Saturday, May 14, 2011

ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - (41) बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी - भाग २



इस बातचीत का पहला भाग यहाँ पढ़ें

((भाग-2))

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' में आप सभी का बहुत बहुत स्वागत है। दोस्तों, पिछले हफ़्ते से हमनें इस विशेषांक में शुरु की है एक लघु शृंखला 'बेटे राकेश बख्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बख्शी'। पिछले हफ़्ते अगर आपनें इसका पहला भाग नहीं पढ़ा था तो यहाँ क्लिक कर उसे अवश्य पढ़ें। आइए आज प्रस्तुत है बक्शी साहब के बेटे राकेश बख्शी से हमारी बातचीत का दूसरा भाग।

सुजॉय - राकेश जी, नमस्कार और एक बार फिर स्वागत है आपका 'हिंद-युग्म' में।

राकेश जी - नमस्कार!

सुजॉय - पिछले हफ़्ते हमारी बातचीत आकर रुकी थी 'माँ' पर। आपनें बताया कि किस तरह से बक्शी साहब नें आप सब को माँ की अहमियत बतायी। आज बातचीत का सिलसिला वहीं से आगे बढ़ाते हैं। आज हम आपकी माँ से चर्चा शुरु करना चाहेंगे, क्योंकि हमारा ख़याल है कि उनके सहयोग के बिना आनन्द बक्शी साहब शायद यह मुकाम हासिल न कर पाते। किसी की सफलता के पीछे उसके जीवन-संगिनी का बड़ा हाथ होता है। तो बताइए न बक्शी साहब की जीवन-संगिनी, यानी आपकी माताजी के बारे में।

राकेश जी - शादी के बाद पिताजी की आमदनी इतनी नहीं थी कि बम्बई में घर किराये पर लेते। इसलिए शादी के बाद भी कुछ सालों तक मेरी माँ उनके माता-पिता के घर में ही रहती थीं, लखनऊ में। वो महिलाओं के कपड़े सीती थीं ताकि अपने पिता, जो एक रिटायर्ड आर्मी मैन थे, को कुछ आर्थिक मदद कर सके। एक दिन जब मैं मेरी माताजी के साथ गुस्से से पेश आया, तब पिताजी नें मुझे बताया कि बचपन में मेरी माँ अण्डे इसलिये नहीं खाती थीं ताकि हम बच्चों को अण्डे खाने के मौके मिले। उन दिनों हमारी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं थी कि अच्छा नाश्ता कर पाते। इसलिए मेरी माताजी नें काफ़ी त्याग और समर्पण किये अपने चार बच्चों को बड़ा करने के लिये। और पिताजी नें उस दिन हम बच्चों को आगाह किया और चेतावनी भी दी कि हम कभी भी अपनी माँ के साथ बदतमीज़ी से पेश न आये।

सुजॉय - सही बात है! अच्छा राकेश जी, ये तो थी उन दिनों की बातें जब आपकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। जब बक्शी साहब को दौलत और शोहरत हासिल हुई, उस वक़्त आपकी माताजी के व्यवहार में किसी तरह का परिवर्तन आया?

राकेश जी - पिताजी के स्थापित होने के बाद और अमीर बनने के बाद भी माँ अपनी पुरानी साड़ियों और पुराने कपड़ों को पहनना नहीं छोड़ीं, क्योंकि वो जानती थी कि पिताजी जो कमाते थे, उसकी कीमत क्या थी। उसका मूल्य उन्हें मालूम था, और कितनी मेहनत से यह धन आता था, वह भी वो ख़ूब समझती थी। इसलिए कभी अपव्यय नहीं की। उन्होंने अपने जीवन में कभी भी पिताजी से किसी चीज़ की फ़रमाइश नहीं की। बल्कि पिताजी को ज़बरदस्ती से उन्हें कुछ अपने लिये दिलाना पड़ता था। बस एक बार मेरी माँ नें कुछ खरीदना चाहा था। यह बात थी उस वक़्त की जब पिताजी गुज़र गये थे और उन्हें हमारे रिश्तेदारों की Toyota Innova में बैठना पड़ा था, उस वक़्त उन्होंने कहा था कि हमें भी ऐसी एक गाड़ी खरीदनी चाहिये ताकि वो उसमें बैठकर हमारे पंचगनी के घर में जा सके।

सुजॉय - बक्शी साहब जब गीत लेखन के कार्य में बाहर जाते थे, या कभी दूसरे शहर में, या फिर कहीं हिल-स्टेशन में, तो क्या आपकी माताजी भी साथ जाया करतीं?

राकेश जी - ज़्यादातर समय पिताजी अपने बेड-रूम में बैठ कर ही गीत लिखते थे, और कभी लिविंग्‍-रूम में बैठ कर। उनके 99% गीत उन्होंने घर में बैठ कर ही लिखे हैं, न कि किसी पर्वत, वादी या नदी या झील के किनारे बैठ के, जैसा कि कुछ फ़िल्मों में दिखाया जाता है। इस वजह से माँ नें अपना सोशल-लाइफ़ भी बहुत सीमित कर लिया था ताकि घर में रह कर पिताजी की ज़रूरतों की तरफ़ ध्यान दे सके, ताकि गीत-लेखन कार्य में उन्हें कोई कठिनाई न हो।

सुजॉय - यही बात मैं कह रहा था कि जीवन-संगिनी का उसकी सफलता के पीछे बहुत बड़ा हाथ होता है। अच्छा इसका मतलब यह हुआ कि आपके माताजी की सखी-सहेलियों का दायरा बहुत ही छोटा होगा?

राकेश जी - उनकी बस एक सहेली थी और दो तीन रिश्तेदार थे जिनके वो करीब थीं। वो इनके घर महीने दो महीने में एक बार जाती थीं। पिताजी के गुज़र जाने के बाद उन्होंने एक महाशून्य महसूस किया अपनी ज़िंदगी में।

सुजॉय - और मेरे ख़याल से यह एक ऐसा शून्य है जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता, अपने बच्चे भी नहीं।

राकेश जी - बिलकुल सही! और पिताजी फ़िल्म जगत से जुड़े लोगों से ज़रा दूर दूर ही रहा करते थे, इसलिए कम्पोज़र, प्रोड्युसर और डिरेक्टर्स के परिवार वालों से हमारा ज़्यादा मेल-मिलाप नहीं हुआ। और इसलिए माँ भी फ़िल्मी पार्टियों में और अवार्ड फ़ंक्शन में नहीं जाती थीं। पिताजी की मृत्यु के बाद जब प्रेस वाले अपने न्युज़ कैमेरों से हमारे घर के अंदर शूट करना चाह रहे थे और पिताजी की पार्थिव शरीर को हमारे लिविंग्‍-रूम में रखा गया था, हमनें उनसे पूछा कि क्या हमें प्रेस को अंदर कैमरों से शूट करने की अनुमति देनी चाहिये, तब उन्होंने कहा कि पिताजी अपनी पूरी ज़िंदगी प्रेस और पब्लिसिटी से दूर ही रहे ताकि उनका ध्यान लेखन से न हट जाये, और अब जब वो घर आना चाह रहे हैं, यह तुम्हारे पिताजी की उपलब्धि है, और यह उनका हक़ भी है, इसलिए उन्हें आने दो।

सुजॉय - राकेश जी, आपकी स्मृतियों में आनन्द बक्शी साहब राज करते होंगे। उनमें से कुछ के बारे में बताइए न!

