Saturday, March 21, 2009

जा जा रे जा बालमवा....सौतन के संग रात बितायी...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 29

'ओल्ड इस गोल्ड' की आज की कडी रंगी है शास्त्रीयता के रंग में. शंकर जयकिशन के संगीत की जब हम बात करते हैं तो मुख्यतः बहुत सारे साज़ और 'ऑर्केस्ट्रेशन' में लिपटे हुए गाने याद आते हैं. लेकिन उनकी कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जिनका आधार ही शास्त्रिया संगीत है. और फिल्म "बसंत बहार" तो एक ऐसी फिल्म है जिसके लगभग सभी गाने शास्त्रिया संगीत की चादर ओढे हैं. ऐसे गीतों को आम जनता में लोकप्रिय बनाना आसान काम नहीं है. लेकिन एक अच्छा फिल्म संगीतकार वही है जो शास्त्रिया संगीत को भी ऐसा रूप दें जो आम जनता गुनगुना सके, गा सके. और यही गुण शंकर जयकिशन में भी था. बसंत बहार फिल्म यह साबित करती है कि शंकर जयकिशन केवल 'किंग ऑफ ऑर्केस्ट्रेशन' ही नहीं थे, बल्कि शास्त्रिया संगीत पर आधारित गीत रचने में भी उतने ही माहिर थे. बसंत बहार, मीया मल्हार, तोडि, पीलू, तिलक, भैरवी, और झिंझोटी जैसे रागों का असर इस फिल्म के गीतों में महसूस किया जा सकता है.

आज हमने इस फिल्म से जिस गीत को चुना है वो आधारित है राग झिंझोटी पर. इस राग पर कई मशहूर गीत बने हैं फिल्म संगीत के उस स्वर्ण युग में. इस राग की तकनीकी विशेषताएँ शायद आपको मालूम ना हो, लेकिन अगर मैं इस राग पर आधारित कुछ गीतों का उल्लेख करूँ तो इन गीतों को गुनगुनाकर शायद आप इस राग के मूल स्वरूप का अंदाज़ा लगा पाएँगे. राग झिंझोटी पर आधारित कुछ मशहूर गीत हैं "मेरे महबूब तुझे मेरी मोहब्बत की क़सम", "तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है", "घुँघरू की तरह बजता ही रहा हूँ मैं", "छुप गया कोई रे दूर से पुकार के", "जाऊं कहाँ बता ए दिल", "कोई हमदम ना रहा", "मोसे छल कीए जाए देखो सैयाँ बेईमान", "तुम मुझे यूँ भुला ना पायोगे", और ना जाने कितने ही ऐसे सदाबहार नग्में हैं जो इस राग पर आधारित हैं. तो इसी राग पर आधारित बसंत बहार फिल्म से एक गीत आज पेश है लता मंगेशकर की आवाज़ में, गीत लिखा है शैलेंद्रा ने. सुनिए.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. ओपी नय्यर का संगीत, आशा की मधुर आवाज़.
२. इस फिल्म का नाम एक माह के नाम पर है, वो माह जिसमें होली आती है.
३. मुखड़े में शब्द युग्म है -"चोरी चोरी"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी का सहारा लेकर मनु जी भी पार लग ही गए, नीरज जी मान गए आपको. नीलम जी दिए गए सभी सूत्रों पर ध्यान दिया कीजिये, आपने जो गाना दिया उसके संगीतकार लक्ष्मीकांत प्यारेलाल थे, फिल्म थी "दाग" और गीतकार थे साहिर लुधियानवीं. आचार्य जी हौंसला अफ़जाई के लिए धन्येवाद.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'बोहनी'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'बोहनी'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में पंकज सुबीर की रचना ''ईस्ट इंडिया कंपनी'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "बोहनी", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 13 मिनट।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

भवों की कमान और बरौनियों का नेजा और मुस्कराहट का तीर उस वक्त बिलकुल कोई असर नहीं करते जब आप आंखें लाल किये, आस्तीनें समेटे इसलिए आसमान सर पर उठा लेते हैं कि नाश्ता और पहले क्यों नहीं तैयार हुआ। तब सालन में नमक और पान में चूना ज्यादा कर देने के सिवाय बदला लेने का उनके हाथ में और क्या साधन रह जाता है?
(प्रेमचंद की "बोहनी" से एक अंश)



नीचे के प्लेयर से सुनें.
(प्लेयर पर एक बार क्लिक करें, कंट्रोल सक्रिय करें फ़िर 'प्ले' पर क्लिक करें।)


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
VBR MP364Kbps MP3Ogg Vorbis

#Thirteeth Story, Bohni: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/08. Voice: Anurag Sharma

Friday, March 20, 2009



http://www.archive.org/download/tamasha/Subeer-Tamasha_64kb.mp3



ईन मीना डीका...रम पम पोस रम पम पोस....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 28

निर्देशक एम् वी रमण किशोर कुमार को बतौर नायक दो फिल्मों में अभिनय करवा चुके थे. 1954 की फिल्म "पहली झलक" में और 1956 की फिल्म "भाई भाई" में. 1957 में जब रमण साहब ने खुद फिल्म निर्माण का काम शुरू किया तो अपनी पहली निर्मित और निर्देशित फिल्म "आशा" में किशोर कुमार को ही बतौर नायक मौका दिया. नायिका बनी वैजैन्तीमाला. "पहली झलक" में राजेंदर कृष्ण और हेमंत कुमार पर गीत संगीत का भार था तो "भाई भाई" में राजेंदर कृष्ण और मदन मोहन पर. "आशा" में एक बार फिर राजेंदर कृष्ण ने गीत लिखे, लेकिन संगीतकार एक बार फिर बदलकर बने सी रामचंद्र. इस फिल्म में सी रामचंद्र ने एक ऐसा गीत दिया किशोर कुमार और आशा भोंसले को जो इन दोनो के संगीत सफ़र का एक मील का पत्थर बनकर रह गया. "ईना मीना डीका" का शुमार सदाबहार 'क्लब सॉंग्स' में होता है. इस गीत की धुन, 'ऑर्केस्ट्रेशन', संगीत संयोजन, और 'कॉरल सिंगिंग', कुल मिलकर यह गीत उस ज़माने के 'क्लब्स' और 'पार्टीस' में बजनेवाले 'ऑर्केस्ट्रा' को ध्यान में रखते हुए बनाया गया था. इस गीत के दो 'वर्ज़न' हैं, एक किशोर कुमार की आवाज़ में और दूसरे में आशा भोंसले की आवाज़ है. आशाजी की आवाज़ कभी और, आज आपको किशोर-दा की आवाज़ में यह गीत सुनवा रहे हैं.

"ईना मीना डीका" हिन्दी फिल्म संगीत के पहले 'रॉक एन रोल' गीतों में से एक है. ऐसा कहा जाता है कि सी रामचंद्र के संगीत कक्ष के बाहर कुछ बच्चे खेल रहे थे और "ईनी, मीनी, मिनी, मो" जैसे शब्द बोल रहे थे. इसी से प्रेरित होकर उन्होने अपने सहायक जॉन गोमेस के साथ मिलकर इस गीत के पहले 'लाइन' का ईजाद किया - "ईना मीना डीका, दे डाई दमनिका". जॉन गोमेस, जो की गोआ के रहनेवाले थे, उन्होने आगे गीत को बढाया और कहा "मका नाका", जिसका कोंकनी में अर्थ है "मुझे नहीं चाहिए". इस तरह से वो शब्द जुड्ते चले गये और "रम रम पो" पे जाके उनकी गाडी रुकी. है ना मज़ेदार किस्सा! इस गाने को पूरा किया राजेंदर कृष्ण ने. यह गीत सुनवाने से पहले आपको यह भी बता दें की इसी गीत के मुख्डे से प्रेरित होकर डेविड धवन ने 1994 में फिल्म बनाई थी "ईना मीना डीका". तो अब इतनी जानकारी के बाद आप उठाइये आनंद किशोर-दा के खिलंदड और मस्ती भरे अंदाज़ का.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. शैलेन्द्र के बोल और शंकर जयकिशन का अमर संगीत.
२. लता की दिव्य आवाज़.
३. मुखड़े में शब्द है - "सौतन".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी एक बार फिर आपने सही पकडा, चूँकि ईना मीना डीका "डमी" शब्द हैं इसलिए वैसे संकेत दिए थे. तो मनु जी और आचार्य जी परेशान न होइए आपके system में कोई प्रॉब्लम नहीं है, हा हा हा....अब तो हँसना भी पाप हो गया भाई. राज जी पहेली भी बूझा कीजिये कभी कभी

