Saturday, August 14, 2010

ई मेल के बहाने, यादों के खजाने - ३, देश प्रेम का जज्बा और राज सिंह जी का बचपन



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के दोस्तों, नमस्कार! 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें', 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस साप्ताहिक विशेषांक में आप सभी का फिर एक बार स्वागत है! आज १४ अगस्त है और पूरा राष्ट्र इस वक़्त जुटी हुई है अपनी ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस समारोह की तय्यारियों में। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कल आप इस अवसर पर ख़ास पेशकश तो सुनेंगे और पढ़ेंगे ही, लेकिन क्योंकि 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' आप ही की यादों को ताज़ा करने का स्तंभ है, इसलिए हमने सोचा कि क्यों ना आज के इस अंक में आप में से ही किसी दोस्त की यादों को ताज़ा किया जाए जो देश भक्ति की भावना से सम्बंधित हो। कोई ऐसी देश भक्ति फ़िल्म जो आपने किसी ज़माने में देखी हो, जिसके साथ कई यादगार क़िस्से जुड़े हुए हो, या कोई ऐसा देश भक्ति गीत जिसने आपको बहुत ज़्यादा प्रभावित किया हो और आप उसे इस ख़ास अवसर पर सुनना और सुनवाना चाहते हों। ऐसे में अपने ख़ूबसूरत ईमेल और जगमगाती यादों के ख़ज़ाने के साथ सामने आए राज सिंह जी। तो अब मैं आपका और वक़्त ना लेते हुए राज सिंह जी का ईमेल आपके साथ शेयर करता हूँ।

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प्रिय सुजॉय दा,

मेरे खयाल से राष्ट्रभक्ति के गीतों में अग्रगण्य है 'आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान की ........', तो उसी को याद करते मेरे बचपन का सबसे यादगार वाकया।

फिल्म 'जागृति' रिलीज़ हो चुकी थी और उसको मैंने कई बार देखी, दादर के 'प्लाज़ा' सिनेमाघर में, जो हमारे घर से २ मिनट के फासले पर था (चल कर)। उस फिल्म ने जो देशभक्ति भरी वह आज तक लगातार मन का हिस्सा है। उसके सभी गानें मन को छू ही नहीं जाते थे, बल्कि तन मन में बस जाते थे। लेकिन 'आओ बच्चों......' तो मन की अनुगूंज बन गया था, आत्मा में समा गया था, और शायद मेरे लिए पहली बार देश और उसका इतिहास, मेरे बालमन में देश की शान को समझ पाने का गर्व भी रहा। माँ कहती थी कि उनके साथ मैंने पहले भी शैशव में फिल्में देखीं थी, पर मेरी समझ में गाँव से प्राईमरी पास कर आगे की पढ़ाई के लिए मुंबई आने पर (तब बम्बई) वह मेरी पहली फिल्म थी और मैंने जिसे समझा भी।

अक्सर ज्यादातर बच्चे ही (अभिभावकों सहित) होते थे हाल में। पहली बार दादाजी के साथ देखी थी (दादाजी ने भी शायद जिन्दगी में सिर्फ वही एक फिल्म देखी होगी, क्योंकि दूसरे बच्चों से इस फिल्म की प्रशंसा सुन मैंने जिद पकड़ ली देखने की और उन जैसे गांधीवादी को मजबूरन साथ आना पड़ा, वरना फिल्म देखना उनके लिए किसी पाप से कम ना था)। बहरहाल उस फिल्म को देख उनके मन से फिल्म देखना पाप नहीं रह गया और वह फिल्म महीनों चली। उस वक्त प्लाज़ा के रेट होते थे ३ आने, ५ आने, १० आने और एक रूपया एक आने। जब भी मन करता देखने का वह फिल्म दादा जी से कह देता और वे एक रूपया थमा देते थे क्योंकि वह फिल्म उन्हें भी पसंद आयी थी और मेरे मन में देश प्रेम देख वे भी पुलकित ही होते थे। लेकिन मेरे बहुत सारे दोस्त (दादर की मेरी 'चाल' के) वह औकात नहीं रखते थे और फिर उस एक रुपये में हम (एक मैं और चार दूसरे, हर बार अलग अलग) 'जागृति' देखते और बचे हुए एक आने की पानी पुरी खाते। (उस ज़माने में एक पैसे में चार यानी एक आने में सोलह मिलती थी और पूरे एक आने की खाने में एक 'घेलुआ' यानी १७ मिल जाती थी)।

अब आता हूँ उस अविस्मर्णीय स्वर्गिक आनंदमय क्षणों पर। हमारे घराने के हमारे एक चाचा राम सिंह हुआ करते थे। सन बयालीस में वे और प्रसिद्द फिल्म गीतकार 'प्रदीप जी' एक साथ प्रयाग विश्वविद्यालय में पढ़ते थे और साथ ही 'हिन्दू हॉस्टल' में रहते थे और गहरे दोस्त भी थे। दोनों फिल्मों के शौक़ीन भी थे। अगस्त बयालीस के उन क्रांतिमय दिनों में विद्यार्थियों ने जान लड़ा दी, पुलिस ने गोलियां चलायी और विद्यार्थी संघ के नेत्रित्व में जुलूस निकला और लाल पद्मधर सिंह शहीद हो गए (उन्हीं के नाम पर प्रयाग विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के भवन का नाम 'लाल पद्मधर सिंह भवन' रखा गया)। हर हॉस्टल खाली करा दिए गए और अनिश्चित काल के लिए विश्वविद्यालय बंद कर दिया गया।

लेकिन फिल्मों के शौक़ीन ये दोनों महारथी घर ना लौट मुंबई होते हुए पूना के प्रभात स्टूडियो पहुँच गए, फिल्मों में भाग्य आजमाने। घर में कुहराम मच गया। क्योंकि अफवाह थी (शायद सत्य भी) कि पुलिस ने ना जाने कितने विद्यार्थियों को गोलियों से भून, जला कर गंगा में बहा दिया था। खोजबीन हुई और चाचाजी के ना मिलने पर परिवार ने मरा समझ लिया। पर सबूत और लाश ना मिलने के कारण एक आशा भी थी कि शायद जीवित हो और किसी अनजान जगह, कैद में हो अंगरेजी शासन के। बहरहाल कद काठी, पौरुषीय व्यक्तित्व के 'रामसिंह' को कांट्रेक्ट मिल गया प्रभात में 'हीरो' का और सहचर 'पंडित' (चाचाजी उन्हें इसी नाम से बुलाते थे) प्रदीप साथ थे ही। जहाँ तक मैं जान पाया उस दरमियाँ चाचा रामसिंह ने प्रभात की ६-७ फिल्मे हीरो के रूप में की और स्थापित भी हो गए (रणजीत कौर उनके साथ हिरोईन हुआ करती थीं, जो बाद में उनकी (उप) पत्नी बनीं (ठाकुरों में शादियाँ जल्दी हुआ करती थीं और चाचाजी दो बेटों के बाप थे)। वहीं उनके दोस्तों में गुरुदत्त (जो प्रभात में कोरिओग्रफ़र थे) और देव आनंद भी शामिल हुए (जो उस वक्त स्ट्रगलर थे)। चाचाजी को सफलता तो जल्दी ही मिल गयी पर स्थाई ना रह सकी और के. एन. सिंह (वे भी उनके दोस्त थे) की तरह हीरो से विलेन बनना पड़ा।

दादा, जिस सुरिंदर कौर के 'शहीद' के प्रसिद्द उद्धृत गीत 'बदनाम ना हो जाये........' को आपने सुनवाया, उसी फिल्म में दिलीप कुमार हीरो थे, कामिनी कौशल हिरोईन और 'चाचा' रामसिंह विलेन थे। और उसका प्रसिद्द गीत, जो शायद अब भुला दिया गया है, 'वतन की राह पे वतन के नौजवाँ शहीद हो', सुपरहिट था। बहरहाल मुद्दे पर आता हूँ। अरसे बाद पता चला कि चाचा रामसिंह 'शहीद' नहीं हुए थे, फिल्मों में घुस गए थे और खानदान का कलंक हो गए थे। 'मिरासी' बन और रणजीत कौर को बीवी बनाने के एवज में, 'छुटायल' करार कर दिए गए थे और उनके माहिम के बंगले पर जाना और मिलना पारिवारिक निषेध था। ( मैं भी 'छुटायल' घोषित हो सकता था)। लेकिन फिल्मों का फिर चस्का लग गया था और बहाना बना कर पहुँच जाता था। चाचा भी उत्फुल्लित हो जाते थे कि परिवार का कोई सदस्य नियमों को तोड़ घर आता था। एक कारण और था। वहीं पर पहली बार जाना कि तंदूरी चिकन और कोका कोला क्या होता है और एकाध दोस्तों को भी साथ ले लेता था रुआब जताने के लिए। पंडितजी यानी प्रदीप जी भी अक्सर शाम वहां मौजूद होते थे 'जलपान' करने। वे कभी भी घर पर नहीं पीते थे, पी पाकर ही घर आते थे और चच्चाजी जैसा स्थान कहाँ पाते, प्रेम स्नेह दोस्ती का। वे परदे के नहीं थे तो मैं उनको पहचानता भी नहीं था। लगता था कि चाचाजी के अनगिनत संबंधों में से कोई होगा। एक दिन जब दोनों रसपान कर रहे थे, बरसात थी और कोई नहीं था तो चाचाजी ने पूछ लिया कि सिनेमा देखता भी है या दद्दा की तरह गांधी वाला है। मैंने कहा दद्दा के साथ ही 'जागृति' देखी और वाकया बता दिया। ठठाकर हँसे वो और कहा कि "अब लगता है कि परिवार में शामिल किया जा सकता हूँ"। फिर पूछा कि क्या अच्छा लगा 'जागृति' में। मैंने कहा कि 'आओ बच्चों ...........वन्दे मातरम'। फिर पंडितजी और चाचाजी दोनों ने ठहाके लगाये। मैं चकित कि कोई भूल, गुस्ताखी तो नहीं हो गयी? फिर बोले बेटा इसी पंडित ने लिखा और गाया है, सुनेगा? मैं स्तब्ध। चाचाजी ने कहा कि "यार पंडित चल सुना दे बच्चों को"।

प्रदीप जी ने पूछा कि गाना याद है? मैंने विश्वास पूर्वक कहा कि हाँ पूरा याद है। उन्होंने गाने के लिए कहा। मैंने और साथ के दो लड़कों ने सस्वर सुना दिया। प्रदीपजी का वह संतुष्टिपूर्ण आनंदित चेहरा अब भी याद है। चाचा से मजाक में कहा कि "ठाकुर तेरे जैसे हीरो हिरोइन विलेन आते जाते रहेंगे पर मेरी आवाज़ और लिखा लम्बे वक्त तक याद रहेगा, भले मेरा नाम कोई ना जाने। अब बोल कौन बड़ा है, तू कि मैं"। चाचा ने कहा अरे छोड़ बेटे को गा के सुना"। समा बंध गया। प्रदीप जी ने कहा ठीक है, मैं बेटा मैं गाऊँगा पर वन्दे मातरम जहाँ आता है तुम लोग गाना। मैंने अपने दोनों दोस्तों को देखा। उनका आत्मविश्वास और आनंद मुझसे कम नहीं था। फिर उनके स्वर में 'आओ बच्चों' गूंजा और हमने पूरे जोश से हर अंतरे के बाद 'वन्दे मातरम' गुंजा दिया।

पता नहीं, शायद नियति सब कुछ एक 'ग्रैंड डिजाईन' के तहत सब तय कर लेती है। दृश्य श्रव्य माध्यम को जो कम आंकते हों या नज़रंदाज़ करते हों, उनसे मैं सिर्फ यह कहूँगा कि आज मैं अपनी भारत माता को समर्पित जो फिल्म बनाने को प्रतिबद्ध और समर्पित हूँ, उसके पीछे अचेतन में 'जागृति' और प्रदीप जी का 'आओ बच्चों ..........वन्दे मातरम' ही है।

सुजॉय दा, बहुत सारे लोग, जिनमे देश और देशभक्ति बसती है, मुझसे भी अच्छा कुछ ले आयेंगे। लेकिन मेरी इच्छा है कि मुझ जैसे बहुत सारे इस गीत की सिफारिस करें, तभी यह 'वन्दे मातरम' चुना जाये। सिर्फ मेरी चाहत पर नहीं। और अगर ऐसा हो तो मेरे द्वारा लिखे और संगीत बद्ध 'माता तेरी जय हो' का भी लिंक दे दें, जो प्रदीप जी की प्रेरणा की एक छोटी सी अनुगूंज है और 'आवाज़' पर प्रस्तुत की जा चुकी है। आपका यह 'कुछ हटके' बहुत ही सार्थक प्रयास है। ताजगी भी है, उद्देश्पूर्ण भी। ऐसे ही यह आनंद बनाये रखें।

'हिन्दयुग्म' की पूरी टीम को साधुवाद स्वार्थरहित प्रयोजन के लिए।

सप्रेम, सस्नेह,

राज सिंह


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राज सिंह जी, और हम क्या कहें, आपने फ़िल्म 'जागृति' और कवि प्रदीप जी से आपकी मुलाक़ात और उनकी बोलती हुई आवाज़ में उनके सामने बैठकर उनसे यह गीत सुनना और उनके साथ कोरस वाले जगहों पर 'वंदेमातरम' कहना, आपके लिए कितना रोमांचकर अनुभव रहा होगा और आज भी उसे याद कर कितना रोमांच आप महसूस करते होंगे, इसका अंदाज़ा हम भली भाँति लगा सकते हैं। इसलिए चाहे कोई और फ़रमाइश करे या ना करे, आज तो इस गीत को यहाँ बजाये बिना अगर इस स्तम्भ को समाप्त कर देंगे तो यह अधूरी ही रह जाएगी। आइए ६४-वीं स्वतंत्रता दिवस की पूर्वसंध्या पर सुना जाए राज सिंह जी की यादों में बसे फ़िल्म 'जागृति' के इस यादगार गीत को जिसे लिखा व गाया है कवि प्रदीप ने, और स्वरबद्ध किया है हेमन्त कुमार ने।

गीत - आओ बच्चों तुम्हे दिखाएँ झाँकी हिंदुस्तान की


और राज सिंह जी के अनुरोध पर ये रहा लिंक उन्ही के द्वारा लिखे और स्वरबद्ध गीत "माता तेरी जय हो" का...