राकेश जी - एक नहीं हज़ार हैं स्मृतियाँ, कौन कौन सा बताऊँ। हाँ, एक जो मैं बताना चाहूँगा, वह यह कि जब वो कभी रात को देर से घर लौटते थे और हमें सोया पाते थे, तो वो हमारे बगल में बैठ जाते और हमारे सर पे अपना हाथ फेरते। कभी कभी मैं जगा ही रहता था जब वो हाथ फेरते, लेकिन मैं सोने का नाटक करता था ताकि उनके हाथ फेरने का आनन्द लेता रहूँ।

सुजॉय - वाह! वाक़ई अपने माता-पिता के छुवन से मुलायम दुनिया की और कोई चीज़ नहीं हो सकती। अच्छा राकेश जी, आप सब मिल कर, पूरा परिवार, कभी छुट्टी मनाने जाते थे? जैसे मान लीजिये कि किसी पर्वतीय स्थल पर गये हों, और वहाँ पर बक्शी जी को यकायक किसी गीत की प्रेरणा मिल गयी हो? इस तरह का वाकया कभी हुआ है?

राकेश जी - हम हर साथ महाबलेश्वर और पंचगनी जाते थे। हम अपनी गाड़ी लेकर जाते थे। उन सर्पीले रास्तों पर चढ़ाई करते हुए उनका जो फ़ेवरीट गाना था, वह था "Walk Don't Run, 64", यह 'The Ventures' का गाना है। वो अक्सर अपने फ़ेवरीट सिगरेट 555 के पैकिट के उपर झट से कोई भाव लिख लिया करते थे। ऐसा इसलिए कि भले ही वो अपना नोट-बूक भूल जायें साथ लेना, लेकिन 555 का पैकिट कभी नहीं भूलते थे। लगभग ५ से १० गीत ऐसे होंगे जो उन्होंने हिल-स्टेशन में लिखे होंगे। जैसा कि मैंने बताया था कि वो अधिकतर गीत बेडरूम और लिविंग्‍-रूम में बैठ कर ही लिखे हैं, और कभी कभी म्युज़िक डिरेक्टर्स के सिटिंग् रूम में। और यह बात भी है कि छुट्टी में जाकर वो कभी नहीं लिखते थे। वो लिखते वक़्त कभी शराब नहीं पीते थे क्योंकि वो इसे माँ सरस्वती का अपमान मानते थे।

सुजॉय - वो घर पर शराब पीते थे?

राकेश जी - अगर कभी पीते भी थे तो रात के ९ बजे के बाद पीते थे, लेकिन डिनर के बाद कभी नहीं। यहाँ पर ऐसी मान्यता है कि शायर को लिखने के लिये पीना ज़रूरी होता है। लेकिन देखिये, पिताजी नें लिखते वक़्त शराब का कभी सहारा नहीं लिया। वो सिगरेट ज़रूर पीते थे या पान चबाते थे लिखते वक़्त। लिखते वक़्त वो व्हिसल भी बजाते थे। और मेरा ख़याल है कि कभी कभी वो ख़ुद धुन भी बनाने की कोशिश करते होंगे या व्हिसलिंग् के माध्यम से मीटर पर लिखने की कोशिश करते होंगे। म्युज़िक डिरेक्टर्स भी कई बार उन्हें धुन बता देते थे, इसलिए भी वो उस धुन को व्हिसल कर उसपे बोल बिठाते। लेकिन बहुत बार उन्हें संगीतकार नें धुन नहीं भी दी। तब वो ख़ुद ही अपने बोलों को ख़ुद धुन पर बिठाते होंगे व्हिसलिंग् के ज़रिये।

सुजॉय - ऐसा कोई गीत आपको पता है जिसकी धुन बक्शी साहब नें ख़ुद बनायी या सुझायी होगी?

राकेश जी - कुछ संगीतकारों नें ख़ुद मुझे यह बात बतायी है कि किस तरह से पिताजी उनका काम आसान बना देते थे। लेकिन मैं न उन संगीतकारों के नाम लूँगा और न ही उन गीतों के बारे में कुछ कहना चाहूँगा जिनकी धुनें पिताजी नें बनाये थे। यह हक़ केवल पिताजी को था और उन्होंने कभी यह बात किसी को नहीं बतायी। इसलिए बेहतर यही होगा कि यह राज़ दुनिया के लिये राज़ ही बना रहे।

सुजॉय - हम भी सम्मान करते हैं आपके इस फ़ैसले का। और बहुत सही किया है आपनें।

राकेश जी - पिताजी उन्हें गीतों के साथ साथ धुनें भी दे दिया करते, लेकिन कभी भी निर्माता से धुनों के लिये क्रेडिट या पब्लिसिटी की माँग नहीं की। और यही कारण है कि वो लोग उन्हें दूसरे गीतकारों की तुलना में इतना ज़्यादा सम्मान क्यों करते थे! मुझे उन संगीतकारों से ही पता चला कि पिताजी कभी कभी एक ही गीत के लिये १० से २० अंतरे लिख डालते थे, जब कि उनसे माँग दो या तीन की ही होती थी। यह उनकी प्रतिभा की मिसाल है। निर्माता और निर्देशक द्वंद में पड़ जाते थे कि उन १०-२० अंतरों में से किन तीन अंतरों को चुनना है क्योंकि सभी के सभी अंतरे एक से बढ़कर एक होते थे और उनमें से श्रेष्ठ तीन चुनना आसान काम नहीं होता था। यहाँ तक कि कई बार तो रेकॉर्डिंग् के दिन तक यह फ़ैसला नहीं हो पाता था कि कौन कौन से अंतरे फ़ाइनल हुए हैं। उन्हें ऐसा लगता कि जिन अंतरों को वो नहीं ले रहे हैं, उनके साथ अन्याय हो रहा है। आज भी जब वो पुराने लोग मुझे मिलते हैं तो इस बात का ज़िक्र करते हैं।

सुजॉय - अच्छा क्या ऐसा कभी हुआ कि आप नें जाने अंजाने उन्हें कोई गीत लिखने का सुझाव दिया हो या आपनें कोई मुखड़ा या अंतरा सुझाया हो? या उन्होंने कभी आप बच्चों से पूछा हो कि भई बताओ, इस गीत को किस तरह से लिखूँ?

