Saturday, March 20, 2010

कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है....कैफी साहब और जगजीत सिंह जैसे चीर देते है दिल



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 379/2010/79

ल हमने १९८२ की फ़िल्म 'बाज़ार' का ज़िक्र किया था। आज भी हम १९८२ पर ही कायम हैं और आज की फ़िल्म है 'अर्थ'। 'अर्थ' महेश भट्ट निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे शबाना आज़्मी, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, राज किरण, रोहिणी हत्तंगड़ी। यानी कि फिर एक बार समानांतर सिनेमा के चोटी के कलाकारों का संगम। अपनी आत्मकथा पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी ख़ुद महेश भट्ट ने (उनके परवीन बाबी के साथ अविवाहिक संबंध को लेकर)। इस फ़िल्म को बहुत सारे पुरस्कार मिले। फ़िल्मफ़ेयर के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (शबाना आज़्मी), सर्बश्रेष्ठ स्कीनप्ले (महेश भट्ट) और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (रोहिणी हत्तंगड़ी)। शबाना आज़्मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार (सिल्वर लोटस) भी मिला था इसी फ़िल्म के लिए। इस फ़िल्म का साउंडट्रैक भी कमाल का है जिसमें आवाज़ें हैं ग़ज़ल गायकी के दो सिद्धहस्थ फ़नकारों के - जगजीत सिंह और चित्रा सिंह। "झुकी झुकी सी नज़र", "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", "तेरे ख़ुशबू में बसे", "तू नहीं तो ज़िंदगी में" और "कोई यह कैसे बताए" जैसे गीतों/ग़ज़लों ने एक अलग ही समा बांध दिया था। और क्योंकि उस दौर में ग़ज़लों का भी ख़ूब शबाब चढ़ा हुआ था, इस वजह से ग़ज़लों के अंदाज़ के इन गीतों ने ख़ूब वाह वाही बटोरी। आज हमने इस फ़िल्म से चुना है "कोई यह कैसे बताए कि वह तन्हा क्यों है"। दरअसल ये एक नज़्म है, इसमें हम मुखड़ा और अंतरा अलग नहीं कर सकते। आम फ़िल्मी गीतों की तरह यहाँ अंतरा घूम कर वापस मुखड़े पर नहीं आता। इसलिए इस गीत के पूरे बोल हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। कमाल की नज़्म है जिसे लिखा है कैफ़ी आज़्मी साहब ने। मौसिक़ी जिस शख़्स की है, उन पर भी हम चर्चा करेंगे अभी थोड़ी देर में, पहले आप कैफ़ी साहब के ये अल्फ़ाज़ पढ़िए।

कोई यह कैसे बताए कि वह तन्हा क्यों है,
वह जो अपना था वही और किसी का क्यों है,
यही दुनिया है तो फिर ऐसी यह दुनिया क्यों है,
यही होता है तो आख़िर यही होता क्यों है।

एक ज़रा हाथ बढ़ा दे तो पकड़ लें दामन,
उसके सीने में समा जाए हमारी धड़कन,
इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यों है।

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई,
एक लुटे घर पे दिया करता है दस्तक कोई,
आस जो टूट गई फिर से बंधाता क्यों है।

तुम मसर्रत का कहो या इसे ग़म का रिश्ता,
कहते हैं प्यार का रिश्ता है जनम का रिश्ता,
है जनम का जो यह रिश्ता तो बदलता क्यों है।


हाँ, अब हम आते हैं इस गीत के संगीतकार पर। कुलदीप सिंह ने फ़िल्म 'अर्थ' में संगीत दिया था। कुलदीप सिंह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों में संगीत देने के लिए बेहतर जाने जाते हैं, पर कुछ फ़िल्मों में भी उन्होने यादगार संगीत दिया है और 'अर्थ' उनके संगीत से सजा एक ऐसा ही फ़िल्म है। विविध भारती पर एक मुलाक़ात में कुलदीप साहब कहते हैं कि "संगीत की तरफ़ रुझान बचपन से ही था, मैं अपनी कम्युनिटी में, गुरुद्वारा में गाया करता था, एस एस सी तक स्कूल में ही अपने गुरु से सीखता रहा, फिर उसके बाद विशारद की। कालेज के दिनों में भी कई प्रतियोगिता खेले, कुछ हारे, कुछ जीते। मैंने एम ए किया है साइकोलोजी मे, पर प्रोफ़ेशन संगीत ही बन गया।" कुलदीप सिंह का रुझान शुरु शुरु में भले ही गायकी की तरफ़ था, पर उन्हे ऐसा लगने लगा था कि शायद गायन के क्षेत्र में ज़्यादा कुछ ना कर पाएँ, इसलिए उन्होने संगीतकार बनने की सोची। शास्त्रीय संगीत जगत के महान फ़नकार उस्ताद अमीर ख़ान साहब, उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान साहब और पंडित भीमसेन जोशी उनके प्रेरणा स्त्रोत हैं जब कि फ़िल्म संगीत जगत मे सचिन देव बर्मन का संगीत सब से ज़्यादा उन्हे प्रभावित किया है। उन्होने अपने करीयर की शुरुआत कॊलेजों के लिए कोरल सॊंग्स और ग़ज़लें कॊम्पोज़ करने से किया था। दोस्तों, कुलदीप सिंह से जुड़ी कुछ बातें बहुत जल्द ही होंगी, फ़िल्हाल आइए सुनते हैं आज का गीत जगजीत सिंह की गम्भीर लेकिन मख़मली आवाज़ में।



क्या आप जानते हैं...
कि जगजीत सिंह का पहला एल.पी रिकार्ड सन् १९७६ में जारी हुआ था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक अंतरे में शब्द आता है -"अर्पण", गीत बताएं-३ अंक.
2. गीतकार अभिलाष ने लिखा था ये अनमोल भजन, संगीतकार बताएं - २ अंक.
3. किन दो गायिकाओं की आवाजें हैं इसमें -२ अंक.
4. सीमित बजेट की ये फिल्म ८० के दशक में कामियाब रही थी, फिल्म का नाम बताएं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी, अनुपम जी, इंदु जी और पदम जी अंकों में बढ़ोतरी के लिए बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सुनो कहानी: बुद्धिजीवियों का दायित्व - शरद जोशी



सुनो कहानी: बुद्धिजीवियों का दायित्व - शरद जोशी
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रसिद्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई लिखित रचना "डिप्टी कलेक्टर" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं शरद जोशी लिखित व्यंग्य "बुद्धिजीवियों का दायित्व", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।
"बुद्धिजीवियों का दायित्व" का कुल प्रसारण समय मात्र 1 मिनट 50 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



लेखन मेरा निजी उद्देश्य है ... मैं इससे बचकर जा भी नहीं सकता।
~ पद्मश्री शरद जोशी (जन्म २१ मई १९३१; उज्जैन)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी

मार्क्सवाद पर तुम्हारी पकड़ भी गहरी है।
(शरद जोशी के व्यंग्य "बुद्धिजीवियों का दायित्व" से एक अंश)

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#65th Story, Buddhijiviyon Ka Dayitva: Sharad Joshi/Hindi Audio Book/2010/10. Voice: Anurag Sharma

Friday, March 19, 2010

चले आओ सैयां रंगीले मैं वारी रे....क्या खूब समां बाँधा था इस विवाह गीत ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 378/2010/78

जिस तरह से ५० से लेकर ७० के दशक तक के समय को फ़िल्म संगीत का सुनहरा दौर माना जाता है, वैसे ही अगर समानांतर सिनेमा की बात करें तो इस जौनर का सुनहरा दौर ८० के दशक को माना जाना चाहिए। इस दौर में नसीरुद्दिन शाह, ओम पुरी, शबाना आज़्मी, स्मिता पाटिल, सुप्रिया पाठक, फ़ारुख़ शेख़ जैसे अभिनेताओं ने अपने जानदार अभिनय से इस जौनर को चार चांद लगाए। दोस्तों, मैं तो आज एक बात क़बूल करना चाहूँगा, हो सकता है कि यही बात आप के लिए भी लागू हो! मुझे याद है कि ८० के दशक में, जो मेरे स्कूल के दिन थे, उन दिनों दूरदर्शन पर रविवार (बाद में शनिवार) शाम को एक हिंदी फ़ीचर फ़िल्म आया करती थी, और हम पूरा हफ़्ता उसी की प्रतीक्षा किया करते थे। साप्ताहिकी कार्यक्रम में अगले दिन दिखाई जाने वाली फ़िल्म का नाम सुनने के लिए बेचैनी से टीवी के सामने बैठे रहते थे। और ऐसे में अगर फ़िल्म इस समानांतर सिनेमा के या फिर कलात्मक फ़िल्मों के जौनर से आ जाए, तो हम सब उदास हो जाया करते थे। हमें तो कमर्शियल फ़िल्मों में ही दिलचस्पी रहती थी। लेकिन जैसे जैसे हम बड़े होते गए, वैसे वैसे इन समानांतर फ़िल्मों की अहमियत से रु-ब-रु होते गए। और आज इन फ़िल्मों को बार बार देखने का मन होता है, पर अफ़सोस कि किसी भी चैनल पर ये फ़िल्में दिखाई नहीं देती। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हमने जिस गीत को चुना है वह १९८२ की फ़िल्म 'बाज़ार' का है। युं तो इस फ़िल्म में लता जी का गाया "दिखाई दिए युं के बेख़ुद किया", लता जी और तलत अज़ीज़ का गाया "फिर छोड़ी रात बात फूलों की", जगजीत कौर का गाया "देख लो आज हमको जी भर के" और भुपेन्द्र का गाया "करोगे याद तो हर बात याद आएगी" जैसे गानें मशहूर हुए, लेकिन आज के अंक के लिए हमने इस फ़िल्म का जो गीत चुना है, वह दरअसल एक पारम्परिक रचना है, जिसे गाया है जगजीत कौर, पामेला चोपड़ा और साथियों नें। इस मिट्टी की ख़ुशबू लिए यह गीत है "चले आओ सइयां रंगीले मैं वारी रे"। दिलचस्प बात यह है कि इस गीत के जो अंतरे हैं, उनकी धुन पर बरसों बाद पामेला चोपड़ा ने ही फ़िल्म 'चांदनी' में एक गीत गाया था "मैं ससुराल नहीं जाउँगी", जिसके अंतरे भी कुछ कुछ इसी तरह के थे, सिर्फ़ रिदम में फ़र्क था।