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





अलहदा है पियूष का अंदाज़, तो अलहदा क्यों न हो "गुलाल" का संगीत




वाकई पियूष भाई एक हरफनमौला हैं, क्या नहीं करते वो. एक समय था जब हमारी शामें दिल्ली के मंडी हाउस में बीता करती थी. और जिस भी दिन पियूष भाई का शो होता जिस भी ऑडिटोरियम में वहां हमारा होना भी लाजमी होता. मुझे उनके वो नाटक अधिक पसंद थे जिसे वो अकेले सँभालते थे, यानी अभिनय से लेकर उस नाटक के सभी कला पक्ष. सोचिये एक अकेले अभिनेता द्वारा करीब २ घंटे तक मंच संभालना और दर्शकों को मंत्रमुग्ध करके रखना कितना मुश्किल होता होगा, पर पियूष भाई के लिए ये सब बाएं हाथ का काम होता था. उनके संवाद गहरे असर करते थे, बीच बीच में गीत भी होते थे अक्सर लोक धुनों पर, जिसे वो खुद गाते थे. तो जहाँ तक उनके अभिनेता, निर्देशक, पठकथा संवाद लेखक, और गीतकार होने की बात है, यहाँ तक तो हम पियूष भाई की प्रतिभा से बखूबी परिचित थे, पर हालिया प्रर्दशित अनुराग कश्यप की "गुलाल" में उनका नाम बतौर संगीतकार देखा तो चौंकना स्वाभाविक ही था. गाने सुने तो उनकी इस नयी विधा के कायल हुए बिना नहीं रह सका. तभी तो कहा - हरफनमौला. लीजिये इस फिल्म का ये गीत आप भी सुनें -



उनका बचपन ग्वालियर में बीता, दिल्ली के एन एस डी से उत्तीर्ण होने के बाद ६ साल तक वो एक्ट वन से जुड़े रहे उसके बाद अस्मिता थियटर ग्रुप के सदस्य बन गए. यहाँ रंजित कपूर और अरविन्द गौड़ जैसे निर्देशकों के साथ उन्होंने काम किया. श्रीराम सेंटर के लिए उन्होंने पहला नाटक निर्देशित किया. मणि रत्नम की "दिल से" में पहली बार वो बड़े परदे पर नज़र आये. हालाँकि छोटे परदे के लिए वो "राजधानी" धारावाहिक में एक सशक्त भूमिका निभा चुके थे. राज कुमार संतोषी की "लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह" के संवाद लिखने के बाद पियूष भाई मुंबई शिफ्ट हो गए. २००३ में आई विशाल भारद्वाज की "मकबूल" में उनका किरदार यादगार रहा. "मात्त्रृभूमि", "१९७१", और "झूम बराबर झूम" में भी बतौर एक्टर उन्होंने अपनी छाप छोडी. "१९७१" के लिए उन्होंने स्क्रीन प्ले और "यहाँ" के लिए स्क्रीनप्ले और संवाद भी लिखे.

इस बीच पियूष भाई ने अपनी पहचान बनायीं, एक गीतकार के तौर पर भी. 'दिल पे मत ले यार" और "ब्लैक फ्राईडे" जैसी लीक से हटकर बनी फिल्मों के लिए उन्होंने उपयुक्त गीत लिखे तो "टशन" जैसी व्यवसायिक फिल्म के लिए चालू गीत भी खूब लिखे. माधुरी दीक्षित की वापसी वाली फिल्म "आजा नचले" के शीर्षक गीत को लिखकर बेबात के विवाद में भी फंस गए, पर मुंबई में अब उनके इस बहुआयामी प्रतिभा पर हर निर्माता निर्देशक की नज़र हो चुकी थी. अनुराग ने गुलाल में पियूष को अपनी कला का भरपूर जौहर दिखने का मौका दिया. और परिणाम - एक बहतरीन एल्बम जो कई मायनों में आम एल्बमों से से बहुत अलग है. पर यही "अलग" पन ही तो पियूष मिश्रा की खासियत है. सुनिए एक और गीत इसी फिल्म से -



"गुलाल" चुनाव का सामना करने जा रही आज की पीढी के लिए सही समय पर प्रर्दशित फिल्म है. मूल रूप से फिल्म गीतकार शायर "साहिर लुधियानवीं" को समर्पित है या यूँ कहें उनके मशहूर "ये दुनिया अगर मिल भी जाए..." गीत को समर्पित है. ये कहानी अनुराग ने तब बुनी थी जब उनके संघर्ष के दिन थे, उनकी फिल्म सेंसर में अटकी थी और कैरियर अधर में. निश्चित रूप से ये उनकी बेहतरीन फिल्मों में से एक है. देखिये किस खूबी से पियूष भाई ने इस गीत को समर्पित किया है फिल्म "प्यासा" के उस यादगार गीत के नाम -



बहुत कम फिल्मों में गीत संगीत इतना मुखर होकर आया है जैसा कि गुलाल में, वैसे जिस किसी ने भी पियूष भाई को उनके "नाटकों" में सुना है उनके लिए ये पियूष भाई के विशाल संग्रह का एक छोटा सा हिस्सा भर है, पर यकीनन जब बातें एक फिल्म के माध्यम से कही जाएँ तो उसका असर जबरदस्त होना ही है. यदि आप चालू संगीत से कुछ अलग सुनना पसंद करते हैं, और शुद्ध कविता से बहते गीत जो भीतर तक आपके भेद जाये, और ऐसी आवाजें जिसमें जोश की बहुतायत हो तो एल्बम "गुलाल" अवश्य सुनिए. हम आपको बताते चले कि इन गीतों को खुद पियूष भाई के साथ स्वानंद किरकिरे और राहुल राम ने आवाजें दी हैं. अनुराग कश्यप को भी सलाम है जिन्होंने पियूष की प्रतिभा को खुल कर बिखरने की आजादी दी. यदि ऐसे प्रयोग सफल हुए तो हम यकीनन भारतीय सिनेमा को एक नए आयाम पर विचरता पायेंगें. पियूष भाई की प्रतिभा को नमन करते हुए सुनिए इस फिल्म से मेरा सबसे पसंदीदा गीत. इसके शब्दों पर गौर कीजियेगा -





Thursday, March 19, 2009

बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 27

चौदहवीं का चाँद, 1960 की एक बेहद चर्चित फिल्म. गुरु दत्त के इस फिल्म में वहीदा रहमान की खूबसूरती का बहुत ही सुंदर उल्लेख हुया था इस फिल्म के शीर्षक गीत में, जिसे आप प्रायः सुनते ही रहते हैं कहीं ना कहीं से. इसी फिल्म से एक ज़रा कम सुना सा एक अनमोल गीत आज हम पेश कर रहे हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में. लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है "बदले बदले मेरे सरकार नज़र आते हैं, घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं". अब तक गुरु दत्त ओ पी नय्यर और एस डी बर्मन जैसे संगीतकारों के साथ ही काम कर रहे थे. चौदहवीं का चाँद के लिए जब उन्होने संगीतकार रवि को 'फोन' करके यह कहा कि वो उनकी अगली फिल्म में उन्हे बतौर संगीतकार लेना चाहते हैं तो रवि साहब को यकीन ही नहीं हुआ. गुरु दत्त साहब ने रवि साहब से यह भी पुछा कि शक़ील बदायूनीं को अगर गीतकार लिया जाए तो कैसा हो. रवि को ज़रा संदेह था कि शायद शक़ील साहब नौशाद को छोड्कर बाहर गाने ना लिखें. लेकिन शक़ील साहब ने गुरु दत्त के निवेदन को ठुकराया नहीं और रवि साहब से मिलकर बाहर जाते हुए शक़ील साहब ने उनसे कहा की "मैने बाहर कहीं काम नहीं किया है, मुझे संभाल लेना".

चौदहवीं का चाँद एक 'ब्लाकबस्टर' साबित हुई. इस फिल्म के बाद रवि और गुरु दत्त में काफ़ी दोस्ती भी हो गयी. उन दिनों 'इंडस्ट्री' में एक ऐसी बात चली थी की गुरु दत्त अपनी फिल्म के गीतकार और संगीतकार के काम में बहुत दखलंदाजी करते हैं. लेकिन विविध भारती को दिये एक 'इंटरव्यू' में रवि साहब ने साफ इनकार करते हुए कहा था कि उन्होने कभी ऐसा महसूस नहीं किया. इस फिल्म के गीत संगीत ने भी अपना कमाल दिखाया. शक़ील और रवि ने जैसे उस वक़्त के लखनऊ शहर के माहौल को ज़िंदा कर दिखाया था गीत संगीत के ज़रिए. शेर-ओ-शायरी भरे नग्मों, कोठों का गीत संगीत, और "मिली खाक में मोहब्बत" जैसे दर्द भरे नग्मों ने लोगों को अपनी ओर पूरी सफलता से आकर्षित किया. पुरस्कारों की दौड में भी यह फिल्म पीछे नहीं रही. मोहम्मद रफ़ी और शक़ील बदायूनीं को इस फिल्म के शीर्षक गीत के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से सम्मानित किया गया. बिरेन नाग को सर्बश्रेष्ठ कला निर्देशन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया. तो पेश है आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' में लताजी की आवाज़. इस गाने के संगीत संयोजन में सारंगी के सुरीले प्रयोग पर ज़रूर ध्यान दीजिएगा.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सी रामचंद्र की संगीत में किशोर के मनमौजी अंदाज़.
२. गीत का एक संस्करण आशा ने भी गाया है.
३. मुखड़े में शब्द है -"@#%" हा हा हा.