गीत - माता तेरी जय हो

दोस्तों, आप सब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के हमारे इस नए साप्ताहिक पेशकश में जिस तरह से सहयोग दे रहे हैं, हमारा जिस तरह से हौसला अफ़ज़ाई कर रहे हैं, उसके लिए हम आप सभी के दिल से आभारी हैं। जिन पाठकों व श्रोताओं ने अब तक हमें ईमेल नहीं भेजा, उनसे भी हमारा निवेदन है कि यह सुनहरा मौका है कि हम आप ही की यादों, संस्मरणों, अनुभवों, फ़रमाइश के गानों, और आप ही के दिल की बातों को इस साप्ताहिक विशेषांक में स्थान देते हैं। आप सभी से निवेदन है कि इसे आगे बढ़ाने और जारी रखने में हमें सहयोग दें और हमें ईमेल करें oig@hindyugm.com के पते पर। और अब स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ हम आज के लिए आपसे इजाज़त चाहते हैं, कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की नियमित कड़ी में एक नई शृंखला के साथ पुन: हाज़िर होंगे, जय हिंद!

प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी

जिसे अंधी गंदी खाईयों से लाए हम बचा के, उस आजादी को हरगिज़ न मिटने देंगें- ये प्रण लिया वी डी, बिस्वजीत और सुभोजीत ने



Season 3 of new Music, Song # 16

६३ वर्ष बीत चुके हैं हमें आजाद हुए. मगर अब समय है सचमुच की आजादी का. तन मन और सोच की आजादी का. अभी बहुत से काम बाकी है, क्योंकि जंग अभी भी जारी है. आतंकवाद, नक्सलवाद, भ्रष्टाचार, जाने कितने अन्दुरुनी दुश्मन हैं जो हमारे इस देश की जड़ों को अंदर से खोखला कर रहे हैं. आज समय आ गया है कि हम स्मरण करें उन देशभक्तों की कुर्बानियों का जिनके बदौलत आज हम खुली हवा में सांस ले पा रहे हैं. आज समय है एक बार फिर उस सोयी हुई देशभक्ति को जगाने का जिसके अभाव में हम ईमानदारी, इंसानियत और इन्साफ के कायदों को भूल ही चुके हैं. आज समय है उस राष्ट्रप्रेम में सरोबोर हो जाने का जो त्याग और कुर्बानी मांगती है, जो एक होकर चलने की रवानी मांगती है. कुछ यही सोच यही विचार हम पिरो कर लाये हैं अपने इस नए स्वतंत्रता दिवस विशेष गीत में, जिसे लिखा है विश्व दीपक तन्हा ने, सुरों से सजाया है सुभोजित ने और गाया है बिस्वजीत ने. जी हाँ इस तिकड़ी का कमाल आप बहुत से पिछले गीतों में भी सुन ही चुके है, जाहिर है इस गीत में भी इन तीनों ने जम कर मेहनत की है. तो आईये सुनते है आज का ये ताज़ा अपलोड और इस स्वतंत्र दिवस को महज एक छुट्टी का दिन न रहने दें बल्कि इसे एक नए शुरूआत का शुभ मुहूर्त बन जाने दें, क्योंकि एक छोटी सी कोशिश ही एक बड़े आन्दोलन की शुरूआत होती है.

गीत के बोल -

हिन्दोस्तां.. मेरी खुशी
हिन्दोस्तां.. मेरी हँसी
हिन्दोस्तां.. मेरे आँसू
हिन्दोस्तां.. मेरा लहू..

इसे अंधी गंदी खाईयों से लाए हम बचा के,
इसे गोरी गाली गोलियों से लाए सर भिड़ा के,
इसे हमने अपने माथे रखा सरपंच बना के...

इसे अंधी गंदी खाईयों से लाए हम बचा के,
इसे गोरी गाली गोलियों से लाए सर भिड़ा के,
इसे हमने अपने माथे रखा सरपंच बना के...


हिम्मत जब जागे,
कुदरत भी पग लागे,
भारत के आगे
दहशत फिर काहे...

आ जा हर डर
को कर दें
ज़र्रा..
स्वाहा..

हाँ दिखला दें
इस हिन्द पर
कुर्बां.....
है जां...

गर चाहें हम
थर्रा दें..
अंबर..
भूतल..

यूँ चुप हैं
पर दम लें
बनकर
शंकर..

ये तो नीली काली आँखों तले सुनामी उछाले
ये तो खौली खौली साँसों में सौ तूफ़ानें उबाले
ये तो सोए सोए सीनों में भी हड़कंप मचा दे....

ये तो नीली काली आँखों तले सुनामी उछाले
ये तो खौली खौली साँसों में सौ तूफ़ानें उबाले
ये तो सोए सोए सीनों में भी हड़कंप मचा दे....



मेकिंग ऑफ़ "हिन्दोस्तां" - गीत की टीम द्वारा

बिस्वजीत: माँ और मातृभूमि दोनों के लिए गाना गाना एक सौभाग्य की बात होती है। मैं चाहे कितनी भी दूर रहूँ, जब भी राष्ट्रगान सुनता हूँ, रौंगटे खड़े हो जाते हैं। सुभो ने जब ये गाना भेजा, मैं बहुत खुश हुआ था। इसलिए नहीं कि मुझे एक गाना मिला, बल्कि इसलिए कि मेरी मातृभूमि के लिए एक गाना मैं गा पाऊँगा। और उन सबके लिए एक संदेश दे पाऊँगा जो हमारी धरती को बाँटने की कोशिश में जुड़े हैं। लेकिन उनको नहीं पता कि जिस धरती को वो तोड़ना चाहते हैं वो धरती नानक, वीर भगत सिंह और राम जी की है। हम अगर एक बार जग गए तो मिट जाएँगे वो लोग। आज मेरा जन्मदिन भी है। जन्मदिन पे इससे बड़ा तोहफ़ा और क्या मिल सकता है। वीडी भाई के बारे में आजकल बोलना हीं मैंने बंद कर दिया है। भाई, जो गगन को छूए, उसकी ऊँचाई की क्या तारीफ़ की जाए। सुभो का संगीत भी दिल को छू लेने वाला है। कुल-मिलाकर यह कह सकता हूँ कि यह गाना मेरे लिए बहुत हीं खास है और मैंने इसके लिए बहुत मेहनत की है। गाना रिकार्ड करने के लिए मुझे कितने पापड़ बेलने पड़े, यह मैं हीं जानता हूँ, लेकिन देश के लिए अगर इतना भी न किया तो फिर गायकी का क्या फ़ायदा। हाँ, रिकार्डिंग स्टुडियो के चक्कर लगा-लगाकर थक जाने के बाद मैंने यह निर्णय ले लिया है कि जल्द हीं अपना "होम स्टुडियो" सेट-अप करूँगा। उसके बाद तो दोस्तों की यह शिकायत भी दूर हो जाएगी कि मैं हमेशा गायब हो जाता हूँ। फिर मेरे गाने नियमित अंतराल पर आने लगेंगे। मुझे बस उसी दिन का इंतज़ार है।

सुभोजित: "उड़न-छूं" गाने पर काम करते वक़्त हमें यह ख्याल आया था कि इसी तरह का जोश भरा एक और गाना किया जाए। विषय कौन-सा हो, यह प्रश्न था, लेकिन हमारी यह मुश्किल भी आसान हो गई, जब बिस्वजीत ने स्वतंत्रता दिवस के नज़दीक होने की बात उठा दी। हम सबने मिलकर यही निर्णय लिया कि देश-भक्ति से ओत-प्रोत एक गाना तैयार किया जाए। "उडन-छूं" के खत्म होने की देर थी कि हमारी तिकड़ी "हिन्दोस्तां" की ओर चल पड़ी। मैंने कुछ महिनों पहले दो-चार देश-भक्ति गानों की धुन बनाई थी, लेकिन वे गाने धुन तक हीं सीमित थे। जब "हिन्दोस्तां" की बात चली तो मैंने उन्हीं में से एक धुन विश्व दीपक के पास भेज दी। कम्पोजिशन और अरेंज़मेंट हो जाने के बाद बिस्वजीत भाई गाने का हिस्सा बन गए। जिस वक्त गाना तैयार हुआ, उस वक्त बिस्वजीत भारत आए हुए थे, इसलिए हमें डर था कि यह गाना १५ अगस्त से पहले हो पाएगा या नहीं। लेकिन मैं बिस्वजीत की तारीफ़ करूँगा जो भारत से लौटने के बाद बड़े हीं कम वक़्त में उन्होंने गाना रिकार्ड कर लिया। अभी तक मैंने बिस्वजीत और विश्व दीपक के साथ कई सारे गाने किये हैं, मेरा अनुभव इनके साथ बहुत हीं अच्छा रहा है, इसलिए उम्मीद करता हूँ कि आगे भी हमारी यह तिकड़ी कायम रहेगी और इसी तरह नए-नए गानों पर काम करती रहेगी।

विश्व दीपक:अब इसे विडंबना कहिए या फिर हमारा दुर्भाग्य कि हमारी देश-भक्ति साल के बस दो या तीन दिनों के आसपास हीं सिमट कर रह गई है। १५ अगस्त पास हो या २६ जनवरी आने वाली हो, तो यकायक लोगों को हिन्दुस्तान की याद हो जाती है। बातों में कहीं से छुपते-छुपाते देश-प्रेम के दो बोल उभर आते हैं या फिर देश के लिए कोई चिंता हीं ज़ाहिर कर दी जाती है। जहाँ हमें साल के ३६५ दिन हिन्द का ख्याल रखना चाहिए था, वहाँ बस दो-तीन दिन यह जोश-ओ-जुनून देखकर बुरा लगता है। अगर हम इस स्थिति को सुधारना चाहते हैं और चाहते हैं कि लोग अपने देश को पूरी तरह से न भूल जाएँ तो हमें अपने भाईयों को यह याद दिलाना होगा कि यह हिन्द क्या है, क्या था, क्या हो सकता है और क्या कर सकता है। बस यही प्रयास लेकर हम इस गाने के साथ हाज़िर हुए हैं.. गाना बनाने का विचार कहाँ से आया? तो "उड़न छूं" की सफ़लता के बाद बिस्वजीत भाई उसी जोश को दुहराना चाहते थे। उन्होंने हीं सुझाया कि एक देशभक्ति गाना किया जाए। सुभोजित ने अपनी तिजोड़ी से एक धुन निकालकर मेरे हवाले कर दिया। मैं चाहता था कि मुखरे का पहला शब्द हीं देश को समर्पित हो। मेरा सौभाग्य देखिए कि "हिन्दोस्तां" शब्द ट्युन पर फिट बैठ गया। "हिन्दोस्तां" शब्द इस्तेमाल करने के पीछे मेरा एक और मक़सद था। एक दोस्त के साथ झड़प हो गई थी कि "हिन्दोस्तां" और "हिन्दी" में कोई संबंध है या नहीं। उसने "हिन्दोस्तां" को सांप्रदायिक बनाने के लिए इसे "हिन्दु" से जोड़ दिया और कहा कि अपना देश "भारत" कहा जाना चाहिए। मुझे यह दिखाना था कि चाहे कोई कुछ भी कहे "हिन्दोस्तां" शब्द सांप्रदायिक नहीं और अपने देश को इस नाम से पुकारने में कोई बुराई नहीं। बस इसी वज़ह से मैंने गाने में अपने देश को "हिन्दोस्तां" से संबोधित किया है.. हाँ अंतरा में एक जगह भारत भी है.. और वह इसलिए कि मुझे अपने देश के हर नाम से प्यार है। आपको भी होगा.. है ना?