विजय तलवार निर्मित 'बाज़ार' को निर्देशित किया था सागर सरहदी ने, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे फ़ारुख़ शेख़, स्मिता पाटिल, नसीरुद्दिन शाह, सुप्रिया पाठक, भरत कपूर, सुलभा देशपाण्डेय प्रमुख। यानी कि समानांतर सिनेमा के सभी मज़बूत स्तंभ इस फ़िल्म में मौजूद थे। 'बाज़ार' की कहानी आधारित थी युवतियों को अर्थाभाव के कारण अपने माँ बाप द्वारा गल्फ़ के देशों के बूढ़े अमीरों से शादी के लिए बेच देने की परम्परा पर। उस साल फ़िल्मफ़ेयर में सुप्रिया पाठक को इस फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था। फ़िल्म में संगीत था ख़ैय्याम साहब का, और उनके संगीत सफ़र का यह एक महत्वपूर्ण पड़ाव था। हैदराबाद की पृष्ठभूमि पर बने इस फ़िल्म में ख़ैय्याम साहब थोड़े से अलग रंग में नज़र आए। ख़ास कर प्रस्तुत गीत में उन्होने हैदराबादी शादी के फूल बिखेरे। आज जब भी फ़िल्म 'बाज़ार' की बात चलती है, तो इसके संगीत के ज़िक्र के बिना चर्चा पूरी नहीं होती। दोस्तों, ख़ैयाम साहब की पत्नी और गायिका जगजीत कौर ने फ़िल्मों में ज़्यादा गानें नहीं गाए। ख़ैय्याम साहब ने ख़ुद बताया था कि वो जान बूझ कर उनसे नहीं गवाते थे ताकि लोग यह न कहे कि अपनी पत्नी को मौके दे रहा है। लेकिन जब जब कुछ इस तरह के गानें बनें जो नायिका के होठों पर नहीं बल्कि किसी "दूसरे" किरदार पर फ़िल्माए गए और जिनके अंदाज़ बिल्कुल इस मिट्टी के रंग में रंगे हुए थे, तब तब ख़ैय्याम साहब ने जगजीत जी को मौका दिया। यही बात लागू होती है यश चोपड़ा और उनकी गायिका पत्नी पामेला चोपड़ा पर भी। ख़ैर, आइए इस ख़ूबसूरत शादी गीत को सुनें और इसी बहाने हैदराबाद की सैर करें।



क्या आप जानते हैं...
कि ख़ैय्याम ने ४० के दशक में जब फ़िल्म जगत में दाख़िल हुए थे तब देश में चल रहे साम्प्रदायिक तनाव के चलते अपना नाम शर्माजी रख लिया था, और शर्माजी ने नाम से उन्होने कई फ़िल्मों में संगीत दिया। १९४६ में फ़िल्म 'रोमियो ऐण्ड जुलिएट' में उन्होने अभिनय भी किया था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. अंतिम पंक्ति में शब्द है -"रिश्ता", पहचाने इस नज़्म को -३ अंक.
2. इसे निर्देशक की आत्मकथा भी माना जाता है, फिल्म बताएं - २ अंक.
3. इस बेहद दर्द भरी नज़्म को किस अजीम शायर ने लिखा है -२ अंक.
4. मदन मोहन के बाद इन्हें फिल्मों में गज़ल स्वरबद्ध करने के मामले सबसे ज्यादा याद किया जाता है, इस संगीतकार का नाम बताएं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
वाह शरद जी आपको तो मानना ही पड़ेगा, क्या खूब पहचानते हैं आप दुर्लभ गीतों को भी, इंदु जी, पदम जी आप भी सही हैं बिलकुल, अवध जी आपको भी दो जरूर देंगें, बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Thursday, March 18, 2010

न बोले तुम न मैंने कुछ कहा....फिर भी श्रोताओं और ओल्ड इस गोल्ड में बन गया एक अटूट रिश्ता



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 377/2010/77

मानांतर सिनेमा के गानें इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर बजाए जा रहे हैं और हमें पूरी उम्मीद है कि इन लीग से हट कर गीतों का आप भरपूर आनंद उठा रहे होंगे। विविध भारती पर प्रसारित विशेष कार्यक्रम 'सिने यात्रा की गवाह विविध भारती' में यूनुस ख़ान कहते हैं कि ६० के दशक के उत्तरार्ध में एक नए क़िस्म का सिनेमा अस्तित्व में आया जिसे समानांतर सिनेमा का नाम दिया गया। इनमें कुछ कलात्मक फ़िल्में थीं तो कुछ हल्की फुल्की आम ज़िंदगी से जुड़ी फ़िल्में। इसकी शुरुआत हुई मृणाल सेन की फ़िल्म 'भुबोन शोम' और बासु चटर्जी की फ़िल्म 'सारा आकाश' से। ७० के दशक मे समानांतर सिनेमा ने एक आंदोलन का रूप ले लिया। उस दौर में श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, एम. एस. सथ्यु, मणि कौल, जब्बर पटेल और केतन मेहता जैसे फ़िल्मकारों ने 'उसकी रोटी', 'अंकुर', 'भूमिका', 'अर्ध सत्य', 'गरम हवा', 'मिर्च मसाला' और 'पार्टी' जैसी फ़िल्में बनाई। लेकिन यह भी सच है कि ७० के दशक के मध्य भाग तक हिंदी सिनेमा अमिताभ बच्चन के ऐंग्री यॊंग् मैन की छवि से पूरी तरह प्रभावित हो चला था। मोटे तौर पर अब सिर्फ़ दो तरह की फ़िल्में बन रही थी, एक तरफ़ 'शोले', 'दीवार', 'अमर अकबर ऐंथनी', 'त्रिशोल', 'डॊन' जैसी स्टारकास्ट वाली भारी भरकम फ़िल्में, और दूसरी तरफ़ कम बजट की वो फ़िल्में जो आम ज़िंदगी से जुड़ी हुई थी। अमुमन इन हल्की फुल्की फ़िल्मों में नायक के रूप में नज़र आ जाते थे हमारे अमोल पालेकर साहब। उनका भोलापन, नैचरल अदाकारी, और एक आम नौजवान जैसी सूरत इस तरह की फ़िल्मों को और भी ज़्यादा नैचरल बना देती थी। आज हम '१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में सुनने जा रहे हैं अमोल पालेकर की ही फ़िल्म 'बातों बातों में' का एक बड़ा ही प्यारा सा युगल गीत आशा भोसले और अमित कुमार की आवाज़ों में "ना बोले तुम ना मैंने कुछ कहा"। बासु चटर्जी निर्मित व निर्देशित इस फ़िल्म में अमोल पालेकर के अलावा मुख्य किरदारों में थे टिना मुनीम, असरानी, डेविड, लीला मिश्र, पर्ल पदमसी, टुनटुन और अर्वैंद देशपाण्डेय। राजेश रोशन का रुमानीयत से भरा संगीत था और गीत लिखे अमित खन्ना ने।

फ़िल्म की कहानी जहाँ एक तरफ़ एक आम परिवार की कहानी थी, वहीं दूसरी तरफ़ कई हास्यप्रद किस्सों का सहारा लिया गया कहानी के किरदारों में जान डालने के लिए। मूल कहानी कुछ ऐसी थी कि रोज़ी परेरा (पर्ल पदमसी) एक ज़रूरत से ज़्यादा उत्साही विधवा है औरत हैं जो अपने गीटार पागल बेटे सावी और एक सुंदर बेटी नैन्सी (टिना मुनीम) के साथ रहती है। वह चाहती है कि नैन्सी की शादी एक अमीर लड़के के साथ हो जाए। रोज़ी की मदद करने के लिए उनके पडो़सी अंकल टॊम (डेविड) नैन्सी की मुलाक़ात टोनी ब्रगेन्ज़ा (अमोल पालेकर) से करवाते हैं सुबह ९:१० की बान्द्रा से चर्चगेट की लोकल ट्रेन में। अंकल टॊम के कहने पर नैन्सी टोनी को अपनी मम्मी से मिलवाती है। रोज़ी को शुरु शुर में तो यह जानकर टोनी पसंद नहीं आया कि उसकी तंख्व केवल ३०० रुपय है जब कि नैन्सी की तंख्वा ७०० रुपय है। लेकिन जब उसे पता चलता है कि जल्द ही टोनी की तंख्वा १००० रुपय होने वाली है, तो वह मान जाती है और नैन्सी और टोनी के मिलने जुलने पर पाबंदियाँ ख़त्म कर देती है। नैन्सी अपनी मम्मी के कहे अनुसार टोनी से शादी कर लेना चाहती है, लेकिन टोनी को अभी शादी नहीं करनी है। और इस ग़लतफ़हमी से दोनों में अनबन हो जाती है। इधर रोज़ी नए लड़के की तलाश में जुट जाती है, उधर टोनी अपने फ़ैसले पर अटल रहता है। बीच में नैन्सी दोराहे पर खड़ी रहती है। यही है 'बातों बातों में' की भूमिका। इस फ़िल्म का पार्श्व इसाई परिवारों से जुड़ा हुआ है, इसीलिए इसके गानें भी उसी अंदाज़ में बनाए गए हैं। राजेश रोशन ने कहानी के पार्श्व के साथ पूरी तरह से न्याय करते हुए कुछ ऐसे गानें बनाए हैं कि एक ऒफ़बीट फ़िल्म होते हुए भी इसके गानें ज़बरदस्त हिट हुए और आज भी बड़े चाव से सुने जाते हैं। आज का प्रस्तुत गीत जितना संगीत के लिहाज़ से सुरीला है, उतने ही कैची हैं इसके बोल। अमित खन्ना ने किस ख़ूबसूरती के साथ छो्टे छोटे शब्दों को फ़ास्ट म्युज़िक पर कामयाबी से बिठाया है। "ना बोले तुम ना मैंने कुछ कहा, मगर न जाने ऐसा क्यों लगा, कि धूप में खिला है चांद दिन में रात हो गई, कि प्यार की बिना कहे सुने ही बात हो गई"। आइए सुनते हैं। अमित कुमार की आवाज़ पहली बार गूंज रही है 'ओल इज़ गोल्ड' की महफ़िल में आज!



