़लें गाते चले गए, और उनके गाए इन बेमिसाल मोतियों की फ़ेहरैस्त लम्बी, और लम्बी होती चली गई।

अब आते हैं हम आज की ग़ज़ल पर। जैसा कि हमने बताया, आज की ग़ज़ल के शायर हैं प्रेम धवन और मौसीक़ार हैं पंडित गोबिन्दराम। फ़िल्म 'नक़ाब' की यह ग़ज़ल है "तेरा ख़याल दिल को सताए तो क्या करें"। पंडित गोबिन्दराम फ़िल्म संगीत के दूसरी पीढ़ी के संगीतकार थे, जिन्होने बहुत सारी फ़िल्मों में संगीत दिया है। सन् १९३७ में फ़िल्म 'जीवन ज्योति' से अपनी पारी की आग़ाज़ करने वाले गोबिन्दराम ने आरम्भिक फ़िल्मों (ख़ूनी जादूगर, हिम्मत, आबरू, पगली, सहारा, सलमा) से ही अपना सिक्का जमा लिय था। संगीत और लोकप्रियता की दृष्टि से फ़िल्म 'दो दिल' ('४७) गोबिन्दराम की सफल फ़िल्मों में अन्यतम है। रीदम और लयकारी पंडित जी के संगीत के ख़ास पहलू हैं। कोरल एफ़ेक्ट्स का उन्होने बड़े सृजनात्मक अंदाज़ में इस्तेमाल दिखाया है। यह जो आज की हमारी फ़िल्म है 'नक़ाब', यही गोबिन्दराम की अंतिम महत्वपूर्ण फ़िल्म थी। मधुबाला और शम्मी कपूर अभिनीत लेखराज भाकरी की १९५५ की इस फ़िल्म में गोबिन्दराम ने लता से कई सुंदर गीत गवाए जैसे कि "ऐ दिल की लगी कुछ तू ही बता", "मेरे सनम तुझे मेरी क़सम", "हम तेरी सितम का कभी शिकवा ना करेंगे" आदि। लता-रफ़ी का गाया "कब तक उठाएँ और ये ग़म इंतज़ार का" भी एक लोकप्रिय रचना है। पर इस फ़िल्म का सब से मक़बूल गीत है तलत साहब का गाया हुआ आज की प्रस्तुत ग़ज़ल। आइए दोस्तों, पंडित गोबिन्दराम, प्रेम धवव और तलत महमूद को अपनी श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए यह ग़ज़ल सुनें, जिसके तीन शेर कुछ इस तरह से हैं -

तेरा ख़याल दिल को सताए तो क्या करें,
दम भर हमें क़रार ना आए तो क्या करें।

जब चांद आए तारों की महफ़िल झूम के,
दिल बार बार तुझको बुलाए तो क्या करें।

कटती नहीं है रात अब तेरे फ़िराक़ में,
हम दिलजलॊं को नींद ना आए तो क्या करें।



क्या आप जानते हैं...
कि जब के. आसिफ़ ने 'मुग़ल-ए-आज़' फ़िल्म की योजना बनाई थी तो संगीतकार के रूप में पहले पंडित गोबिन्दराम को ही चुना था। लेकिन उस समय यह फ़िल्म नहीं बन सकी। बाद में जब इस फ़िल्म को नए सिरे से शुरु किया गया तब तक गोबिन्दराम फ़िल्म जगत को छोड़ चुके थे।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

1. मतले में ये दो शब्द हैं - "जिदगी" और "अँधेरी", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. खान मस्ताना के नाम से गाने वाले गायक हैं इस गीत के संगीतकार, किस नाम से उन्हें क्रेडिट दिया गया है- ३ अंक.
3. फिल्म के नायक थे भारत भूषण, नायिका का नाम बताएं- २ अंक.
4. इस गज़ल के शायर कौन हैं - सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह वाह मज़ा आया, शरद जी आपके हैं २७ अंक अब तक, इंदु जी पीछे हैं १२ अंकों पर और अवध जी उनके ठीक पीछे, देखें पहले कौन शतक बनाता है

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है.. ग़ालिब के दिल से पूछ रही हैं शाहिदा परवीन



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७२

पूछते हैं वो कि "ग़ालिब" कौन है,
कोई बतलाओ कि हम बतलायें क्या

अब जबकि ग़ालिब खुद हीं इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि ग़ालिब को जानना और समझना इतना आसान नहीं तभी तो वो कहते हैं कि "हम क्या बताएँ कि ग़ालिब कौन है", तो फिर हमारी इतनी समझ कहाँ कि ग़ालिब को महफ़िल-ए-गज़ल में समेट सकें.. फिर भी हमारी कोशिश यही रहेगी कि इन दस कड़ियों में हम ग़ालिब और ग़ालिब की शायरी को एक हद तक जान पाएँ। पिछली कड़ी में हमने ग़ालिब को जानने की शुरूआत कर दी थी। आज हम उसी क्रम को आगे बढाते हुए ग़ालिब से जुड़े कुछ अनछुए किस्सों और ग़ालिब पर मीर तक़ी मीर के प्रभाव की चर्चा करेंगे। तो चलिए पहले मीर से हीं रूबरू हो लेते हैं। सौजन्य: कविता-कोष

मोहम्मद मीर उर्फ मीर तकी "मीर" (१७२३ - १८१०) उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के महान शायर थे। मीर का जन्म आगरा मे हुआ था। उनका बचपन अपने पिता की देख रेख मे बीता। पिता के मरणोपरांत ११ की वय मे वो आगरा छोड़ कर दिल्ली आ गये। दिल्ली आ कर उन्होने अपनी पढाई पूरी की और शाही शायर बन गये। अहमद शाह अब्दाली के दिल्ली पर हमले के बाद वह अशफ-उद-दुलाह के दरबार मे लखनऊ चले गये। अपनी ज़िन्दगी के बाकी दिन उन्होने लखनऊ मे ही गुजारे।

अहमद शाह अब्दाली और नादिरशाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को मीर तक़ी मीर ने अपनी आँखों से देखा था। इस त्रासदी की व्यथा उनके कलामो मे दिखती है, अपनी ग़ज़लों के बारे में एक जगह उन्होने कहा था-

हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया

मीर का ग़ालिब पर इस कदर असर था कि ग़ालिब ने इस बात की घोषणा कर दी थी कि:

’ग़ालिब’ अपना ये अक़ीदा है बकौल-ए-’नासिख’,
आप बे-बहरा हैं जो मो’तक़िद-ए-मीर नहीं।

यानि कि नासिख (लखनऊ के बहुत बड़े शायर शेख इमाम बख्श ’नासिख’) के इन बातों पर मुझे यकीन है कि जो कोई भी मीर को शायरी का सबसे बड़ा उस्ताद नहीं मानता उसे शायरी का "अलिफ़" भी नहीं मालूम।

ग़ालिब मीर के शेरों की कहानी इस तरह बयां करते हैं:

मीर के शेर का अह्‌वाल कहूं क्या ’ग़ालिब’
जिस का दीवान कम अज़-गुलशन-ए कश्मीर नही

ग़ालिब को जब कभी खुद पर और खुद के लिखे शेरों पर गुमां हो जाता था, तो खुद को आईना दिखाने के लिए वो यह शेर गुनगुना लिया करते थे:

रेख्ते के तुम हीं उस्ताद नहीं हो ’ग़ालिब’
कहते हैं अगले जमाने में कोई मीर भी था

और इसी ग़ालिब के बारे में मीर का मानना था कि:

अगर इस लड़के को कोई कामिल उस्ताद मिल गया और उसने इसे सीधे रास्ते पर डाल दिया, तो लाजवाब शायर बनेगा, वरना मोहमल (अर्थहीन) बकने लगेगा।

वैसे शायद हीं आपको यह पता हो कि भले हीं मीर लखनऊ के और ग़ालिब दिल्ली के बाशिंदे माने जाते हैं लेकिन दोनों का जन्म अकबराबाद (आगरा) में हुआ था। हो सकता है कि यही वज़ह हो जिस कारण से ग़ालिब मीर के सबसे बड़े भक्त साबित हुए। ग़ालिब और मीर की सोच किस हद तक मिलती-जुलती थी इस बात का नमूना इन शेरों को देखने से मिल जाता है:

मीर:

होता है याँ जहाँ मैं हर रोज़ोशब तमाशा,
देखो जो ख़ूब तो है दुनिया अजब तमाशा ।

ग़ालिब :

बाज़ीचए इत्फाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शबोरोज़ तमाशा मेरे आगे ।

मीर :

बेखुदी ले गयी कहाँ हमको,
देर से इंतज़ार है अपना ।

ग़ालिब :

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती ।

मीर :

इश्क उनको है जो यार को अपने दमे-रफ्तन,
करते नहीं ग़ैरत से ख़ुदा के भी हवाले ।

ग़ालिब :

क़यामत है कि होवे मुद्दई का हमसफ़र 'ग़ालिब',
वह क़ाफिर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाय है मुझसे ।

उर्दू-साहित्य को मीर और ग़ालिब से क्या हासिल हुआ, इस बारे में अपनी पुस्तक "ग़ालिब" में रामनाथ सुमन कहते हैं:जिन कवियों के कारण उर्दू अमर हुई और उसमें ‘ब़हारे बेख़िज़ाँ’ आई उनमें मीर और ग़ालिब सबसे अधिक प्रसिद्ध हैं। मीरने उसे घुलावट, मृदुता, सरलता, प्रेम की तल्लीनता और अनुभूति दी तो ग़ालिब ने उसे गहराई, बात को रहस्य बनाकर कहने का ढंग, ख़मोपेच, नवीनता और अलंकरण दिये।

मीर के बारे में इतना कुछ जान लेने के बाद यह बात तो ज़ाहिर हीं है कि ग़ालिब पर मीर ने जबरदस्त असर किया था। लेकिन मीर से पहले भी कोई एक शायर थे जिन्होंने ग़ालिब को शायरी के रास्ते पर चलना सिखाया था.. वह शायर कौन थे और वह रास्ता ग़ालिब के लिए गलत क्यों साबित हुआ, इस बात का ज़िक्र प्रकाश पंडित अपनी पुस्तक "ग़ालिब और उनकी शायरी" में इस तरह करते हैं:अपने फ़ारसी भाषा तथा साहित्य के विशाल अध्ययन और ज्ञान के कारण ग़ालिब को शब्दावली और शे’र कहने की कला में ऐसी अनगनत त्रुटियाँ नज़र आईं, मस्तिष्क एक टेढ़ी रेखा और एक-प्रश्न बन गया और उन्होंने उस्तादों पर टीका-टिप्पणी शुरू कर दी। उनका मत था कि हर पुरानी लकीर सिराते-मुस्तकीम सीधा-मार्ग) नहीं है और अगले जो कुछ कह गए हैं, वह पूरी तरह सनद (प्रमाणित बात) नहीं हो सकती। अंदाजे-बयां (वर्णन शैली) से नज़र हटाकर और अपना अलग हीं अंदाज़े-बयां अपनाकर जब विषय वस्तु की ओर देखा तो वहाँ भी वही जीर्णता नज़र आई। कहीं आश्रय मिला तो ‘बेदिल’ (एक प्रसिद्ध शायर) की शायरी में जिसने यथार्थता की कहीं दीवारों की बजाय कल्पना के रंगों से अपने चारों ओर एक दीवार खड़ी कर रखी थी। ‘ग़ालिब’ ने उस दीवार की ओर हाथ बढ़ाया तो उसके रंग छूटने लगे और आँखों के सामने ऐसा धुँधलका छा गया कि परछाइयाँ भी धुँधली पड़ने लगीं, जिनमें यदि वास्तविक शरीर नहीं तो शरीर के चिह्न अवश्य मिल जाते थे। अतएव बड़े वेगपूर्ण परन्तु उलझे हुए ढंग से पच्चीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्होंने लगभग २००० शे’र ‘बेदिल’ के रंग में कह डाले। मीर के यह कहने पर कि अगर सही उस्ताद न मिला तो यह अर्थहीन शायर बन जाएगा, ग़ालिब ने खुद में हीं वह उस्ताद ढूँढ निकाला। ग़ालिब की आलोचनात्मक दृष्टि ने न केवल उस काल के २००० शे’रों को बड़ी निर्दयता से काट फेंकने की प्रेरणा दी बल्कि आज जो छोटा-सा ‘दीवाने-ग़ालिब’ हमें मिलता है और जिसे मौलाना मोहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ (प्रसिद्ध आलोचक) के कथनानुसार हम ऐनक की तरह आँखों से लगाए फिरते हैं, उसका संकलन करते समय ‘ग़ालिब’ ने हृदय-रक्त से लिखे हुए अपने सैकड़ों शे’र नज़र-अंदाज़ कर दिए थे। तो यह था ग़ालिब के समर्पण का एक उदाहरण.. ग़ालिब की नज़रों में बुरे शेरों का कोई स्थान नहीं था, इसीलिए तो उन्होंने कत्ल करते वक्त अपने शेरों को भी नहीं बख्शा..