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी लगातार शतक पे शतक मार रहे हैं, आचार्य जी, मनु जी, पी एन साहब, सुमित जी सब के सब "फॉर्म" में लौट आये हैं. वाह ....जय हो.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





माँ! तेरी जय हो। 'जय हो' का एक रूप यह भी



रहमान और भारत माता को राजकुमार 'राकू' का सलाम


रहमान के गीत 'जय हो' को ऑस्कर मिलने के बाद इस गीत के ढेरों संस्करण इंटरनेट पर उपलब्ध हो गये। भारतीय राजनीतिज्ञों के ऊपर व्यंग्य कसती 'जेल हो' गीत भी चर्चा में है। हिन्द-युग्म के राजकुमार राकू' ने रहमान की इस उपलब्धि को रहमान को भारत माँ को सलाम कहा। सब अपनी-अपनी तरह से रहमान को सलाम कर रहे थे, इसी बीच राजकुमार 'राकू' और उनकी टीम ने एक नया गीत गढ़ा 'माँ! तेरी जय हो'। इस गीत को लिखा है खुद राकुमार 'राकू' ने। राकू ने संगीत विवेक अस्थाना के साथ मिलकर इस गीत को धुन दी है। संगीत-संयोजन किया है बॉलीवुड के उभरते संगीतकार विवेक अस्थाना ने। गीत में आवाज़ें हैं राजकुमार राकू (कमेंट्री), राजेश बिसेन, सुमेधा और साथियों की। आपको बताते चलें कि यह गीत आने वाली फिल्म 'कलाम का सलाम' का हिस्सा होगा। इस गीत में सभी भारतीय वाद्य-यंत्रों का इस्तेमाल किया गया है। 'माँ' से जुड़ीं भावों को पिरोने के लिए राग दुर्गा का और विजय भाव के लिए राग जयजयवंती का प्रयोग किया गया है। आवाज़ के श्रोताओं को दुबारा याद दिला दें कि राकू और विवेक अस्थाना की जोड़ी द्वारा तैयार भिखारी ठाकुर का गीत 'हँसी-हँसी पनवा' हमने आपको दिसम्बर २००८ में सुनवाया था। आज सुनिए रहमान और भारत माँ को समर्पित यह गीत



वॉयस ओवर-
तेरी संतानों ........तेरे बच्चों ने, कला की दुनिया में तेरा नाम आसमानों पे लिख दिया। माता तेरी जय हो।
लेकिन तेरी ' आन, बान, शान, मान ' से से बढ़ कर क्या हो सकता है कोई भी सम्मान? तेरे बेटे 'रहमान' ने तो कह भी दिया .........." मेरे पास माँ है ...........!"
सच्चा बेटा तेरा ! सच्चा हिन्दोस्तानी ! उसकी गूँज तो सभी ने सुनी
और आज, उसकी शानदार ऊँचाई को मेरा छोटा सा सलाम ...........माँ! तेरे नाम!

गीत के बोल-
जय हो.........जय हो..............जय हो !
जननी मेरी .................. तेरी जय हो !
माता मेरी ....................तेरी जय हो !

तेरी गोद रहे ................आँगन मेरा!
आँचल हो तेरा ............चाहत मेरी!
ममता से भरी ............आँखें तेरी,
काबा मेरा ......काशी मेरी ..........
जय माँ मेरी माँ जय हो
महिमा तेरी माँ, जय हो
माँ शक्तिशाली जय हो
माँ सबसे न्यारी, जय हो
जयति जय, जयति जय, जय हो ..........जय हो .......जय ,जय ,जय , जय , जय , जय , हो !

ये सारा सम्मान मेरा
सौभाग्य मेरा .........अरमान मेरा !
ईमान मेरा ............भगवान् मेरा !
ये सारा हिन्दुस्ताँ, ये सारा हिन्दुस्ताँ मेरा
माँ सब कुछ है ..............वरदान तेरा !
जय हो, जय हो, जय हो
जयति जय, जय हो
जय हो ..........जय हो .......जय ,जय ,जय , जय , जय , जय , हो !

तेरी सेवा ................अनहद नाद रहे
बस तू ही तूही .........याद रहे !
आनंद रहे ..........उन्माद रहे !
हम मिट जायें ....कि..... रहे न रहें ।
बस तेरे सर पे .............ताज रहे ।
तेरे दामन में .........आबाद हैं हम ,
तो फिर कैसी......... फरियाद रहे ?

दुनिया देखे ............देखे दुनिया...............ऐसी तेरी, माँ तेरी जय हो ...ऐसी तेरी, माँ तेरी जय हो

जय हो.....जय हो ! ................जय ही जय हो !
आई मेरी ..............माई मेरी !
जननी मेरी .........माता मेरी !
भारतमाता ..........माय मदर इंडिया
माय मदर इंडिया ...........भारतमाता !
जय हो .......तेरी.तेरी जय हो .........तेरी जय हो .....................जय हो !
जय हो !

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रात भर आपकी याद आती रही - संगीतकार जयदेव पर विशेष




'ये दिल और उनकी निगाहों के साये
मुझे घेर लेती हैं बाँहों के साये'


जयदेव के संगीतबद्ध गीत हमेशा अपने गिरफ्त में ले लेते हैं । और गिरफ्त भी इतनी कोमल जिसके कर्ण स्पर्श से ही रोम -रोम आनंदित हो उठे तो कौन भला इनसे अलग होना चाहेगा ।जयदेव ने ऐसे गीतों की रचना की जो मेलोडी से सराबोर होते हुए भी शास्त्रीय प्रधान रहे ।वे हमेशा अपनी संगीत विधा के प्रति ईमानदार रहे. वे जितने सादे थे उतनी ही जटिल उनकी संगीत रचना है मगर जटिल होते हुए भी उनकी धुनें बेहद सरस और मंत्रमुग्ध कर देने वाली है |



वैसे जयदेव का निजी जीवन और संगीत -जीवन दोनों ही सदैव संघर्षपूर्ण रहा । ये वाकया है कि जिनके रिकॉर्ड भले ही हजारो बिके हों मगर उनके पास अपना रिकॉर्ड प्लेयर नही था। जयदेव मूलतः पंजाबी थे उनका जन्म ३ अगस्त १९१८ को 'नैरोबी' में हुआ था। माँ-बाप का प्यार तो इन्होने ठीक से जाना भी नही था कि माँ भगवन के पास और पिता अफ्रीका व्यवसाय के चक्कर में । इनका बचपन एक यतीम की तरह ही गुजरा. उन मुश्किल दिनों में एक मात्र सहारा अपने फूफा ही हुए जिनके यहाँ उन्होंने कुछ दिन बिताये ।

जयदेव की उम्र जब १५ की होगी जब 'अली बाबा चालीस चोर' फ़िल्म में जहाँआरा कज्जन का गीत 'ये बिजली दुख की गिरती है'सुन कर इतने प्रभावित हुए कि बरकत राय से संगीत की तालीम लेने लगे. और कुछ ही दिनों बाद चलचित्र की दुनिया में अपना भाग्य आजमाने बम्बई भाग आए। शुरूवाती दौर में इन्होने कुछ फिल्मों में बाल भूमिकायें की -वाडिया फ़िल्म -कंपनी की 'वामन अवतार ','वीर भरत','हंटर वाली ', 'काला गुलाब', 'मिस फ्रंटियर मेल'आदि। इन्ही दिनों वे कृष्णराव चोंकर से संगीत की तालीम भी लेते रहे ।



तभी अचनक फूफा की मृत्यु से उन्हें लुधियाना लौटना पड़ा। अपनी मुकाम को की तलाश इन्हे चलचित्र की दुनिया में ही थी अतः साल के आख़िर तक वो फ़िर बम्बई लौट आए । मुम्बई में आये अभी वो कुछ ही दिन हुए कि अचानक उनके पिता की तबियत ख़राब होने के कारण वे भारत लौट आए और इन्हे एकबार फ़िर लुधियाना लौटना पड़ा । फूफा के बाद पिता की मृत्यु ने उनको झकझोर कर रख दिया । अब परिवार की सारी जिमेदारी उन्ही के ऊपर आ गई ।इस दौरान उन्हें काफी दिनों तक लुधियाना रुकना पड़ा । परिवार में एक छोटी बहन और एक छोटा भाई जिसकी जिम्मेदारी को उन्हने हर संभव निभाया । बहन की शादी के बाद जयदेव ने अपना संगीत जीवन फ़िर शुरु किया वे इस बार बम्बई न जा कर अल्मोडा गए जहाँ वो उदयशंकर जी के वाध्यशाला में शामिल हो गए ।