क्या आप जानते हैं...
कि 'बातों बातों में' फ़िल्म के गीत "उठे सब के क़दम त र रम पम पम" में पर्ल पदमसी का प्लेबैक किया था लता मंगेशकर ने जब कि लीला मिश्र का प्लेबैक किया था पर्ल पदमसी ने। है ना मज़ेदार!

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. गीत में एक जगह कई फूलों के नाम हैं जिसमें मोगरे का भी जिक्र है, गीत पहचानें-३ अंक.
2. जगजीत कौर और पामेला चोपडा के गाये इस समूह गीत की धुन किसने बनायीं है- २ अंक.
3. समान्तर सिनेमा के सभी बड़े कलाकार मौजूद थे इस फिल्म में, कौन थे निर्देशक-२ अंक.
4. फिल्म की किस अभिनेत्री को उस वर्ष कि सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेत्री का फिल्म फेयर प्राप्त हुआ था -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
चलिए अब ज़रा स्कोर कार्ड पर नज़र डालें - शरद जी हैं ६५, इंदु जी ४५ और अवध जी हैं ३५ अंकों पर. पदम जी तेज़ी से चलकर २१ पर आ चुके है. अनुपम जी ८ रोहित जी ७ और संगीता जी ४ अंकों पर हैं, सभी को शुभकामनाएं
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, March 17, 2010

पीपरा के पतवा सरीके डोले मनवा...मिटटी की सौंधी सौंधी महक लिए "गोदान" का ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 376/2010/76

'१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला की छठी कड़ी में हमने आज एक ऐसी फ़िल्म के गीत को चुना है जिसकी कहानी एक ऐसे साहित्यकार ने लिखी थी जिनका नाम हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। मुंशी प्रेमचंद, जिनकी बहुचर्चित उपन्यास 'गोदान' हिंदी साहित्य के धरोहर का एक अनमोल नगीना है। 'गोदान' की कहानी गाँव में बसे एक किसान होरी और उसके परिवार की मर्मस्पर्शी कहानी है कि किस तरह से समाज उन पर एक के बाद एक ज़ुल्म ढाते हैं और किस तरह से वो हर मुसीबत का सामना करते हैं। सेल्युलॊयड के पर्दे पर 'गोदान' को जीवंत किया था निर्देशक त्रिलोक जेटली के साथ साथ अभिनेता राज कुमार, शशिकला, महमूद, शुभा खोटे, मदन पुरी, टुनटुन और कामिनी कौशल ने। फ़िल्म में संगीत था पंडित रविशंकर का और गीत लिखे शैलेन्द्र और अंजान ने। यहाँ यह बताना आवश्यक है कि युं तो अंजान ने फ़िल्म जगत में १९५३ में ही क़दम रख दिया था 'प्रिज़नर्स ऒफ़ गोलकोण्डा' नामक फ़िल्म से, लेकिन उसके बाद कई सालों तक उनकी झोली में कम बजट की फ़िल्में ही आती रहीं जिसकी वजह से लोगों ने उनकी तरफ़ ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। जिस फ़िल्म के गीतों के अंजान और अंजान नहीं रहे, वह फ़िल्म थी 'गोदान'। 'गोदान' के वह राह खोल दिया कि जिसके बाद बड़े बड़े संगीतकारों ने उनसे गानें लिखवाने शुरु कर दिये। फ़िल्म 'गोदान' के गानें फ़िल्म के स्थान, काल, पात्र के मुताबिक लोक शैली के ही थे, जिनमें से उल्लेखनीय हैं गीता दत्त व महेन्द्र कपूर का गाया "ओ बेदर्दी क्यों तड़पाए जियरा मोरा रिझाय के", लता मंगेशकर का गाया "चली आज गोरी पिया की नगरिया" व "जाने काहे जिया मोरा डोले रे", मुकेश का गाया "हिया जरत रहत दिन रैन हो रामा", आशा भोसले का गाया "जनम लियो ललना कि चांद मोरे अंगना उतरी आयो हो", तथा मोहम्मद रफ़ी का गाया "बिरज में होली खेलत नंदलाल" और "पीपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा"। आज हम सुनने जा रहे हैं "पीपरा के पतवा सरीखे डोले मनवा के हियरा में उठत हिलोल, पूर्वा के झोंकवा में आयो रे संदेसवा के चल आज देसवा की ओर"। क्या ख़ूब तुलना की है अंजान साहब ने कि दिल ऐसे डोल रहा है जैसे कि हवा के झोंकों से पीपल के पत्त्ते सरसराते हैं। दोस्तों, यह गीत हम ख़ास बजा रहे हैं व्व्व्व के अनुरोध पर।

विविध भारती पर सन्‍ २००७ में एक शृंखला प्रस्तुत की गई थी जिसका शीर्षक था 'अंजान की कहानी समीर की ज़बानी'। तो उसमें अंजान साहब के सुपुत्र समीर साहब से जब यूनुस ख़ान ने आज के इस प्रस्तुत गीत का ज़िक्र किया था, तब समीर साहब ने कुछ इस तरह से अपने विचार व्यक्त किए थे इस गीत के बारे में - "मुझे भी यह गाना बहुत याद आता है और क्यों याद आता है क्योंकि मुझे मेरा गाँव याद आता है। मेरा गाँव जो है वह बाबसपुर, बनारस में है। बाबसपुर एयरपोर्ट, जहाँ पे प्लेन आती हैं, जाती हैं, वहाँ से जितना दूर गाँव का घर है, उतना ही दूर शहर का घर है। तो मेरा गाँव जो है, और उसमें मेरा मकान जो है, उसके चारों तरफ़ बांस के बहुत ज़्यादा पेड़ हुआ करते थे। तो जब मैं बड़ा हुआ और जब मैंने उनका (अंजान का) गाना सुना "बतवारी में मधुर सुर बाजे", तो पहले तो मुझे बतवारी का मतलब मालूम नहीं था। तो मैंने कहा कि "बतवारी" का मतलब क्या है? बाद में जब मैं लिखने लगा, समझने लगा और रेडियो से जुड़ा तब मुझे याद आया कि वो बांस से, बचपन में मम्मी बोला करती थीं कि बतवारी में मत जाना, वहाँ सांप हैं, वहाँ कीड़ें बहुत होते हैं। मुझे बतवारी याद आई और पता चला कि उन्होने बतवारी वहाँ से ली थी, और कितना ख़ूबसूरत गाना था, तो ऐसी सिमिलीज़, ऐसी सारी उपमाएँ केवल वही दे सकता है जो इस मिट्टी से जुड़ा हुआ हो!" बस्‍ दोस्तों, मेरा ख़याल है कि गाँव की मिट्टी से जुड़े इस गीत को लिखने वाले की तारीफ़ में ये शब्द काफ़ी हैं। इससे आगे आप ख़ुद सुन कर महसूस कीजिए।



क्या आप जानते हैं...


चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में शब्द है -"धूप", गीत पहचानें-३ अंक.
2. बासु चटर्जी निर्मित और निर्देशित इस फिल्म का नाम बताएं- २ अंक.
3. अमोल पालेकर और फिल्म की नायिका पर फिल्माए इस गीत के गीतकार कौन हैं-२ अंक.
4. पुराने दौर के एक अमर संगीत से सुपुत्र हैं इस गीत के संगीतकार, नाम बताएं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
अनुपम जी बधाई, बहुत दिनों में पधारे आप, शरद जी और अवध जी आये सही जवाब लेकर. पारुल और उज्जवल आपके सन्देश पाकर खुशी हुई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में.. चचा ग़ालिब की हालत बयां कर रहे हैं मेहदी हसन और तरन्नुम नाज़



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७५

यूसुफ़ मिर्जा,

मेरा हाल सिवाय मेरे ख़ुदा और ख़ुदाबंद के कोई नहीं जानता। आदमी कसरत-ए-ग़म से सौदाई हो जाते हैं, अक़्‍ल जाती रहती है। अगर इस हजूम-ए-ग़म में मेरी कुव्वत मुतफ़क्रा में फ़र्क आ गया हो तो क्या अजब है? बल्कि इसका बावर न करना ग़ज़ब है। पूछो कि ग़म क्या है?

ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-‍फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज्ज़त? ग़म-ए-मर्ग में क़िलआ़ नामुबारक से क़ताअ़ नज़र करके, अहल-ए-शहर को गिनता हूँ। ख़ुदा ग़म-ए-फ़िराक को जीता रखे। काश, यह होता कि जहाँ होते, वहाँ खुश होते। घर उनके बेचिराग़, वह खुद आवारा। कहने को हर कोई ऐसा कह सकता है़, मगर मैं अ़ली को गवाह करके कहता हूँ कि उन अमावत के ग़म में और ज़ंदों के ‍फ़िराक़ में आ़लम मेरी नज़र में तीर-ओ-तार है। हक़ीक़ी मेरा एक भाई दीवाना मर गया। उसकी बेटी, उसके चार बच्चे, उनकी माँ, यानी मेरी भावज जयपुर में पड़े हुए हैं। इन तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा। भतीजी क्या कहती होगी कि मेरा भी कोई चच्चा है। यहाँ अग़निया और उमरा के अज़दवाज व औलाद भीख माँगते फिरें और मैं देखूँ।

इस मुसीबत की ताब लाने को जिगर चाहिए। अब ख़ास दुख रोता हूँ। एक बीवी, दो बच्चे, तीन-चार आदमी घर के, कल्लू, कल्यान, अय्याज़ ये बाहर। मदारी के जोरू-बच्चे बदस्तूर, गोया मदारी मौजूद है। मियाँ घम्मन गए गए महीना भर से आ गए कि भूखा मरता हूँ। अच्छा भाई, तुम भी रहो। एक पैसे की आमद नहीं। बीस आदमी रोटी खाने वाले मौजूद। मेहनत वह है कि दिन-रात में फुर्सत काम से कम होती है। हमेशा एक फिक्र बराबर चली जाती है। आदमी हूँ, देव नहीं, भूत नहीं। इन रंजों का तहम्मुल क्योंकर करूँ? बुढ़ापा, जोफ़-ए-क़वा, अब मुझे देखो तो जानो कि मेरा क्या रंग है। शायद कोई दो-चार घड़ी बैठता हूँ, वरना पड़ा रहता हूँ, गोया साहिब-ए-फ़राश हूँ, न कहीं जाने का ठिकाना, न कोई मेरे पास आने वाला। वह अ़र्क जो ब-क़द्र-ए-ताक़त, बनाए रखता था, अब मुयस्सर नहीं।

सबसे बढ़कर, आमद आमद-ए-गवर्नमेंट का हंगामा है। दरबार में जाता था, ख़लह-ए-फ़ाख़िरा पाता था। वह सूरत अब नज़र नहीं आती। न मक़बूल हूँ, न मरदूद हूँ, न बेगुनाह हूँ, न गुनहगार हूँ, न मुख़बिर, न मुफ़सिद, भला अब तुम ही कहो कि अगर यहाँ दरबार हुआ और मैं बुलाया जाऊँ त नज़र कहाँ से लाऊँ। दो महीने दिन-रात खन-ए-जिगर खाया और एक क़सीदा चौंसठ बैत का लिखा। मुहम्मद फ़ज़ल मुसव्विर को दे दिया, वह पहली दिसंबर को मुझे दे देगा।

क्या करूँ? किसके दिल में अपना दिल डालूँ?


अभी जो हमने आपके पेश-ए-नज़र किया, वह और कुछ नहीं बल्कि किन्हीं यूसुफ़ मियाँ के नाम ग़ालिब का ख़त था। ग़ालिब के अहवाल (हालात) की जानकारी ग़ालिब के ख़तों से बखूबी मिलती है। इसलिए क्यों ना आज की महफ़िल में ग़ालिब के ख़तों का हीं मुआयना किया जाए। तो पेश है टुकड़ों में ग़ालिब के ख़त:

यह ख़त उन्होंने तब लिखा मालूम होता है, जब दिल्ली में अंग्रेजी फ़ौज़ों और हैज़ा दोनों का एक साथ आक्रमण हुआ था। ग़ालिब लिखते हैं:

पाँच लश्कर का हमला पै दर पै इस शहर पर हुआ। पहला बाग़ियों का लश्कर, उसमें पहले शहर का एतबार लुटा। दूसरा लश्कर ख़ाकियों का, उसमें जान-ओ-माल-नामूस व मकान व मकीन व आसमान व ज़मीन व आसार-ए-हस्ती सरासर लुट गए। तीसरा लश्कर का, उसमें हज़ारहा आदमी भूखे मरे।

चौथा लश्कर हैज़े का, उसमें बहुत-से पेट भरे मरे। पाँचवाँ लश्कर तप का, उसमें ताब व ताक़त अ़मूमन लुट गई। मरे आदमी कम, लेकिन जिसको तप आई, उसने फिर आज़ा में ताक़त न पाई। अब तक इस लश्कर ने शहर से कूच नहीं किया।

मेरे घर में दो आदमी तप में मुब्तिला हैं, एक बड़ा लड़का और एक मेरा दरोग़ा। ख़ुदा इन दोनों को जल्द सेहत दे।

जब शहर में बाढ आई तो ग़लिब ने लिखा:

मेंह का यह आलम है कि जिधर देखिए, उधर दरिया है। आफ़ताब का नज़र आना बर्क़ का चमकना है, यानी गाहे दिखाई दे जाता है। शहर में मकान बहुत गिरते हैं। इस वक़्त भी मेंह बरस रहा है। ख़त लिखता तो हूँ, मगर देखिए डाकघर कब जावे। कहार को कमल उढ़ाकर भेज दूँगा।

आम अब के साल ऐसे तबाह हैं कि अगर बमुश्किल कोई शख़्स दरख़्त पर चढ़े और टहनी से तोड़कर वहीं बैठकर खाए, तो भी सड़ा हुआ और गला हुआ पाए।

अंग्रेजों के हाथों कत्ल हुए अपने परिचितों का मातम करते हुए ग़ालिब लिखते हैं:

यह कोई न समझे कि मैं अपनी बेरौनक़ी और तबाही के ग़म में मरता हूँ। जो दुख मुझको है उसका बयान तो मालूम, मगर उस बयान की तरफ़ इशारा करता हूँ। अँग्रेज़ की क़ौम से जो इन रूसियाह कालों के हाथ से क़त्ल हुए, उसमें कोई मेरा उम्मीदगाह था और कोई मेरा शफ़ीक़ और कोई मेरा दोस्त और कोई मेरा यार और कोई मेरा शागिर्द, कुछ माशूक़, सो वे सबके सब खाक़ में मिल गए।

एक अज़ीज़ का मातम कितना सख्त होता है! जो इतने अज़ीज़ों का मातमदार हो, उसको ज़ीस्त क्योंकर न दुश्वार हो। हाय, इतने यार मरे कि जो अब मैं मरूँगा तो मेरा कोई रोने वाला भी न होगा।

एक और ख़त में ग़ालिब अपना दुखड़ा इस तरह व्यक्त करते हैं:

मेरा शहर में होना हुक्काम को मालूम है, मगर चूँकि मेरी तरफ़ बादशाही दफ्तर में से या मुख़बिरों के बयान से कोई बात पाई नहीं गई, लिहाज़ा तलबी नहीं हुई। वरना जहाँ बड़े-बड़े जागीरदार बुलाए हुए या पकड़े हुए आए हैं, मेरी क्या हक़ीकत थी। ग़रज़ कि अपने मकान में बैठा हूँ, दरवाजे से बाहर निकल नहीं सकता।

सवार होना या कहीं जाना तो बहुत बड़ी बात है। रहा यह कि कोई मेरे पास आवे, शहर में है कौन जो आवे? घर के घर बे-चराग़ पड़े हैं, मुजरिम सियासत पाए जाते हैं, जर्नेली बंदोबस्त 11 मई से आज तक, यानी 5 सितंबर सन् 1857 तक बदस्तूर है। कुछ नेक व बद का हाल मुझको नहीं मालूम, बल्कि हनूजल ऐसे अमूर की तरफ़ हुक्काम की तवज्जोह भी नहीं।

देखिए अंजाम-ए-कार क्या होता है। यहाँ बाहर से अंदर कोई बगैर टिकट का आने-जाने नहीं पाता। तुम ज़िनहार यहाँ का इरादा न करना। अभी देखना चाहिए, मुसलमानों की आबादी का हुक्म होता है या नहीं।

और अब ये जान लेते हैं कि ग़ालिब के ये ख़त आखिर छपे कैसे? तो इस बारे में "ग़ालिब के पत्र" नामक किताब की भूमिका में लिखा है:

उनकी आयु के अंतिम वर्षों में उनके एक शिष्य चौधरी अब्दुल गफ़ूर सुरूर ने उनके बहुत से पत्र एकत्र किए और उनको छापने के लिए ग़ालिब से आज्ञा माँगी। परंतु ग़ालिब इस बात पर सहमत न हुए। सुरूर के साथ-साथ ही मुंशी शिवनारायण 'आराम' और मुंशी हरगोपाल तफ़्ता ने भी इसी प्रकार की आज्ञा माँगी। ग़ालिब ने १८ नवंबर को मुंशी शिवनारायण को लिखा :

'उर्दू खतूत जो आप छपवाना चाहते हैं, यह भी ज़ायद बात है। कोई पत्र ही ऐसा होगा कि जो मैंने क़लम संभालकर और दिल लगाकर लिखा होगा। वरना सिर्फ़ तहरीर सरसरी है। क्या ज़रूरत है कि हमारे आपस के मुआमलात औरों पर ज़ाहिर हों। खुलासा यह कि इन रुक्क़आत का छापा मेरे खिलाफ़-ए-तबअ है।’

ऐसा प्रतीत होता है क मुंशी शिवनारायण और तफ़्ता ने ग़ालिब के पत्रों के छापने का इरादा छोड़ दिया। चौधरी अब्दुल ग़फूर सुरूर शायद इस कारण से रुक गए कि कुछ और पत्र मिल जाएँ। इस बात का अभी तक पता नहीं चला कि किस तरह मुंशी गुलाम ग़ौस ख़ाँ बेखबर ने ग़ालिब के पन्नों को छापने की आज्ञा ले ली। बल्कि बेख़बर की फरमाइश के अनुसार ग़ालिब ने अपने कुछ दोस्तों और शिष्यों को लिखकर अपने पत्रों की नकलें उनको भेजीं। ग़ालिब ने पत्रों के छापने की इजाज़त तो दे दी थी, परंतु वह चाहते यह थे कि इस संग्रह में उनके निजी पत्र शामिल न किए जाएँ।

इन ख़तों के बाद ग़ालिब के शेरों पर नज़र दौड़ा लिया जाए। यह तो सबपे जाहिर है कि ग़ालिब के शेर ख़तों से भी ज्यादा जानलेवा हैं:

बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना

हैफ़ उस चार गिरह कपड़े की क़िस्मत 'ग़ालिब'
जिसकी क़िस्मत में हो आशिक़ का गिरेबां होना


ग़ालिब के ख़त हुए, एक-दो शेर हो गए तो फिर आज की गज़ल क्योंकर पीछे रहे। तो आप सबों की खिदमत में पेश है "नक़्श फ़रियादी" एलबम से "मेहदी हसन" और "तरन्नुम नाज़" की आवाज़ों में ग़ालिब की यह सदाबहार गज़ल। गज़ल सुनाने से पहले हम इस बात का यकीन दिलाते चलें कि बस ग़ालिब हीं एक वज़ह हैं, जिस कारण से हम हर कड़ी में दूसरे फ़नकारों( जैसे कि यहाँ पर तरन्नुम नाज़) के बारे में कुछ बता नहीं पा रहे, क्या करें ग़ालिब से छूटें तो और कहीं ध्यान जाए, हाँ लेकिन एकबारगी ग़ालिब पर श्रृंखला खत्म होने दीजिए फिर हम रही सही सारी कसर पूरी कर देंगे। फिर भी अगर आपको कोई शिकायत हो तो टिप्पणियों के माध्यम से हमें इसकी जानकारी दें और अगर शिकायत न हों तो ऐसे हीं लुत्फ़ उठाते रहें। क्या ख्याल है?:

कब से हूँ क्या बताऊँ जहां-ए-ख़राब में
शब-हाए-हिज्र को भी रखूँ गर हिसाब में

ता फिर न इन्तज़ार में नींद आये उम्र भर
आने का ___ कर गये आये जो ख़्वाब में

मुझ तक कब उनकी बज़्म में आता था दौर-ए-जाम
साक़ी ने कुछ मिला न दिया हो शराब में

’ग़ालिब' छूटी शराब, पर अब भी कभी-कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र-ओ-शब-ए-माहताब में




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "तालीम" और शेर कुछ यूँ था-

पर्तौ-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक

बहुत दिनों के बाद किसी ने सीमा जी को पछाड़ा। शरद जी "शान-ए-महफ़िल" बनने की बधाई स्वीकारें। और सीमा जी संभल जाईये.. आपसे मुकाबले के लिए शरद जी मैदान में उतर चुके हैं। यह रही शरद जी की पेशकश:

कहीं रदीफ़, कहीं काफ़िया, कहीं मतला,
शे’र के दाँव-पेच मक्ता-ओ-बहर क्या है ?
अगर मिले मुझे तालीम देने वाला कोई
तो देखना मैं बताऊंगा फिर ग़ज़ल क्या है ? (स्वरचित)

निर्मला जी और सुमित जी, महफ़िल में आने और प्रस्तुति पसंद करने के लिए आप दोनों का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

मंजु जी बढिया लिखा है आपने। हाँ, शिल्प पर थोड़ा और काम कर सकती थीं आप, लेकिन कोई बात नहीं। ये रही आपकी पंक्तियाँ:

उनकी निगाहों से तालीम का सबक लेते हैं पर ,
जीवन के पन्ने को भरने के लिए सागर - सी स्याही भी कम पड़ जाती है . (स्वरचित)

नीलम जी और शन्नो जी, आप दोनों के कारण महफ़िल रंगीन बन पड़ी है। अपना प्यार (और डाँट-डपट भी) इसी तरह बनाए रखिएगा। शन्नो जी, मैं कोई गुस्सैल इंसान नहीं जिससे आप इतनी डरती रहें। आप दोनों से बस यही दरख्वास्त है कि बातों के साथ-साथ(या फिर बातों से ज्यादा) शेरो-शायरी को तवज्जो दिया करें (यह एक दरख्वास्त है, धमकी मत मान लीजियेगा...और हाँ नाराज़ भी मत होईयेगा)। ये रहीं आप दोनों की पंक्तियाँ क्रम से: (पहले शन्नो जी, फिर नीलम जी)

हरफन मौला ने पूरी तालीम से रखी दूरी
दवाओं से भी पहचान थी उनकी अधूरी
नीम हकीम खतरे जान बनकर ही सही
एक दिन उन्होंने की अपनी तमन्ना पूरी. (स्वरचित)

तालीम तो देना पर इतना इल्म भी देना उनको
बुजुर्गों कोदिलसे सिजदे का शऊर भी देना उनको (स्वरचित)

सीमा जी, आपके आने के बाद हीं मालूम पड़ता है कि महफ़िल जवान है, इसलिए कभी नदारद मत होईयेगा। ये रहे आपके शेर:

मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ
फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती. (मुनव्वर राना)

दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं होती
दो चार किताबों को घर में पढ़ा जाता है (बशीर बद्र)

अवनींद्र जी, महफ़िल के आप नियमित सदस्य हो चुके हैं। यह हमारे लिए बड़ी हीं खुशी की बात है। ये रहीं आपकी स्वरचित पंक्तियाँ:

तालीम तो ली थी मगर शहूर न आया
संजीदगी से चेहरे पे कभी नूर न आया
तह पड गयी जीभ मैं कलमा रटते रटते
तहजीब का इल्म फिर भी हुज़ूर न आया (स्वरचित )

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, March 16, 2010

आपकी याद आती रही...छाया गांगुली की आवाज़ और जयदेव का संगीत गूंजता रहा रात भर



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 375/2010/75

मानांतर सिनेमा की बात चल रही हो तो ऐसे में फ़िल्मकार मुज़फ़्फ़र अली का ज़िक्र करना बहुत ज़रूरी हो जाता है। मुज़फ़्फ़र अली, जिन्होने 'गमन', 'उमरावजान', 'अंजुमन' जैसी फ़िल्मों का निर्माण व निर्देशन किया, पटकथा और संवाद में भी मह्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके अलावा समानांतर सिनेमा के दो और प्रमुख स्तंभ जिनके नाम मुझे इस वक़्त याद आ रहे हैं, वो हैं गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल। वैसे आज हम ज़िक्र मुज़फ़्फ़र अली साहब का ही कर रहे हैं, क्योंकि आज जिस गीत को हमने चुना है वह है फ़िल्म 'गमन' का। १९७८ की इस फ़िल्म को लोगों ने ख़ूब सराहा था। अपनी ज़िंदगी को सुधारने संवारने के लिए लखनऊ निवासी ग़ुलाम हुसैन (फ़ारुख़ शेख़) बम्बई आकर काम करने का निश्चय कर लेता है, अपनी बीमार माँ और पत्नी (स्मिता पाटिल) को पीछे लखनऊ में ही छोड़ कर। बम्बई आने के बाद उसका करीबी दोस्त लल्लुलाल तिवारी (जलाल आग़ा) उसके टैक्सी धोने के काम पर लगा देता है। काफ़ी जद्दोजहद करने के बाद भी ग़ुलाम इतने पैसे नहीं जमा कर पाता जिससे कि वह लखनऊ एक बार वापस जा सके। उधर लल्लुलाल भी अपनी परेशानियों से परेशान है। कई सालों से बम्बई में रहने के बावजूद वह अपनी प्रेमिका यशोधरा (गीता सिद्धार्थ) के लिए कोई ढंग का मकान किराए पे लेने में असमर्थ है, और वह एक ऐसी चाली में रहता है जिसे बम्बई नगर निगम तोड़ने वाली है। क्या होता है ग़ुलाम और लल्लुलाल के साथ, यही है 'गमन' की कहानी। महानगर की ज़िंदगी को बहुत ही सच्चाई के साथ चित्रित किया गया है इस फ़िल्म में और इसी फ़िल्म का तो एक गीत ही यही कहता है कि "सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है, इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है?" ख़ैर, आज हम इस ग़ज़ल को तो नहीं सुनने जा रहे, लेकिन ऐसा ही एक ख़ूबसूरत गीत जिसे गाया है छाया गांगुली ने। ग़ुलाम हुसैन बम्बई आ जाने के बाद उसकी पत्नी स्मिता पाटिल रात की तन्हाई में उदास बैठी हुई है, और पार्श्व में यह गीत गूंज उठता है। गीत को इतने असरदार तरीक़े से गाया गया है कि सुन कर जैसे लगता है कि वाक़ई किसी की याद में दिल रो रहा हो! मख़दूम मोहिउद्दिन के बोल है और जयदेव का संगीत।

फ़िल्म 'गमन' के इस गीत के लिए गायिका छाया गांगुली को सर्वश्रेष्ठ गायिका का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला था। इसी से जुड़ी यादें बता रही हैं छाया जी विविध भारती के एक कार्यक्रम में - "इससे पहले मुझे ग़ज़ल गाने का कोई तजुर्बा नहीं था। इस अवार्ड से मुझे प्रोत्साहन मिला और अच्छे से अच्छा गाने का। यह उन्ही (जयदेव) की मेहनत और कोशिश का परिणाम है। उसी साल १९७९ को 'गमन' के लिए 'बेस्ट म्युज़िक डिरेक्टर' का अवार्ड भी मिला उनको। मैंने कभी सोचा नहीं था कि एक दिन फ़िल्म में गाउँगी क्योंकि उस तरह से कभी सोचा नहीं था। जयदेव जी बहुत ही उदार और मृदुभाषी थे। नए कलाकारों का हौसला बढ़ाते थे। उन्हे साहित्य, संगीत और कविता से बहुत लगाव था। गीत की एक पंक्ति को लेकर सिंगर से अलग अलग तरह से उसे गवाते थे। उनके पास जाने से ऐसा लगता है कि नर्वस हो जाउँगी। उनका घर मेरे ऒफ़िस के नज़दीक ही था। मैं ऒल इंडिया रेडियो में काम करती थी। तो उनका जब बुलावा आया तो पहले दिन तो मैं गई भी नहीं। फिर दूसरे दिन उनके सहायक प्यारेलाल जी बुलाने आए थे। तब मैं गई। वो सामनेवाले से इस तरह से बात करते थे 'that he will make you feel very much at ease'. उनके संगीत में भारतीय संगीत की मेलडी भी है, साथ ही मांड की लोक शैली भी झलकती है। कहीं ना कहीं उनके गीतों में भक्ति रस भी मिल जाता है। मेरा एक ऐल्बम निकला था 'भक्ति सुधा' के नाम से, जिसमें उनके भजन थे। उच्चारण सीखने के लिए वो मुझे पंडित नरेन्द्र शर्मा के पास ले गए। उन्हे साहित्य का ज्ञान था, पर फिर भी वो मुझे पंडित जी के पास ले गए ताकि मुझे उनसे कुछ सीखने का मौका मिले। उनसे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला।" तो चलिए दोस्तों, इस ख़ूबसूरत गीत को सुना जाए!