बिस्वजीत
बिस्वजीत युग्म पर पिछले 1 साल से सक्रिय हैं। हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र में इनके 5 गीत (जीत के गीत, मेरे सरकार, ओ साहिबा, रूबरू और वन अर्थ-हमारी एक सभ्यता) ज़ारी हो चुके हैं। ओडिसा की मिट्टी में जन्मे बिस्वजीत शौकिया तौर पर गाने में दिलचस्पी रखते हैं। वर्तमान में लंदन (यूके) में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी कर रहे हैं। इनका एक और गीत जो माँ को समर्पित है, उसे हमने विश्व माँ दिवस पर रीलिज किया था।

सुभोजित
संगीतकार सुभोजित स्नातक के प्रथम वर्ष के छात्र हैं, युग्म के दूसरे सत्र में इनका धमाकेदार आगमन हुआ था हिट गीत "आवारा दिल" के साथ, जब मात्र १८ वर्षीय सुभोजित ने अपने उत्कृष्ट संगीत संयोजन से संबको हैरान कर दिया था. उसके बाद "ओ साहिबा" भी आया इनका और बिस्वजीत के साथ ही "मेरे सरकार" वर्ष २००९ में दूसरा सबसे लोकप्रिय गीत बना. अपनी बारहवीं की परीक्षाओं के बाद कोलकत्ता का ये हुनरमंद संगीतकार
तीसरे सत्र में उड़न छूं के साथ लौटा। विश्व दीपक के लिखे और बिस्वजीत के गाए उस गीत को भी खूब पसंद किया गया था।

विश्व दीपक 'तन्हा'
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।

Song - Hindostaan
Voice - Biswajith Nanda
Music - Subhojit
Lyrics - Vishwa Deepak
Graphics - Prashen's media


Song # 16, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

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Thursday, August 12, 2010

फिर छिड़ी रात बात फूलों की......तलत अज़ीज़ और खय्याम से सुनिए इस गज़ल के बनने की कहानी



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 460/2010/160

ये महकती ग़ज़लें इन दिनों आप सुन रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' के तहत। 'सेहरा में रात फूलों की, जैसा कि आप में से बहुतों को मालूम ही होगा मशहूर शायर मख़्दूम महिउद्दिन की एक मशहूर ग़ज़ल के एक शेर का हिस्सा है, जिसे हमने इस शृंखला के शीर्षक के लिए चुना। क्यों चुना, शायद यह हमें अब बताने की ज़रूरत नहीं। ८० के दशक के संगीत का जो चलन था, उस लिहाज़ से ये ग़ज़लें सेहरा में फूलों भरी रात की तरह ही तो हैं। ख़ैर, आज इस शृंखला की अंतिम कड़ी में मख़्दूम के इसी ग़ज़ल की बारी, जिसे फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए स्वरबद्ध किया था ख़य्याम साहब ने। और यह ख़य्याम साहब के संगीत में इस शृंखला की चौथी ग़ज़ल भी है, जैसा कि हमने आप से वादा किया था। फ़िल्म 'बाज़ार' के सभी ग़ज़लें कंटेम्पोररी शायरों की ग़ज़लें हैं। ऐसा कैसे संभव हुआ आइए जान लेते हैं ख़य्याम साहब से जो उन्होने विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में कहे थे। "वो हमारी फ़िल्म आपको याद होगी, 'बाज़ार'। उसमें ये सागर सरहदी साहब हमारे मित्र हैं, दोस्त हैं, तो ऐसा सोचा सागर साहब ने कि 'ख़य्याम साहब, आजकल का जो संगीत है, उस वक़्त भी, 'बाज़ार' के वक़्त भी, हल्के फुल्के गीत चलते थे। तो उन्होने कहा कि कुछ अच्छा आला काम किया जाए, अनोखी बात की जाए। तो सोचा गया कि बड़े शायरों के कलाम इस्तेमाल किए जाएँ फ़िल्म संगीत में। तो मैं दाद दूँगा कि प्रोड्युसर डिरेक्टर चाहते हैं कि ऊँचा काम हो। हो सकता है कि शायद लोगों की समझ में ना आए। लेकिन उन्होने कहा कि आप ने बिलकुल ठीक सोचा है। तो जैसे मैं आपको बताऊँ कि मीर तक़ी मीर ("दिखाई दिए युं के बेख़ुद किया"), मिर्ज़ा शौक़ ("देख लो आज हमको जी भर के"), बशीर नवाज़ ("करोगे याद तो हर बात याद आएगी"), इन सब को इस्तेमाल किया। फिर मख़्दूम मोहिउद्दिन, "फिर छिड़ी रात बात फूलों की", यह उनकी बहुत मशहूर ग़ज़ल है, और मख़्दूम साहब के बारे में कहूँगा कि बहुत ही रोमांटिक शायर हुए हैं। और हमारे हैदराबाद से ताल्लुख़, और बहुत रेवोल्युशनरी शायर। जी हाँ, बिलकुल, अपने राइटिंग में भी, और अपने किरदार में भी। वो एक रेवोल्युशनरी, वो चाहते थे कि हर आम आदमी को उसका हक़ मिले" तो दोस्तों, इसी ग़ज़ल को आज हम आपको सुनवा रहे हैं जिसे युगल आवाज़ें दी हैं लता जी और मशहूर ग़ज़ल गायक तलत अज़ीज़ ने। फूलों पर लिखी गई ग़ज़लों में मेरे ख़याल से इससे ख़ूबसूरत ग़ज़ल कोई और नहीं।

फ़िल्म 'बाज़ार' की तमाम जानकारियाँ हमने आपको 'दस गीत समानांतर सिनेमा के' शृंखला में दी थी और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की रवायत है कि यहाँ हर अंक नया होता है, किसी दोहराव की कम से कम अब तक कोई गुंजाइश नहीं हुई है। तो ऐसे में यहाँ आपको इसी ग़ज़ल के बारे में कुछ और बातें बता दी जाए। ये बातें कही है ख़ुद तलत अज़ीज़ साहब ने फ़ौजी जवानों के लिए प्रसारित 'विशेष जयमाला' कार्यक्रम में। "ख़य्याम साहब का नाम तो आपने सुना ही होगा। बहुत ही बड़े संगीतकार हैं। एक बार उन्होने मुझे मुंबई के एक प्राइवेट महफ़िल में गाते हुए सुना और उन्होने कहा कि मैं आपको जल्द से जल्द फ़िल्म में गवाउँगा। मैंने सोचा कि ऐसे ही उन्होने कह दिया होगा, कहाँ मुझे फ़िल्म में गाने देंगे! लेकिन उन्होने मुझे जल्द ही बुलाया और मैंने उनके लिए गाया और वो गीत काफ़ी मक़बूल हुआ। लेकिन अब मैं आपको वो गीत नहीं सुनवाउँगा। मैं आपको अब फ़िल्म 'बाज़ार' का वो डुएट ग़ज़ल सुनवाउँगा जिसे मैंने लता जी के साथ गाया था। मुझे याद है जब मैं इस गाने की रेकॊर्डिंग् के लिए स्टुडियो पहुँचा तो लता जी वहाँ ऒलरेडी पहुँच चुकी थीं। मैं इतना नर्वस हो गया कि पूछिए मत। उनके साथ यह मेरा पहला गीत था। मैंने उनसे कहा कि लता जी, अगर मुझसे कोई ग़लती हो जाए तो माफ़ कर दीजिएगा। लता जी ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं, आप तो बहुत अच्छा गाते हैं। मैंने पूछा कि आपने मुझे सुना है, तो वो बोलीं कि हाँ, मैंने आपकी गाई हुई ग़ज़ल सुनी है। तब जाकर मुझमें कॊन्फ़िडेन्स आया और यह ग़ज़ल रेकॊर्ड हुआ।" तो दोस्तों, आपको यह बताते हुए कि इस ग़ज़ल और इस अंक के साथ इस लघु शॄंखला का समापन हो रहा है, आपको यह शृंखला कैसी लगी हमें ज़रूर लिखिएगा oig@hindyugm.com के पते पर। रविवार से एक नई लघु शृंखला के साथ हम फिर से हाज़िर होंगे, तब तक के लिए इजाज़त दीजिए, और आप सुनिए इस महकती हुई फूलों भरी ग़ज़ल को जिसके शेर हम नीचे लिख रहे हैं। चलते चलते शायराना अंदाज़ में यही कहते चलेंगे कि "अब तो जाते हैं मयक़दे से मीर, फिर मिलेंगे गर ख़ुदा लाया तो", ख़ुदा हाफ़िज़!

फिर छिड़ी रात, बात फूलों की,
रात है या बारात फूलों की।

फूल के हार, फूल के गजरे,
शाम फूलों की, रात फूलों की।

आपका साथ, साथ फूलों का,
आपकी बात, बात फूलों की।

फूल खिलते रहेंगे दुनिया में,
रोज़ निकलेगी बात फूलों की।

नज़रें मिलती हैं जाम मिलते हैं,
मिल रही हैं हयात फूलों की।

ये महकती हुई ग़ज़ल मख़्दूम,
जैसे सेहरा में रात फूलों की।



क्या आप जानते हैं...
कि तलत अज़ीज़ के सब से पसंदीदा संगीतकार हैं मदन मोहन। उन्होने यह 'जयमाला' कार्यक्रम ना केवल ये बात बताई बल्कि उनके स्वरबद्ध जिन दो गीतों को उसमें शामिल किया वो थे "वो भूली दास्ताँ लो फिर याद आ गई" (संजोग) और "जो हमने दास्ताँ अपनी सुनाई आप क्यों रोये" (वो कौन थी)।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. जिस गीतकार पर हमारी आगामी शृंखला है उनका जन्मदिन इसी माह में है, नाम बताएं - १ अंक.
२. आजादी से पूर्व घटी एक दुखद एतिहासिक घटना पर है फिल्म का शीर्षक, नाम बताएं- २ अंक.
३. आर डी बर्मन के संगीतबद्ध किये इस गीत में किस गायक की प्रमुख आवाज़ है - २ अंक.
४. मुखड़े में शब्द है "आफताब", इस फिल्म में गीतकार ने पठकथा और संवाद भी लिखे थे, निर्देशक बताएं- ३ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
इंदु जी, शरद जी, प्रतिभा जी और किशोर जी, सभी को बधाई

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, August 11, 2010

किसी नज़र को तेरा इंतज़ार आज भी है...हसन कमाल ने कुछ यूँ रंगा ये हिज्र और वस्ल का समां कि आज भी सुनें तो एक टीस सी उभर आती है



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 459/2010/159

'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है ८० के दशक के दस चुनिंदा फ़िल्मी ग़ज़लों पर आधारित लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की'। ये दस ग़ज़लें दस अलग अलग शायरों के कलाम हैं। अब तक हमने इसमें जिन शायरों के कलाम सुनें हैं, वो हैं हसरत जयपुरी, शहरयार, नक्श ल्यालपुरी, इंदीवर, आरिफ खान, जावेद अख़्तर, इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिक़ी और कल आपने निदा फ़ाज़ली साहब की लिखी हुई ग़ज़ल सुनी। आज इस शृंखला की नवी कड़ी में पेश है शायर और गीतकार हसन कमाल का कलाम फ़िल्म 'ऐतबार' से। आशा भोसले और भूपेन्द्र की युगल आवाज़ों में यह ग़ज़ल है। और दोस्तों, पहली बार इस ग़ज़ल के बहाने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर सुनाई दे रहा है संगीतकार बप्पी लाहिड़ी का संगीत। युं तो बप्पी दा डिस्को किंग् का इमेज रखते हैं, और ८० के दशक में फ़िल्म संगीत का स्तर गिराने वालों में उन्हे एक मुख्य अभियुक्त करार दिया जाता है, लेकिन यह बात भी सच है कि भले ही वो डिस्को और पाश्चात्य संगीत पर आधारित गानें ही ज़्यादा बनाए, लेकिन शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर भी उनकी पकड़ मज़बूत रही है। कुछ ऐसे गीतों की याद दिलाएँ आपको? फ़िल्म - 'आँगन की कली', गीत - "सइयां बिना घर सूना सूना", फ़िल्म - 'झूठी', गीत - "चंदा देखे चंदा तो ये चंदा शरमाए", फ़िल्म - 'मोहब्बत', गीत - "नैना ये बरसे मिलने को तरसे", फ़िल्म - 'अपने पराए', गीत - "हल्के हल्के आई चल के, बोले निंदिया रानी" और "श्याम रंग रंगा रे", फ़िल्म - 'टूटे खिलौने', गीत - "माना हो तुम बेहद हसीं", फ़िल्म - 'सत्यमेव जयते', गीत - "दिल में हो तुम आँख में तुम", फ़िल्म - 'लहू के दो रंग', गीत - "ज़िद ना करो अब तो रुको" और "माथे की बिंदिया बोले"। ऐसे और भी न जाने कितने गानें हैं बप्पी दा के जो बेहद सुरीले हैं और इस देश की ख़ुशबू लिये हुए है। आज फ़िल्म 'ऐतबार' के जिस ग़ज़ल की हम बात कर रहे हैं वह है - "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है, कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है"। हसन कमाल की यह एक बेहद मक़बूल फ़िल्मी ग़ज़ल है, और उनके लिखे फ़िल्म 'निकाह' के ग़ज़लों के भी तो क्या कहने! नौशाद साहब की दूसरी आख़िरी फ़िल्म 'तेरी पायल मेरे गीत' में हसन कमाल ने गीत लिखे थे जिन्हे लता जी ने गाया था। और फिर फ़िल्म 'सिलसिला' का वह ख़ूबसूरत गीत भी तो है "सर से सरकी सर की चुनरिया लाज भरी अखियों में"। इसमें हसन कमाल ने "सरकी" और "सर की" का कितनी सुंदरता से प्रयोग किया था।