कुछ दिनों बाद संगीत की की उच्चतर शिक्षा लेने के लिए अपना रुख लखनऊ किया जहाँ उन्हें उस्ताद अली अकबर खान से सरोद की शिक्षा लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ।सरोद की तालीम उनकी रचनाओं में हर जगह मिलती है। उनकी धुनों में जहाँ -तहाँ उसके स्वर ,खटके ,मुरकी आदि सुनाई पडतें है । या वो "गमन" का "आपकी याद आती रही रात भर" हो या "रेशमा और शेरा" का 'तू चंदा मैं चाँदनी' हो| बहरहाल, एक बार फ़िर उनकी संगीत यात्रा कुछ दिनों के लिए रुक गई जब बीमार होने के कारण वे अपनी बहन के यहाँ शिमला आ गए। कुछ समय बहन के यहाँ गुजरने के पश्चात् वे ऋषिकेश में स्वामी दयानंद के आश्रम चले गए और ६ महीने वहां गुजरे ।



जयदेव के जीवन की एक के बाद एक आती घटनाओं ने उन्हें 'घुमंतू' तारा बना दिया था । लुधियाना, बॉम्बे, लखनऊ, शिमला, ऋषिकेश, उज्जैन आदि जगहों पर थोड़ा-थोड़ा समय गुजरा। इसी दौरान जयदेव दिल्ली पहुंचे जहाँ उन्होंने अपने दनिक खर्च को चलाने हेतु एक बैंक में नौकरी कर ली। इसी दरमियाँ अपने छोटे भाई का विवाह किया। मगर साल के अन्दर ही उनके भाई की मृत्यु हो गई।भाई की आसमयिक मृत्यु ने जयदेव को फ़िर एक बार दुखो के सागर में छोड़ दिया । गिर कर उठाना और उठ कर चलना जयदेव को ये शक्ति को शायद 'माँ शारदा' ही देती थीं ।



अपने आप को संभालते हुए इन्होने अपना सांगीतिक जीवन फ़िर से शुरू किया। १९४७ में ये रेडियो पर गाने लगे, कुछ ही दिनों बाद ये पुनः उस्ताद अली अकबर खान के पास जयपुर चले गए जहाँ खान साहब दरबारी संगीतज्ञ थे| जब अली अकबर खान ने नवकेतन की फ़िल्म "आंधियां" और "हमसफ़र" में संगीत दिया तब जयदेव को अपने सहायक के रूप में रखा। इसी फ़िल्म के बाद जेड का फ़िल्म संगीत से जोदव हुआ । नवकेतन साथ जयदेव का रिश्ता काफी दिनों तक रहा। अली अकबर खान के बाद ये सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए।



स्वतंत्र रूप से संगीत देने का मौका चेतन आनंद निर्देशित फ़िल्म "जोरू का भाई"(१९५५) में मिला। लेकिन जयदेव का नाम नवकेतन की ही फ़िल्म "हम दोनों"(१९६१) से -"अल्ला तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम" से सबकी जुबान पर चढ़ गया। ये गीत भारत के कंपोजिट सेकुलर संस्कृति का मानक गीत बन चुका है। इस गीत की रचना के पीछे एक बड़ा ही दिलचस्प वाकया है।जिस समय यह फ़िल्म इन्हे मिली उस समय लता और एस डी बर्मन के मनमुटाव के बीच जयदेव भी शरीक थे। जब रशीद खान लता जी के पास इस गीत के गाने का प्रस्ताव ले कर गए, तो लता जी ने साफ़ मना कर दिया। जब रशीद खान ने ये कहा अगर आप इस फ़िल्म में नही गायेंगी तो जयदेव को इस फ़िल्म से निकाल दिया जाएगा। इस बात से लता जी ने हिचकते हुए हाँ कह दिया । वैसे इस गीत की दुरूह स्केल के साथ लता जी ही न्याय कर सकती थी ।एस.डी. बर्मन हमेशा कहते ये थे कि जयदेव बहुत जटिल धुन बना देते है जो आम लोगो के से परे होता है । आरोह -अवरोह का मुश्किल क्रम,पारंपरिक छंद से हट कर अपनी अलग लय उनकी विरल संगीत विधा की परिचायक है । चाहे शास्त्रीय आधार का गीत हो या ग़ज़ल और साहित्यिक काव्यात्मक लिए रचना हो वे अपने रचनात्मकता के चरमोत्कर्ष पर रहते थे ।

"अनकही","गमन',"रेशमा और शेरा","आलाप","मुझे जीने दो" जैसी फिल्मों में उनका संगीत कौन भूल सकता है भला. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला एलबम को मन्ना डे ने स्वर दे कर और जयदेव ने संगीत दे कर अमर कर दिया है ।जयदेव आज हमारे बीच नही है मगर अपनी रचनाओं से वो सदा इस लोक में मौजूद रहेंगे.



प्रस्तुति - उज्जवल कुमार

Wednesday, March 18, 2009

हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 26

दोस्तों, गीत केवल वो नहीं जो एक गीतकार लिखे, संगीतकार उसको स्वरबद्ध करे, और गायक उसे संगीतकार के कहे मुताबिक गा दे. अमर गीत वो कहलाता है जब गायक गीतकार के विचारों को खुद महसूस करे, बाकी हर एक चीज़ को भुलाकर, उसमें खुद को पूरी तरह से डूबो दे, और संगीतकार की धुन को अपने जज़्बातों के साथ एक ही रंग में ढाल दे और उसे तह-ए-दिल से पेश करे. गुज़रे ज़माने के गायकों पर अगर हम ध्यान दें तो पाएँगे कि ऐसी महारत और किसी गायक को हो ना हो, मोहम्मद रफ़ी साहब को ज़रूर हासिल थी. उनका गाया हुआ एक एक नग्मा इस बात का गवाह है. गीत चाहे कैसा भी हो, हर एक गीत वो इस क़दर गा जाते थे कि उनके गाने के बाद और किसी की आवाज़ में उस गीत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी. ऐसी ही एक ग़ज़ल है 1958 की फिल्म "कालापानी" में जो आज आपकी सेवा में हम लेकर आए हैं - "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये, सागर में ज़िंदगी को उतारे चले गये".

दोस्तों, मैने पिछले कुछ सालों में विविध भारती के कई नायाब 'interviews' को लिपीबद्ध किया है और आज मेरे इस ख़ज़ाने में 600 से ज़्यादा 'रेडियो' कार्यक्रम दर्ज हो चुके हैं. कालापानी फिल्म के इस गीत से संबंधित खोज-बीन के दौरान प्रख्यात सारंगी वादक पंडित राम नारायण का एक 'इंटरव्यू' मेरे हाथ लगा मेरे उसी ख़ज़ाने से जिसमें पंडित-जी ने इस गीत के बारे में उल्लेख किया था. ज़रा आप भी तो पढिये की उन्होने क्या कहा था - "एस डी बर्मन, बहुत रंगीन आदमी हैं, वो जान-बूझकर मेरे साथ ग़लत हिन्दी में बात करते थे. बहुत मज़ा आया उनके साथ काम करके. वो मेरे अच्छे दोस्तों में से एक थे. उन्हे पता था कि किस 'म्युज़ीशियन' से क्या काम करवाना है. एक गाना था "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये", इसकी धुन मैने ही 'सजेस्ट' की थी, इसके 'ओरिजिनल' बोल थे "ले रसूल से जो मुसलमान बदल गया", यह एक पारंपरिक रचना है जो मैने मुहर्रम के मौके पर किसी ज़माने में लहौर में सुना था. बर्मन दादा को धुन पसंद आयी और उन्होने मजरूह सुल्तानपुरी साहब से बोल लिखवा लिए." तो दोस्तों, यह है इस गीत के बनने की कहानी. इस गीत को सुनने से पहले एक और दिलचस्प बात आपको बता दें कि फिल्म में इसी गज़ल का एक और शेर शामिल किया गया है बतौर संवाद, जिसे मुकरी अर्ज़ करते हैं अपनी ही आवाज़ में, और यह शेर था "कश्ती पलट के हाल्क़-ए-तूफान में आ गयी, मौजों के साथ साथ किनारे चले गये". तो पेश है "हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गये".