ग़ालिब किस कदर स्वाभिमानी थे, इसकी मिसाल पेश करने के लिए इस घटना का ज़िक्र लाजिमी हो जाता है:

१८५२ में जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया और अपनी दुरवस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेट्री, गवर्नमेंट ऑफ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि उनके स्वागत को टामसन साहब बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को पालकी वापस ले चलने के लिए कह दिया(ग़ालिब जहाँ कहीं जाते थे चार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे।) टामसन साहब को सूचना मिली तो बाहर आए और कहा कि चूँकि आप मुलाक़ात के लिए नहीं नौकरी के लिए आए हैं इसलिए कोई स्वागत को कैसे हाज़िर हो सकता है ? इसका उत्तर मिर्ज़ा ने यह दिया कि मैं नौकरी इसलिए करना चाहता हूँ कि उससे मेरी इज़्ज़त में इज़ाफा हो, न कि जो पहले से है, उसमें भी कमी आ जाए। अगर नौकरी के माने इज़्ज़त में कमी आने के हैं, तो ऐसी नौकरी को मेरा दूर ही से सलाम ! और सलाम करके लौट आए।

ग़ालिब के बारे में बातें तो होती हीं रहेंगी। क्यों न हम आगे बढने से पहले इन शेरों पर नज़र दौड़ा लें:

इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दिल की दवा करे कोई (सीधे-सीधे खुदा पर सवाल दागा है ग़ालिब ने)

जब तवक़्क़ो ही उठ गयी "ग़ालिब"
क्यों किसी का गिला करे कोई


और अब पेश है आज की वह गज़ल जिसके लिए हमने महफ़िल सजाई है। इस गज़ल में अपनी आवाज़ से चार चाँद लगाया है जानीमानी फ़नकारा शाहिदा परवीन ने। शाहिदा जी के बारे में हमने इस कड़ी में बहुत सारी बातें की थीं। मौका हो तो जरा उधर से भी घुमकर आ जाईये। तब तक हम दिल-ए-नादाँ को दर्द से लड़ने की तरकीब बताए देते हैं। ओहो.. आ भी गए आप.... तो तैयार हो जाईये दर्द से भरी इस गज़ल को महसूस करने के लिए। इस गज़ल में जिस चोट का ज़िक्र हुआ है, उसे समझने के लिए दिल चाहिए.... और महफ़िल-ए-गज़ल में आए मुसाफ़िर बे-दिल तो नहीं!!:

दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है

हम हैं मुश्ताक़ और वो ___
या इलाही ये माजरा क्या है

हमको उनसे वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है

हाँ भला कर तेरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है

मैंने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आये तो बुरा क्या है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "ख़लिश" और शेर कुछ यूँ था:

कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीमकश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता

ग़ालिब के दिल की खलिश को सबसे पहले ढूँढ निकाला सीमा जी ने। आपने इस शब्द पर ये सारे शेर पेश किए:

ये किस ख़लिश ने फिर इस दिल में आशियाना किया
फिर आज किस ने सुख़न हम से ग़ायेबाना किया (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )

ख़लिश के साथ इस दिल से न मेरी जाँ निकल जाये
खिंचे तीर-ए-शनासाई मगर आहिस्ता आहिस्ता (परवीन शाकिर )

गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आशनाई का
ज़बाँ है शुक्र में क़ासिर शिकस्ता-बाली के
कि जिनने दिल से मिटाया ख़लिश रिहाई का (सौदा )

शरद जी, अगर ग़ालिब आज ज़िंदा होते और उनकी नज़र आपके इस शेर पर जाती तो यकीनन उनके मुँह से वाह निकल जाता। चलिए ग़ालिब की कमी हम पूरा कर देते हैं... वाह! क्या खूब कहा है आपने...

जाने रह रह के मेरे दिल में खलिश सी क्यूं है
आज क्या बे-वफ़ा ने फिर से मुझे याद किया ?

जैन साहब.. बड़ी हीं दिलचस्प और काबिल-ए-गौर बात कह डाली आपने। वैसे भी इश्क में इलाज वही करता है जो रोग दे जाता है..फिर उस चारागर से हीं खलिश छुपा जाना तो खुद के हीं पाँव पर कुल्हाड़ी मारने के बराबर होगा। है ना? यह रहा आपका शेर:

वाकिफ नहीं थे हम तो तौर-ए-इश्क से
चारागर से भी खलिश-ए-जिगर छुपा बैठे

सुमित जी... शायर से वाकिफ़ कराने का शुक्रिया। आपकी यह बात अच्छी है कि आप अगर महफ़िल से जाते हैं तो फिर शेर लेकर लौटते जरूर हैं। लेकिन यह क्या इस बार भी शायर का नाम गायब.. अगर आपने खुद लिखा है तो स्वरचित का मोहर हीं लगा देते:

वो ना आये तो सताती है खलिश सी दिल को,
वो जो आ जाए तो खलिश और जवां होती है

शन्नो जी, शेर कहना बड़ी बात है.. शेर कैसा है और किस अंदाज़-ओ-लहजे में लिखा है इस बारे में फिक्र करने का क्या फ़ायदा। जो भी मन में आए लिखते जाईये.. यह रही आपकी पेशकश:

मेरे दोस्त के दिल में आज कोई खलिश सी है
लगता है कोई खता हो गयी मुझसे अनजाने में

नीलम जी, चलिए शन्नो जी के कहने पर आपको अपनी महफ़िल याद तो आई। अब आ गई हैं तो लौटने का ज़िक्र भी मत कीजिएगा। एक बात और... अगली बार आने पर कुछ शेर भी समेट लाईयेगा।

अवनींद्र साहब.. महफ़िल आपकी हीं है। इसमें इज़्ज़त देने और न देने का सवाल हीं नहीं उठता। ये रहे आपके लिखे कुछ शेर:

तेरी खलिश सीने मैं इस तरह समायी है
सांस ली जब भी हमने आंख भर आई है !!

चश्मे - नम औ मेरी तन्हाई की धूप तले
खिल रहे हैं तेरी खलिश के सफ़ेद गुलाब

मंजु जी, आपने खुद का लिखा शेर पेशकर महफ़िल की शमा बुझाई। इसके लिए आपका तहे-दिल से शुक्रिया। यह रहा वह शेर:

एक शाम आती है तेरे मिलन का इन्तजार लिए ,
वही रात जाती है विरह की खलिश दिए

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, February 23, 2010

गर तेरी नवाज़िश हो जाए...अंदाज़े मुहब्बत और आवाजे तलत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 354/2010/54