'ऐतबार' सन् १९८५ की रोमेश शर्मा की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन किया था मुकुल आनंद ने। डिम्पल कपाडिया, राज बब्बर, सुरेश ओबेरॊय और डैनी अभिनीत इस फ़िल्म में हसन कमाल के अलावा फ़ारुख़ कैसर ने भी गीत लिखे थे। यह फ़िल्म १९५४ में ऐल्फ़्रेड हिचकॊक की थ्रिलर फ़िल्म 'डायल एम फ़ॊर मर्डर' का रीमेक है। इस हिदी वर्ज़न में थोड़ी सी फेर बदल की गई है। फ़िल्म में सुरेश ओबेरॊय एक ग़ज़ल गायक हैं और उन्ही पर फ़िल्म के दो बेहतरीन गीत - प्रस्तुत ग़ज़ल और "लौट आ गईं फिर से उजड़ी बहारें" फ़िल्माया गया है। इस ग़ज़ल की बात करें तो इसके शायर हसन कमाल ने सच में कमाल ही किया है इसमें। कुल ६ शेर हैं इस ग़ज़ल में और उसके बाद ग़ज़ल को एक आख़िरी सातवें शेर से ख़त्म किया जाता है जिसका मीटर अलग है। ज़्यादातर इस तरह का शेर ग़ज़ल के शुरुआती शेर के रूप में इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन यहाँ ग़ज़ल के अंत में इसका प्रयोग हुआ है और वह भी फ़िल्म के शीर्षक को शेर में लाकर हसन साहब ने अपनी दक्षता का परिचय दिया है। हसन कमाल साहिर लुधियानवी के अनन्य भक्त थे और उन्हे बहुत मानते थे। हसन साहब सन् १९९९ में विविध भारती पर "मेरी यादों में साहिर लुधियानवी" शीर्षक से एक कार्यक्रम प्रस्तुत किया था और साहिर साहब से जुड़ी उनकी तमाम यादों पर से परदा उठाया था। आइए उसी कार्यक्रम में से कुछ अंश यहाँ पेश करते हैं। हसन कमाल बता रहे हैं साहिर लुधियानवी से उनकी पहली मुलाक़ात के बारे में। "साहिर लुधियानवी साहब से मेरी पहली मुलाक़ात लखनऊ में हुई थी, जब मैं लखनऊ यूनिवर्सिटी का स्टुडेण्ट था, और वो यूनिवर्सिटी के एक मुशायरे में पहली बार लखनऊ आ रहे थे। ये वो ज़माना था जब साहिर लुधियानवी का वो क्रेज़ था कि लोग कहते थे कि अगर कोई साहिर लुधियानवी का नाम नहीं जानता, तो या तो वो शायरी के बारे में कुछ नहीं जानता, या फिर वो नौजवान नहीं, क्योंकि साहिर साहब उस ज़माने में नौजवानों के मेहबूबतरीन शायर हुआ करते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं उन्हे रिसीव करने के लिए दूसरे स्टुडेण्ट्स के साथ चारबाग़ पहुँचा, तो मेरी ख़ुशी का यह हाल था कि जैसे न जाने ये मेरी ज़िंदगी का कौन सा दिन है और किस हस्ती के दीदार होने वाले हैं कि जिसके दीदार के बग़ैर हमें यह लग रहा था कि ज़िंदगी अधूरी रहेगी। वो तशरीफ़ लाए, हम लोग उन्हे वहाँ से रिसीव करके लाए, और उन्हे एक होटल में ठहराया गया, और मेरा उनसे तारुफ़ यह कह कर करवाया गया कि 'साहिर साहब, ये हसन कमाल हैं, हमारे बहुत ही तेज़ और तर्रार क़िस्म के तालीबिल्मों में, स्टुडेण्ट्स में, और इनकी सब से बड़ी ख़ुसूसीयत यह है कि इन्हे आप की नज़्म 'परछाइयाँ', जो १९ पेजेस लम्बी नज़्म है, ज़बानी याद है'। साहिर साहब बहुत ख़ुश हुए, और शाम को जब हम उन्हे लेने गए तो वक़्त से कुछ पहले पहुँच गए थे, तो उन्होनें बात करते करते अचानक कहा कि 'भई, किसी ने मुझे बताया कि तुम्हे 'परछाइयाँ' पूरी याद है?' मैंने अर्ज़ किया कि 'जी हाँ'। कहने लगे कि 'अच्छा, सुनाओ'। और मैंने पूरी 'परछाइयाँ' नज़्म उनको एक ही नशिस्त में पढ़ कर सुना दी। और वो सुनते रहे। और जब नज़्म ख़त्म हुई तो उनका कमेण्ट यह था कि 'भई ऐसा है, कि मैं पंजाबी हूँ, और शेर बहुत बुरा पढ़ता हूँ, और आज जब तुमको अपनी नज़्म पढ़ते सुना, तो मुझे यह महसूस हो रहा है कि आज के मुशायरे में मेरे बजाए मेरी शायरी तुम ही सुनाना'।" कॊलेज स्टुडेण्ट हसन कमाल के लिए यह बहुत बड़ी बात थी कि साहिर जैसे शायर अपनी शायरी उनसे पढ़वाना चाहते थे। तो दोस्तों, आइए सुना जाए भूपेन्द्र और आशा भोसले की गाई इस जोड़े की सब से प्यारी ग़ज़ल "किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है"। शायद 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को भी इस ग़ज़ल का बहुत दिनों से इंतेज़ार था।

किसी नज़र को तेरा इंतेज़ार आज भी है,
कहाँ हो तुम के ये दिल बेक़रार आज भी है।

वो वादियाँ वो फ़ज़ाएँ के हम मिले थे जहाँ,
मेरी वफ़ा का वहीं पर मज़ार आज भी है।

न जाने देख के क्यों उनको ये हुआ अहसास,
के मेरे दिल पे उन्हे इख़्तियार आज भी है।

वो प्यार जिसके लिए हमने छोड़ दी दुनिया,
वफ़ा की राह में घायल वो प्यार आज भी है।

यकीं नहीं है मगर आज भी ये लगता है,
मेरी तलाश में शायद बहार आज भी है।

ना पूछ कितने मोहब्बत के ज़ख़्म खाए हैं,
के जिनके सोच में दिल सौगवार आज भी है।

ज़िंदगी क्या कोई निसार करे, किससे दुनिया में कोई प्यार करे,
अपना साया भी अपना दुश्मन है, कौन अब किसका ऐतबार करे।



क्या आप जानते हैं...
कि बप्पी लाहिड़ी ने केवल १६ वर्ष की आयु में एक बंगला फ़िल्म 'दादू' में संगीत दिया था जिसमें तीनों मंगेशकर बहनों (लता, आशा, उषा) से उन्होने गाने गवाए थे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. शायर बताएं इस बेहद खूबसूरत गज़ल के - ३ अंक.
२. खय्याम साहब के संगीत से सजी इस गज़ल को किस फनकार ने अंजाम दिया है लता के साथ - २ अंक.
३. मतले में शब्द है -"बारात", फिल्म बताएं - १ अंक.
४. निर्देशक बताएं फिल्म के - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंक पवन कुमार जी लूट गए, शरद जी, प्रतिभा जी और किशोर जी भी सही जवाब के साथ मिले. शरद जी नेट पर डी गयी हर जानकारी सही नहीं होती. रोमेंद्र जी आप लेट हो गए. मनु जी, सुमित जी, शेयाला जी, और इंदु जी आप सब को यहाँ देख अच्छा लगा, और दिलीप जी, इंदु जी की शिकायत में हम अपनी भी आवाज़ मिलते हैं. :)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है.. "मीर" के एकतरफ़ा प्यार की कसक औ’ हरिहरण की आवाज़



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९६

ढ़ते फिरेंगे गलियों में इन रेख़्तों को लोग,
मुद्दत रहेंगी याद ये बातें हमारियां।

जाने का नहीं शोर सुख़न का मिरे हरगिज़,
ता-हश्र जहाँ में मिरा दीवान रहेगा।

ये दो शेर मिर्ज़ा ग़ालिब के गुरू (ग़ालिब ने इनसे ग़ज़लों की शिक्षा नहीं ली, बल्कि इन्हें अपने मन से गुरू माना) मीर के हैं। मीर के बारे में हर दौर में हर शायर ने कुछ न कुछ कहा है और अपने शेर के मार्फ़त यह ज़रूर दर्शा दिया है कि चाहे कितना भी लिख लो, लेकिन मीर जैसा अंदाज़ हासिल नहीं हो सकता। ग़ालिब और नासिख के शेर तो हमने पहले हीं आपको पढा दिए थे (ग़ालिब को समर्पित महफ़िलों में), आज चलिए ग़ालिब के समकालीन इब्राहिम ज़ौक़ का यह शेर आपको सुनवाते हैं, जो उन्होंने मीर को नज़र करके लिखा था:

न हुआ पर न हुआ ‘मीर’ का अंदाज़ नसीब।
‘जौक़’ यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल में मारा।।

हसरत मोहानी साहब कहाँ पीछे रहने वाले थे। उन्होंने भी वही दुहराया जो पहले मीर ने कहा और बाद में बाकी शायरों ने:

शेर मेरे भी हैं पुर-दर्द वलेकिन ‘हसरत’।
‘मीर’ का शैवाए-गुफ़्तार कहां से लाऊं।।

ग़ज़ल कहने की जो बुनियादी जरूरत है, वह है "हर तरह की भावनाओं विशेषकर दु:ख की संवेदना"। जब तलक आप कथ्य को खुद महसूस नहीं करते, तब तलक लिखा गया हरेक लफ़्ज़ बेमानी है। मीर इसी कला के मर्मज्ञ थे, सबसे बड़े मर्मज्ञ। इस बात को उन्होंने खुद भी अपने शेर में कहा है:

मुझको शायर न कहो ‘मीर’ कि साहब मैंने।
दर्दों-ग़म जमा किये कितने तो दीवान किया।।

मीर का दीवान जितना उनके ग़म का संग्रह था, उतना हीं जमाने के ग़म का -

दरहमी हाल की है सारे मिरा दीवां में,
सैर कर तू भी यह मजमूआ परीशानी का।

अपनी पुस्तक "हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास" में "बच्चन सिंह" जी मीर के बारे में लिखते हैं:

मीर का पूरा नाम मीर तक़ी मीर था। मीर ने फ़ारसी में अपनी आत्मकथा लिखी है, जिसका अनुवाद "ज़िक्रे मीर" के नाम से हो चुका है। ज़िक्रे मीर के हिसाब से उनका जन्म १७२५ में अकबराबाद (आगरा) में हुआ था। लेकिन और घटनाओं के समय उन्होंने अपनी जो उम्र बताई है उससे हिसाब लगाने पर उनकी जन्म-तिथि ११३७ हि.या १७२४ ई. निकलती है। (प्रकाश पंडित की पुस्तक "मीर और उनकी शायरी" में भी इस बात का उल्लेख है) मीर के पिता प्रसिद्ध सूफ़ी फ़कीर थे। उनका प्रभाव मीर की रचनाओं पर देखा जा सकता है। दिल्ली को उजड़ती देखकर वे लखनऊ चले आए। नवाब आसफ़ुद्दौला ने उनका स्वागत किया और तीन सौ रूपये की मासिक वृत्ति बाँध दी। नवाब से उनकी पटरी नहीं बैठी। उन्होंने दरबार में जाना छोड़ दिया। फिर भी नवाब ने उनकी वृत्ति नहीं बंद की। १८१० में मीर का देहांत हो गया।

मीर पर वली की शायरी का प्रभाव है - जबान, ग़ज़ल की ज़मीन और भावों में दोनों में थोड़ा-बहुत सादृश्य है। पर दोनों में एक बुनियादी अंतर है। वली के इश्क़ में प्रेमिका की अराधना है तो मीर के इश्क़ पर सूफ़ियों के इश्क़-हक़ीक़ी का भी रंग है और वह रोजमर्रा की समस्याओं में नीर-क्षीर की तरह घुलमिल गया है। मीर की शायरी में जीवन के जितने विविध आयाम मिलेंगे उतने उस काल के किसी अन्य कवि में नहीं दिखाई पड़ते।

दिल्ली मीर का अपना शहर था। लखनऊ में रहते हुए भी वे दिल्ली को कभी नहीं भूले। दिल्ली छोड़ने का दर्द उन्हें सालता रहा। लखनऊ से उन्हें बेहद नफ़रत थी। भले हीं वे लखनऊ के पैसे पर पल रहे थे, फिर भी लखनऊ उन्हें चुगदों (उल्लुओं) से भरा हुआ और आदमियत से खाली लग रहा था। लखनऊ के कवियों की इश्क़िया शायरी में वह दर्द न था, जो छटपटाहट पैदा कर सके। लखनऊ के लोकप्रिय शायर "जुर्रत" को मीर चुम्मा-चाटी का शायर कहा करते थे।

मीर विचारधारा में कबीर के निकट हैं तो भाषा की मिठास में सूर के। जिस तरह कबीर कहते थे कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल", उसी तरह मीर का कहना है - "उसे देखूँ जिधर करूँ निगाह, वही एक सूरत हज़ारों जगह।" दैरो-हरम की चिंता उन्हें नहीं है। मीर उससे ऊपर उठकर प्रेमधर्म और हृदयधर्म का समर्थन करते हैं-

दैरो-हरम से गुजरे, अब दिल है घर हमारा,
है ख़त्म इस आवले पर सैरो-सफ़र हमारा।


हिन्दी के सूफ़ी कवि भी इतने असांप्रदायिक नहीं थे, जितने मीर थे। इस अर्थ में मीर जायसी और कुतबन के आगे थे। वे लोग इस्लाम के घेरे को नहीं तोड़ सके थे, जबकि मीर ने उसे तोड़ दिया था। पंडों-पुरोहितों, मुल्ला-इमामों में उनकी आस्था नहीं थी, पर मुसलमां होने में थी। शेखों-इमामों की तो उन्होंने वह गत बनाई है कि उन्हें देखकर फ़रिश्तों के भी होश उड़ जाएँ -

फिर ’मीर’ आज मस्जिद-ए-जामें में थे इमाम,
दाग़-ए-शराब धोते थे कल जानमाज़ का।
(जानमाज़ - जिस कपड़े पर नमाज़ पढी जाती है)

सौन्दर्य-वर्णन मीर के यहाँ भी मिलेगा, किन्तु इस सावधानी के साथ कि "कुछ इश्क़-ओ-हवस में फ़र्क़ भी कर-

क्या तन-ए-नाज़ुक है, जां को भी हसद जिस तन प’ है,
क्या बदन का रंग है, तह जिसकी पैराहन प’ है।

मीर की भाषा में फ़ारसी के शब्द कम नहीं हैं, पर उनकी शायरी का लहजा, शैली, लय, सुर भारतीय है। उनकी कविता का पूरा माहौल कहीं से भी ईरानी नहीं है।

मीर ग़ज़लों के बादशाह थे। उनकी दो हज़ार से अधिक ग़ज़लें छह दीवानों में संगृहीत हैं। "कुल्लियात-ए-मीर" में अनेक मस्नवियाँ, क़सीदे, वासोख़्त, मर्सिये आदि शामिल हैं। उनकी शायरी के कुछ नमूने निम्नलिखित हैं:-