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. लता की आवाज़ में रवि के संगीत निर्देशन का एक "मास्टरपीस" गीत.
२. वहीदा रहमान इस फिल्म की नायिका थी और नायक थे गुरु दत्त.
३. मुखड़े में शब्द है - "आसार".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज जी क्या बात है कमाल कर दिया....एक बार फिर बधाई. आचार्य जी आपका प्यार सलामत रहे...आजकल लगता है हमारे दिग्गज पिछड़ रहे हैं और "डार्क होर्स" बाजी मार रहे हैं. मनु जी, एकदम सही उत्तर, आपको भी बधाई। लेकिन आप तो पहले होते थे पहले बूझने वाले।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





एक सम्मोहन का नाम है जगजीत सिंह




पुरुस्कार और म्युजिक थैरेपी

इसके अलावा भी उनकी और एलबम आयी जैसे कहकशां, चिराग जो बहुत लोकप्रिय हुईं। कुछ आलोचकों ने ( जी हां कुछ आलोचक अब भी बचे हुए थे) दबी जबान में कहना शुरु किया कि हांSSSSS , जगजीत सिंह सिर्फ़ सेमी क्लासिकल गजल ही गा सकते हैं उनके पास वेरायटी नहीं है। इस का जवाब दिया जगजीत जी ने पंजाबी गाने गा कर जो एकदम फ़ास्ट, जिंदा दिली से भरे हुए गाने थे जिन्हें सुनते ही आप के कदम अपने आप थिरकने लगें। साथ ही उन्हों ने गाये भजन जो मन को इतनी शांती देते हैं कि आप मेडिटेशन कर सकते हैं।

सबसे ऊंची प्रेम सगाई


और अब सुनिए एक पंजाबी गाना


और आज भी जगजीत जी गायकी के क्षेत्र में नये नये प्रयोग कर रहे हैं । लोग कहते हैं कि नब्बे के दशक से उनकी आवाज में, उनकी गायकी में और निखार आ गया है। मानव मन का ऐसा कोई एहसास नहीं जिसे जगजीत जी अपनी गजलों में न उतार सकते हों। इसी कारण अनेकों बार उन्हें अलग अलग सरकारों से सम्मान मिला है। उनके पिता जो साठ के दशक में उनके संगीत में अपना भविष्य बनाने के निश्चय से चिंतित थे आज गर्व से फ़ूले नहीं समाते। लेकिन सबसे बड़ा पुरुस्कार तो जगजीत जी की गायकी को तब मिला जब भोपाल के एक अस्तपताल ‘हमीदिया हॉस्पिटल’ में म्युजिक थैरेपी पर चल रहे प्रयोग के नतीजे सामने आये। इस प्रयोग में ये पाया गया कि जगजीत जी की गजलें जब ऑपरेशन थिएटर के अंदर बजायी गयीं तो मरीज को कम दर्द का एहसास हुआ, ये कहना था वहां के मुख्य ऐनेस्थिया देने वाले डाक्टर आर पी कौशल का। और इसी तरह जब अस्तपताल के दूसरे हिस्सों में जगजीत जी की गजलें बजायी गयी तो मरीजों का चित्त प्रसन्न रहता था और वो शीघ्र स्वास्थय लाभ ले कर घर को लौट जाते थे। ऐसा है जगजीत जी की गायकी का जादू।

सुनिए मेरी पसंद की दो और गज़लें-
जो भी भला बुरा है अल्लाह जानता है


आदमी आदमी को क्या देगा जो भी देगा खुदा देगा


कोई भी कलाकार अच्छा कलाकार तभी अच्छा कलाकार हो सकता है जब वो अच्छा इंसान हो। जगजीत जी भी इस नियम के अपवाद नहीं। जब वो साठ के दशक में बम्बई आये थे तो उन्हें अपनी जगह बनाने के लिए कई साल लगे थे और अथक परिश्रम करना पड़ा था, इस बात को वो आज तक नहीं भूले। नये कलाकारों को प्रोत्साहन देना मानों उन्होने अपना धर्म बना लिया हो। आज के कई नामी कलाकार उन्हीं की पारखी नजर और प्रोत्साहन का नतीजा हैं जैसे तलत अजीज, घनश्याम वासवानी, विनोद सहगल, सिजा रॉय, और अशोक खोसला को प्रोत्साहन देते हमने उन्हें खुद एक लाइव कॉन्सर्ट में देखा है। उन्हें कभी असुरक्षा की भावना ने त्रस्त नहीं किया कि ये लोग स्थापित हो गये तो मेरी मॉर्केट का क्या होगा। संगीत तो उनके लिए पूजा है।

सफ़लता का राज

एक बार किसी ने उनसे पूछा था कि आप इतने सालों से एक के बाद एक इतनी अच्छी गजलें कैसे दे पाते हैं, हर गजल अपने आप में एक नगीना होती हैं । उनका सीधा साधा उत्तर था कि मैं सबसे पहले ध्यान देता हूँ कवि पर, जिसकी नज्म या गजल मेरे दिल में उतर जाए उसी को मैं अपनी आवाज से सजाता हूँ, जो मेरे दिल में ही नहीं उतरे वो सुनने वाले के दिल में कैसे उतरेगी। उनकी चुनी हुई गजलों को देख कर ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्हें कविता की कितनी समझ है। उन्हों ने चुन चुन कर मिर्जा गालिब, आमीर मिनाई, कफ़ील आजर, सुदर्शन फ़ाकिर, निदा फ़ाजिल की की रचनाओं में से गजलें चुनीं।

जितनी अच्छी उनकी गायकी है उतनी ही अच्छी उनकी विभिन्न भाषाओं पर पकड़ है। फ़िर भी वो इस बात का ध्यान रखते हैं कि वो जो भी गायें वो इतने सीधे सादे शब्दों में हो कि लोगों को आसानी से समझ में आ जाए। अगर आप अपना ज्ञान ब्खान कर रहे हैं लेकिन सुनने वाले को कुछ समझ ही नहीं आ रहा तो वो ऐसे ही है कि ‘भैंस के आगे बीन बजाए भैंस खड़ी पगुराए’, इस बात को जगजीत जी बखूबी समझते हैं और इसी लिए उनके नगमें हर दिल अजीज होते हैं।

तीसरी बात जो ध्यानाकर्षण करती है वो ये कि जगजीत जी मानते हैं कि आजकल के संगीत में शोर ज्यादा है और आत्मा कहीं खो गयी है। उसका कारण है आज की मौजूदा तकनीकी सुविधा। आज एक संगीतकार को कई प्रकार की मशीनें उपलब्ध हैं जैसे रिदम मशीन, सिन्थेसाइजर, सेम्पलरस्। ऐसे में संगीत तो मशीन देती है संगीतकार थोड़े ही देता है तो संगीत में आत्मा कहां से आयेगी, मेहनत के पसीने की सौंधी खुशबू कहां से आयेगी। जितने कम से कम वाद्ध्य का इस्तेमाल होगा संगीत उतना ही मधुर होगा। हमें ये बात एकदम सही लगती है, आप क्या कहते है?

बकौल जगजीत जी संगीत न सिर्फ़ हमारी आत्मा को तृप्त करता है बल्कि हमारे जीवन को भी संवारता है , आप पूछेगे कैसे? तो जगजीत जी बताते है कि जब एक गायक नियमित रियाज करता है तो उसके जीवन में अनुशासन आता है और ये अनुशासन सिर्फ़ संगीत के क्षेत्र में ही नहीं उसके जीवन के दूसरे अंग भी छूता है। अनुशासित व्यक्ति अपने आप सफ़ल हो जाता है ये तो जग जाहिर बात है।

अंत में हम तो यही कहेगें जगजीत सिंह वो कलाकार है जो समय के साथ साथ और कुंदन सा निखरता जाता है और जिसकी आवाज के जादू से उसके पीछे सम्मोहित से चलने वालों की भीड़ और बड़ती जाती है। ऐसे हैं हमारे जगजीत सिंह “The Pied Piper”.

यूं तो जगजीत जी के कई गाने हैं जो मुझे पसंद है और उनमें से कुछ गीत चुनना बहुत ही मुश्किल काम है फ़िर भी एक दो गीत और हो जाएं?

होठों से छू कर तुम मेरे गीत अमर कर दो


वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी...


चलते चलते देखें कैसे सम्मोहित करते हैं जगजीत सिंह अपनी गायकी से श्रोताओं को -


प्रस्तुति - अनीता कुमार



Tuesday, March 17, 2009

एक मंजिल राही दो, फिर प्यार न कैसे हो....



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 25

दोस्तों,'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और कडी के साथ हम हाज़िर हैं. हमें बेहद खुशी है कि आप इस शृंखला को पसंद कर रहे हैं. और यकीन मानिए, आपके लिए इन गीतों को खोजने में और इन गीतों से जुडी जानकारियाँ इकट्टा करने में भी हमें उतना ही आनंद आ रहा है. इस शृंखला के स्वरूप के बारे में अगर आप कोई भी सुझाव देना चाहते हैं, या किसी तरह का कोई बदलाव चाहते हैं तो हमें बे-झिझक बताईएगा. अगर आप किसी ख़ास गीत को इस शृंखला में सुनना चाहते हैं तो भी हमें बता सकते हैं. और अगर फिल्म संगीत के सुनहरे दौर के किसी गीत से जुडी कोई दिलचस्प बात आप जानते हैं तो भी हमें ज़रूर बताएँ, हमें बेहद खुशी होगी आपकी दी हुई जानकारी को यहाँ पर शामिल करते हुए. तो आइए अब ज़िक्र छेडा जाए आज के गीत का. आज का गीत लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज़ों में एक बेहद खूबसूरत युगल गीत है जिसमें यह बताया जारहा है कि अगर मंज़िल एक है, तो फिर ऐसे मंज़िल को तय करनेवाले दो राही के दिलों में प्यार कैसे ना पनपे. अब इसके आगे शायद मुझे और कुछ बताने की ज़रूरत नहीं, आप ने गीत का अंदाज़ा ज़रूर लगा लिया होगा!