क्या आप जानते हैं...
कि गीतकार अंजान का असली नाम लालजी पान्डेय था और उनका जन्म बनारस में २८ अक्तुबर १९३० को हुआ था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. मुखड़े में शब्द है -"हिलोर", गीत पहचानें-३ अंक.
2. किस महान साहित्यकार की कृति पर आधारित है ये फिल्म- २ अंक.
3. जिस गीतकार ने इसे रचा है उनके पुत्र भी इंडस्ट्री के नामी गीतकारों में हैं, मूल गीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
4. फिल्म के संगीतकार भारतीय शास्त्रीय संगीत के शिरोमणी है, कौन हैं -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
शरद जी स्वागत है फिर आपका, इंदु जी, संगीता जी और पदम जी को बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

कुछ कुछ सबको मिलता है- गुनगुनाते लम्हे का नया एपीसोड



आज है माह का तीसरा मंगलवार और मौका है गुनगुनाते लम्हे का। इस कार्यक्रम के माध्यम से हम किसी एक कहानी को गीतों की चाश्‍नी में डुबोते हैं ताकि आप उसे पूरा रस लेकर सुन सकें। इस बार की कहानी थोड़ी लम्बी है। लेकिन कहानी की लेखिका दीपाली आब का मानना है कि आप इसे सुनकर बिलकुल बोर नहीं होगें। तो चलिए आपके साथ हम भी आनंद लेते हैं इस कहानी का-



इस बार की कहानी में
आवाज़/एंकरिंग/कहानीतकनीक
DeepalI AabShailesh Bharatwasi
दीपाली आबशैलेश भारतवासी



आप भी चाहें तो भेज सकते हैं कहानी लिखकर गीतों के साथ, जिसे देंगी रश्मि प्रभा अपनी आवाज़! जिस कहानी पर मिलेगी शाबाशी (टिप्पणी) सबसे ज्यादा उनको मिलेगा पुरस्कार हर माह के अंत में 500 / नगद राशि।

हाँ यदि आप चाहें खुद अपनी आवाज़ में कहानी सुनाना, तो भी आपका स्वागत है....


1) कहानी मौलिक हो।
2) कहानी के साथ अपना फोटो भी ईमेल करें।
3) कहानी के शब्द और गीत जोड़कर समय 35-40 मिनट से अधिक न हो, गीतों की संख्या 7 से अधिक न हो।।
4) आप गीतों की सूची और साथ में उनका mp3 भी भेजें।
5) ऊपर्युक्त सामग्री podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें।

कुछ नया नहीं है "सदियाँ" के संगीत में, अदनान सामी और समीर ने किया निराश



ताज़ा सुर ताल ११/२०१०

सजीव - सुजॊय, तुम्हे याद होगा, २००५ में एक फ़िल्म आई थी 'लकी', जिसमें सलमान ख़ान थे। याद है ना उस फ़िल्म का संगीत?

सुजॊय - बिल्कुल याद है, उसमें अदनान सामी का संगीत था और उसके गानें ख़ूब चले थे। लेकिन आज अचानक उस फ़िल्म का ज़िक्र क्यों?

सजीव - क्योंकि आज हम 'ताज़ा सुर ताल' में जिस फ़िल्म के गीतों की चर्चा करने जा रहे हैं, उस फ़िल्म का संगीत ही ना केवल अदनान सामी ने तैयार किया है, बल्कि गीतों के रीदम और धुनें भी काफ़ी हद तक 'लकी' के गीतों से मिलती जुलती है। आज 'ताज़ा सुर ताल' में ज़िक्र आने वाली फ़िल्म 'सदियाँ' के संगीत की।

सुजॊय - यह बात तो सही है कि अदनान सामी का रीदम उनके गीतों की पहचान है। जैसे हम गीत सुन कर बता सकते हैं कि गीत लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का है या कल्याणजी आनंदजी का या फिर राहुल देव बर्मन का, ठीक वैसे ही अदनान साहब का जो बेसिक रीदम है, वह झट से पहचाना जा सकता है। हम किस रीदम की तरफ़ इशारा कर रहे हैं, हमारे श्रोता इस फ़िल्म के गीतों को सुनते हुए ज़रूर महसूस कर लेंगे।

सजीव - इससे पहले कि गीतों का सिलसिला शुरु करें, मैं यह बता दूँ कि 'सदियाँ' राज कनवर की फ़िल्म है और उन्होने ही इसे निर्देशित भी किया है। फ़िल्म में मुख्य भूमिकाएँ अदा की हैं लव सिन्हा, फ़रेना वज़ीर, रेखा, ऋषी कपूर, शबाना आज़मी और हेमा मालिनी ने।

सुजॊय - तो चलिए शुरु करते हैं इस फ़िल्म का पहला गीत। शान और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में "जादू नशा अहसास क्या"। समीर की गीत रचना है और धुन वही, अदनान सामी स्टाइल वाली। और रीदम भी वही जाना पहचाना सा। गीत ठीक ठाक बना है, कोई ख़ास बात वैसे नज़र नहीं आती। सुनते हैं। गीत सुन कर बताइएगा कि क्या आपको "सुन ज़रा सोनिये सुन ज़रा" गीत की याद आई कि नहीं।

गीत - "जादू नशा अहसास क्या"


सजीव - दूसरा गाना है मिका की आवाज़ में, "मनमौजी मतवाला"। इस गीत में भी कोई नवीनता नहीं है। वही पंजाबी पॊप भंगड़ा वाली रीदम। गीत की शुरुआत "दिल बोले हड़िप्पा" गीत की तरह लगती है।

सुजॊय - इस गीत को सुन कर फ़िल्मी गीत कम और पंजाबी पॊप ऐल्बम ज़्यादा लगता है। बेहद साधारण गीत है, और इसे भी समीर साहब ने ही लिखा है। वैसे इस गीत को थोड़ा सा और जुनूनी और स्पिरिचुयल अंदाज़ में अगर बनाया जाता और कैलाश खेर शैली में गवाया जाता, तो शायद कुछ और ही रंग निखर कर आता। सुनते हैं।

गीत - "मनमौजी मतवाला"


सजीव - तीसरा गीत बिल्कुल पहले गीत की ही तरह है, और इसे श्रेया घोषाल ने राजा हसन के साथ मिल कर गाया है, "सरग़ोशियों के क्या सिलसिले हैं"। अच्छा सुजॊय, बता सकते हो ये राजा हसन कौन है?

सुजॊय - हाँ, अगर मैं ग़लत नहीं तो वही राजा हसन जिन्होने ज़ी सा रे गा मा पा में एक जाने माने प्रतिभागी थे और उसके बाद भी कई रीयल्टी शोज़ में नज़र आए थे।

सजीव - ठीक पहचाना। इस गीत का रीदम भी वही अदनान रीदम है। समीर ने इस गीत में अच्छे बोल दिए हैं। शुरुआती बोल कुछ ऐसे हैं कि "अहसास ख़्वाहिशों का सांसों में मर ना जाए, सदियाँ गुज़र गई हैं लम्हा गुज़र ना जाए"। इस ग़ज़लनुमा गीत को सुनते हुए अच्छा लगता है।

सुजॊय - मैंने यह गीत सुना है और मेरा रवैय्या भी इस गीत के लिए सकारात्मक ही है। आइए सुनते हैं।

गीत - "सरग़ोशियों के क्या सिलसिले हैं"


सुजॊय - चौथे गीत में अदनान सामी की ही आवाज़ है और उनके साथ हैं सुनिधि चौहान। इस बार गीतकार समीर नहीं बल्कि अमजद इस्लाम अमजद हैं। "तारों भरी है ये रात सजन"।

सजीव - यह गीत भी अदनान सामी के एक पहले के गीत से इन्स्पायर्ड है।

सुजॊय - कौन सा?

सजीव - इस गीत को पहले सुनो और फिर तुम ही बताओ कि किस गीत से इसकी धुन मिलती जुलती लगती है। अदनान सामी का ऒर्केस्ट्रेशन ९० के दशक की तरह है। स्ट्रिंग्स और तमाम देशी और विदेशी साज़ों की ध्वनियों का प्रयोग सुनने को मिलता है, भले ही उन्हे सीन्थेसाइज़र पर बनाया गया हो। सुनिधि ने इस गीत को पतली और नर्म आवाज़ में गाया है। सुनिधि एक बेहद वर्सेटाइल गायिका हैं और किसी भी तरह का गीत बख़ूबी निभा लेती हैं। इस गीत में भी उसी प्रतिभा का परिचय उन्होने दिया है।

गीत - "तारों भरी है ये रात सजन"


सजीव - पता चला कुछ?