इब्तिदा-ए-इश्क है रोता है क्या
आगे आगे देखिये होता है क्या

इश्क़ इक "मीर" भारी पत्थर है
कब दिल-ए-नातवां से उठता है

हम ख़ुदा के कभी क़ायल तो न थे
उनको देखा तो ख़ुदा याद आ गया

सख़्त काफ़िर था जिसने पहले "मीर"
मज़हब-ए-इश्क़ इख़्तियार किया


आधुनिक उर्दू कविता के प्रमुख नाम और उर्दू साहित्य के इतिहास 'आब-ए-हयात' के लेखक मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने ख़ुदा-ए-सुख़न मीर तक़ी 'मीर' के बारे में दर्ज़ किया है- "क़द्रदानों ने उनके कलाम को जौहर और मोतियों की निगाहों से देखा और नाम को फूलों की महक बना कर उड़ाया. हिन्दुस्तान में यह बात उन्हीं को नसीब हुई है कि मुसाफ़िर,ग़ज़लों को तोहफ़े के तौर पर शहर से शहर में ले जाते थे"। जिनकी शायरी मुसाफ़िर शहर-दर-शहर दिल में लेकर घूमते हैं, हमारी खुश-किस्मती है कि हमारी महफ़िल को आज उनकी खिदमत करने का मौका हासिल हुआ है। कई महीनों से हमारे दिल में यह बात खटक रही थी कि भाई ग़ालिब पर दस महफ़िलें हो गईं और मीर पर एक भी नहीं। तो चलिए आज वह खटक भी दूर हो गई, इसी को कहते हैं "देर आयद दुरूस्त आयद"। इतनी बातों के बाद लगे हाथ अब आज की ग़ज़ल भी सुन लेते हैं। आज की ग़ज़ल मेरे हिसाब से मीर की सबसे मक़बूल गज़ल है और मेरे दिल के सबसे करीब भी। "जाने न जाने गुल हीं न जाने, बाग तो सारा जाने है।" एकतरफ़ा प्यार की कसक इससे बढिया तरीके से व्यक्त नहीं की जा सकती। मीर के लफ़्ज़ों में छुपी कसक को ग़ज़ल गायिकी को एक अलग हीं अंदाज़ देने वाले "हरिहरण" ने बखूबी पेश किया है। यूँ तो इस ग़ज़ल को कई गुलूकारों ने अपनी आवाज़ दी है, लेकिन हरिहरण का "क्लासिकल टच" और किसी की गायकी में नहीं है। पूरे ९ मिनट की यह ग़ज़ल मेरे इस दावे की पुख्ता सुबूत है:

पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है

मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है

चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक ____ दो बारा जाने है

तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर' भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "दामन" और शेर कुछ यूँ था-

आँखों से लहू टपका दामन में बहार आई
मैं और मेरी तन्हाई...

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

मेरे अश्रु भरे मन की खातिर
वो फैला दे दामन तो जी लूं (अवनींद्र जी)

दामन छुड़ा के अपना वो पूछ्ते हैं मुझसे
जब ये न थाम पाए थामोगे हाथ कैसे ? (शरद जी)

इन लम्हों के दामन में पाकीजा से रिश्ते हैं
कोई कलमा मुहब्बत का दोहराते फ़रिश्ते हैं (जावेद अख्तर)

दामन में आंसू थे, या रुस्वाईयां थी
ये किस्मत थी या वो बे- वफ़ाइयाँ थी (नीलम जी)

फूलों से बढियां कांटे हैं ,
जो दामन थाम लेते हैं. (मंजु जी)

फूल खिले है गुलशन गुलशन,
लेकिन अपना अपना दामन (जिगर मुरादाबादी)

रात के दामन में शमा जब जलती है
हवा आके उससे लिपट के मचलती है (शन्नो जी)

छोड़ कर तेरे प्यार का दामन यह बता दे के हम किधर जाएँ
हमको डर है के तेरी बाहों में हम सिमट कर ना आज मर जाएँ. (रजा मेहदी अली खान)

आपको मुबारक हों ज़माने की सारी खुशियाँ
हर गम जिंदगी का हमारे दामन में भर दो . (शन्नो जी)

पिछली महफ़िल की शान बने अवनीद्र जी। हुज़ूर, आप की अदा हमें बेहद पसंद आई। एक शब्द पर पूरी की पूरी ग़ज़ल कह देना आसान नहीं। हम आपके हुनर को सलाम को करते हैं। आपके बाद महफ़िल को अपने स्वरचित शेर से शरद जी ने रंगीन किया। शरद जी, आपने तो बड़ा हीं गूढ प्रश्न पूछा है। अगर आशिक़ एक दामन नहीं थाम सकता तो हाथ क्या खाक थामेगा! उम्मीद करता हूँ कि कोई सच्चा आशिक़ इसका जवाब देगा। शरद जी के बाद नीलम जी की बारी थी। इस बार तो आपने दिल खोलकर महफ़िल की ज़र्रानवाज़ी की। आपने अपने शेरों के साथ जानेमाने शायरों के भी शेर शामिल किए। और एक शेर में जब आप शायर का नाम भूल गए तो अवध जी ने वह कमी भी पूरी कर दी। आप दोनों की लख़नवी बातचीत हमें खूब भाई। अब आप दोनों मिलकर मीर से निपटें, जिन्हें लख़नऊ में बस उल्लू हीं नज़र आते थे :) अवध जी, प्रकाश पंडित जी की पुस्तकों से मैं जो भी जानकारी हासिल कर पाता हूँ, वे सब अंतर्जाल पर उपलब्ध हैं। मेरे पास उनकी बस एक कि़ताब है "मज़ाज और उनकी शायरी"। अगर और भी कुछ मालूम हुआ, तो आपको ज़रूर इत्तला करूँगा। मंजु जी, इस बार तो छोटे बहर के एक शेर से आपने बड़ी बाज़ी मार ली है। यही सोच रहा हूँ कि फूल और काँटों का यह अंतर मेरे लिए अब तक अनजाना कैसे था? सुमित जी, आपको "फूल खिले हैं.." वाले शेर के शायर का नाम पता न था, इसका मतलब यही हुआ कि आप "जिगर मुरादाबादी" वाली महफ़िल से नदारद थे :) शन्नो जी, ये हुई ना बात। इसी तरह खुलकर शेरों का मज़ा लेती रहें और लफ़्ज़ों की बौछार से हमें भी भिंगोती रहें।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, August 10, 2010

तेरा हिज्र मेरा नसीब है... जब कब्बन मिर्ज़ा से गवाया खय्याम साहब और कमाल अमरोही ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 458/2010/158

'रज़िया सुल्तान' कमाल अमरोही की एक महत्वाकांक्षी फ़िल्म थी, लेकिन बदक़िस्मती से फ़िल्म असफल रही। हाँ फ़िल्म के गानें बेहद सराहे गए और आज इस फ़िल्म को केवल इसके गीतों और ग़ज़लों की वजह से ही याद किया जाता है। 'सेहरा में रात फूलों की' शृंखला में आज सुनिए हेमा मालिनी व धर्मेन्द्र अभिनीत सन् १९८३ की इसी फ़िल्म से एक ग़ज़ल कब्बन मिर्ज़ा की आवाज़ में। ख़य्याम साहब का संगीत और निदा फ़ाज़ली का क़लाम। दोस्तों, आज मैं ख़ुद कुछ नहीं बोलूँगा, आज बातें होंगी वो जो इस ग़ज़ल के बारे में आपको बताएँगे ख़ुद ख़य्याम और निदा साहब। पहले ख़य्याम साहब को मौका देते हैं। "कमाल अमरोही साहब, उनकी फ़रमाइश थी कि हमारा जो हीरो है, बहुत बड़ा वारियर, सिपह सालार है, वो कभी कभी, जब उसको वक़्त मिलता है, अकेला होता है, तब वो अपनी मस्ती में गाता है। और ये ऐसा है कि वो सिंगर नहीं है। तो बड़ी कठिन बात हो गई कि सिंगर ना मिले कोई। अब ये हुआ कि पूरे हिंदुस्तान से ५० से उपर लोग आए और सब आवाज़ों में ये हुआ कि लगा कि वो सब सिंगर हैं। ऐसे ही कब्बन मिर्ज़ा भी आए। हम सब ने सुना उन्हे। मैं, जगजीत जी, कमाल साहब। फिर उनसे पूछा कि आपने कहाँ सीखा? उन्होने कहा कि मैंने कभी नहीं सीखा। कौन से गानें गा सकते हैं? तो वो सब लोक गीत सुना रहे थे। तो हम लोग मुश्किल में पड़ गए कि भई ये तो बड़ा कठिन काम है! तो हम लोगों ने उन्हे रिजेक्ट कर दिया था। अगले दिन कमाल साहब का टेलीफ़ोन आया कि आप फ़्री हैं तो अभी आप तशरीफ़ लाएँ। नाश्ता उनके साथ हुआ। नाश्ता हुआ तो कहने लगे कि रात भर मुझे नींद नहीं आई। कमाल साहब, क्या हुआ? ये जो आवाज़ है जो हमने कल सुनी कब्बन मिर्ज़ा की, यही वो आवाज़ है। मैंने कहा 'कमाल साहब, लेकिन उनको गाना तो आता नहीं'। तो कहने लगे 'ख़य्याम साहब, आप मेरे केवल मौसीकार ही नहीं हैं, आप तो मेरे दोस्त भी हैं। प्लीज़ आपको मेरे लिए यह करना है, मुझे इन्ही की आवाज़ चाहिए'। तो फिर इनको कुछ ३-४ महीने स्वर और ताल का ज्ञान दिलवाया, और उसके बाद गाने की रेकॊर्डिंग् शुरु हुई। अक्सर हम लोग ये करते हैं कि रेकॊर्डिंग् के वक़्त म्युज़िक डिरेक्टर रेकॊर्डिंग् करवाता है अपने रेकॊर्डिस्ट से। तो ऐसिस्टैण्ट जो होते हैं वो ऒरकेस्ट्रा सम्भालते हैं। तो उस दिन वो नए थे, गा नहीं पा रहे थे, तो मैंने जगजीत जी को यहाँ भेजा, रेकॊर्डिंग में, और ऐस्टैण्ट को बोला अंदर जाओ, और कण्डक्टिंग् मैंने की। युं गाना हुआ ये और इसे आप सुनाइए" (सौजन्य: संगीत सरिता, विविध भारती)। दोस्तों, लेकिन जैसा कि हमने आप से वादा किया था, पहले निदा साहब से भी तो उनके ख़यालात जान लें इस ग़ज़ल से जुड़ी हुई!

"बात दरअसल है कि जब घर से बेघर हो गया तो हर शहर एक सा हो गया। और मैं भटकता रहा। और उस वक़्त मसला, न सियासत था, न तासूत था, ना मुल्की तफ़सीम थी, सिर्फ़ मसला था रोटी की, कपड़ों की, और सर पे छत का। आम हिंदुस्तानी की ज़िंदगी में हर चीज़ बड़ी लेट आती है। मेरे साथ भी यही हुआ। जब मैं यहाँ बम्बई आया, तो ले दे के एक ही काम आता था कि क़लम से लिखना और अख़्बारों में छपवाना। मालूम पड़ा कि उस पीरियड में जगह जगह मैसेज मिलती था कि 'Mr Kamal Amrohi wants to meet Nida Fazli'। तो मैं सोच नहीं पाता था कि कमाल अमरोही, इतने मशहूर डिरेक्टर मुझसे क्यों मिलना चाहते हैं। बहरहाल मैं ज़रूरतमंद था और वो ज़रूरतें पूरी करने वाले डिरेक्टर थे। मैं पहुँच गया और जब पहुँचा तो मालूम पड़ा कि वो खाना खाने के बाद आधा घंटा आराम फ़रमाते हैं। बहरहाल उनके ऐसिस्टैण्ट ने मुझे इंतेज़ार करने को कहा। मैं गया तो ज़ाहिर है कि मैंने कहा कि 'अमरोही साहब, मैं हाज़िर हूँ, मेरा नाम निदा फ़ाज़ली है, आप ने मुझे याद किया'। बोले 'जी, तशरीफ़ रखिए, आप से कुछ नग़मात तहरीर करवाना है'। तो ऐसे नस्तारीख़ ज़बान, जो मैं पढ़ता था किताबो में, बम्बई में आके भूल गया था, तो उनके जुमले से। मैंने कहा मैं हाज़िर हूँ। उन्होने कहा कि एक बात का ख़याल रखिये, कि मुझे मुक़म्मल शायर की ज़रूरत है, लेकिन इस शर्त के साथ कि अदबी शायरी और होती है और फ़िल्मी शायरी और। अदबी शायरी के आपको मेरे मिज़ाज की शिनाख़्त बहुत ज़रूरी है। जाँ निसार अख़्तर मेरे मिज़ाज को पहचान गए थे, अल्लाह को प्यारे हो गए। मैंने कहा मैं यह शर्त पूरी करने वाला नहीं हूँ, लेकिन कोशिश करूँगा कि आपके मिज़ाज के मुताबिक़ गीत लिख सकूँ। मैंने वो ग़ज़ल लिखी थी "तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है"।

तेरा हिज्र ही मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है,
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों, तू कहीं भी हो मेरे साथ है।

मेरे वास्ते तेरे नाम पर, कोई हर्फ़ आए नहीं नहीं,
मगर मेरे रू-ब-रू तेरी ज़ात है, मेरे रू-ब-रू तेरी ज़ात है।

तेरा वस्ल ऐ मेरी दिलरुबा, नहीं मेरी क़िस्मत तो क्या हुआ,
मेरी महजबीं यही कम है क्या, तेरी हसरतों का तो साथ है।


तेरा इश्क़ मुझ पे है महरबाँ, मेरे दिल को हासिल है दो जहाँ,
मेरी जान-ए-जाँ इसी बात पर, मेरी जान जाए तो बात है।