राकेश जी - नहीं, कभी भी नहीं! लेकिन मुझे मालूम है कि एक गीत है १९८७ की फ़िल्म 'हिफ़ाज़त' का, "बटाटा वडा, बटाटा वडा, प्यार नहीं करना था, करना पड़ा"।

सुजॉय - हा हा हा

राकेश जी - यह गीत उन्होंने इसलिये लिखा था क्योंकि उनकी पोती को बटाटा वडा बहुत ज़्यादा पसंद थी।

सुजॉय - वाह! तो आइए, आज के इस अंक का समापन भी हम बटाटा वडा के साथ ही करें। एस. पी. बालसुब्रह्मण्यम और एस. जानकी की आवाज़ों में दक्षिणी अंदाज़ में बनाया हुआ यह गीत है। गीत की उत्कृष्टता पर न जाते हुए ज़रा हल्के फुल्के अंदाज़ में इस गीत का मज़ा लीजिए दोस्तों।

गीत - बटाटा वडा (हिफ़ाज़त, १९८७)


तो ये था 'बेटे राकेश बक्शी की नज़रों में गीतकार आनन्द बक्शी' शृंखला की दूसरी कड़ी 'ओल्ड इज़ गोल्ड शनिवार विशेष' के अन्तर्गत। अगले हफ़्ते इस शृंखला की तीसरी कड़ी के साथ हम फिर हाज़िर होंगे। और कल सुबह 'सुर-संगम' तथा शाम को 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में ज़रूर पधारियेगा, नमस्कार!

अनुराग शर्मा की कहानी "घर और बाहर"



'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की कहानी "खून दो" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं अनुराग शर्मा की एक सामयिक कहानी "घर और बाहर", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। कहानी "घर और बाहर" का कुल प्रसारण समय 1 मिनट 55 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

इस कथा का टेक्स्ट बर्ग वार्ता ब्लॉग पर उपलब्ध है।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

कहानी कहानी होती है, उसमें लेखक की आत्मकथा ढूँढना ज्यादती है।
~ अनुराग शर्मा

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी
"कामरेड के चमचे जनता को विश्वास दिला रहे थे कि क्रांति दरवाज़े तक तो आ ही चुकी है। जिस दिन इलाके के स्कूल, कारखाने और थाने को आग लगा दी जायेगी, क्रांति का प्रकाश जीवन को आलोकित कर देगा।"
(अनुराग शर्मा की "घर और बाहर" से एक अंश)


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#129th Story, Ghar Aur Bahar: Anurag Sharma/Hindi Audio Book/2011/10. Voice: Anurag Sharma

Thursday, May 12, 2011

चेहरे से जरा आँचल जो आपने सरकाया....एक प्रेम गीत जिसमें हँसी भी है और अदा भी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 655/2011/95

'गान और मुस्कान' शृंखला में इन दिनों आप सुन रहे हैं कुछ ऐसी फ़िल्मी रचनाएँ जिनमें गायक की हँसी सुनाई पड़ती है। गायिका आशा भोसले के गायकी के कई आयाम हैं, हर तरह के गीत गाने में वो सक्षम हैं, गायन की कोई ऐसी विधि नहीं जिसको उन्होंने आज़माया न हो। शास्त्रीय, पाश्चात्य, भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, देशभक्ति, मुजरा, शरारती, सेन्सुअस, लोक-संगीत आधारित, हर वर्ग में उन्होंने शीर्ष पर अपने आप को पहुँचाया है। उनकी आवाज़ में जो लोच है, जो खनक है, जो शोख़ी है, वही उनको दूसरी गायिकाओं से अलग करती हैं। गायन तो गायन, उनकी हँसी भी कातिलाना है। आशा जी नें भी बहुत से गीतों में अपनी हँसी बिखेरी है, जिनमें से कुछ गीत छेड़-छाड़ वाले हैं, तो कुछ हल्के फुल्के रोमांटिक कॉमेडी वाले, कुछ सेन्सुअस या मादक, और कुछ गीत ऐसे भी हैं जिनमें वो खुले दिल से हँसती हैं, और ऐसी हँसी हैं कि सुनने वाला भी कुछ देर के लिए अपने सारे ग़म भूल जाये! ऐसा ही एक गीत है १९७२ की फ़िल्म 'एक बार मुस्कुरा दो' का, जिसमें उनसे अनुरोध तो किया जा रहा है मुस्कुराने की, पर वो हँसती हैं, पूरे खुले दिल से हँसती हैं। मुकेश के साथ गाया यह युगल गीत इस फ़िल्म का शीर्षक गीत भी है। "चेहरे से ज़रा आंचल जब आपने सरकाया, दुनिया ये पुकार उठी लो चांद निकल आया"; नायक का नायिका की ख़ूबसूरती की तारीफ़ फ़िल्मी गीतों की एक प्रचलित शैली रही है और यह गीत भी उन्हीं में से एक है।

'एक बार मुस्कुरा दो' फ़िल्म के संगीतकार थे ओ. पी. नय्यर। ओ. पी. नय्यर की पहली पसंद हमेशा मोहम्मद रफ़ी ही रहे हैं, लेकिन जब दोनों में कुछ अन-बन हो गई थी, तब मजबूरन नय्यर साहब को अन्य गायकों की तरफ़ झुकना ही पड़ा। १९६९ की उनकी फ़िल्म 'संघर्ष' में उन्होंने हेमन्त कुमार, महेन्द्र कपूर और मुकेश से गीत गवाये। मुकेश की आवाज़ में इस फ़िल्म का "चल अकेला, तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला" सब से लोकप्रिय गीत साबित हुआ और इस गीत की लोकप्रियता को देख कर नय्यर साहब ख़ुद भी चौंक गये थे। नय्यर साहब, जो मुकेश की आवाज़ से हमेशा परहेज़ ही करते आये हैं, जब उन्होंने देखा कि मुकेश का यह गीत 'बिनाका गीत माला' में लगातार १९ हफ़्तों से शीर्ष पायदान पर विराजमान है, तब जाकर उन्हें मुकेश की लोकप्रियता और महत्व का अहसास हुआ। इसके तीन साल बाद जब 'एक बार मुस्कुरा दो' की प्लान बनी तो गायक के लिए मुकेश और किशोर कुमार के नाम चुने गये। भले ही नय्यर साहब नें इन दो गायकों की कभी तारीफ़ नहीं की और इस फ़िल्म के गीतों के रेकॉर्डिंग् के बाद यह भी कहा कि किशोर नें गीत को ठीक तरह से नहीं गाया है, लेकिन इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि फ़िल्म के फ़्लॉप होने के बावजूद इसके गानें ख़ूब चले थे। "ये दिल लेके नज़राना", "तू और की क्यों हो गई", "सवेरे का सूरज तुम्हारे लिये है", "एक बार मुस्कुरा दो", "रूप तेरा ऐसा दर्पण मे न समाये" और आज का प्रस्तुत गीत "चेहरे से ज़रा आंचल", ये सभी गीत उस ज़माने में ख़ूब चले थे, जब नय्यर साहब के सितारे गरदीश पर जाते दिखाई दे रहे थे। इस फ़िल्म के बाद बस एक फ़िल्म और आई 'प्राण जाये पर वचन न जाये' जिसमें आशा भोसले नें नय्यर साहब के लिए आख़िरी बार गीत गाया। और इस तरह से इस महान संगीतकार की कामयाबी का दौर भी सम्पन्न हुआ। लेकिन दोस्तों, आज हम अपना दिल उदास नहीं करेंगे, बल्कि आशा जी की हँसी के साथ इस गीत का आनंद लेंगे। इस गीत को लिखा है शमसुल हुदा बिहारी, यानी एस. एच. बिहारी नें। वैसे उनके अलावा इस फ़िल्म में इंदीवर और शेवन रिज़्वी नें भी गीत लिखे हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि आशा भोसले के साथ संबंध समाप्त होने के बाद ओ. पी. नय्यर नें जिन गायिकाओं से अपने गीत गवाये उनमें शामिल थे कृष्णा कल्ले, वाणी जयराम, पुष्पा पागधरे, दिलराज कौर, कविता कृष्णमूर्ती।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 06/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - किस गायिका की हँसी है इस युगल गीत में - २ अंक
सवाल २ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर वही टीम है बधाई सभी को