जी हाँ, 1961 में बनी फिल्म "संजोग" के इस गीत को लिखा था राजेंदर कृष्ण ने और संगीत में पिरोया था मदन मोहन साहब ने. प्रमोद चक्रवर्ती निर्देशित इस फिल्म में प्रदीप कुमार और अनीता गुहा ने मुख्य भूमिकाएँ निभाई. यह गीत मदन मोहन के स्वरबद्ध दूसरे गीतों से बहुत अलग हट्के है. आम तौर पर उनके गीतों में साज़ों का बहुत ज़्यादा इस्तेमाल नहीं होता था. लेकिन इस गीत में उन्होने अच्छे ख़ासे 'ऑर्केस्ट्रेशन' का प्रयोग किया. कई साज़ प्रयोग में लाए गये. शायद खुश-मिज़ाज और खुश-रंग इस गीत की यही ज़रूरत थी. पहले और तीसरे 'इंटरल्यूड' में 'सॅक्सफोन' का खूबसूरत प्रयोग हुया है, तो दूसरे 'इंटरल्यूड' में 'वोइलिन' और 'अकॉर्डियन' इस्तेमाल में लाया गया है. कुल मिलाकर इस गीत का संगीत संयोजन बेहद सुरीला और चमकदार है जिसे सुनकर दिल खुश हो जाता है. तो अब आप भी खुश हो जाइए और सुनिए यह गीत.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. रफी साहब का एक बेहद यादगार नग्मा.
२. मजरूह के बोल और एस डी बर्मन साहब का बेमिसाल संगीत.
३. पहला अंतरा इस शब्द से शुरू होता है -"देखा".

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
अभिषेक जी, एकदम सही जवाब. नीरज जी, धन्येवाद सहित बधाई, पी एन जी एकदम आसान हुई तो पहेली का मज़ा क्या :) प्रेमेन्द्र जी, स्वागत आपका.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





जगजीत सिंह ‘The Pied Piper’



रेडियो पर जगजीत सिंह की गजल बज रही है और मुझे याद आ रहा है, वो नब्बे का दशक जब हमारी उम्र रही होगी तीस के ऊपर(कितनी ऊपर हम नहीं बताने वाले…:)) पतिदेव काम के सिलसिले में अक्सर शहर से बाहर रहते थे। जब जब वो बाहर जाते दिन तो रोज की दिनचर्या में गुजर जाता लेकिन रातों को हमें अकेले डर के मारे नींद न आती। अब क्या करते? ऐसे में पूरी पूरी रात जगजीत सिंह की आवाज हमारा सहारा बनती।

मेरी पंसद के एक दो गीत हो जाएं,क्या कहते हैं आप ?

परेशां रात सारी हैं सितारों तुम तो सो जाओ...


मेरी तन्हाइयों तुम भी लगा लो मुझको सीने से कि मैं घबरा गया हूँ इस तरह रो रो के जीने से


आप कहेगें नब्बे का दशक? लेकिन जगजीत सिंह और चित्रा सिंह( उनकी धर्मपत्नी) की जोड़ी तो 1976 में ही अपनी पहली एलबम “The Unforgettables” से ही लोकप्रिय हो गये थे। जी हां जानते हैं, जानते हैं, हम भी उसी युवा वर्ग से थे जो उनकी पहली एल्बम से ही उनकी आवाज का दिवाना हो गया था, इसी लिए तो अपने संगीत के खजाने में से सिर्फ़ उनके ही कैसेट निकाल कर सुने जाते थे। भई तब सी डी का रिवाज नहीं था न्। अब जब कोई आप को इतना प्रभावित करे तो उसके बारे में सब कुछ जान लेने का मन करता ही है। हमने भी जितनी हो सकी उतनी जानकारी उनके बारे में हासिल करने की कौशिश की। मुझे मालूम है आप में से भी कई जगजीत जी के दिवाने होगें तो आइए बात करें कुछ उनकी कुछ अपनी।

तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेगें

आठ फ़रवरी 1941 में सरकारी मुलाजिम सरदार अमर सिंह धीमन और सरदारनी बच्चन कौर को चार लड़कियों और दो लड़कों के बाद, जब वाहे गुरु की नेमत के रूप में एक और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई तो न जाने क्या सोच कर उन्हों ने उसका नाम रख दिया ‘जगजीत सिंह’,यानी की जग को जीतने वाला। इस नाम में ही शायद आने वाले भविष्य का आगाज छुपा था। हर माता पिता की तरह सरदार अमर सिंह जी ने भी सपने देखे थे कि उनका बेटा बड़ा हो कर आई ए एस की सीढ़ी पार करते हुए किसी ऊंचे सरकारी औहदे पर आसीन होगा। लेकिन खुदा को तो कुछ और ही मंजूर था। जगजीत सिंह जिन्हें उनके घर के लोग प्यार से ‘जीत’ बुलाते थे गंगानगर से दसवीं पास कर कॉलेज की पढ़ाई करने जलंधर आ गये। दसवीं तक तो साइंस लिया हुआ था लेकिन उनका मन सांइस में न लगता था, इस लिए बी ए इतिहास ले कर किया। साथ ही साथ् पंडित छगल लाल शर्मा और बाद में उस्ताद जमाल खां साहब से गायिकी की तालीम लेते रहे। ग्रेजुएशन होते होते जगजीत साहब ख्याल, ठुमरी और ध्रुपद जैसी विधाओं में परांगत हो गये। 1965 में उन्हों ने बम्बई आकर संगीत की दुनिया में अपनी किस्मत आजमाने का फ़ैसला कर लिया। उनके पिता जी स्वाभाविक है कि इस बात से खुश नहीं थे, उनके भविष्य की चिंता उन्हें खाये जा रही थी। पर जगजीत सिंह जी दृढ़ निश्चय कर चुके थे और वो बम्बई आ गये। अब जैसा कि हर नवोदित कलाकार के साथ होता है वो उनके साथ भी हुआ। बम्बई सपनों की नगरी मानी जाती है, जो भी यहां आखों में सपने ले कर आता है उसे अपने सपने पूरे करने का मौका जरूर देती है, लेकिन राह इतनी आसां भी नहीं होती। ये कड़ी मेहनत, कई निराशा भरे दिनों से गुजरने के बाद ही सफ़लता का सेहरा किसी के सर पर रखती है। जगजीत जी के साथ भी यही हुआ। शुरु शुरु में उन्हें शादियों में गाना पड़ा, कई इश्तहारों के जिंगल्स गाने पड़े। उसी जमाने में उनकी मुलाकात हुई चित्रा जी से। चित्रा जी खुद एक अच्छी गायिका थी और हैं। पहले पहल तो वो उनसे जरा भी प्रभावित न थीं, उन्हें लगता था कि जगजीत सिंह जी बहुत ही आलसीराम है जो न जगह देखते हैं न मौका, बस जरा मौहलत मिली नहीं कि लगे खर्राटे मारने। सोते ही रह्ते हैं, सोते ही रहते हैं। लेकिन धीरे धीरे जगजीत जी की गायकी का जादू उन पर भी चढ़ने लगा और वो उनकी ऐसी कायल हुई कि साठ का दशक ख्तम होते होते वो उनकी धर्मपत्नी बन गयीं। आज लगभग चालीस साल बाद भी वो जगजीत सिंह जी की गायकी के जादू से सम्मोहित हैं और मानती हैं कि जगजीत सिंह जी की आवाज कानों से सीधे दिल में उतर जाती है। ये बात वो तो क्या सारी दुनिया मानती है। हम भी पिछले चालिस सालों से जगजीत सिंह जी की आवाज के ऐसे दिवाने हैं कि सुनते ही खिचे चले जाते हैं जैसे पाइड पाइपर के पीछे बच्चे चल दिए थे।

1976 में भारत की संगीत की दुनिया में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह पहले गजल गायक दंपत्ति के रूप में उतरे और ऐसे लोकप्रिय हुए कि दूसरे कई गायक दंपत्तियों के लिए मिसाल बन गये।

जगजीत जी की आवाज तो उन्हें ईश्वर से आशीष के रूप में मिली है पर उसे अपनी मेहनत और लगन से मांजा है जगजीत जी ने खुद्। वो न सिर्फ़ अच्छे गायक है उनकी दुरदर्शिता भी बेमिसाल है। सत्तर का दशक वो दशक था जब गजल की दुनिया में कई महारथी पहले से मौजूद थे जैसे मैंहदी हसन, पंकज मलिक,तलत महमूद, गुलाम अली, बेगम अख्तर, नूरजंहा आदि आदि। ऐसे में जगजीत जी के लिए अपनी जगह बना पाना काफ़ी टेढ़ी खीर थी। म्युजिक कंपनियां जो अपने नफ़े के प्रति बड़ी सतर्क रहती हैं आसानी से किसी नये गायक पर पैसा लगा कर खतरा नहीं उठाना चाह्तीं, अगर वो गायक न चला तो नुकसान तो होगा ही, प्रतिष्ठित गायकों की नाराजगी का भी खतरा रहता है।