क्या आप जानते हैं...
कि कब्बन मिर्ज़ा किसी ज़माने में विविध भारती के उद्घोषक हुआ करते थे और उनकी गम्भीर और अनूठी आवाज़ दूसरे उद्घोषकों के मुक़ाबले बिलकुल अलग सुनाई पड़ती थी।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. ये संगीतकार भी कल पहली बार तशरीफ लायेगें ओल्ड इस गोल्ड की महफ़िल पर, नाम बताएं - ३ अंक.
२. शायर कौन हैं इस गज़ल के - २ अंक.
३. मुकुल आनंद निर्देशित और डिम्पल कपाडिया अभिनीत इस फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
४. आशा भोसले का साथ किस गायक ने दिया है इस युगल गज़ल में - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी क्या बात है फिर से चूक गए, पर प्रतिभा जी, किशोर जी और नवीन प्रसाद जो शायद पहली बार पधारे हैं पहेली में, सही जवाब दिया है, इंदु जी खता माफ, अंक मिल जायेंगें

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

सलीम-सुलेमान की आशाएँ ढल गई हैं धीमी गति के प्रेरक गीतों में.. साथ हैं प्रीतम और शिराज़ भी



ताज़ा सुर ताल ३०/२०१०

सुजॊय - 'ताज़ा सुर ताल' के सभी श्रोताओं व पाठकों को हमारा प्यार भरा नमस्कार! दोस्तों, इसे इत्तेफ़ाक़ ही कहिए या कुछ और, हमारी फ़िल्म इंडस्ट्री में कुछ नायक ऐसे हुए हैं जिनकी फ़िल्मों के गानें हमेशा ही सुपरहिट हुआ करते हैं। जैसे कि राजेश खन्ना की शायद ही कोई फ़िल्म ऐसी होगी जिसके गानें चले ना हों। नए दौर में सलमान ख़ान ऐसे नायक बनें जिनकी फ़िल्मों के गानें बेहद लोकप्रिय होते आए हैं और आज भी होते हैं। ऐसे ही एक और अभिनेता हैं जॊन एब्राहम जिनकी फ़िल्मों का संगीत भी चलता आया है, फिर चाहे फ़िल्म चले या ना चले।

विश्व दीपक - 'जिस्म', 'साया', 'धूम', 'सलाम-ए-इश्क़', 'काल', 'गरम मसाला', 'दोस्ताना', 'गोल', 'न्यू यार्क', 'पाप', 'टैक्सी नंबर ९ २ ११', ये सारी जॉन की फ़िल्में संगीत के लिहाज़ से सफल ही मानी जाएंगी। आज हम जॉन की नई फ़िल्म 'आशाएँ' के गानें लेकर उपस्थित हुए हैं, और इन गीतों को सुनने के बाद हमें और आपको मिलकर यह निर्णय लेना है कि क्या जॉन की पिछली सारी फ़िल्मों के संगीत की तरह इस फ़िल्म के संगीत पर भी 'हिट सुपरहिट' की मोहर लगाई जा सकती है या नहीं।

सुजॊय - सब से पहले तो फ़िल्म के शीर्षक की बात करेंगे। परसेप्ट पिक्चर कंपनी के बैनर तले बनी इस फ़िल्म को लिखा व निर्देशित किया है नागेश कुकुनूर ने। अब आप समझ गए होंगे कि हमने फ़िल्म के शीर्षक का ज़िक्र क्यों किया। जी हाँ, नागेश की मशहूर फ़िल्म 'इक़बाल' के मशहूर गीत "आशाएँ खिले दिल की" से इस फ़िल्म का शीर्षक प्रेरित है।

विश्व दीपक - जॉन एब्राहम के अलावा इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार हैं नवोदित अभिनेत्री सोनल सहगल (जो हिमेश भाई के साथ उनकी फ़िल्म रेडियो में भी दिखी थीं), गिरिश कारनाड, फ़रीदा जलाल, आश्विन चितले, अनिता नायर प्रमुख। श्रेयस तलपडे का भी एक गेस्ट अपीयरेन्स है फ़िल्म में। पॉण्डिचेरी और हैदराबाद के लोकेशन्स पर फ़िल्माये गये इस फ़िल्म के लिए जॉन को १६ किलो का वज़न कम करना पड़ा है ऐसा सुनने में आया है। ये तो थे फ़िल्म से जुड़े कुछ तथ्य, आइए अब गीतों का सिलसिला शुरु किया जाए। फ़िल्म में कुल ८ गीत हैं और ५ रीमिक्स ट्रैक्स।

सुजॊय - 'स्ट्राइकर' और 'राजनीति' की तरह 'आशाएँ' में भी एकाधिक संगीतकार हैं, मुख्य संगीतकार हैं सलीम-सुलेमान, जिन्होंने फ़िल्म का पार्श्व संगीत भी तय्यार किया है। और जो दूसरे संगीतकार हैं, वो हैं प्रीतम (२ गीत) और शिराज़ उप्पल (१ गीत)। गीतकार हैं मीर अली हुसैन, समीर, कुमार और शक़ील सोहैल। तो आइए सुनते हैं पहला गीत नीरज श्रीधर की आवाज़ में। नीरज का नाम देख कर आप समझ ही गए होंगे कि इसके संगीतकार हैं प्रीतम। इस गीत को समीर ने लिखा है।

गीत - मेरा जीना है क्या


विश्व दीपक - नीरज श्रीधर और प्रीतम की जोड़ी जिस तरह के गानें हमें देती आई है आज तक (हरे राम हरे राम, प्रेम की नैय्या, तुम मिले, वगेरह), उससे कुछ अलग हट के है यह गीत। गीत शुरु होता है नर्मोनाज़ुक अंदाज़ में, लेकिन बाद में रॉक शैली आ जाती है। नीरज की आवाज़ अच्छी बैठी है इस गीत में लेकिन यह गीत तो के.के वाला गीत है बिल्कुल। आजकल इस गीत को ख़ूब टीवी पर दिखाया जा रहा है फ़िल्म के प्रोमो में। और नीरज और उस प्रोमो में प्रीतम भी नज़र आ रहे हैं रॉक सिंगर्स की तरह।

सुजॊय - मुझे यह गीत अच्छा ही लगा, लेकिन मेरा भी ख़याल है कि के.के की आवाज़ में गीत और ज़्यादा खुल कर सामने आता। ख़ैर, नीरज ने भी अच्छा निभाया है। आगे बढ़ते हैं दूसरे गीत की तरफ़, और अब की बार गीतकार कुमार के बोल, प्रीतम का ही संगीत, और इसे गाया है शान और तुलसी कुमार ने। एक सुरीले मेलोडियस युगल गीत की उम्मीद हम ज़रूर रख सकते हैं, क्यों? आइए ख़ुद सुनते हैं और फिर निर्णय लेते हैं।

गीत - दिलकश दिलदार दुनिया


सुजॊय - अनुप्रास अलंकार!!! लेकिन जिस तरह के मेलोडियस नर्मोनाज़ुक रोमांटिक युगल गीत की कल्पना मैंने की थी, वैसा नहीं पाया। मैंने तो सोचा था कि "तेरी ओर" और "ख़ुदा जाने" जैसा कुछ सुनने को मिलेगा। लेकिन इस गीत का अंदाज़ कुछ अलग सा है। शान की आवाज़ भी कुछ बदली हुई-सी लगी। तुल्सी कुमार की आवाज़ में तो मुझे कभी कोई ख़ास बात नज़र नहीं आई। ग़लत अर्थ ना निकालें तो मैं यही कहूँगा कि तुलसी कुमार जैसी आवाज़ और गायकी तो हर रियल्टी शो में सुनने को मिल जाती है। इस आवाज़ में ख़ास बात क्या है कोई मुझे समझाए ज़रा!

विश्व दीपक - इस गीत के बारे में इतना ही कहूँगा कि कम्पोजिशन अच्छा है, बीट बेस्ड सॉंग है, ठीक ठाक गीत है। लेकिन प्रीतम से हम कुछ और बेहतर उम्मीद रखते हैं, ख़ास कर रोमांटिक नर्मोनाज़ुक गीतों में। चलिए अब बढ़ते हैं तीसरे गीत की ओर। प्रीतम के बाद अब है शिराज़ उप्पल की बारी। उन्होंने ना केवल इस गीत को स्वरबद्ध किया है, बल्कि शक़ील सोहैल के लिखे इस गीत को ख़ुद गाया भी है। सुनते हैं "रब्बा"।

गीत - रब्बा


विश्व दीपक - गायक-संगीतकार शिराज़ उप्पल पाक़िस्तान से ताल्लुक़ रखते हैं। गाना तो अच्छा ही बना है, धुन भी अच्छी है, गाया भी ठीक-ठाक है, लेकिन पता नहीं क्यों इस गीत ने कोई आस असर नहीं छोड़ा। बस यही कह सकता हूँ कि "रब्बा ये क्या हुआ"।

सुजॊय - यह शायद इसलिए भी हो सकता है कि शिराज़ की आवाज़ में ऊँचे नोट्स वाले गीत ज़्यादा अच्छे लगते हैं। नीचे सुर के गीतों में उनकी आवाज़ खुल के बाहर नहीं आती। इस गीत के बारे में यही कहूँगा कि शक़ील सोहैल ने अच्छा कलम चलाया है।

विश्व दीपक - अच्छा, हमने तीन गीत सुनें, अब से अगले पाँच गीतों में संगीत सलीम सुलेमान का है और गीतकार हैं मीर अली हुसैन। सुनते हैं इस गीतकार-संगीतकार जोड़ी की पहली रचना ज़ुबीन की आवाज़ में।

गीत - अब मुझको जीना


सुजॊय - यह आशावादी और प्रेरणादायक गीत था। ज़ुबीन आसाम से ताल्लुक़ रखते हैं और वहाँ पर ख़ूब लोकप्रिय हैं। हिंदी में प्रीतम ने उनसे फ़िल्म 'गैंगस्टर' में "या अली रहम अली" गवाया था जो बहुत लोकप्रिय हुआ था। इस गीत को भी उन्होंने पूरे जोश के साथ गाया है। ज़ोरदार ऑरकेस्ट्रेशन और क़दमों को थिरकाने वाला गीत है। पिछले तीन गीत भी अच्छे थे लेकिन कुछ ना कुछ कमी लग रही थी उनमें। इस गीत को सुन कर एक ताज़गी जैसी आ गई, बहुत ही खुल कर यह गीत आया है और सही में गीत अच्छा है।

विश्व दीपक - इस गीत की शुरुआत में कुछ कुछ 'Summer of 69' जैसा लगा, फिर गीत ने तेज़ गति पकड़ ली और अपनी अलग राह पकड़ कर अपने मुक़ाम तक पहुँच गई। ज़ुबीन गर्ग की आवाज़ में एक अलग कशिश है और भीड़ से अलग सुनाई देती है। उनसे और भी ज़्यादा गानें संगीतकार गवा सकते हैं। 'आशाएँ' फ़िल्म का पाँचवा गीत है शफ़ाक़त अमानत अली की आवाज़ में, "शुक्रिया ज़िंदगी"। आइए गीत सुनते हैं, फिर बात करते हैं।

गीत - शुक्रिया ज़िंदगी


सुजॊय - ज़िंदगी का शुक्रिया अदा करता हुआ यह गीत सुन कर हम सलीम सुलेमान, मीर अली हुसैन और शफ़ाक़त अमानत अली का शुक्रिया अदा ही कर सकते हैं। "छन के आई तो क्या चांदनी तो मिली" जैसे अन्योक्ति अलंकार में सजकर यह गीत ज़िंदगी के प्रति आशावादी होने की प्रेरणा देती है। मुझे तो यह गीत सुनते हुए फ़िल्म 'सदमा' का वो मशहूर याद गया कि "ऐ ज़िंदगी गले लगा ले, हमने भी तेरे हर एक ग़म को गले से लगाया है, है न"।

विश्व दीपक - बेहद ख़ूबसूरत बोल लिखे हैं मीर अली हुसैन ने। मुझे तो लग रहा है कि अच्छे गीतकारों और अच्छे बोल वाले गीतों का ज़माना वापस आ गया है। पिछले कुछ समय से निम्न स्तर के बोल वाले गानें बहुत ही कम हो गए हैं। क्या फ़िल्म संगीत एक बार फिर से करवट ले रहा है?

सुजॊय - काश ऐसा हो जाए, और फ़िल्म संगीत का एक और सुनहरा दौर आ जाए तो मज़ा आ जाए! शफ़ाक़त अमानत अली के बाद अब बारी है श्रेया घोषाल की सुरीली आवाज़ की। "पल में मिला जहाँ" श्रेया की मधुर आवाज़ में ढलकर बेहद सुरीला सुनाई देता है, आइए सुनते हैं।

गीत - पल में मिला जहां (श्रेया)


विश्व दीपक - श्रेया की नर्म आवाज़ में बिना किसी साज़ के जैसे ही "पल में मिला जहां" शुरु होता है, गीतकार किस ख़ूबसूरती से हर पंक्ति की शुरुआत "पल में" से करके "पल में" पर ही ख़त्म करते हैं, गीत को सुन कर महसूस किया जा सकता है।

पल में मिला जहां, है धुआँ पल में,
पल में यक़ीन था, अब गुमां पल में,
पल में उम्मीद थी, अरमां पल में,
पल में बहार थी, अब ख़िज़ाँ पल में।

सुजॊय - गीत में कम से कम साज़ों का इस्तेमाल हुआ है, जिस वजह से श्रेया को काफ़ी मेहनत करनी पड़ी होगी क्योंकि पूरा दायित्व उनकी गायकी पर आ गया है। गीत तो निस्संदेह उत्कृष्ठ है, लेकिन देखना यह है कि आज के जेनरेशन के कितने लोगों को इस गीत को पूरा सुनने का धैर्य रहेगा। इसी गीत का एक पुरुष संस्करण भी है शंकर महादेवन की आवाज़ में, आइए लगे हाथ इसे भी सुन लिया जाए।

गीत - पल में मिला जहां (शंकर)


विश्व दीपक - इन दोनों संस्करणों को सुन कर कह पाना मुश्किल है कि कौन सा बेहतर है। शंकर ने ज़्यादा ज़ोर डाल कर गाया है। शंकर एक ऐसे गायक और संगीतकार हैं जिन्हे हर संगीतकार पसंद करते हैं, उनकी गायकी के साथ साथ उनके मीठे स्वभाव के कारण भी। तभी तो दूसरे संगीतकार उनसे समय समय पर गवाते रहते हैं। हाल ही में फ़िल्म 'राजनीति' में "धन धन धरती रे" उन्होंने गाया था।

सुजॊय - और आठवें और अंतिम गीत की बारी जिसे गाया है मोहित चौहान ने। एक और धीमी गति वाला गीत जिसमें है रोमांस, लेकिन गभीरता के साथ। "चला आया प्यार" में परक्युशन का सुंदर इस्तेमाल हुआ है।

विश्व दीपक - तबले का भी सुंदर इस्तेमाल सुनाई देता है। आम तौर पर फ़्युज़न गीतों में गीत देसी होता है, सुर देसी होते हैं और बीट्स विदेशी होते हैं; लेकिन इस गीत में गायकी और गीत की धुन आधुनिक है, लेकिन जो रीदम है उसे तबले की थापों पर शास्त्रीय अंदाज़ में तय्यार किया गया है जिससे एक नवीनता आई है गाने में। सुना जाए...