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, May 11, 2011

इतनी बड़ी ये दुनिया जहाँ इतना बड़ा मेला....पर कोई है अकेला दिल, जिसकी फ़रियाद में एक हँसी भी है उपहास की



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 654/2011/94

गान और मुस्कान', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है यह लघु शृंखला जिसमें हम कुछ ऐसे गीत सुनवा रहे हैं जिनमें गायक-गायिकाओं की हँसी या मुस्कुराहट सुनाई या महसूस की जा सकती है। पिछले गीतों में नायिका की चुलबुली अंदाज़, शोख़ी और रूमानीयत से भरी अदायगी, और साथ ही उनकी मुस्कुराहटें, उनकी हँसी आपनें सुनी। लेकिन जैसा कि पहले अंक में हमनें कहा था कि ज़रूरी नहीं कि हँसी हास्य से ही उत्पन्न हो, कभी कभार ग़म में भी हंसी छूटती है, और वह होती है अफ़सोस की हँसी, धिक्कार की हँसी। यहाँ हास्य रस नहीं बल्कि विभत्स रस का संचार होता है। जी हाँ, कई बार जब दुख तकलीफ़ें किसी का पीछा ही नहीं छोड़ती, तब एक समय के बाद जाकर वह आदमी दुख-तकलीफ़ों से ज़्यादा घबराता नहीं, बल्कि दुखों पर ही हँस पड़ता है, अपनी किस्मत पर हँस पड़ता है। आज के अंक के लिए हम एक ऐसा ही गीत लेकर आये हैं रफ़ी साहब की आवाज़ में। जी हाँ रफ़ी साहब की आवाज़ में अफ़सोस की हँसी। दोस्तों, वैसे तो इस गीत को मैंने बहुत साल पहले एक बार सुना था, लेकिन मेरे दिमाग से यह गीत निकल ही चुका था। और जब मैं रफ़ी साहब की हँसी वाला गीत नेट पर ढूंढ रहा था इस शृंखला के लिए, तो मुझे यकीन था कि शायद कोई ऐसा गीत मिलेगा जिसमें अभिनेता होंगे जॉनी वाकर या कोई और हास्य कलाकार। लेकिन आश्चर्य से मेरे हाथ यह गीत लगा और मुझे ख़ुशी है कि हँसी से इस रूप को भी इस शृंखला में हम शामिल कर सके। यह गीत है फ़िल्म 'तूफ़न में प्यार कहाँ' का। कुछ याद आया कि कितने साल पहले आपने इस गीत को सुना होगा?

'तूफ़ान में प्यार कहाँ' सन् १९६६ की फ़िल्म थी, जिसमें मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार, नलिनी जयवंत, शशिकला, जयश्री गडकर और सुंदर प्रमुख। फणी मजुमदार निर्देशित इस फ़िल्म को बॉक्स ओफ़िस पर कामयाबी तो नहीं मिली, लेकिन इसके कम से कम दो गीत मशहूर ज़रूर हुए थे। एक तो लता-रफ़ी का "आधी रात को खनक गया" और दूसरा गीत था रफ़ी की एकल आवाज़ में "इतनी बड़ी दुनिया, जहाँ इतना बड़ा मेला, मगर मैं, हा हा हा, कितना अकेला"। दादामुनि पर फ़िल्माये गये इस गीत नें मेरी एक और ग़लत धारणा को परास्त किया। पता नहीं कैसे मेरे दिमाग में यह बैठा हुआ था कि इस गीत को दादामुनि नें ही गाया है, यह तो मुझे कल ही पता चला कि इसे रफ़ी साहब नें आवाज़ दी है। लेकिन यह तो मानना ही पड़ेगा कि रफ़ी साहब नें दादामुनि अशोक कुमार की शख़्सीयत और आवाज़ को ध्यान में रख कर ही इस गीत को गाया होगा। इस फ़िल्म के संगीतकार थे चित्रगुप्त और गीतकार थे प्रेम धवन। चित्रगुप्त और उनके गायकों की बात करें तो अपने करीयर के शुरुआती सालों में उमा देवी, शम्शाद बेगम जैसी गायिकाओं को गवाया। वैसे लता के साथ सम्पर्क में आने के बाद उनके गीतों को नई बुलंदी मिली। लेकिन इससे पहले आशा उनकी प्रमुख गायिका के रूप में नज़र आईं। गायकों में जहाँ वो ख़ुद भी अपनी आवाज़ लगा लिया करते थे, साथ ही किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी, और तलत महमूद को भी शुरुआती सालों में गवाया। पर तलत या किशोर कभी उनके प्रमुख गायक नहीं बने। प्रमुख गायक के रूप में रफ़ी और मुकेश ही सामने आये। दूसरे शब्दों में लता, रफ़ी और मुकेश से ही चित्रगुप्त को अपने करीयर के सफलतम गीत मिले। तो आइए आज का यह गीत सुनते हैं, इस गीत में निराशा भरे सु्रों में भी हँसी की एक झलक महसूस कीजिए रफ़ी साहब की आवाज़ में।



क्या आप जानते हैं...
कि बिहार के छपरा ज़िले में जन्में चित्रगुप्त संगीतकार बनने से पहले इकोनोमिक्स और जर्नलिज़्म में पोस्ट-ग्रैजुएशन किया था।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 05/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - संगीतकार बताएं - २ अंक
सवाल २ - किन दो कलाकारों पर फिल्माया गया है ये युगल गीत - ३ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
४ सही जवाब एक बार फिर अमित जी, अन्जाना जी, हिन्दुस्तानी जी और प्रतीक जी को बधाई, अमित जी हमारे पास उपलब्ध सबसे विश्वसनीय सोत्र के रूप में गीतकोश है, जिसके अनुसार "अनुभव" फिल्म में गुलज़ार और कपिल कुमार दोनों ने ही गीत लिखे थे, जहाँ कपिल ने "कोई चुपके से आके" और "कहीं कोई फूल खिला" गीत लिखे वहीँ गुलज़ार साहब ने "मेरा दिल जो मेरा होता" और "मेरी जान" के लिए कलम उठायी. इसलिए हम पिछले परिणामों को ही मान्य मानेंगें.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

भला हुआ मेरी मटकी फूटी.. ज़िन्दगी से छूटने की ख़ुशी मना रहे हैं कबीर... साथ हैं गुलज़ार और आबिदा



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #११३

सूफ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बडे खूबसूरत रूप लेता है| कभी नैहर छूट जाता है, कभी चोला बदल लेता है| जो मरता है ऊंचा ही उठता है, तरह तरह से अंत-आनन्द की बात करते हैं| कबीर के यहां, ये खयाल कुछ और करवटें भी लेता है, एक बे-तकल्लुफ़ी है मौत से, जो जिन्दगी से कहीं भी नहीं|