दूरदर्शी जगजीत सिंह

जगजीत जी ने दूरदर्शिता दिखाते हुए अपने लिए मुकाम हासिल करने की सोची सेमी क्लासिकल में। जब उनकी पहली एलबम आयी तो समीक्षकों ने काफ़ी आलोचना की लेकिन जनता ने अपना फ़ैसला सुना दिया था। उनकी एलबम की बिक्री ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये। उनका नाम संगीत की दुनिया के प्रतिष्ठित हस्तियों में शुमार हो गया। जगजीत सिंह दंपत्ति ने एक के बाद एक मधुर आत्मा में उतर जाने वाले एलबम देने शुरु कर दिए। जगजीत जी बड़ी आसानी से जनता की नब्ज पर हाथ धर लेते हैं। अगर आप ने ध्यान दिया हो तो उनकी ज्यादातर एलबम के नाम अंग्रेजी में हैं और गजलों का चुनाव उम्दा शायरी की मिसाल्।

जगजीत जी समाज के हर तबके तक पहुंचना चाह्ते थे। अंग्रेजी में नाम रखने से आज का युवा वर्ग (जो पॉप म्युजिक और हिप हॉप का दिवाना है) खुद को उनके संगीत से जुदा नहीं पाता और दिल में उतरती उम्दा शायरी प्रौढ़ वर्ग को दिवाना बना देती है। जैसे उनकी कुछ एलबमस के नाम हैं Ecstasies, A Sound Affair, Passions, Beyond Time, Mirage, Visions, Love is Blind, पर इसी के साथ देखे तो मिर्जा गालिब उनकी बेहतरीन एलबम में से एक हैं। हम तो यहां तक कह सकते हैं कि मिर्जा गालिब ने जहां दिल को छूने वाली गजले लिखीं उनमें आत्मा डाली जगजीत सिंह की आवाज और अंदाज ने।

जगजीत सिंह् जी न सिर्फ़ गैर फ़िल्मी बल्कि फ़िल्मी संगीत की दुनिया के भी नामी गिरामी सितारे बन गये, कई फ़िल्में उनके गाये गानों की वजह से आज तक जेहन से नहीं उतरती जैसे अर्थ, साथ साथ, प्रेमगीत, तुम बिन, सरफ़रोश, दुश्मन, तरकीब और भी न जाने कितनी। किस किस के नाम गिनाऊं?



मां का दर्द

जिन्दगी बहुत ही जालिम है, इसमें खुशी और गम दोनों से कोई अछूता नहीं रह पाया। सब अच्छा चल रहा था जब नब्बे के दशक में एक हादसे ने जगजीत सिंह दंपत्ति की दुनिया ही बदल कर रख दी। उनका 21 वर्षीय इकलौता बेटा विवेक एक सड़क दुर्घटना का शिकार हो गया। जिस दिन हमने अखबार में ये खबर पढ़ी थी दिल धक्क से रह गया था। जगजीत सिंह जी ने तो फ़िर भी इस झटके को अपनी छाती पर खाया और डटे रहे लेकिन चित्रा सिंह बिचारी क्या करतीं , वो मां इतना ढाढस कहां से लाती कि अपने जवान बेटे को जिसे घोड़ी चढ़ाने के सपने देख रही थी उसे अर्थी पर चढ़ा देखती। उन्हें ऐसा झटका लगा कि चौदह साल तक उनकी आवाज गमों के अंधेरों में कैद हो गयी और वो घर पर भी कभी भूले से कुछ गुनगुना भी न पायीं, बाहर गाना तो बहुत दूर की बात थी। बड़ी मुश्किल से जगजीत जी के बहुत समझाने पर उन्हों ने अपनी अंतिम एलबम पर काम किया जो उन दोनों ने अपने बेटे की याद को समर्पित की थी। उस एलबम का नाम था “Somewhere Some one” । जाहिर है कि इस एलबम में उन दोनों का पूरा दर्द उभर कर सामने आया और ऐसा आया कि हर सुनने वाले को आज भी रुलाता है।

चित्रा जी अपने गम में ऐसी डूबीं कि उन्होने खुद को अपने घर की चार दिवारी में कैद कर लिया और सिर्फ़ बेटे की यादों में लिपटी रहीं। जगजीत जी किसी तरह संभले और जिन्दगी को दोबारा पटरी पर लाने की कौशिश की। उन्होने पहली बार लता मंगेशकर जी के साथ एलबम बनायी ‘सजदा’ ये एलबम भी सुपर हिट रही, मेरी भी पंसदीदा एलबम में से ये एक हैं इसी का एक गाना जो मुझे बहुत पंसद है आप भी सुनिए………

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी


इसकी दूसरी किश्त पढ़ें
प्रस्तुति - अनीता कुमार

Monday, March 16, 2009

चुप चुप खड़े हो ज़रूर कोई बात है...पहली मुलाकात है जी...पहली मुलाकात है...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 24

दोस्तों, आज पहली बार 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम एक ऐसे संगीतकार जोडी को याद कर रहे हैं जिनकी जोडी फिल्म संगीत की दुनिया की पहली संगीतकार जोडी रही है. और यह जोडी है हुस्नलाल और भगतराम की. साल 1949 हुस्नलाल भगतराम के संगीत सफ़र का एक महत्वपूर्ण साल रहा. इस साल उनके संगीत से सजी कुल 10 फिल्में आईं - अमर कहानी, बड़ी बहन, बालम, बाँसुरिया, हमारी मंज़िल, जल तरंग, जन्नत, नाच, राखी, और सावन भादों. इनमें से फेमस पिक्चर्स के 'बॅनर' तले बनी फिल्म बड़ी बहन ने जैसे पुर देश भर में हंगामा मचा दिया. इस फिल्म के गीत इतने ज़्यादा प्रसिद्ध हुए कि हर गली गली में गूंजने लगे, इनके चर्चे होने लगे. डी डी कश्यप द्वारा निर्देशित इस फिल्म में सुरैय्या और गीता बाली ने दो बहनों की भूमिका अदा की, और नायक बने रहमान. चाँद (1944), नरगिस (1946), मिर्ज़ा साहिबां (1947), और प्यार की जीत (1948) जैसी कामियाब फिल्मों के बाद गीतकार क़मर जलालाबादी और हुस्नलाल भगतराम की जोडी बड़ी बहन में एक साथ आए और एक बार फिर चारों तरफ छा गये. हुस्नलाल भगतराम का संगीत संयोजन इस फिल्म में कमाल का था. छाली और ठेकों का ऐसा निपूर्ण प्रयोग हुआ कि गाने जैसे लोगों की ज़ुबान पर ही थिरकने लगे.

सुरैय्या उस दौर की सबसे कामयाब और सबसे महंगी अदाकारा थी. इस फिल्म में उनका गाया "वो पास रहे या दूर रहे नज़रों में समाए रहते हैं" उनके सबसे लोकप्रिय गीतों में माना जाता है. लेकिन उस समय लता मंगेशकर एक उभरती हुई गायिका थी, जिन्होंने इस फिल्म में गीता बाली का पार्श्वगायन किया. "चले जाना नहीं नैना मिलाके" लताजी की आवाज़ में इस फिल्म का एक मशहूर गीत था जो गीता बाली पर फिल्माया गया था. लेकिन इसी फिल्म में लता मंगेशकर, प्रेमलता और साथियों की आवाज़ों में एक ऐसा गीत भी था जो ना तो गीता बाली पर फिल्माया गया और ना ही सुरैय्या पर. फिल्म की 'सिचुयेशन' ऐसी थी कि सुरैय्या रहमान से रूठी हुई थी. तभी गानेवाली लड़कियों की एक टोली वहाँ से गुज़रती है और यह गीत गाती हैं. पहले पहले प्यार की पहली पहली मुलाक़ात का यह अंदाज़-ए-बयान लोगों को खूब खूब पसंद आया और यह गीत बेहद मक़बूल हुया. लेकिन यह गीत क़मर जलालाबादी ने नहीं, बल्कि राजेंदर कृष्ण ने लिखा था. ऐसा कहा जाता है कि फिल्म के निर्माता इस गीत से इतने खुश हुए कि उन्होने राजेंदर कृष्ण साहब को एक ऑस्टिन गाडी भेंट में दे दी. तो आप भी इस गीत का आज आनंद उठाइये 'ओल्ड इस गोल्ड' में.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. लता मुकेश के स्वर.
२. राजेंद्र कृष्ण के बोल और मदन मोहन का संगीत.
३. स्थायी में पंक्ति है -"इसको भी कुछ मिला है...".

कुछ याद आया...?