'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़' शृंखला की यह है चौथी कड़ी। १९५४ में तलत महमूद के अभिनय व गायन से सजी दो फ़िल्में आईं थी - 'डाक बाबू' और 'वारिस'। इनके अलावा बहुत सारी फ़िल्मों में इस साल उनकी आवाज़ छाई रही जैसे कि 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'टैक्सी ड्राइवर', 'अंगारे', 'सुबह का तारा', 'कवि', 'मीनार', 'सुहागन', 'औरत तेरी यही कहानी', और 'गुल बहार'। आज की कड़ी के लिए हमने चुना है फ़िल्म 'गुल बहार' की एक ग़ज़ल "गर तेरी नवाज़िश हो जाए"। संगीतकार हैं धनीराम और ख़य्याम। इस फ़िल्म में तीन गीतकारों ने गीत लिखे हैं - असद भोपाली, जाँ निसार अख़्तर और शेवन रिज़्वी। प्रस्तुत ग़ज़ल के शायर हैं शेवन रिज़्वी। नानुभाई वकील निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे शक़ीला, हेमन्त और कुलदीप कौर। दोस्तों, जमाल सेन और स्नेहल भाटकर की तरह धनीराम भी एक बेहद कमचर्चित संगीतकार रहे। यहाँ तक कि उन्हे बी और सी-ग्रेड की फ़िल्में भी बहुत ज़्यादा नहीं मिली। फिर भी जितना भी काम उन्होने किया है, जितने भी धुनें उन्होने बनायी हैं, वे सब फ़िल्म संगीत धरोहर के कुछ ऐसे अनमोल रतन हैं कि उनके योगदान को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। धनीराम फ़िल्म जगत में दाख़िल हुए थे १९४५ में जब पंडित अमरनाथ ने उनसे फ़िल्म 'झुमके' का "तेरे बग़ैर भी दिलशाद कर तो सकता हूँ" और 'धमकी' का "अपने कोठे मैं खड़ी" जैसे गीत गवाया था। गायक के रूप में धनीराम को निराशा ही हाथ लगी। बतौर संगीतकार उनकी पहली फ़िल्म थी १९४८ की 'पपीहा रे'। उसके बाद १९५३ में उनकी अगली फ़िल्म आई 'धुआँ', जिसका संगीत धनीराम ने वसंत देसाई के साथ शेयर किया, ठीक वैसे ही जैसे कि आज के गीत का संगीत उन्होने शेयर किया ख़य्याम साहब के साथ। धनीराम के सब से चर्चित फ़िल्म रही 'डाक बाबू' ('५४), लेकिन इस फ़िल्म के संगीत की भी उतनी चर्चा नहीं हुई जितनी कि होनी चाहिए थी। धनीराम के करीयर की कुछ और महत्वपूर्ण फ़िल्मों के नाम हैं - 'गुल बहार', 'रूप बसंत', 'शाही चोर', 'आँख का नशा', 'शाही बाज़ार', 'तक़दीर', 'बाजे घुँघरू', 'मेरी बहन', और 'आवारा लड़की'। (सौजन्य: धुनो की यात्रा - पंकज राग)।

दोस्तों, हमने इस शृंखला की पिछली कड़ियों में आपको बताया कि किस तरह से तलत महमूद संगीत की दुनिया से जुड़े और कैसे उनके अभिनय की भी पारी शुरु हुई थी कलकत्ता के न्यु थिएटर्स में। फ़िल्मी प्लेबैक में उनकी एंट्री किस तरह से हुई यह हम आपको कल की कड़ी में बताएँगे। आज बात करते हैं उनके ग़ज़ल गायकी की। तलत साहब की आवाज़ में संगीतकारों को ग़ज़ल गायकी के सभी गुण दिखाई देते थे। उनका उच्चारण और अदायगी बिल्कुल पर्फ़ेक्ट हुआ करती थी, ना कम ना ज़्यादा। उनका एक्स्प्रेशन, उनके जज़्बात, उनका स्टाइल कुछ ऐसा था कि जो किसी भी दूसरे गायक में नहीं मिलता था। उनकी आवाज़ में जो मिठास, जो कोमलता, और जो दर्द था, वही उनको दूसरे गायकों की भीड़ से अलग करती थी। जब वो फ़िल्म जगत में आए तब उनके जैसे आवाज़-ओ-अंदाज़ वाला कोई भी गायक नहीं था। इसलिए एक ताज़े हवा के झोंके की तरह उनकी एंट्री हुई और आज तक उनके जैसी आवाज़ वाला कोई भी नहीं जन्मा। 'ग़ज़लों के बादशाह' के रूप में तलत साहब जाने गए, और जल्द ही वो एक 'लिविंग् लीजेण्ड' के रूप में माने गए। आज भले वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ के जलवे आज भी बरक़रार है। ६० के दशक के अंत में फ़िल्म संगीत ने जब करवट बदली, ग़ज़लों और सॊफ़्ट रोमांटिक गीतों का चलन कम होने लगा, तब तलत साहब को यह बदलाव रास नहीं आया और उन्होने अपना पूरा ध्यान ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों में लगा दिया। ८० के दशक में भी उनकी गाई हुई ग़ज़लों के रिकार्ड्स जारी हुए हैं। इस शृंखला में भी हम उन्ही में से एक ग़ज़ल आपको सुनवाएँगे, लेकिन आज प्रस्तुत है फ़िल्म 'गुल बहार' की यह ग़ज़ल, जिसके चार शेर इस तरह से हैं -

गर तेरी नवाज़िश हो जाए गर तेरा इशारा हो जाए,
हर मौज सहारा दे जाए तूफ़ान किनारा हो जाए।

तुम हम से जफ़ाएँ करते हो, और हम ये दुआएं देते हैं,
जो हाल हमारा है इस दम वह हाल तुम्हारा हो जाए।

हम इश्क़ के मारे दुनिया में इतनी सी तमन्ना रखते हैं,
दामन जो तुम्हारा हाथ आए जीने का सहारा हो जाए।

परदा तो हटा दो चेहरे से वीरानें गुलिस्ताँ बन जाएँ,
जलवा जो दिखा दो तो रोशन क़िस्मत का सितारा हो जाए।



क्या आप जानते हैं...
धनीराम और दक्षिण के संगीतकार आर सुदर्शन ने मिलकर ए वी एम् की फिल्म "लड़की" में संगीत दिया था, इस फिल्म में गीता दत्त की आवाज़ एक खूबसूरत गीत था "बाट चलत नयी चुनरी रंग डाली". इन्हीं शब्दों को "रानी रूपमती" (१९५९) में रफ़ी और कृष्णराव चोनकर ने भैरवी में भी खूब गाया था

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

1. मतले में ये दो शब्द हैं - "ख्याल" और "करार", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. इस शायर का नाम वही है जो "मैंने प्यार किया" में सलमान खान का स्क्रीन नाम था, इस गीतकार का पूरा नाम बताएं- २ अंक.
3. इस गीत के संगीतकार ने १९३७ में फिल्म जीवन ज्योति से शुरूआत की थी इनका नाम बताएं- २ अंक.
4. इस गज़ल की फिल्म का नाम क्या है, अभी कुछ सालों पहले फिर इसी नाम की एक फिल्म बनी थी जिसमें "एक दिन तेरी राहों में..." जैसा सुपर हिट गाना था- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
इस बार निशाना एक दम सटीक है इंदु जी, अरे आप तो जवानों को मात दे रही हैं, आपको बू... कहने की जुर्रत भला हम कैसे कर सकते हैं, अवध जी की तस्वीर कल पहली बार देखी, आप भी खासे जवाँ हैं जनाब. आप दोनों को बधाई...शरद जी स्वागत है आपके २ अंक भी सुरक्षित...बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Monday, February 22, 2010

ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे...पूछते हैं तलत साहब नक्श की इस गज़ल में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 353/2010/53