माटी कहे कुम्हार से, तू क्या रोंदे मोहे ।
एक दिन ऐसा आयेगा, मैं रोदुंगी तोहे ॥


माटी का शरीर, माटी का बर्तन, नेकी कर भला कर, भर बरतन मे पाप पुण्य और सर पे ले|

आईये हम भी साथ-साथ गुनगुनाएँ "भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे"..:

भला हुआ मेरी मटकी फूटी रे ।
मैं तो पनिया भरन से छूटी रे ॥

बुरा जो देखन मैं चला, बुरा ना मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपणा, तो मुझसा बुरा ना कोय ॥

ये तो घर है प्रेम का, खाला का घर नांहि ।
सीस उतारे भुँई धरे, तब बैठे घर मांहि ॥

हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को हुशारी क्या ।
रहे आज़ाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ॥

कहना था सो कह दिया, अब कछु कहा ना जाये ।
एक गया सो जा रहा, दरिया लहर समाये ॥

लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल ।
लाली देखन मैं गयी, मैं भी हो गयी लाल ॥

हँस हँस कुन्त ना पाया, जिन पाया तिन रोये ।
हाँसि खेले पिया मिले, कौन _____ होये ॥

जाको राखे साईंयाँ, मार सके ना कोये ।
बाल न बांकाँ कर सके, जो जग बैरी होये ॥

प्रेम न भाजी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय ।
राजा-प्रजा जोही रूचें, शीश देई ले जाय ॥

कबीरा भाठी कलाल की, बहूतक बैठे आई ।
सिर सौंपें सोई पीवै, नहीं तो पिया ना जाये ॥

सुखिया सब संसार है, खाये और सोये ।
दुखिया दास कबीर है, जागे और रोये ॥

जो कछु सो तुम किया, मैं कछु किया नांहि ।
कहां कहीं जो मैं किया, तुम ही थे मुझ मांहि ॥

अन-राते सुख सोवणा, राते नींद ना आये ।
ज्यूं जल छूटे माछरी, तडफत नैन बहाये ॥

जिनको साँई रंग दिया, कभी ना होये कुरंग ।
दिन दिन वाणी आफ़री, चढे सवाया रंग ॥

ऊंचे पानी ना टिके, नीचे ही ठहराय ।
नीचे होये सो भरि पिये, ऊँचा प्यासा जाय ॥

आठ पहर चौंसठ घडी, मेरे और ना कोये ।
नैना मांहि तू बसे, नींद को ठौर ना होये ॥

सब रगे तान्त रबाब, तन्त दिल बजावे नित ।
आवे न कोइ सुन सके, के साँई के चित ॥

कबीरा बैद्य बुलाया, पकड के देखी बांहि ।
बैद्य न वेधन जानी, फिर भी करे जे मांहि ॥

यार बुलावे भाव सूं, मोपे गया ना जाय ।
दुल्हन मैली पियु उजला, लाग सकूं ना पाय ॥




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो दोहे हमने पेश किए हैं, उसके एक दोहे की एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उन दोहों को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "चाह" और मिसरे कुछ यूँ थे-

चाह गयी चिन्ता मिटी, मनवा बेपरवाह ।
जिनको कछु न चहिये, वो ही शाहनशाह ॥

इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:

चाहे गीता बांचिये या पढ़िए कुरआन
मेरी तेरी प्रीत है हर पुस्तक का ज्ञान - निदा फाजली .. वैसे इसमें चाल शब्द नहीं है, बल्कि चाहे है... इसलिए इस शेर को सही नहीं माना जा सकता..

चाह मेरे भारत की ,विश्व कप जाए जीत,
हर एक करे प्रार्थना , क्रिकेट से है प्रीत - मंजु जी आपकी चाह पूरी हो गयी, खुश हैं न ? :)

चाह होती है तो राह होती नहीं
हर ख्वाहिश कभी पूरी होती नहीं
जिंदगी जीने का ढूँढती है सबब
हर कली खिलके फूल होती नहीं. - शन्नो जी

कभी हम में तुम में भी चाह थी , कभी हम से तुम से भी राह थी
कभी हम भी तुम भी थे आशना तुम्हे याद हो के न याद हो - मोमिन खां मोमिन

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, May 10, 2011

एक बात कहूँ गर मानो तुम.....हमेशा हँसते हंसाते रहिये इसी तरह



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 653/2011/93

गायक गायिकाओं की हँसी इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'गान और मुस्कान' के अंतर्गत। आज बारी लता मंगेशकर की हँसी सुनने की। कल का जो गीत था उसमें चुपके से सपने में आने की बात कही गई थी और आज जो गीत लेकर हम आये हैं, उसका भी भाव कुछ कुछ इसी तरह का है। नायिका शिकायत कर रही है कि नायक उनके सपनों में आते हैं जिस वजह से कभी वो नींद में उठकर चलती है तो कभी सोफ़े से गिर पड़ती है, तो कभी नायक का हाथ समझ कर सोफ़े का पाया ही पकड़ लेती है। जी हाँ, फ़िल्म 'गोलमाल' का यह गीत है "एक बात कहूँ गर मानो तुम, सपनों में न आना जानो तुम, मैं नींद में उठके चलती हूँ, जब देखती हूँ सच मानो तुम"। गुलज़ार और पंचम की जोड़ी का कमाल। वैसे इस गीत की तरफ़ लोगों का ध्यान ज़रा कम कम ही रहा है। 'गोलमाल' के नाम से लोग ज़्यादा "आने वाला पल जाने वाला है" को ही याद करते हैं। लेकिन गुणवत्ता में यह गीत भी कुछ कम नहीं है। इसमें गुलज़ार साहब नें बड़े ही सीधे बोलचाल जैसी भाषा का इस्तमाल करते हुए हास्य रस में डूबो डूबो कर गीत पेश किया है। जैसे कि एक अंतरे में नायिका गाती हैं "कल भी हुआ कि तुम गुज़रे थे पास से, थोड़े से अनमने, थोड़े उदास से, भागी थी मनाने नींद में लेकिन सोफ़े से गिर पड़ी..."। जिस गीत में भी कल्पना की बात आती है, ऐसे गीतों में गुलज़ार साहब को पूरी छूट मिल जाती है और वो पता नहीं अपनी सृजनशीलता को किस हद तक लेकर चले जाते हैं। रोमांटिक कॉमेडी का अनोखा उदाहरण है बिंदिया गोस्वामी पर फ़िल्माया यह गीत। इस गीत का सिचुएशन है कि अमोल पालेकर बिंदिया को गीत सिखाने आये हैं, और बिंदिया उन्हें यह गीत गा कर सुना रही है, और इस गीत में वो अपने पहले पहले प्यार के गुदगुदाने वाले अनुभवों का वर्णन भी कर रही है।