गीत - चला आया प्यार


इन आठ गीतों को सुन कर हमारी तरफ़ से तो थम्प्स अप है। हाँ, गानें ज़रा धीमी लय के और गहरे शब्दों वाले हैं। आख़िर नागेश कुकुनूर की फ़िल्म है, उसमें कुछ गहरी बातें तो होंगी। अभी हाल ही में इस फ़िल्म की टीम (जॉन, सोनल सहगल और नागेश कुकुनूर) इण्डियन आइडल में गेस्ट बन कर आए थे अपनी इस फ़िल्म को प्रोमोट करने के लिए। उसमें इन लोगों ने कहा कि यह फ़िल्म लीक से हट कर है और कम बजट की फ़िल्म है। लेकिन यह लोगों के दिलों को ज़रूर छूएगी। फ़िल्म के गीतों ने तो हमारे दिल को छुआ है, देखना है कि फ़िल्म किस तरह का कमाल दिखाती है। हमारी तरफ़ से इस फिल्म को लाखों दुआएँ!

ढर्रे के अनुसार हमें यह भी तो बताना होगा कि अगली बार हम किस फिल्म की समीक्षा लेकर हाज़िर होने वाले हैं। तो दोस्तों, अभी हमारे सामने दो फिल्में हैं - "वी और फ़ैमिली" और "दबंग"। अब कौन सी फिल्म किस्मत वाली साबित होगी, यह तो वक़्त हीं बताएगा। हाँ, अगर आप इन दोनों में से किसी एक को खासा-पसंद करते हैं तो टिप्पणी में इसका ज़िक्र जरूर कर दें। हम आपकी राय का पूरा ख्याल रखेंगे। वैसे अंतिम निर्णय तो हमारा है काहे कि हम तो ठहरे दबंग :)

आवाज़ रेटिंग्स: आशाएँ: ***१/२

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ८८- ये गुलशन कुमार की सुपुत्री हैं और इस कारण भी संगीत की दुनिया में इनका नाम है। पिछले दिनों आई फिल्म "वन्स अपॉन ए टाईम इन मुंबई" में भी इन्होंने एक गाना गाया था। २००९ में रीलिज हुई इनके डेब्यु एलबम का नाम बताईये।

TST ट्रिविया # ८९- नागेश कुकुनूर की उस फ़िल्म का नाम बताएँ जिसमें दोस्ती को समर्पित एक गाना था। वह गाना किसने गाया था?

TST ट्रिविया # ९०- "फ़ना" के गीत "चाँद सिफ़ारिश" की प्रोग्रामिंग किस संगीतकार (संगीतकार बंधुओं) ने की थी? इसी (इन्हीं) की सलाह पर इस गाने में "शुभान-अल्लाह" डाला गया था।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. "चरके बोदन चिरबी चकर" का इस्तेमाल हुआ है जो किशोर कुमार ने फ़िल्म 'पड़ोसन' के मशहूर गीत "एक चतुर नार" में किया था।
२. शैल हाडा।
३. "एक तीखी तीखी सी उफ़ करारी से लड़की" (लागा चुनरी में दाग)।

Monday, August 9, 2010

तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा...इफ़्तिख़ार साहब का दर्द और चित्र सिंह की सशक्त अभिव्यक्ति



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 457/2010/157

'सेहरा में रात फूलों की' इस शृंखला की आज है सातवीं कड़ी। कल की कड़ी में आपने जगजीत सिंह की आवाज़ सुनी थी। दोस्तों, जिस तरह से बहुत सारे संगीतकार जोड़ी के रूप में फ़िल्म जगत के मैदान पर उतरे हैं और आज भी उतर रहे हैं, वैसे ही ग़ज़लों की दुनिया में भी कुछ गायक अपने पार्टनर के साथ सामने आए हैं। दो ऐसी जोड़ियाँ जो सब से ज़्यादा लोकप्रिय रही हैं, वो हैं भूपेन्द्र और मिताली की जोड़ी, और जगजीत सिंह और चित्रा सिंह की जोड़ी। इन दोनों जोड़ियों के जोड़ीदार व्यक्तिगत ज़िंदगी में पति-पत्नी भी हैं। अब आप सोच रहे होंगे कि मैं ये सब यहाँ लेकर क्यों बैठ गया। भई हम बस इतना कहना चाहते हैं कि जब कल जगजीत जी की आवाज़ शामिल हो ही चुकी है, तो क्यों ना आज उनकी पत्नी और सुप्रसिद्ध ग़ज़ल गायिका चित्रा सिंह की भी आवाज़ सुन ली जाए। चित्रा सिंह ने जहाँ एक तरफ़ जगजीत जी के साथ बहुत सी युगल ग़ज़लें गायी हैं, उनकी एकल ग़ज़लों की फ़ेहरिस्त भी छोटी नहीं है। फ़िल्मों की बात करें तो 'साथ साथ' और 'अर्थ' चित्रा जी के करीयर की दो महत्वपूर्ण फ़िल्में रही हैं। 'साथ साथ' की ग़ज़ल तो हमने कल ही सुनी थी, तो आज क्यों ना फ़िल्म 'अर्थ' की एक बेहद ख़ूबसूरत ग़ज़ल हो जाए चित्रा जी की एकल आवाज़ में। वैसे अगर कल आपने ग़ौर फ़रमाया होगा तो कल की ग़ज़ल के शुरुआती लाइनों के आलाप में चित्रा जी की आवाज़ को ज़रूर पहचान लिया होगा। ख़ैर, आज की ग़ज़ल है "तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा, दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा"। कल की तरह आज भी मौसीकार हैं कुलदीप सिंह। 'अर्थ' महेश भट्ट निर्देशित फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे शबाना आज़्मी, कुलभूषण खरबंदा, स्मिता पाटिल, राज किरण, रोहिणी हत्तंगड़ी प्रमुख। अपनी आत्मकथा पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी लिखी थी ख़ुद महेश भट्ट ने (उनके परवीन बाबी के साथ अविवाहिक संबंध को लेकर)। इस फ़िल्म को बहुत सारे पुरस्कार मिले। फ़िल्मफ़ेयर के अंतर्गत सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री (शबाना आज़्मी), सर्बश्रेष्ठ स्कीनप्ले (महेश भट्ट) और सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (रोहिणी हत्तंगड़ी)। शबाना आज़्मी को सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार (सिल्वर लोटस) भी मिला था इसी फ़िल्म के लिए।

और अब हम आते हैं इस ग़ज़ल के शायर पर। यह ग़ज़ल किसी फ़िल्मी गीतकार ने नहीं लिखी है, बल्कि यह कलाम है इफ़्तिख़ार इमाम सिद्दिक़ी का। सिद्दिक़ी साहब को उर्दू साहित्य के एक सशक्त स्तंभ माना जाता है। उर्दू मासिक पत्रिका 'शायर' के सम्पादक के रूप में उन्होने इस भाषा की जो सेवा की है, वो उल्लेखनीय है। उनको ये शेर-ओ-शायरी विरासत में ही मिली थी। उनके दादा अल्लामा सीमब अकबराबादी और पिता इजाज़ सिद्दिक़ी जाने माने शायर रहे। सन् २००१ में इफ़्तिख़ार साहब एक ट्रेन हादसे का शिकार होने के बाद बिस्तर ले लिया है। यह हादसा एक भयानक हादसा था उनके जीवन का। हुआ युं था कि वो एक मुशायरे में भाग लेकर वापस घर लौट रहे थे मुंबई के लोकल ट्रेन में। वो अपनी माँ से मोबाइल पर बात करना चाहते थे, लेकिन क्योंकि ट्रेन के कमरे में सिगनल नहीं मिल रहा था, तो वो प्लैटफ़ॊर्म पर उतरे और बात करने लगे, इस बात से बिलकुल बेख़बर कि पीछे ट्रेन चल पड़ी है। जब उन्हे इस बात का अहसास हुआ तो दौड़ कर ट्रेन में चढ़ने की कोशिश की लेकिन फ़िसल कर ट्रेन के नीचे आ गए। ऐसे में ९९% मौकों पर इंसान का बच पाना संभव नहीं होता, लेकिन इफ़्तिख़ार साहब पर ख़ुदा की नेमत थी कि वो बच गए। लेकिन सर पर घातक चोट लगने की वजह से उनका पूरा शरीर लकवाग्रस्त हो गया। अभी हाल ही में, २४ मई २०१० के दिन उनकी माँ मनज़ूर फ़ातिमा का निधन हो गया जो ९१ वर्ष की थीं। दोस्तों, अगर आप इफ़्तिख़ार साहब से सम्पर्क करना चाहते हैं तो यह रहा पता:

'शायर' पत्रिका, पोस्ट बॊक्स नं: ३७७०, गिरगाम पोस्ट ऒफ़िस, मुंबई-४००००४.

दोस्तों, 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से इफ़्तिख़ार साहब के लिए यही दुआ करते हुए कि वो जल्द से जल्द ठीक हो जाएँ, स्वस्थ हो जाएँ, आपको सुनवा रहे हैं चित्रा सिंह की गायी यह ग़ज़ल फ़िल्म 'अर्थ' से। इस ग़ज़ल के चार शेर ये रहे...

तू नहीं तो ज़िंदगी में और क्या रह जाएगा,
दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा।

दर्द की सारी तहें और सारे गुज़रे हादसे,
सब धुआँ हो जाएँगे एक वाक़िया रह जाएगा।

युं भी होगा वो मुझे दिल से भुला देगा मगर,
ये भी होगा ख़ुद से उसी में एक ख़ला रह जाएगा।

दायरे इंकार के इकरार की सरग़ोशियाँ,
ये अगर टूटे कभी तो फ़ासला रह जाएगा।



क्या आप जानते हैं...
कि चित्रा सिंह और जगजीत सिंह ने साथ मिलकर अपना पहला ऐल्बम सन् १९७६ में जारी किया था जिसका शीर्षक था 'दि अनफ़ॊरगेटेबलस'।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. एक बार फिर खय्याम साहब हैं सगीतकार, शायर बताएं - ३ अंक.
२. गायक बताएं - २ अंक.
३. वास्तविक जीवन में ये पति पत्नी है और ऑन स्क्रीन भी इस जोड़ी ने कमाल किया है, कौन दो स्टार है इस फिल्म के प्रमुख अभिनेता अभिनेत्री - १ अंक.
४. एतिहासिक पृष्ठभूमि पर बनी इस फिल्म के निर्देशक कौन हैं - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी और अवध जी दोनों ही चूक गए इस बार, बस एक गोस्त बस्टर जी हैं जिनका जवाब सही रहा.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पहले हिन्दी फिल्मी गीत को संगीतबद्ध कीजिए (एक सम्मानजनक मौका)



हिन्द-युग्म का सबसे लोकप्रिय स्तम्भ 'ओल्ड इज गोल्ड' अब अपने 456वें पायदान पर पाँव धर चुका है। हम इसकी सफलता से खुश तो हैं ही साथ ही गौरवान्वित भी हैं कि पुराने फिल्मी पर आधारित इस कार्यक्रम को श्रोताओं/पाठकों ने इतना सराहा।

एक-एक करके हम इसके 500वें अंक की तरफ भी पहुँच जायेंगे, तो आवाज़ टीम ने निश्चय किया कि क्यों न इस अंक को यादगार बनाया जाय। कुछ ऐसा किया जाय, जो अभी तक किसी ने नहीं किया। जी हाँ, हम कुछ ऐसा ही करने जा रहे हैं। आपलोगों में से बहुतों को तो पता ही होगा कि हिन्दी फिल्म इंडस्ट्री का पहला गीत नष्ट हो चुका है। जी हाँ, 'आलम आरा' फिल्म को पहली बोलती फिल्म और इसके गीत 'दे दे खुदा के नाम पे' को पहला हिन्दी फिल्मी गीत माना जाता है। अब न तो यह फिल्म कहीं मौज़ूद है और न ही इसके गीतों को संरक्षित करके रखा गया है।

तो हमने तय किया है कि 'ओल्ड इज गोल्ड' के 500वें संस्करण में इस गीत का संगीतबद्ध संस्करण हिन्द-युग्म ज़ारी करेगा। चूँकि इस गीत की रिकॉर्डिंग कहीं भी मौज़ूद नहीं है, इसलिए हम इस गीत एक ऑनलाइन प्रतियोगिता के माध्यम से संगीतबद्ध करवा रहे हैं। हमारी टीम द्वारा किये गये शोध के अनुसार इस गीत के बारे में तरह-तरह की बातें कहीं जाती हैं। कोई कहता है कि यह एक ग़ज़ल थी, जिसे फिल्म के ही कलाकार, जिनपर यह फिल्माया गया था, वज़ीर मोहम्मद ख़ान ने लिखी थी। कुछ कहते हैं कि इसमें एक ही शेर था। कोई कहता है कि यह पूरा गीत था। लेकिन हम इसके मुखड़े को ही खोज पाये।