ह है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल और आप इन दिनों इस पर सुन रहे हैं तलत महमूद साहब पर केन्द्रित शृंखला 'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत साहब की गाई ग़ज़लों के अलावा इसमें हम आपको उनके जीवन से जुड़ी बातें भी बता रहे हैं। कल हमने आपको उनके शुरुआती दिनों का हाल बताया था, आइए आज उनके शब्दों में जानें कि कैसा था उनका पहला पहला अनुभव बतौर अभिनेता। ये उन्होने विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में कहे थे। "कानन देवी, एक और महान फ़नकार। उनके साथ मैंने न्यु थिएटर्स की फ़िल्म 'राजलक्ष्मी' में एक छोटा सा रोल किया थ। उस फ़िल्म में एक रोल था जिसमें उस चरित्र को एक गाना भी गाना था। निर्देशक साहब ने कहा कि आप तो गाते हैं, आप ही यह रोल कर लीजिये। मं अगले दिन ख़ूब शेव करके, दाढ़ी बनाकर सेट पर पहुँच, और तब मुझे पता चला कि दरसल रोल साधू का है। मेक-अप मैन आकर मेरा पूरा चेहरा सफ़ेद दाढ़ी से ढक दिया। जब गोंद सूखने लगा तो चेहरा इतना खिंचने लगा कि मुझसे मुंह भी खोला नहीं जा रहा था। निर्देशक साहब ने कहा कि ज़रा मुंह खोल कर तो गाओ! मुझे उन पर बड़ा ग़ुस्सा आया और दिल किया कि दाढ़ी उतार कर फेंक दूँ। तभी वहाँ आ पहुँची कानन देवी और मैं अपने आप को संभाल लिया।" दोस्तों, थी यह एक मज़ेदार क़िस्सा। 'राजलक्ष्मी' तलत महमूद साहब की पहली फ़िल्म थी बतौर अभिनेता और गायक। साल था १९४५। इसके बाद उन्होने १२ और फ़िल्मों में अभिनय किया जिनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है - तुम और मैं ('४७), समाप्ति ('४९), आराम ('५१), दिल-ए-नादान ('५३), डाक बाबू ('५४), वारिस ('५४), रफ़्तार ('५५), दिवाली की रात ('५६), एक गाँव की कहानी ('५७), लाला रुख़ ('५८), मालिक ('५८) और सोने की चिड़िया ('५८)। आज के अंक के लिए हमने जिस ग़ज़ल को चुना है वह है १९५६ की फ़िल्म 'दिवाली की रात' का। "ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे, हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे"। नक्श ल्यालपुरी का क़लाम और मौसिक़ी कमचर्चित संगीतकार स्नेहल भाटकर की।

'दिवाली की रात' फ़िल्म में तलत महमूद साहब के साथ पर्दे पर नज़र आईं रूपमाला और शशिकला। फ़िल्म के निर्मता थे विशनदास सप्रू और राम रसीला, तथा निर्देशक थे दीपक आशा। प्रस्तुत ग़ज़ल के शायर नक्श ल्यायलपुरी के अलावा इस फ़िल्म के गानें लिखे मधुकर राजस्थानी ने। आपको यहाँ बताना चाहेंगे कि नक्श साहब ने फ़िल्मी दुनिया में बतौर गीतकार क़दम रखा था सन् १९५२ में जगदीश सेठी की फ़िल्म 'जग्गू' में, जिसमें उन्होने एक कैबरे गीत लिखा था। जसवंत राय के नाम से पंजाब के ल्यायलपुर में जन्मे नक्श साहब अपने स्कूली दिनों से ही लिखने में प्रतिभा रखते थे। उनके उर्दू टीचर परीक्षाओं के बाद उनकी कॊपियाँ अपने पास रख लेते थे, नोट्स के लिए नहीं बल्कि उन शेरों और कविताओं के लिए जो आख़िरी पन्नों पर वो लिखा करते थे। नक्श साहब की यह प्रतिभा परवान चढ़ती गई और वो स्कूल से कॊलेज में दाख़िल हुए। देश के बंटवारे के बाद वो अपने परिवार के साथ लखनऊ आ गए, लेकिन उनकी सृजनात्मक पिपासा और उनकी बेरोज़गारी ने उन्हे लखनऊ छोड़ बम्बई चले जाने पर मजबूर किया। उस समय उनकी आयु १९ वर्ष की थी और साल था १९५१। बम्बई के वो शुरुआती बहुत सुखद नहीं थे। लेकिन उन्हे कुछ राहत मिली जब डाक-तार विभाग में उन्हे एक नौकरी मिल गई। लेकिन उनके जैसे प्रतिभाशाली इंसान की वह जगह नहीं थी। बहरहाल वहाँ पर उन्होने कुच दोस्त बनाए और उन्ही दोस्तों के आग्रह पर उन्होने एक नाटक लिखा 'तड़प', जो उनके लिए फ़िल्म जगत में दाख़िले के लिए मददगार साबित हुआ। राम मोहन, जो उस नाटक के नायक थे और फ़िल्मकार जगदीश सेठी के सहायक भी, नक्श साहब को सेठी साहब के पास ले गए, और इस तरह से उन्हे फ़िल्म 'जग्गू' में गीत लिखने का मौका मिला और हिंदी फ़िल्म जगत में उनकी एंट्री हो गई। नक्श साहब की बातें आगे भी जारी रहेंगे, फ़िल्हाल सुना जाए तलत साहब की मख़मली आवाज़, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर।

ज़िंदगी किस मोड़ पर लाई मुझे,
हर ख़ुशी रोती नज़र आई मुझे।

जिनके दामन में सुहाने ख़्वाब थे,
फिर उन्ही रातों की याद आई मुझे।

हो गई वीरान महफ़िल प्यार की,
ये फ़िज़ा भी रास ना आई मुझे।

छीन कर मुझसे मेरे होश-ओ-हवास,
अब जहाँ कहता है सौदाई मुझे।



क्या आप जानते हैं...
तलत महमूद की फ़िल्म 'दिल-ए-नादान' के हीरोइन की तलाश के लिए ए. आर. कारदार ने 'ऒल इंडिया बिउटी कॊंटेस्ट' का आयोजन किया जिसे प्रायोजित किया उस ज़माने की मशहूर टूथपेस्ट कंपनी 'कोलीनोस' ने। इस कॊंटेस्ट की विजेयता बनीं पीस कंवल (Peace Kanwal), जो नज़र आए तलत साहब के साथ 'दिल-ए-नादान' में।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

1. तलत की गाई इस ग़ज़ल के मतले में शब्द है- "नवाज़िश", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. कौन हैं इस गज़ल के शायर- २ अंक.
3. नानुभाई वकील निर्देशित इस फिल्म के संगीतकार का नाम बताएं जो बेहद कमचर्चित ही रहे- २ अंक.
4. एक और मकबूल संगीतकार का भी नाम जुड़ा है इस गीत के साथ उनका भी नाम बताएं- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी, आप बड़ी हैं, कुछ विपक्ष में कहने की हिम्मत नहीं होती, इसलिए अपनी जान बचने की खातिर हम ये इलज़ाम शरद जी के सर डाल देते हैं, दरअसल उनका सुझाव था और इससे हमें भी इत्तेफाक है कि यदि सारे जवाब आ जाते हैं तो बाकी श्रोता मूक दर्शक बने रहते हैं, और हमारा उद्देश्य सबकी भागीदारी है, वैसे कल के सवाल का कोई सही जवाब नहीं आया. अवध जी बहुत दिनों में आये और जवाब दिए बिना चले गए. :), खैर आज सही