'गोलमाल' फ़िल्म तो पूर्णत: उत्पल दत्त, अमोल पालेकर और दीना पाठक की फ़िल्म थी, लेकिन नायिका के रूप में बिंदिया गोस्वामी नें भी अच्छी अदाकारी प्रस्तुत की थी। बिंदिया गोस्वामी का किरदार था उर्मिला का, जो एक मॉडर्ण लड़की है और जिसके पिता एक पुराने आदर्शों वाले इंसान भवानीशंकर (उत्पल दत्त) हैं। इस फ़िल्म के बारे में कुछ बताने की तो ज़रूरत ही नहीं, हिंदी सिनेमा के इस स्तंभ हास्य फ़िल्म को आप सभी नें देखा ही होगा, और एक बार नहीं बल्कि कई कई बार देखा होगा, और हर बार हँस हँस कर लोट पोट भी हो गये होंगे। आज के प्रस्तुत गीत को सुनते हुए भले ही आप हँस हँस कर लोट-पोट न हों, लेकिन लता जी की हँसी ही इस गीत का X-factor है जिसनें गीत को चार चांद लगा दी है। ऐसा हमने पहले भी कहा था, आज दोहरा रहे हैं कि लता जी की गाती हुई या बोलती हुई आवाज़ जितनी सुरीली है, उतना ही मनमोहक है उनकी हँसी। और उनकी इस ख़ासीयत को भी संगीतकारों नें एक्स्प्लॉएट करना नहीं भूले। कई गीतों में उनकी हँसी, उनकी मुस्कुराहट सुनाई दी है, और आज के गीत के अलावा भी आगे चलकर इसी शृंखला में लता जी की हँसी आप दो और गीतों में सुन सकते हैं। अभी हाल ही में एक फ़िल्म बनी है 'सतरंगी पैराशूट', जिसकी समीक्षा हम 'ताज़ा सुर ताल' में प्रस्तुत कर चुके हैं, इस फ़िल्म में लता जी नें न केवल आठ वर्षीय बच्चे का पार्श्वगायन किया है "तेरे हँसने से" गीत में, बल्कि इस गीत में जब वो "हँसने" शब्द को गाती हैं, तो उसमें उनकी हँसी भी सुनाई देती है। लता जी की इसी मधुर हँसी पर तो जैसे मर मिटने को जी चाहता है, और ईश्वर से यही प्रार्थना है कि लता जी के होठों पर मुस्कुराहट और हँसी सदा कायम रहे। आइए सुनें आज का यह गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि बिंदिया गोस्वामी को सब से पहले हेमा मालिनी की माँ नें एक पार्टी में खोज निकाला था। उन्हें लगा कि बिंदिया की शक्ल हेमा से मिलती जुलती है और वो भी फ़िल्म जगत में नाम कमा सकती है। बिंदिया की पहली फ़िल्म थी 'जीवन ज्योति', जिसमें उनके नायक थे विजय अरोड़ा।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 03/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - प्रेम धवन का लिखा है ये गीत.

सवाल १ - संगीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - किस अभिनेता पर है ये गीत - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित अनजाना प्रतीक शरद (जी सबमें कोमन मानिये) सभी को बधाई. कोई चुपके से आके गीत को लेकर अमित जी ने कुछ संशय व्यक्त किये हैं, हम पता लगा रहे हैं पक्के सूत्रों से थोडा सा इन्तेज़ार

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, May 9, 2011

कोई चुपके से आके सपने जगागे बोले.....कि हँसना जरूरी है जीवन को खुशगवार रंगों से भरने के लिए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 652/2011/92

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल से हमनें शुरु की है शृंखला 'गान और मुस्कान', जिसके अंतर्गत हम कुछ ऐसे गीत चुन कर लाये हैं जिनमें गायक/गायिका की हँसी सुनाई पड़ती है। दोस्तों, हँसना सेहत के लिए बहुत ही अच्छा होता है। ये न केवल हृदय को स्वस्थ रखने में मदद करता है, बल्कि रक्त-चाप को भी काबू में रखता है। तभी तो कहा जाता है कि laughter is the best medicine। और इसीलिए आजकल जगह जगह पर लाफ़्टर-क्लब्स खुले हैं, जिनमें लोग जाकर दिल खोल कर हँसते हैं, बिना किसी कारण के ही सही। जीवन-दर्शन में विपरीत परिस्थितियों में भी हँसने और ख़ुश रहने पर ज़ोर दिया गया है, और यही भाव बहुत से फ़िल्मी गीतों में उभरकर सामने आया है। "हँसते जाना, तुम गाते जाना, ग़म में भी ख़ुशियों के दीप जलाते जाना", "गायेजा गायेजा और मुस्कुरायेजा, जब तक फ़ुर्सत दे ये ज़माना", "ग़म छुपाते रहो, मुस्कुराते रहो, ज़िंदगी गीत है, इसको गाते रहो", "हँसते हँसते कट जायें रस्ते, ज़िंदगी युंही चलती रहे, ख़ुशी मिले या ग़म, बदलेंगे ना हम, दुनिया चाहे बदलती रहे", ऐसे और भी न जाने कितने गीत हैं जिनमें हँसने/मुस्कुराने की बात छुपी है। तो चलिए इसी बात पर आप भी ज़रा मुस्कुरा दीजिए न!

दोस्तों, पिछले दिनों मुझे एक ईमेल मिला था जिसमें यह शिकायत की गई है कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर गीता दत्त के गानें कभी नहीं बजते और कुछ गिने चुने गायकों को ही बार बार शामिल किया जाता है। यह सच बात है दोस्तों और हम इसे स्वीकारते हैं कि पिछले कई दिनों से गीता जी की आवाज़ इस स्तंभ में नहीं बज पायी है, जिसका हमें भी अफ़सोस है। शृंखलाएँ ही कुछ इस तरह की चल पड़ीं कि गीता जी के गीत शामिल न हो सके। वैसे हम आप सब की जानकारी के लिए बता दें पिछले साल गीता जी पर दस कड़ियों की शृंखला 'गीतांजली' हमनें प्रस्तुत की है और इसके अलावा भी उनके गाये कई एकल व युगल गीत बजे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर। अभी कुछ हफ़्ते पहले भी शनिवार विशेषांक में संगीतकार बसंत प्रकाश पर केन्द्रित साक्षात्कार में उनका गाया 'अनारकली' का गीत "आ ऐ जानेवफ़ा" हमनें सुनवाया था, और आगे भी जब भी मौका लगेगा उनकी आवाज़ आप तक ज़रूर पहुँचाएंगे। इसी शृंखला की पहली कड़ी में, यानी कल ही आपनें गीता जी की आवाज़ सुनी आशा जी के साथ। और जहाँ तक कुछ गिने चुने गायकों को बार बार शामिल करने की बात है, तो कुछ गायक हुए ही हैं ऐसे कि जिनके दूसरों के मुकाबले बहुत ज़्यादा हिट गानें हैं। इसलिए ज़ाहिर है कि इनके गीत ज़्यादा बजेंगे, लेकिन यकीन मानिए 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए सभी कलाकार बराबर हैं, सभी कलाकारों का और उनके योगदान का हम सम्मान करते हैं। ख़ैर, आते हैं आज के गीत पर। कल के गीत में गीता जी की हँसी का एक रूप था, लेकिन वह गीत जिसमें शामिल गीता जी की हँसी हमारे दिल को सब से ज़्यादा छू लेती है, वह है फ़िल्म 'अनुभव' का गीत "कोई चुपके से आके, सपने सुलाके, मुझको जगा के बोले, कि मैं आ रहा हूँ, कौन आये, ये मैं कैसे जानू"। संगीतकार कानू रॉय की धुन और गीतकार कपिल कुमार के बोल। इस गीत के एक अंतरे में गीता जी की हँसी सुनाई पड़ती है, और कहना ज़रूरी है कि जब १९७१ में यह फ़िल्म रिलीज़ हो रही थी, तब गीता जी अपने जीवन की कुछ बेहद कठिन दिनों से गुज़र रही थीं। ऐसे में उनके गाये इस गीत में उनकी हँसी उनके वास्तविक जीवन से बिल्कुल विपरीत, एक जैसे विरोधाभास कराती है। और इसके अगले ही साल गीता जी की मृत्यु हो गई। इस गीत को जब भी कभी हम सुनते हैं, तो गीता जी की हँसी सुन कर मन प्रसन्न होने की बजाय उनके लिए मन जैसे दर्द से भर उठता है। चुपके से किसी के आने की लालसा लिए इस गीत नें जैसे काल को ही दावत दे दी थी!