सुजॊय - हाँ, "तारों भरी है ये रात सजन" वाला हिस्सा सुन कर फ़िल्म 'सलाम-ए-इश्क़' का "दिल क्या करे" गीत के मुखड़े की याद आती है।

सजीव - बस, मैं यही सुनना चाहता था। 'सदियाँ' में कुल ८ गानें हैं, जिनमें से ५ गानें हम यहाँ पर सुन रहे हैं आज। आज का अंतिम गाना इस फ़िल्म का शीर्षक गीत है और इस गीत को सुनवाए बिना इस फ़िल्म के गीतों की चर्चा पूरी नहीं हो सकती। इसे गाया है रेखा भारद्वाज ने। "वक़्त ने जो बीज बोया"। धुन और बोल, दोनों के लिहाज़ से यह गीत इस फ़िल्म का सब से अच्छा गीत है। रेखा जी इन दिनों एक के बाद एक गीत गा रही हैं, और हर एक गीत को लोग हाथों हाथ ले रहे हैं।

सुजॊय - निस्संदेह इस गीत की वजह से इस ऐल्बम का स्तर काफ़ी उपर आ गया है। कुल मिलाकर 'सदियाँ' का संगीत सुरीला है और उम्मीद है जनता इसे स्वीकार करेगी। तो चलिए सुनते हैं यह अंतिम गीत।

गीत - "वक़्त ने जो बीज बोया"


"सदियाँ" के संगीत को आवाज़ रेटिंग **
यहाँ सब कुछ चिरपरिचित है. बड़े बड़े गायक गायिकाओं के नाम हैं गीत में दर्ज पर उस स्तर के नहीं हैं गीत सरंचना. शब्द भी समीर के कुछ नया नहीं देते. नदीम श्रवण और आनंद मिलिंद दौर की याद ताज़ा हो आती है. राज कन्वर संगीत में अपने टेस्ट के मामले में आज के दौर की ताल शायद नहीं भांप पाए हैं. फिल्म का संगीत "लेट डाउन" है.

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ३१- अदनान सामी का गाया वह कौन सा गीत है जिसका भाव फ़िल्म 'जाँबाज़' के "हर किसी को नहीं मिलता यहाँ प्यार ज़िंदगी में" गीत से मिलता जुलता है?

TST ट्रिविया # ३२ "फिर वह फ़िल्म आई जिसका मैं कहूँ कि गाना मैंने बहुत बार सुना, तब जाके लगा कि सही मयने में पिताजी एक गीतकार हैं और उन्होने एक अच्छी फ़िल्म लिखी है। और वह गाना था 'बिना बदरा के बिजुरिया कैसे चमकी'।" बताइए ये शब्द किसने कहे थे।

TST ट्रिविया # ३३ शान और श्रेया घोषाल ने साथ में सन् २००२ की एक फ़िल्म में एक युगलगीत गाया था "दिल है दीवाना"। बताइए फ़िल्म का नाम।


TST ट्रिविया में अब तक -
सीमा जी बहुत आगे बढ़ चुकी हैं, इस साल भी उनकी जीत अब तक तो सुनिचित ही लग रही है, बधाई

Monday, March 15, 2010

सांझ ढले गगन तले....एक उदास अकेली शाम की पीड़ा वसंत देसाई के शब्दों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 374/2010/74

स्सी के दशक के फ़िल्मी गीतों के ज़िक्र से कुछ लोग अपना नाक सिकुड़ लेते हैं। यह सच है कि ८० के दशक में फ़िल्म संगीत के स्तर में काफ़ी गिरावट आ गई थी, लेकिन कई अच्छे गीत भी बने थे। पूरे के पूरे दशक को बदनाम करने से इन अच्छे गीतों के साथ नाइंसाफ़ी वाली बात हो जाएगी। और किसी भी गीत के स्तर को उसके बनने वाले समय से जोड़ा नहीं जाना चाहिए। जो चीज़ वाक़ई अच्छी है, हमें उसके बनने वाले समय से क्या! और दोस्तों, ८० का दशक एक ऐसा भी दशक रहा जिसमें सब से ज़्यादा आर्ट फ़िल्में बनीं। सिनेमा के इस विधा को हम पैरलेल सिनेमा या आर्ट फ़िल्मों के नाम से जानते हैं। युं तो कलात्मक फ़िल्मों में बहुत ज़्यादा गीत संगीत की गुंजाइश नहीं होती है, लेकिन किसी किसी फ़िल्म के लिए कुछ गानें भी बने हैं। आर्ट फ़िल्मों में संगीत देने वाले संगीतकारों में अजीत वर्मन और वनराज भाटिया का नाम सब से पहले ज़हन में आता है। लेकिन आज हम एक ऐसी फ़िल्म का गीत सुनने जा रहे हैं जिसके संगीतकार हैं लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यह फ़िल्म है 'उत्सव', जो बनी थी सन् १९८४ में। वैसे इस फ़िल्म को पूरी तरह से कलात्मक फ़िल्म तो नहीं कह सकते, लेकिन पूरी तरह से व्यावसायिक भी नहीं मान सकते। इस फ़िल्म के गानें लिखे थे वसंत देव ने। जी हाँ, वही वसंत देव जिन्होने 'सारांश', 'राजा रानी को चाहिए पसीना', 'कोन्दुरा', 'आक्रोश', 'वास्ता', और 'भूमिका' जैसी कलात्मक फ़िल्मों में गानें लिखे। आज '१० गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में हम फ़िल्म 'उत्सव' से सुनने जा रहे हैं सुरेश वाडकर की आवाज़ में एक बड़ा ही ख़ूबसूरत गीत, "सांझ ढले गगन तले हम कितने एकाकी"। ख़ूबसूरत हर लिहाज से, इसके बोल जितने सुंदर हैं, धुन उतना ही मनमोहक, और सुरेश वाडकर की कोमल सुरीली आवाज़ के तो क्या कहने! वैसे हम यह बात बता दें कि आज सुरेश वाडकर की आवाज़ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर पहली बार सुनाई दे रही है। सुरेश जी बहुत ही अंडर-रेटेड रहे हैं। उनकी जो प्रतिभा है, शास्त्रीय संगीत में उनका जो महारथ है, उसे संगीतकारों ने सही तरीके से इस्तेमाल नहीं कर सके हैं। इसका एक कारण तो यही है कि सुरेश जी का जो दौर था, उस दौर में हिंदी फ़िल्मों से मासूमीयत ख़तम हो चुकी थी, और उनके अंदाज़ के गानों की गुंजाइश फ़िल्मों में कम ही होती थी। लेकिन समय समय पर उन्होने जितने भी गीत गाए, लोगों ने हाथों हाथ स्वीकारा, और आज वो एक सम्माननीय मुक़ाम पर विराजमान हैं।

फ़िल्म 'उत्सव' का निर्माण किया था शशि कपूर ने और सह-निर्माता थे धर्मप्रिय दास। निर्देशन गिरीश करनाड का था।फ़िल्म की पटकथा लिखी गिरीश करनाड और कृष्ण बसरूर ने तथा संवाद लिखे शरद जोशी ने। यह फ़िल्म छठी शताब्दी के सुप्रसिद्ध नाटककार भासा द्वारा लिखित संस्कृत नाटक 'दि गोल्डन टॊय चैरियट' पर आधारित थी। कहानी कुछ इस तरह की थी कि वसंतसेना (रेखा) राजा पलाका के दरबार में नर्तकी होती है। लेकिन राजा के साले संस्थानक की गंदी नज़र से अपने आप को बचते बचाते वो चित्रकार चारुदत्त (शेखर सुमन) के घर में आश्रय लेती है। यह जानते हुए भी कि चारुदत्त विवाहित हैं अदिती (अनुराधा पटेल) से और उनके पास कोई रोज़गार नहीं है, वसंतसेना उससे प्यार कर बैठती है, और उनका प्रेम संबंध शुरु हो जाता है। उधर राजा पलाका के भाई, जो राजगद्दी के सही हक़दार हैं, जेल से फ़रार हो जाता है। जब पलाका के सिपाही उन्हे पकड़ने की कोशिश करते हैं, ऐसे में चारुदत्त उनकी मदद करता है। उधर संस्थानक वसंतसेना की हत्या कर देता है। जब चरुदत्त वसंतसेना के शव से गहनों को उतारने की कोशिश करता है तो सिपाही उसे गिरफ़्तार कर लेते हैं और उसी को हत्यारा क़रार दिया जाता है। क्या अंत होता है कहानी का, यह तो आपको फ़िल्म देख कर ही पता चलेगा। इस फ़िल्म में अमजद ख़ान, कुलभूषण खरबंदा, शंकर नाग, कुणाल कपूर, अनुपम खेर, नीना गुप्ता और शशि कपूर ने भी अभिनय किया था। इस फ़िल्म को उस साल दो पुरस्कार मिले, पहला सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार वसंत देव को "मन क्यों बहका रे बहका" गीत के लिए, तथा दूसरा गायिका अनुराधा पौडवाल को "मेरे मन बजे मृदंग" गीत के लिए। जहाँ तक आज के गीत का सवाल है, उसे भले कोई पुरस्कार ना मिला हो, लेकिन जो सब से महत्वपूर्ण पुरस्कार होता है, यानी कि लोगों का प्यार, वो इस गीत को भरपूर मिला और आज भी मिल रहा है। तो आइए राग विभास पर आधारित यह सुमधुर रचना सुनते हैं।



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'उत्सव' के दो गीत "सांझ ढले गगन तले" एवं "नीलम के नभ छाए" राग विभास पर आधारित हैं।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. एक अंतरा सी शब्द से शुरू होता है -"बांसुरी", गीत पहचानें-३ अंक.
2. सर्वश्रेष्ठ संगीत का सम्मान मिला था इस फिल्म के लिए संगीतकार को, नाम बताएं- २ अंक.
3. लीक से हटकर सिनेमा निर्माण में इस निर्देशक का नाम बेहद सम्मानीय है, कौन हैं ये-२ अंक.
4. स्मिता पाटिल हैं परदे पर, पार्श्व गायिका कौन हैं-२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
अनुपम जी और संगीता जी के रूप में हमें दो नए विजेता मिले, इंदु जी तो सदाबहार हैं ही :)
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, March 14, 2010

तुम्हें हो न हो मुझको तो इतना यकीं है....रुना लैला की आवाज़ में गुलज़ार -जयदेव का रचा एक चुलबुला गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 373/2010/73