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कविता और संगीत का अनूठा मेल है "काव्यनाद"



ताज़ा सुर ताल ०८/२०१०

सुजॉय- सजीव आज आपके चेहरे पर एक अजीब सी खुशी है, इसकी वजह...
सजीव- हाँ सुजॉय मैं हिंद युग्म के अपने प्रोडक्ट "काव्यनाद" को विश्व पुस्तक मेले में मिली आपार सफलता और वाह वाही से बहुत खुश हूँ.
सुजॉय- हाँ सजीव मैंने भी यह अल्बम सुनी, और सच कहूँ तो ये मेरी अपेक्षाओं से कहीं बेहतर निकली, इतनी पुरानी कविताओं पर इतनी मधुर धुनें बन सकती है, यकीं नहीं होता.
सजीव- बिलकुल सुजॉय, ये इतना आसान हरगिज़ नहीं था, पर जैसा कि मैंने हमेश विश्वास जताया है युग्म के सभी संगीतकार बेहद प्रतिभाशाली हैं, ये सब कुछ संभव कर सकते हैं.
सुजॉय- तो इसका अर्थ है सजीव कि आज हम इसी अनूठी अल्बम को ताज़ा सुर ताल में पेश करने जा रहे हैं ?

सजीव- जी सुजॉय, काव्यनाद प्रसाद, निराला, दिनकर, महादेवी, पन्त, और गुप्त जैसे हिंदी के प्रतीक कवियों की ६ कविताओं का संगीतबद्ध संकलन है, ६ कविताओं को संगीत के अलग अलग अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है, कुल १४ गीत हैं, और सबसे अच्छी बात ये हैं कि सभी एक दूसरे से बेहद अलग ध्वनि देते हैं.
सुजॉय- सबसे पहले मैं इसमें से उस गीत को सुनवाना चाहूँगा जो मुझे व्यक्तिगत तौर पर बहुत पसंद आया, धर्मेन्द्र कुमार सिंह की आवाज़ में पन्त की ये रचना बेहद मधुर बन पड़ी है. इसका रेट्रो फील मुझे बहुत भाया.
सजीव- धर्मेन्द्र हिंदी भोजपुरी के एक युवा गायक हैं, जिनमें बहुत संभावना नज़र आती है, संगीत संयोजन अखिलेश कुमार का है, सुनते हैं ये गीत

प्रथम रश्मि का आना (धर्मेन्द्र कुमार), पारंपरिक संस्करण....pratham reshmi (kavyanaad)


सुजॉय -बहुत खूब था ये गीत. धमेन्द्र की आवाज़ में मुकेश की गायिकी झलकती है कहीं न कहीं...
सजीव -हाँ, चलिए अब सुनते हैं जय शंकर प्रसाद की एक देशभक्ति रचना...
सुजॉय- इसे स्वप्न मंजूषा शैल ने भी बहुत अच्छा गाया है, पर आप शायद युवा गायक कृष्ण राज कुमार का संस्करण सुनवाने जा रहे हैं...ठीक ?
सजीव - हाँ, दरअसल कृष्ण एक ऐसे संगीतकार/गायक हैं जिनका दूसरे सत्र में योगदान मात्र एक गीत का था, कोई भी उनसे बहुत उम्मीद नहीं कर रहा था. पर देखिये न सिर्फ उन्होंने हर बार हिस्सा लिया, वो लगभग हर बार कोई न कोई सम्मान भी जीतते चले गए.
सुजॉय- सजीव काव्यनाद के बनने की कहानी भी ज़रा संक्षिप्त में हमारे श्रोताओं को बताईये.
सजीव- हाँ जरूर, दरअसल "पहला सुर" जो युग्म के संगीत का पहला प्रोडक्ट था के माध्यम से हमारे पास नए उभरते हुए कलाकारों का एक अच्छा ख़ासा पूल जमा हो गया था. युग्म से लंबे समय से जुड़े, रेडियो सलाम नमस्ते के उद्‍घोषक, कवि, वैज्ञानिक और हिन्दीकर्मी आदित्य प्रकाश ने इस बेमिसाल सुझाव को सामने रखा. शुरू में हम झिझक रहे थे कि कैसे हमारे नयी सदी के संगीतकार इन क्लास्सिक रचनाओं के साथ न्याय कर पायेंगें, इसलिए प्रतियोगिता का स्वरूप अपनाया, ताकि अधिक से अधिक प्रतिभागी हिस्सा लेने के लिए प्रेरित हों. इन विजेताओं को पुरस्कार दिए गए उस राशि को भी आदित्य प्रकाश जी, शेर बहादुर सिंह जी, डॉ॰ ज्ञान प्रकाश सिंह जी, अशोक कुमार जी, डॉ॰ कमल किशोर सिंह, दीपक चौरसिया 'मशाल', डॉ॰ शिरीष यकुन्डी, डॉ॰ प्रशांत कोले, डॉ॰ रघुराज प्रताप सिंह ठाकुर और शैलेश त्रिपाठी ने प्रायोजित किया.
सुजॉय- सजीव बातें बहुत से लोग कर लेते हैं, पर वास्तव में कुछ करना क्या होता है ये आदित्य जी और उनकी टीम ने सिखाया है, भाषा के इन सच्चे सपूतों को सलाम करते हुए सुनते हैं, ये गीत

गीत - अरुण ये मधुमय देश हमारा (कृष्ण राजकुमार) arun ye madhumay desh (kavyanaad)


सजीव- जो तुम आ जाते एक बार....
सुजॉय- किसकी बात कर रहे हो सजीव.
सजीव- महादेवी जी की इस अनमोल रचना के बारे में कुछ कहने को मेरे पास शब्द नहीं हैं...
सुजॉय- पर मेरे पास एक युवा गायिका, कुहू गुप्ता के बारे में कहने को बहुत कुछ है...पुणे में रहने वाली कुहू गुप्ता पेशे से सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। गायकी इनका जज्बा है। ये पिछले 5 वर्षों से हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ले रही हैं। इन्होंने राष्ट्रीय स्तर की कई गायन प्रतिस्पर्धाओं में भाग लिया है और इनाम जीते हैं। इन्होंने ज़ी टीवी के प्रचलित कार्यक्रम 'सारेगामा' में भी 2 बार भाग लिया है। जहाँ तक गायकी का सवाल है तो इन्होंने कुछ व्यवसायिक प्रोजेक्ट भी किये हैं।
सजीव- हिंद युग्म पर आई सबसे सुरीली आवाजों में है कुहू गुप्ता की आवाज़. और देखिये तो ज़रा इस गीत में उन्होंने कितने खूबसूरत रंग भर दिए हैं. वैसे इस गीत के संगीतकार श्रीनिवास के बारे में भी थोडा सा बताना चाहूँगा. मूलरूप से तेलगू और उड़िया गीतों में संगीत देने वाले श्रीनिवास पांडा का एक उड़िया एल्बम 'नुआ पीढ़ी' रीलिज हो चुका है। इन दिनों हैदराबाद में हैं और अमेरिकन बैंक में कार्यरत हैं।
सुजॉय- अब सुन लिया जाए ये गीत