क्या आप जानते हैं...
कि गीतकार कपिल कुमार 'अनुभव' के अलावा 'आविष्कार' फ़िल्म में भी गीत लिखे थे, जिसमें भी संगीतकार कानू रॉय ही थे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 02/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - बेहद आसान.

सवाल १ - किस नायिका पर फिलमाया गया है ये गीत - ३ अंक
सवाल २ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - गायिका का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अमित जी चूक गए आप, अनजाना जी सही जवाब देकर ३ अंक चुरा ले गए. प्रतीक जी ने भी ठीक ६.३० पर जवाब दिया पर २ अंकों के सवाल ही हाथ आजमाया, आपको और दीप चंद्रा जी जो शायद पहली बार आये थे सही जवाब के लिए बधाई, हिन्दुस्तानी जी जरा से चूक गए आप भी.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, May 8, 2011

जानू जानूं रे काहे खनके है तोरा कंगना.....आपसी छेड़ छाड और गीत में गूंजते हँसी ठहाके



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 651/2011/91

'ओल्ड इस गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! मनुष्य मन अपनी हर अनुभूति को किसी न किसी तरह से व्यक्त करता है। दुख में आँसू, सुख में हँसी, और अशांत मन में कभी कभी क्रोध उत्पन्न होती है। इनमें से जो सब से हसीन अभिव्यक्ति है, वह है हमारी मुस्कान, हमारी हँसी। कहा जाता है कि एक छोटी सी मुस्कान दो दिलों के बीच पनप रही दूरी को पलक झपकते ही ख़त्म देने की शक्ति रखता है। सच में बड़ा ही संक्रामक होता है यह हास्य रस। हास्य रस, यानी कि ख़ुशी के भाव जो अंदर से हम महसूस करते हैं। बनावटी हँसी को हास्य रस नहीं कहा जा सकता। हास्य रस इतना संक्रामक होता है कि आप इस रस को अपने आसपास के लोगों में भी पल में आग की तरह फैला सकते हैं। सीधे सरल शब्दों में हास्य का अर्थ तो यही होता है कि ख़ुश होना, जो चेहरे पर हँसी या मुस्कुराहट के ज़रिए खिलती है, लेकिन जो शुद्ध हास्य होता है वह हम अपने अंदर बिना किसी कारण के ही महसूस करते हैं। और यह भाव तब उत्पन्न होती है जब हम यह समझ या अनुभूति कर लेते हैं कि ईश्वर या जीवन हम पर मेहरबान है। इस तरह का हास्य एक दैवीय रस होता है, जिसे एक दैवीय तृप्ति भी कह सकते हैं। लेकिन दोस्तों, केवल हँसना ही हास्य रस नहीं होता। कभी कभी तो हम अपने आप पर भी हँसते हैं, दूसरों पर भी हँसते हैं, अपने दुख-तकलीफ़ों पर भी हँसते हैं। लेकिन इनको तो हास्य रस नहीं कहा जा सकता न? फ़िल्म संगीत में भी हास्य रस का चलन शुरु से ही रहा है, और इस रस पर असंख्य गीत भी बनें हैं। लेकिन यह जो चर्चा जारी है, यह हास्य रस की नहीं, बल्कि हँसी की है। पिछले आठ दशकों में कई गीत ऐसे बने हैं जिनमें गायक या अभिनेता की हँसी गीत में सुनाई पड़ी है या फिर उनकी मुस्कुराहट महसूस की जा सकती है, चाहे हास्य रस के प्रसंग में हो या फिर किसी और प्रसंग में। ऐसे ही कुछ गीतों को संजो कर हम आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नई लघु शृंखला शुरु कर रहे हैं 'गान और मुस्कान'। इसमें शामिल होने वाले गीत ज़रूरी नहीं कि हास्य रस के हों, लेकिन गीत में आप गायक/गायिका की हँसी ज़रूर सुन पायेंगे, जो कभी आपको गुदगुदा जायेंगे और एक आध गीत में दर्द का आभास भी करा जायेंगे।

'गान और मुस्कान' शृंखला का पहला गीत एक फ़ीमेल डुएट है। अक्सर सखी सहेलियों में हँसी-मज़ाक होता हैं, नोक-झोक, मीठी तकरारें, एक दूसरे की खिंचाई, छेड़-छाड़, ये सभी लड़कियों की मनपसंद चीज़ें हैं। और आज के इस गीत में भी यही सब कुछ आप महसूस कर सकते हैं। गायिका गीता दत्त और आशा भोसले की युगल आवाज़ों में यह है १९५९ की फ़िल्म 'इंसान जाग उठा' का गीत "जानू जानू री काहे खनके है तोरा कंगना"। शैलेन्द्र के बोल और सचिन देव बर्मन का संगीत। गीत के हर अंतरे के आख़िर में इन गायिकाओं की हँसी सुनाई देती है, जो इस गीत मे चार चांद लगाती हैं। दोस्तों, किसी भी गीत में गायक का ब्रेथ-कंट्रोल एक अहम पहलु हुआ करती है। कहाँ पे सांस लेना है, कहाँ पे सांस छोड़ना है, यह बहुत ही ज़रूरी है जानना। अब इस गीत को ही ले लीजिये। अंतरा और अंतरे से वापस मुखड़े पे आने वाली जगह पे सांस लेने की कोई गुंजाइश नहीं थी क्योंकि उसी जगह पर हँसना भी था। इस समस्या का समाधान भी बर्मन दादा नें ही निकाला, और गायिकाओं को सुझाव दिया कि हँसी को इस तरह से हँसे कि उसी में सांस छोड़ कर सांस ले भी लें। आप गीत सुनते हुए महसूस करेंगे कि हँसते हुए सांस छोड़ी जा रही है और हँसी के ख़त्म होने की जगह पर सां लेने को किस ख़ूबसूरती से उस हँसी का ही अंग बनाया है इन गायिकाओं नें। शक्ति सामंत निर्देशित इस फ़िल्म में यह गीत मधुबाला और मीनू मुमताज़ पर फ़िल्माया गया है। तो लीजिए, अब आप इस गीत का आनंद लीजिये, और मुझे भी यह गीत बहुत पसंद है।



क्या आप जानते हैं...
कि 'इंसान जाग उठा' उस दौर की फ़िल्म थी जब लता जी सचिन देव बर्मन के लिये नहीं गा रहीं थीं। लता की कमी सी. रामचन्द्र जैसे स्थापित संगीतकार को भले हिला दिया हो, लेकिन बर्मन दादा लता के बिना भी इस दौर में उतने ही कामयाब बने रहे।

दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)

पहेली 01/शृंखला 16
गीत का ये हिस्सा सुनें-


अतिरिक्त सूत्र - एक बेहद मधुर गीत.