पिछली पहली का परिणाम -
वाह वाह दिलीप जी, नीरज जी, और मनु जी ने एक बार फिर सही गीत पकडा है, बहुत बहुत बधाई. अनिल सेठ जी भी पहेली में रुचि लेने लगे हैं और बिलकुल ठीक जवाब दिया है।

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





नवलेखन पुरस्कार वितरण समारोह की रिकॉर्डिंग



हिन्द-युग्म महत्वपूर्ण सार्वजनिक साहित्यिक समारोहों की रिकॉर्डिंग उपलब्ध कराता रहा है ताकि कार्यक्रम का आनंद वे लोग भी ले सकें जो सशरीर समारोह उसमें सम्मिलित नहीं हो सकते। सबसे पहले हमने उदय प्रकाश का कहानीपाठ सुनवाया। फिर तेजेन्द्र शर्मा और गौरव सोलंकी के कथापाठ की रिकॉर्डिंग सुनवाई थी।

आज सुनिए १४ मार्च २००९ को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा आयोजित नवलेखन पुरस्कार वितरण समारोह की रिकॉर्डिंग। इस कार्यक्रम की मुख्य अतिथि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित थीं। कार्यक्रम की अध्यक्षता की भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान २००६ से सम्मानित कवि कुँवर नारायाण। इसके अलावा इस कार्यक्रम में अतिथि के दौर पर अजित कुमार, कैलाश वाजपेयी, अशोक वाजपेयी, ऋता शुक्ल, रवीन्द्र कालिया उपस्थित थे। इस कार्यक्रम में १३ नई साहित्यकि पुस्तकों का विमोचन हुआ। जिसमें हिन्द-युग्मी विमल चंद्र पाण्डेय और पंकज सुबीर के पहले कहानी-संग्रहों का विमोचन भी शामिल था।

शुरू के ५० सेकेण्ड की रिकॉर्डिंग हमारे पास उपलब्ध नहीं है। कुल समयः २ घण्टे १५ मिनट

सुनें-


आप भी अपने इर्द-गिर्द के होने वाले इस तरह के साहित्यिक आयोजनों की रिकॉर्डिंग podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं। यदि प्रसारित करने लायक गुणवत्ता रही तो प्रसारित कर हमें खुशी होगी।



Sunday, March 15, 2009

भूलने वाले याद न आ...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 23

मस्ते दोस्तों, 'ओल्ड इस गोल्ड' की एक और सुरीली शाम के साथ हम हाज़िर हैं. दोस्तों, अब तक इस शृंखला में हमने आपको जितने भी गाने सुनवाए हैं वो 50 और 60 के दशकों के फिल्मों से चुने गये थे. लेकिन आज हम झाँक रहे हैं 40 के दशक में. इस दशक को हालाँकि कुछ लोग फिल्म संगीत का सुनहरा दौर नहीं मानते हैं, लेकिन इस दशक के आखिर के दो-तीन सालों में फिल्म संगीत में बहुत से परिवर्तन आए. देश के बँटवारे के बाद उस ज़माने के कई कलाकार पाकिस्तान चले गये, वहाँ के कई कलाकार यहाँ आ गये. नये गीतकार, संगीतकार और गायक गायिकाओं ने इस क्षेत्र में कदम रखा. फिल्म संगीत की धारा और लोगों की रूचि बदलने लगी. नये फनकारों के नये नये अंदाज़ जनता को रास आने लगा और यह फनकार तेज़ी से कामयाबी की सीढियाँ चढ़ने लगे. ऐसे ही एक संगीतकार थे नौशाद. नौशाद साहब ने अपनी पारी की शुरुआत 1942 में करने के बाद 1944 की फिल्म "रत्तन" में उन्हे पहली बड़ी कामयाबी नसीब हुई. इसके बाद उन्हे पीछे मुड्कर देखने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. सन् 1948 में उन्ही के संगीत से सजी एक फिल्म आई थी "अनोखी अदा". आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में इसी फिल्म से एक भूला बिसरा नग्मा आपकी खिदमत में पेश कर रहे हैं.

हालाँकि महबूब ख़ान की यह फिल्म 'बॉक्स ऑफीस' पर ज़्यादा कामयाब नहीं रही, इस फिल्म के गीतों को लोगों ने सर-आँखों पर बिठाया. सुरेन्द्र और नसीम बनो इस फिल्म के नायक नायिका थे. उन दिनों अभिनेता और गायक सुरेन्द्र अपने गाने खुद ही गाया करते थे. पार्श्व-गायन की बढती लोकप्रियता और अच्छे अच्छे गायकों के पदार्पण की वजह से उस ज़माने के कई 'सिंगिंग स्टार्स' केवल 'स्टार्स' बनकर रह गये. इनमें से एक सुरेन्द्र साहब भी थे. हालाँकि इस फिल्म में सुरेन्द्र ने भी कुछ गीत गाए हैं, लेकिन कुछ गीतों में उनका पार्श्व-गायन किया है मुकेश ने. इस फिल्म का सबसे लोकप्रिय गीत मुकेश की आवाज़ में था - "मंज़िल की धुन में झूमते गाते चले चलो". उन दिनों मुकेश की आवाज़ में सहगल साहब की गायिकी का असर था. लेकिन इस गीत में मुकेश ने अपनी अलग पहचान का परिचय दिया. लेकिन इसी फिल्म में एक और गीत भी था जो मुकेश ने कुछ कुछ सागल साहब के अंदाज़ में गाया था. और यही गीत आज पेश है 'ओल्ड इस गोल्ड' में. गीतकार हैं बदायुनीं.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. हुस्नलाल भगतराम का संगीत.
२. लता, प्रेमलता और साथियों का गाया बेहद मशहूर गीत.
३. मुखड़े में शब्द है -"ज़रूर"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम -
नीरज रोहिल्ला जी एक बार फिर आपने एकदम सही जवाब दिया है. पी एन सुब्रमनियन साहब के लिए भी जोरदार तालियाँ...मुबारक हो. दिलीप जी, मनु जी, सलिल जी यादें ताजा करते रहिये. ओल्ड इस गोल्ड पर आते रहिये.

खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.





"दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे" ने रचा इतिहास, किये ७०० सप्ताह पूरे



सप्ताह की संगीत सुर्खियाँ (13)
स्लम डॉग के बाल सितारों ने याद दिलाई शफीक सैयद की
लगभग २० साल पहले मीरा नायर की फिल्म "सलाम बॉम्बे" बहुत चर्चित हुई थी, और विदेशी फिल्म की श्रेणी में भारत की तरफ से ऑस्कर में नामांकित भी हुई थी. इस फिल्म में सबसे ज्यादा वाह वाही लूटी थी एक चाय वाले की भूमिका में इसके बाल कलाकार शफीक सैयद ने. पर इस फिल्म के बाद सैयद को मुंबई में कोई काम नहीं मिला. थक हार कर १९९३ में वो बैंगलोर आ गये. दुःख की बात है की इतनी प्रतिभा होने के बाद भी सैयद आज ऑटो चला रहे हैं, जीविका के लिए. ५२ दिन की शूटिंग, उस ज़माने में १५००० रूपए का मेहनताना, अप्रत्याक्षित लोकप्रियता, राष्ट्रपति भवन में सत्कार. आज ये सब बातें सैयद के लिए एक सपना ही लगती होगी. पर ख़ुशी की बात ये है कि फिल्मों से उनका प्रेम आज भी बरकरार है, और अपने खाली समय में स्क्रिप्ट लिखते हैं. उम्मीद करें कि उनकी कहानी को भी कोई प्रोड्यूसर मिले.



पप्पू के पास होने के बाद अब चुनाव आयोग का नया नारा -"वोट ऑन"

"पप्पू" कामियाब हो गया. अब चुनाव आयोग ने इसी फार्मूले पर लोक सभा चुनावों के लिए फिल्म "रॉक ऑन" के गीत "सोचा है..." का इस्तेमाल करने जा रही है. ये प्रचार होगा युवाओं को वोट डालने के लिए प्रेरित करने का. फिलहाल इस गीत के बोलों पर काम जारी है. लगता है चुनाव आयोग ने युवाओं की नब्ज़ पकड ली है. फिल्म संगीत पर आधारित प्रचार भारत में हमेशा ही प्रभावशाली रहा है.


पहली बार इंडियन आइडल हुई एक लड़की

अपने चौथे संस्करण में जाकर आखिरकार इंडियन आइडल के रूप में श्रोताओं को मिली एक "गायिका". त्रिपुरा की सौरभी देबरामा ने वो कर दिखाया जो पिछले कई सालों में कोई भी महिला प्रतिभागी इस प्रतियोगिता में नहीं कर पायी. सौरभी को एक उज्जवल भविष्य की शुभकामनायें


दिलवाले ने रचा इतिहास

DDLJ ने सफलता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए. १९९५ में प्रर्दशित हुई शाहरुख़ खान- काजोल अभिनीत "दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगें" ने एक नया इतिहास रच डाला है. मुंबई के मराठा मंदिर सिनेमा में इस फिल्म ने पूरे किये लगातार ७०० सप्ताहों तक चलने का वर्ल्ड रिकॉर्ड. पिछले १४ सालों से इस फिल्म ने इस सिनेमा घर पर कब्जा कर रखा है और आज भी यहाँ आकर दर्शक बड़े चाव से इस फिल्म को देखते हैं. फिल्म की इस अतुलनीय सफलता में फिल्म के संगीत का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है. आज का हमारा "साप्ताहिक गीत" भी हमने चुना है इसी महान फिल्म से. जतिन ललित और आनंद बक्षी की टीम द्वारा रचित ये गीत सुनिए - "घर आजा परदेसी तेरा देस बुलाये रे.... "




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