इसलिए पहले हमने अपने कविता प्रभाग पर इस मुखड़े को बढ़ाने की प्रतियोगिता रखी और उसमें से 4 और लाइने चुनीं। अब इस गीत के बोलों की शक्ल कुछ इस तरह से हो गई है-

दे दे ख़ुदा के नाम पे प्यारे, ताक़त हो गर देने की,
चाहे अगर तो माँग ले मुझसे, हिम्मत हो गर लेने की

इत्र, परांदी और महावर, जिस्म सजा, पर बेमानी
दुलहन रुह को कब है ज़रुरत सजने और सँवरने की

चला फकीरा हंसता-हंसता, फिर जाने कब आएगा
जोड़-जोड़ कर रोने वाले, फुर्सत कर कुछ देने की

संगीतकारों/गायकों को क्या करना है-

1) उपर्युक्त गीत को संगीतबद्ध करके 10 सितम्बर 2010 तक podcast@hindyugm.com पर भेजें।
2) गीत के साथ अपना परिचय और चित्र भी भेजें।


पुरस्कारः

1) आवाज़ टीम सर्वश्रेष्ठ संगीतबद्ध गीत का निर्णय करेगी, जिसे 'ओल्ड इज़ गोल्ज़' के 500वें अंक में रीलिज किया जायेगा।
2) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि वाले गीत की टीम को हिन्द-युग्म के वार्षिकोत्सव (जो कि 25 दिसम्बर से 31 दिसम्बर 2010 के मध्य दिल्ली में आयोजित होगा) में सम्मानित किया जायेगा और रु 5000 का नगद इनाम भी दिया जायेगा।


नोट- उपर्युक्त गीत का प्रथम 2 पंक्तियाँ ज्ञात श्रोतों के आधार पर 'आलम आरा' फिल्म से हैं। तीसरी और चौथीं पंक्ति स्वप्निल तिवारी 'आतिश' की हैं और अंतिम 2 पंक्तियाँ निखिल आनंद गिरि की हैं। गीत को आगे बढ़ाने के लिए आयोजित की गई प्रतियोगिता में कुल 7 लोगों ने भाग लिया था (डॉ॰ अरुणा कपूर, शरद तैलंग, मोहन बिजेवर, स्वप्निल तिवारी, निखिल आनंद गिरि, संजय कुमार, आकर्षण कुमार गिरि)। हम सभी का धन्यवाद करते हैं।

Sunday, August 8, 2010

तुमको देखा तो ये ख्याल आया....कि इतनी सुरीली गज़ल पर क्यों न हम कुर्बान जाए



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 456/2010/156

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के एक नए सप्ताह के साथ हम हाज़िर हैं। इससे पहले कि हम आज की प्रस्तुति की शुरुआत करें, आपको हम यह याद दिलाना चाहेंगे कि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप अपने फ़रमाइश के गीत सुन सकते हैं अपने नाम के साथ। आपको बस इतना करना है कि अपने पसंद का गीत और अगर कोई याद उस गीत से जुड़ी हुई है तो उसे एक ई-मेल में लिख कर हमें oig@hindyugm.com के पते पर भेज दीजिए। साथ ही अगर आप कोई सुझाव देना चाहें तो भी इसी पते पर आप हमे लिख सकते हैं। हमें आपके ई-मेल का इंतेज़ार रहेगा। दोस्तों, इन दिनों आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आनंद ले रहे हैं ८० के दशक के कुछ चुनिंदा फ़िल्मी ग़ज़लों का लघु शृंखला 'सेहरा में रात फूलों की' के अंतर्गत। इस दौर के ग़ज़ल गायकों की जब बात चलती है तो जो एक नाम सब के ज़ुबान पर सब से पहले आता है, वो नाम है जगजीत सिंह का। युं तो मेहदी हसन और ग़ुलाम अली ग़ज़लों के बादशाह माने जाते हैं, लेकिन जगजीत सिंह की गायकी कुछ इस तरह से आयी कि छोटे, बड़े, जवान, बूढ़े, सभी को उन्होने अपनी ओर आकर्षित किया और आज भी वो सब से लोकप्रिय ग़ज़ल गायक बने हुए हैं। जगजीत सिंह ने ना केवल ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों की लड़ी लगा दी, बल्कि फ़िल्मों के लिए भी ग़ज़लों को थोड़े हल्के फुल्के अंदाज़ में पेश कर ख़ूब ख़ूब तारीफ़ें बटोरी। ऐसे में इस शृंखला में बेहद ज़रूरी हो जाता है कि उनकी गायी कोई फ़िल्मी ग़ज़ल आप तक पहुँचायी जाए। तो हमने फ़िल्म 'साथ साथ' की एक ग़ज़ल चुनी है, और इसे इसलिए चुना क्योंकि इस फ़िल्म के जो संगीतकार हैं उनका नाम भी ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों को कॊम्पोज़ करने के लिए काफ़ी जाना जाता है। कुलदीप सिंह। जी हाँ, फ़िल्म 'साथ साथ' में कुलदीप सिंह का संगीत था और इस फ़िल्म के जिस ग़ज़ल को हमने चुना है वह है "तुमको देखा तो ये ख़याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया"। दोस्तों, ग़ज़ल एक शायर के जज़्बाती दिल बयान करती है। और जगजीत सिंह का भी हमेशा यही मक़सद रहता है कि उनके गाए ग़ज़लों में जज़्बात पूरी तरह से बाहर निकल सामने आए। जगजीत सिंह का पहला एल.पी रेकॊर्ड सन् १९७६ में बना जो लोगों के दिलों में घर कर गई थी। एक ग़ज़ल गायक होने के साथ साथ वो एक संगीतकार भी हैं। उन्होने पाश्चात्य संगीत को शास्त्रीय संगीत के साथ ब्लेण्ड करके ग़ज़ल को ख़ास-ओ-आम बनाया है।

फ़िल्म 'साथ साथ' में गानें लिखे थे जावेद अख़्तर साहब ने। उनकी ही ज़ुबानी पढ़ते हैं इस ग़ज़ल के बनने की कहानी के रूप में - "तुमको देखा तो ये ख़याल आया, ज़िंदगी धूप तुम घना साया, कई दिनों से इस ग़ज़ल के लिए रमण साहब मेरे पीछे पड़े हुए थे, और मैं आज नहीं कल, कल नहीं परसों कर रहा था। एक रात, दो बजे, उन्होने मुझसे पूछा कि आज भी नहीं हुआ? मैंने कहा, लाओ क़ाग़ज़ कलम दो, और मैंने ८/९ मिनट में ग़ज़ल लिख दिया और लोगों को पसंद भी आया। फ़िल्म में वो पोएट का करेक्टर था जिस पर यह ग़ज़ल लिखना था, इसलिए मुझे काफ़ी लिबर्टी मिल गई। और रमण कुमार को भी ज़बान का सेन्स था, इससे मेरा काम आसान हो गया। जिनको ज़बान की अकल होती है, उनके साथ काम करना आसान हो जाता है।" दोस्तों, फ़िल्म 'साथ साथ' सन् १९८२ की फ़िल्म थी जो ४ मार्च को प्रदर्शित हुई थी। निर्देशक का नाम तो आप जावेद साहब से सुन ही चुके हैं; फ़िल्म का निर्माण किया था दिलीप धवन ने। डेविड धवन ने एडिटिंग् का पक्ष संभाला था। फ़िल्म की कहानी रमण साहब ने ही लिखी थी और मुख्य कलाकारों में शामिल थे राकेश बेदी, सुधा चोपड़ा, फ़ारुख़ शेख़, नीना गुप्ता, ए.के. हंगल, अवतार गिल, दीप्ती नवल, जावेद ख़ान, सतीश शाह, यूनुस परवेज़, गीता सिद्धार्थ, अंजन श्रीवास्तव प्रमुख। तो आइए सुना जाए यह कालजयी ग़ज़ल जिसके चार शेर इस तरह से हैं...

तुमको देखा तो ये ख़याल आया,
ज़िंदगी धूप तुम घना साया।

आज फिर दिल ने एक तमन्ना की,
आज फिर दिल को हमने समझाया।

तुम चले जाओगे तो सोचेंगे,
हमने क्या खोया हमने क्या पाया।

हम जिसे गुनगुना नहीं सकते,
वक़्त ने ऐसा गीत क्यों गाया।



क्या आप जानते हैं...
कि जगजीत सिंह को ग़ज़लों में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए भारत सरकार ने सन् २००३ में राष्ट्र के द्वितीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्मविभूषण से सम्मानित किया था।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. एक हादसे के बाद इन्होने गाना छोड़ दिया था, हम किस गायिका की बात कर रहे हैं जिन्होंने इस गज़ल को गाया है - २ अंक.
२. इस गमजदा गज़ल के शायर कौन हैं - ३ अंक.
३. महेश भट्ट निर्देशित इस फिल्म में किन दो अभिनेत्रियों की अहम भूमिकाएं थी - १ अंक.
४. संगीतकार कौन है इस गज़ल के - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
पवन जी एक बार फिर ३ अंक ले गए, प्रतिभा जी, इंदु जी और किश जी को भी बधाई.

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और एक बेहद दुर्लभ अ-प्रकाशित गीत फिल्म मुग़ल-ए-आज़म से (26)...हुस्न की बारात चली



ज़रा गौर कीजिये कि आप किसी काम को दिल से करें उसका पूरा मेहनताना तो मिले लेकिन उसका वो इस्तेमाल न किया जाए जिसके लिए आपने इतनी मेहनत की है. तो आपको कैसा लगेगा. शायद आपका जवाब भी वही होगा जो मेरा है कि बहुत बुरा लगेगा. संगीतकार ने दिन रात एक करके धुन बनाई, गीतकार के शब्दों के भण्डार में डूबकर उसपर बोल लिखे तो वही गायक या गायिका के उस पर मेहनत का न जाने कितने रीटेक के बाद रंग चढ़ाया मगर वो गीत श्रोताओं तक नहीं पहुँच पाया तो इस पर तीनों की ही मेहनत बेकार चली गयी क्योंकि एक फनकार को केवल वाह वाह चाहिए जो उसे नहीं मिली.

लेकिन ऐसे गीतों की कीमत कुछ ज्यादा ही हुआ करती है इस बात को संगीत प्रेमी अच्छी तरह से जानते है, अगर ये गीत हमें कहीं से मिल जाए तो हम तो सुनकर आनंद ही उठाते हैं. लेकिन इतना तो ज़रूर है की इन गीतों को सुनने के बाद आप ये अंदाजा लगा सकते हैं की अगर ये गीत फिल्म के साथ प्रदर्शित हो जाता तो शायद फिल्म की कामयाबी में चार चाँद लगा देता.

ये गीत कभी भी किसी भी मोड़ पर फिल्म से निकाल दिए जाते है जिसकी बहुत सारी वजह हो सकती हैं कभी फिल्म की लम्बाई तो कभी प्रोडूसर को पसंद न आना वगैरह वगैरह. वहीँ दूसरी तरफ कभी कभी ऐसा भी होता है दोस्तों की किसी गीत को संगीतकार अपने प्राइवेट बना लेते हैं और वो फिल्म में आ जाता है यहाँ तक के फिल्म की कहानी उस गीत के अनुरूप मोड़ दी जाती है, फिल्म इतिहास में ऐसे बहुत से गीत हैं जिन्होंने फिल्म की कहानी को एक नया मोड़ दे दिया. खैर इस बारे में कभी तफसील से चर्चा करूंगा एक पूरा अंक इसी विषय पर लेकर.

आप सोच रहे होंगे की ये बातें कब ख़त्म हों और गीत सुनने को मिले तो मैं ज्यादा देर नहीं करूँगा आपको गीत सुनवाने में. ये गीत जो मैं यहाँ लेकर आया हूँ फिल्म मुग़ल ऐ आज़म से है, इस फिल्म के बारे में हर जगह इतनी जानकारी है के मैं कुछ भी कहूँगा तो वो ऐसा लगेगा जैसे मैं बात को दोहरा रहा हूँ. लेकिन फिर भी यहाँ एक बात कहना चाहूँगा जो कुछ कम लोगों को ही पता है की बड़े गुलाम अली साब के इस फिल्म में दो रागों में अपनी आवाज़ दी थी, उस ज़माने में प्लेबैक सिंगिंग आ चुकी थी लेकिन बड़े गुलाम अली साब ने ये दोनों राग ऑनलाइन शूटिंग की दौरान ही गाये थे, बाद में इनकी रेकॉर्डिंग स्टूडियो में हुयी थी. उस ज़माने में बड़े गुलाम अली साब ने इन दो रागों के लिए ६० हज़ार रूपए लिए थे जो उस ज़माने में बहुत ज्यादा थे मगर के. आसिफ तो १ लाख सोचकर गए थे.

चलिए अब गीत की तरफ आते है इस गीत में आवाज़े हैं शमशाद बेगम, लता मंगेशकर और मुबारक बेगम की.
ये गीत फिल्म की कहानी के हिसाब से कहाँ पर फिल्माया जाना था इस का हम तो अंदाजा ही लगा सकते है. मेरे हिसाब से तो इस गीत का फिल्मांकन मधुबाला उर्फ़ अनारकली को दिलीप कुमार उर्फ़ शहजादा सलीम के लिए तैयार करते वक़्त होना चाहिए था. जहाँ अनारकली बनी मधुबाला शहजादा सलीम बने दिलीप कुमार को गुलाब के फूल में बेहोशी के दवा सुंघा देती हैं.

पेश है गीत-

Husn Kii Baarat Chali - Unreleased Song From Mughal-e-Azam



प्रस्तुति- मुवीन



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

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संडे स्पेशल

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