'१० गीत समानांतर सिनेमा के' लघु शृंखला के लिए आज हमने जिस गीत का चुनाव किया है, वह केवल फ़िल्म की दृष्टि से ही लीग से बाहर नहीं है, बल्कि इस गीत को जिस गायिका ने गाया है, वो भी हिंदी फ़िल्मी गीतों में बहुत कम सुनाई दी हैं। आज ज़िक्र गायिका रुना लैला की, और रुना जी की याद आते ही सब से पहले ज़हन में जो चुनिंदा गीत आ जाते हैं वे हैं "फुलोरी बिना चटनी कैसे बनी", "मेरा बाबू छैल छबीला मैं तो नाचूँगी", "दे दे प्यार दे", "दो दीवानें शहर में" और "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है"। जी हाँ, यही आख़िरी गीत आज हम सुनने ज रहे हैं। १९७७ की फ़िल्म 'घरोंदा' का यह गीत है। ७० के दशक से इस तरह की 'पैरलेल सिनेमा' या समानांतर सिनेमा मज़बूती पकड़ रही थी, जिनमें आम जनता के जीवन से जुड़ी सामाजिक मुद्दों को उठाया जाने लगा। समाज की सच्चाइयों पर से पर्दा उठाया जाने लगा। 'घरोंदा' एक ऐसी ही हक़ीक़त दर्शाने वाली फ़िल्म थी एक जोड़े की जो बम्बई में अपना फ़्लैट ख़रीदने के सपने देखा करते हैं। लेकिन उन्हे किन किन खट्टे-मीठे पड़ावों से गुज़रनी पड़ती है, वही सब इस फ़िल्म में दिखाया गया है। फ़िल्म में जयदेव जी का उम्दा संगीत था और गानें लिखे गुलज़ार साहब ने। भुपेन्द्र और रुना लैला की आवाज़ें थीं। रुना जी की आवाज़ एक ताज़े हवा के झोंके की तरह इस फ़िल्म में आई। ज़रीना वहाब पर फ़िल्माए गए इस फ़िल्म के गानें लोगों को ख़ूब पसंद आए। इस गीत के बोल भी लीग से हट के ही है क्यों कि इसमें प्यार का इक़रार बड़े ही अनोखे तरीक़े से हो रहा है कि "तुम्हे हो ना हो मुझको तो इतना यक़ीं है, मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है"। आगे नायिका गाती हैं कि "मुझे प्यार तुमसे नहीं है नहीं है, मगर मैंने ये राज़ अब तक न जाना, कि क्यों प्यारी लगती हैं बातें तुम्हारी, मैं क्यों तुमसे मिलने का ढूंढू बहाना, कभी मैंने चाहा तुम्हे छू के देखूँ, कभी मैंने चाहा तुम्हे पास लाना, मगर फिर भी इस बात का तो यक़ीं है मुझे प्यार तुमसे नहीं है"। देखा आपने, किस तरह की ख़ूबसूरती से गुलज़ार साहब ने शब्द पिरोये हैं. किस तरह के विरोधाभास के ज़रिए नायिका के दिल के भावों को उभारा है! यही सब बातें तो गुलज़ार साहब को दूसरे गीतकारो से अलग करती हैं।

आज रुना लैला की कुछ बातें की जाए। बंगलादेश के सील्हेट में जन्मीं रुना लैला के संगीत की शुरुआती तालीम पाक़िस्तान के कराची में हुई थी क्योंकि उनका परिवार वहाँ स्थानांतरीत हो गया था। उस्ताद क़ादर, जो बाद में पिया रंग के नाम से जाने गए, उनके गुरु थे। रुना लैला ने छोटी उम्र से शास्त्रीय संगीत की तालीम लेनी शुरु कर दी थी और उस्ताद हबीबुद्दिन ख़ान साहब से इस विधा की बारिक़ियाँ सीखीं। ६ साल की उम्र में रुना जी ने अपना पब्लिक परफ़ॊर्मैंस दिया और १२ साल की उम्र में एक पाक़िस्तानी फ़िल्म 'जुगनु' में अपना पहला गाना रिकार्ड करवाया। रुना लैला का गायिका बनना एक हादसा ही था। उनकी ब़ई बहन दीना को पहले ब्रेक मिला था, लेकिन परफ़ॊर्मैंस के दिन उनका गला ख़राब हो गया और रुना को उनकी जगह पर गवाने का निर्णय लिया गया। उस समय रुना इतनी छोटी थी कि उनसे तानपुरा भी संभाला नहीं जा रहा था। तानपुरे को सीधे ज़मीन पर रख कर उन्होने एक ख़याल प्रस्तुत किया था। उसके बाद रुना कराची टीवी के 'ज़िआ मोहिउद्दिन शो' में दिखाई दीं और उसके बाद बहुत सारी पाक़िस्तानी फ़िल्मों में गानें गाईँ ७० के दशक में। बड़ी बहन दीना रुना की तरह गायिका बनना चाहती थीं लेकिन शादी के बाद सब कुछ छोड़ना पड़ा। कर्कट रोग से दीना की मृत्यु हो जाने के बाद उनकी याद में रुना ने बंगलादेश में ६ कॊनसर्ट्स आयोजित किए और उससे प्राप्त धनराशी को ढाका के एक बच्चों के अस्पताल में कैन्सर वार्ड बनवाने के लिए डोनेट कर दिया। जहाँ तक फ़िल्मी गीतों का सवाल है, जिन पाक़िस्तानी फ़िल्मों में उनके गानें मशहूर हुए वे हैं 'कमांडर', 'फिर सुबह होगी', 'हम दोनों', 'अंजुमन', 'मन की जीत', 'अहसास' और 'दिलरुबा'। यहाँ भारत में 'घरोंदा', 'एक से बढ़कर एक', 'यादगार', 'अग्निपथ', 'घरद्वार' और 'शराबी' जैसी फ़िल्मों में उनके गाए गानें बेहद लोकप्रिय हुए। चलिए दोस्तों, अब आज का गीत सुना जाए। यह एक ऐसा गीत है जिसे बार बार सुनने पर भी बोरीयत नहीं होती। जो ख़ास बातें है इस गीत में आप ख़ुद ही सुनते हुए महसूस कीजिए, और पता लग जाए तो हमें भी बताइएगा।



क्या आप जानते हैं...
कि युं तो रुना लैला ने बंगलादेश और पाक़िस्तान में बहुत से पुरस्कार जीते, लेकिन भारत में उनको 'सहगल अवार्ड' से सम्मानित किया गया था।

चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम आपसे पूछेंगें ४ सवाल जिनमें कहीं कुछ ऐसे सूत्र भी होंगें जिनसे आप उस गीत तक पहुँच सकते हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रहे आज के सवाल-

1. गीत में एक शब्द है -"निशिगंधा", जो शायद इसी गीत में पहली और आखिरी बार इस्तेमाल हुआ है, गीत पहचानें-३ अंक.
2. व्यवसायिक सिनेमा के सबसे सफल संगीतकारों में से एक ने इस लीक से हट कर बनी फिल्म में शानदार संगीत दिया, बताएं इस जोड़ी का नाम- २ अंक.
3. इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ गीतकार का पुरस्कार पाने वाले गीतकार का नाम बताएं-२ अंक.
4. ये गीत इस गायक ने गाया है -२ अंक.

विशेष सूचना -'ओल्ड इज़ गोल्ड' शृंखला के बारे में आप अपने विचार, अपने सुझाव, अपनी फ़रमाइशें, अपनी शिकायतें, टिप्पणी के अलावा 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नए ई-मेल पते oig@hindyugm.com पर ज़रूर लिख भेजें।

पिछली पहेली का परिणाम-
बस दो ही जवाब ????, इंदु जी और पदम जी को बधाई
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

काव्यनाद की AIR FM Rainbow पर घंटे भर हुई चर्चा



होली के अवसर पर एआईआर एफ रेन्बो पर पूरा 1 घंटा काव्यनाद की चर्चा हुई। सजीव सारथी की लाइव बातचीत और इन्हीं के पसंद के गाने, साथ में काव्यनाद का एक गीत भी बजाया गया जिसे DTH और FM रेडियो के माध्यम से पूरे हिन्दुस्तान ने सुना।

यह काव्यनाद की सफलता ही कही जायेगी कि इसे दुनिया भर में एक विशेष तरह का प्रयास माना जा रहा है। AIR FM Rainbow के कलाकार कैसे-कैसे कार्यक्रम में सजीव से इसी विषय पर बातचीत की गई। इससे पहले भी AIR FM Rainbow पर निखिल आनंद गिरि और सजीव सारथी का इंटरव्यू प्रसारित हो चुका है। 'पहला सुर' के विमोचन के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के कम्यूनिटी रेडियो DU-FM पर सजीव सारथी से प्रदीप शर्मा की लम्बी बातचीत प्रसारित हुई थी। लेकिन बहुत कम मौकों पर हम इस तरह के प्रसारणों को रिकॉर्ड कर पाते हैं, लेकिन इस बार विनीत भाई ने इसे रिकॉर्ड कर दिया हम आपको सुनवा पा रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि 'काव्यनाद' में प्रसाद, पंत, निराला, महादेवी, दिनकर और गुप्त की प्रतिनिधि कविताओं को संगीतबद्ध करके संकलित किया गया है, जिसका विमोचन 1 फरवरी 2010 को ‍19वें विश्व पुस्तक मेला में अशोक बाजपेयी, विभूतिनारायण राय और डॉ॰ मुकेश गर्ग ने किया था। मेले के दौरान यह एल्बम सबसे अधिक बिकने वाले उत्पादों में से एक में रहा था।

सुनिए रेडियो कार्यक्रम 'कलाकार कैसे-कैसे'---



यदि प्लेयर से सुनने में परेशानी आ रही हो तो मूल इंटरव्यू को यहाँ से डाउनलोड कर लें।

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