गीत - जो तुम आ जाते एक बार (कुहू/श्रीनिवास) jo tum aa jaate ek baar (kavyanaad)


सजीव- कुहू की तरह ही एक और उभरते हुए गायक के साथ टीम बनायीं है श्रीनिवास ने अगले गीत के लिए.
सुजॉय- हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।
सजीव- हाँ सुजॉय बिस्वजीत की आवाज़ के बहुत से प्रशंसक हैं पहले ही, तो बिना अधिक कुछ कहे सुन लेते हैं ते गीत

गीत - स्नेह निर्झर (बिस्वजीत/श्रीनिवास)...sneh nirjhar (kavyanaad)


सजीव- सुजॉय यहाँ मैं आदित्य जी एक और साथी और काव्यनाद के एक और प्रायोजक का जिक्र करना चाहूँगा. ये हैं डॉ॰ ज्ञान प्रकाश सिंह, जो पिछले 30 वर्षों से मानचेस्टर, यूके में प्रवास कर रहे हैं। कवि हृदयी, कविता-मर्मज्ञ और साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने वाले- ये सभी इनके विशेषण हैं।
सुजॉय- जी बिकुल तभी तो इन्होने आगे बढ़ कर इस बड़े आयोजन में अपना योगदान दिया. इनके अलावा रिवरहेड, न्यूयार्क के कमल किशोर सिंह जी भी हैं जो पेशे से डॉक्टर हैं। हिन्दी तथा भोजपुरी में कविताएँ लिखते हैं। इन्होने गीतकास्ट प्रतियोगिता में हिस्सा भी लिया है हर बार. जीते तो नहीं पर फिर भी आयोजन की एक कड़ी को प्रायोजित कर स्पोर्ट्स मेन् शिप दिखाई और साहित्य सेवा में अपना समर्पण भी.
सजीव- राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता "कलम आज उनकी जय बोल" को स्वरबद्ध करना निश्चित ही आसान नहीं रहा होगा, पर एक बार हमारे संगीतकारों ने अपना लोहा मनवाया.
सुजॉय- इस गीत में एक और नयी आवाज़ सुनाई पड़ती है -प्रदीप सोम सुन्दरन की. जो लोग टीवी पर म्यूजिकल शो देखने के शौक़ीन हैं, उन्होंने भारतीय टेलीविजन पर पहले सांगैतिक आयोजन 'मेरी आवाज़ सुनो' को ज़रूर देखा होगा। प्रदीप सोमसुंदरन को इसी कार्यक्रम में सन 1996 में सर्वश्रेष्ठ पार्श्व गायक चुना गया था और लता मंगेशकर सम्मान से सम्मानित किया गया था।
सजीव- प्रदीप कनार्टक शास्त्रीय गायन के अतिरिक्त हिन्दी, मलयालम, तमिल, तेलगू, अंग्रेज़ी और जापानी आदि भाषाओं में ग़ज़लें और भजन गाते हैं। इन्होंने कई मलयालम फिल्मी गीतों में अपनी आवाज़ दी है। इस गीत में आप हिंद युग्मी निखिल आनंद गिरी की भी आवाज़ सुन सकते हैं.

गीत - कलम आज उनकी जय बोल (निखिल/प्रदीप/श्रीनिवास)... kalam aaj unki jai bol (kavyanaad)


सुजॉय- अब बारी आज के अंतिम गीत की. एक चिर प्रेरणा है इस गीत में, यूं तो इस गीत के भी सभी संस्करण बहुत खूब हैं, पर इस गीत के बहाने कुछ चर्चा कर लें रफीक शेख की भी, इन्हें तो आवाज़ के दूसरे सत्र में सर्वश्रेष्ठ गीत का पुरस्कार भी मिला है न ?
सजीव- जी सुजॉय, रफ़ीक़ शेख आवाज़ टीम की ओर से पिछले वर्ष के सर्वश्रेष्ठ गायक-संगीतकार घोषित किये जा चुके हैं। रफ़ीक ने दूसरे सत्र के संगीत मुकाबले में अपने कुल 3 गीत (सच बोलता है, आखिरी बार, जो शजर सूख गया है) दिये और तीनों के तीनों गीतों ने शीर्ष 10 में स्थान बनाया।
सुजॉय- वाह, चलिए रफ़ीक भाई को सुनते हैं मगर उससे पहले दीपक मशाल और उनके साथियों का भी जिक्र कर दें जिन्होंने उस आयोजन को मुक्कमल करने में विद्यार्थी होने के बावजूद योगदान दिया.
सजीव- बिलकुल सुजॉय, अगर चाहत हो मन में तो सब कुछ संभव है....यही सीख है गुप्त जी की एक कविता में भी, सुनिए

गीत - नर हो न निराश करो (रफीक शेख) nar ho na niraash karo (kavyanaad)


"काव्यनाद" के संगीत को आवाज़ रेटिंग ****
काव्यनाद एक अनूठी पहल है, बहुत कुछ नया है और प्रयोगात्मक भी. आज की पीढ़ी को लगभग १०० वर्ष पहले लिखी कविताओं को इस रूप में पेश करने का प्रयास सराहनीय है, पर अभी प्रस्तुति के मामले में सुधार की गुन्जायिश है, हिंद युग्म ने अपने पहले प्रोडक्ट से बेहतर काम दिखाया है इस बार, उम्मीद करेंगें कि आने वाले प्रोडक्ट्स और बेहतर साबित होंगें.

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # २२- काव्यनाद के विमोचन के साथ साथ हिंद युग्म आवाज़ ने एक और अनूठी एल्बम को भी उतरा है, बीते पुस्तक मेले में इसकी भी खूब चर्चा रही, इस अल्बम का नाम बताएं.
TST ट्रिविया # २३ लन्दन ड्रीम्स में एक मशहूर गीत गाने वाले गायक की आवाज़ भी है "काव्यनाद" में, कौन हैं ये गायक ?
TST ट्रिविया # २४ एल्बम "काव्यनाद" का विमोचन किसी मशहूर हस्ती के हाथों हुआ


TST ट्रिविया में अब तक -
अनुराग जी दो सही जवाब मिले आपके और ४ अंकों से खाता खुला है आपका...बधाई

Sunday, February 21, 2010

आंसू तो नहीं है आँखों में....तलत के स्वरों में एक और ग़मज़दा नगमा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 352/2010/52