सवाल १ - गीतकार बताएं - ३ अंक
सवाल २ - संगीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - गायिका का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
अनजाना और अमित जी ने फिर एक बार शानदार शुरुआत की है. हिन्दुस्तानी जी और प्रतीक जी को भी बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी



इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

सुर संगम में आज - मोहन वीणा: एक तंत्र वाद्य की लम्बी यात्रा - भाग २



सुर संगम - 19 - मोहन वीणा: एक तंत्र वाद्य की लम्बी यात्रा

संगीतकार केशवराव भोले ने गायिका शान्ता आप्टे के लिए पाश्चात्य गीतकार लोंगफेलो की कविता "साँग ऑफ़ लाइफ" का चुनाव किया था| गायिका शान्ता आप्टे ने गीत को सटीक यूरोपियन अंदाज़ में गाया है| केशवराव भोले ने गीत की पृष्ठभूमि में हवाइयन गिटार, पियानो तथा वायलिन का प्रयोग किया है|

सुप्रभात! सुर-संगम की एक और मनोहर कड़ी लिए मैं कृष्णमोहन मिश्र उपस्थित हूँ आपके रविवार को संगीतमय बनाने। सुर-संगम के पिछ्ले अंक में हमनें आपको एक अनोखे तंत्र वाद्य 'मोहन वीणा' के बारे में बताया। साथ ही हमने जाना कि किस प्रकार प्राचीन काल से प्रचलित 'विचित्र वीणा' के स्वरूप में समय चक्र के अनुसार बदलाव आते रहे। पाश्चात्य संगीत का "हवाइयन गिटार" वैदिककालीन "विचित्र वीणा" का ही सरलीकृत रूप है| वीणा के तुम्बे से ध्वनि में जो गमक उत्पन्न होती है, पाश्चात्य संगीत में उसका बहुत अधिक प्रयोग नहीं होता| यूरोप और अमेरिका के संगीत विद्वानों ने अपनी संगीत पद्यति के अनुकूल इस वाद्य में परिवर्तन किया| "विचित्र वीणा" में स्वर के तारों पर काँच का एक बट्टा फिरा (Slide) कर स्वर परिवर्तन किया जाता है| तारों पर एक ही आघात से श्रुतियों के साथ स्वर परिवर्तन होने से यह वाद्य गायकी अंग में वादन के लिए उपयोगी होता है| प्राचीन ग्रन्थों में गायन के साथ वीणा की संगति का उल्लेख मिलता है| "हवाइयन गिटार" बन जाने के बाद भी यह गुण बरक़रार रहा, इसीलिए पश्चिमी संगीत के गायक कलाकारों का यह प्रिय वाद्य रहा|

पं. विश्वमोहन भट्ट ने गिटार के इस स्वरुप में परिवर्तन कर इसे भारतीय संगीत वादन के अनुकूल बनाया| उन्होंने एक सामान्य गिटार में 6 तारों के स्थान पर 19 तारों का प्रयोग किया| यह अतिरिक्त तार 'तरब' और 'चिकारी' के हैं जिनका उपयोग स्वरों में अनुगूँज के लिए किया जाता है| श्री भट्ट ने इसके बनावट में भी आंशिक परिवर्तन किया है| "मोहन वीणा" के वर्तमान स्वरुप से भारतीय संगीत के रागों को 'गायकी' और 'तंत्रकारी' दोनों अंगों में बजाया जा सकता है| अपने आकर-प्रकार और वादन शैली के कारण "मोहन वीणा" पूरे विश्व में चर्चित हो चुका है| अमेरिकी गिटार वादक रे कूडर और पं. विश्वमोहन भट्ट ने 1992 में जुगलबन्दी की थी| इस जुगलबन्दी के अल्बम 'मीटिंग बाय दि रीवर" को वर्ष 1993-94 में विश्व संगीत जगत के सर्वोच्च "ग्रेमी अवार्ड" के लिए नामाँकित किया गया और इस अनूठी जुगलबन्दी के लिए दोनों कलाकारों को सर्वोच्च "ग्रेमी पुरस्कार" से नवाज़ा गया| आइए इस पुरस्कृत अल्बम की एक जुगलबन्दी रचना सुनते हैं।

जुगलबन्दी रचना: मोहन वीणा एवं हवाइयन गिटार: वादक - विश्वमोहन भट्ट एवं रे कूडर


हवाइयन गिटार का प्रयोग भारतीय फिल्म संगीत में भी ख़ूब हुआ है| हिन्दी फिल्मों में 'हवाइयन गिटार' का पहली बार प्रयोग सम्भवतः 1937 की फिल्म "दुनिया ना माने" के एक गीत में किया गया था| इस फिल्म के संगीतकार केशवराव भोले ने गायिका शान्ता आप्टे के लिए पाश्चात्य गीतकार लोंगफेलो की कविता "साँग ऑफ़ लाइफ" का चुनाव किया था| गायिका शान्ता आप्टे ने गीत को सटीक यूरोपियन अंदाज़ में गाया है| केशवराव भोले ने गीत की पृष्ठभूमि में हवाइयन गिटार, पियानो तथा वायलिन का प्रयोग किया है| आइए, फिल्म "दुनिया ना माने" का यह गीत सुनते हैं।

गायिका: शान्ता आप्टे, फिल्म: दुनिया ना माने


और अब बारी इस कड़ी की पहेली का जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।

सुनिए इस आवाज़ को जो है बीती सदी के एक महानायक की जिन्होंने अपनी रचनाओं द्वारा सामाजिक कुरीतियों को मिटाने में अतुल्य योगदान दिया था। आपको हमें बताना है इनका नाम।



पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी मैदान में एक बार फिर उतर आए हैं, बधाई!

इसी के साथ 'सुर-संगम' के आज के इस अंक को यहीं पर विराम देते हैं| भारतीय संगीत जगत के अनेक विद्वान लुप्तप्राय वाद्यों को सहेजने-सँवारने में संलग्न हैं| 'सुर संगम' के आगामी किसी अंक में हम पुनः ऐसे ही किसी लुप्तप्राय वाद्य की जानकारी लेकर आपके समक्ष उपस्थित होंगे| आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। और हाँ! शाम ६:३० बजे हमारे 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के प्यारे साथी सुजॉय चटर्जी के साथ पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

खोज व आलेख- कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति- सुमित चक्रवर्ती



आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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