'दस महकती ग़ज़लें और एक मख़मली आवाज़'। तलत महमूद साहब के गाए १० बेमिसाल ग़ज़लों पर आधारित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस ख़ास पेशकश की दूसरी महफ़िल में आप सभी का स्वागत है। इससे पहले कि आज की ग़ज़ल का ज़िक्र करें, आइए आज तलत महमूद साहब के शुरुआती दिनों का हाल ज़रा आपको बताया जाए। २४ फ़रवरी १९२४ को लखनऊ में मंज़ूर महमूद के घर जन्मे तलत कुंदन लाल सहगल के ज़बरदस्त फ़ैन बने। बदक़िस्मती से उनके घर में संगीत का कोई वातावरण नहीं था, बल्कि उनके पिताजी तो संगीत के पूरी तरह से ख़िलाफ़ थे। उनकी मौसी के अनुरोध पर तलत के पिता ने उन्हे लखनऊ के मॊरिस कॊलेज से एक छोटा सा म्युज़िक का कोर्स करने की अनुमती दे दी। वहीं पर तलत महमूद ने ग़ज़लें गानी शुरु की। १६ वर्ष की आयु में तलत ऑल इंडिया रेडियो के लखनऊ केन्द्र में ग़ालिब, दाग़ और जिगर की ग़ज़लें गाया करते थे। एच. एम. वी ने उनकी आवाज़ सुनी और सन् १९४१ में उनका पहला ग्रामोफ़ोन रिकार्ड जारी किया। उसमे एक गीत था "सब दिन एक समान नहीं था, बन जाउँगा क्या से क्या मैं, इसका तो कुछ ध्यान नहीं था"। दोस्तों, इस गीत के ये बोल उनके लिए सच साबित हुई और कुछ नहीं से तलत महमूद बन गए फ़िल्म जगत के पहली श्रेणी के पार्श्वगायक। तलत साहब इतने हैंडसम थे कि कई फ़िल्मों में उन्होने बतौर हीरो काम किया। इसे भाग्य का खेल ही कहिए कि उनके अभिनय से सजी फ़िल्में हिट नहीं हुई और एक समय के बाद उन्होने केवल गायन में ही अपना पूरा ध्यान लगाने की ठान ली। अभिनय में भले उनको कामयाबी न मिली हो, लेकिन गायन में उन्होने वो मुकाम हासिल किया जिस मुकाम के लिए हर गायक तरसता है। तलत साहब के जीवन की आगे की दास्तान कल की कड़ी में जारी रहेगी, फिलहाल हम बढते हैं आज के गज़ल की तरफ।

आज हम आपको सुनवाने के लिए लाए हैं १९५३ की फ़िल्म 'दायरा' से एक ग़ज़ल जिसे लिखा है मजरूह सुल्तानपुरी ने और स्वरबद्ध किया है कमचर्चित संगीतकार जमाल सेन ने। जमाल सेन मास्टर ग़ुलाम हैदर के सहायक हुआ करते थे, जिन्होने स्वतंत्र रूप से संगीत देना शुरु किया हैदर साहब के पाकिस्तान चले जाने के बाद। उनके संगीत से सजी पहली फ़िल्म थी 'शोख़ियाँ' (१९५१)। 'दायरा' कमाल अमरोही की फ़िल्म थी जिसके मुख्य कलाकार थे मीना कुमारी और कमाल साहब ख़ुद। यह इन दोनों की साथ में पहली फ़िल्म थी और आपको पता ही होगा कि आगे चलकर इन्होने शादी कर ली थी। 'दायरा' का संगीत काफ़ी सराहा गया था। ख़ास कर रफ़ी साहब और मुबारक़ बेग़म का गाया "देवता तुम हो मेरा सहारा" गीत तो आज भी जमाल सेन और मुबारक़ बेग़म के श्रेष्ठ गीतों में गिना जाता है। जहाँ तक तलत साहब के गाए गीतों का सवाल है, इस फ़िल्म में उनके दो गानें सराहे गए, एक था "आ भी जा मेरी दुनिया में कोई नहीं, बिन तेरे कब तलक युंही घबराए दिल" और दूसरा गाना, या ग़ज़ल कह लीजिए, "आंसू तो नहीं है आँखों में पहलू में मगर दिल जलता है, होठों पे लहू है हसरत का आरा सा जिगर पर चलता है"। आज इसी ग़ज़ल की बारी है इस महफ़िल में। दोस्तों, यु तो तलत साहब ने हल्के फुल्के रोमांटिक गीत भी बहुत सारे गाए हैं जैसे कि "तुम तो दिल के तार छेड़ कर हो गए बेख़बर", "तेरे रास्तों पे हम ने एक घर बना लिया है", "तुमही तो मेरी मंज़िल हो", "मेरे जीवन में आया है कौन", "मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का", "तेरी चमकती आँखों के आगे ये चमकते सितारे कुछ भी नहीं", "हाये आँखों में मस्ती शराब की" वगेरह वगेरह; लेकिन इस मख़मली आवाज़ के जादूगर के गाए दर्द भरे गीतों का कोई जवाब नहीं है। कल की तरह आज की ग़ज़ल भी ग़मज़दा है। तलत साहब ने ख़ुद ही एक बार कहा था कि "आज भी लोग ख़ास वजह से मेरे गीतों को पसंद करते हैं, मैंने आज भी वही स्टाइल रखा हुआ है, मुझे ख़ुशी है कि लोग मुझे पसंद करते हैं।" तो चलिए दोस्तों, हम तलत साहब की उसी स्टाइल का एक और नमूना आज सुनते हैं और महसूस करते हैं, लेकिन उससे पहले ये रहे इस ग़ज़ल के चार शेर।

आंसू तो नहीं है आँखों में पहलू में मगर दिल जलता है,
होठों पे लहू है हसरत का आरा सा जिगर पर चलता है।

जाग उठता है जब ग़म क्या कहिए, उस वक़्त का आलम क्या कहिये,
ठुकरा गए धीरे धीरे जब कोई कलेजा मलता है।

ऐ दर्द-ए-जिगर ये बात है क्या, ये आख़िरी अपनी रात है क्या,
होती है कसक हर धड़कन में हर सांस में ख़ंजर चलता है।

हम हार गए ऐसे ग़म से, देखा ही नहीं जाता हम से,
जलता है पतंगा जब कोई पर शमा का आंसू ढ़लता है।



क्या आप जानते हैं...
- कि तलत महमूद साहब के सुपुत्र ख़ालिद महमूद, जो ख़ुद भी एक गायक हैं, अपने पिता के करीब करीब ७०० दुर्लभ तस्वीरों को www.talatmahmood.com पर सहेज कर रखा है। कभी पधारिएगा ज़रूर इस जाल स्थल पर।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

1. तलत की गाई इस ग़ज़ल का सबसे पहला शब्द है- "जिंदगी", बताईये ग़ज़ल के बोल.-३ अंक.
2. जसवंत राय था इस ग़ज़ल के गीतकार का नाम, ये इंडस्ट्री में किस नाम से जाने जाते हैं- २ अंक.
3. कौन हैं इस ग़ज़ल के संगीतकार - २ अंक.
4. इस फिल्म में तलत साहब ने अभिनय भी किया, फिल्म का नाम- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
अरे इंदु जी आपका जवाब इतनी देर में आया कि हम देख ही नहीं पाए, बिलकुल आपके ३ अंक एकदम पक्के. कल तो नीलम जी गच्चा खा गयीं. शरद जी सही गीत पहचान कर ३ अंक कमाए तो इंदु जी ने आखिरी सवाल का सही जवाब देकर २ अंक चुरा लिए...बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

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