Saturday, August 21, 2010

ई मेल के बहाने यादों के खजाने (४), जब शरद तैलंग मिले रीटा गांगुली से



'ओल्ड इज़ गोल्ड' के साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने, यादों के ख़ज़ाने' में आप सभी का स्वागत है। हर हफ़्ते आप में से किसी ना किसी साथी की सुनहरी यादों से समृद्ध कर रहे हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के इस ख़ास ख़ज़ाने को। हमें बहुत से दोस्तों से ईमेल मिल रहे हैं और एक एक कर हम सभी को शामिल करते चले जा रहे हैं। जिनके ईमेल अभी तक शामिल नहीं हो पाए हैं, वो उदास ना हों, हम हर एक ईमेल को शामिल करेंगे, बस थोड़ा सा इंतेज़ार करें। और जिन दोस्तों ने अभी तक हमें ईमेल नहीं किया है, उनसे गुज़ारिश है कि अपने पसंद के गानें और उन गानों से जुड़ी हुई यादों को हिंदी या अंग्रेज़ी में हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर भेजें। अगर आप शायर या कवि हैं, तो अपनी स्वरचित कविताएँ और ग़ज़लें भी हमें भेज सकते हैं। किसी जगह पर घूमने गए हों कभी और कोई अविस्मरणीय अनुभव हुआ हो, वो भी हमें लिख सकते हैं। इस स्तंभ का दायरा विशाल है और आप को खुली छूट है कि आप किसी भी विषय पर अपना ईमेल हमें लिख सकते हैं। बहरहाल, आइए अब आज के ईमेल की तरफ़ बढ़ा जाए। शरद तैलंग का नाम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए कोई नया नाम नहीं है। शुरु से ही उन्होंने ना केवल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' से जुड़े रहे हैं, बल्कि इसमें सक्रीय हिस्सा भी लिया। वो ना केवल एक अच्छे गायक हैं, बल्कि हिंदी फ़िल्म संगीत के बहुत अच्छे जानकारों में से हैं। तभी तो 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के पहेली प्रतियोगिताओं में वो हर बार सब से आगे रहते हैं। बहुत ही कम ऐसे मौके हुए कि जब शरद जी ने दैनंदिन पहेली का हल ना कर सके हों। आज हम शरद जी की यादों में बसे एक मुलाक़ात से रु-ब-रु होंगे। मशहूर ग़ज़ल गुलुकारा बेग़म अख़्तर जी की शिष्या रीटा गांगुली से शरद जी की एक मुलाक़ात का क़िस्सा पढ़िए शरद जी के अपने शब्दों में।


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रीटा गांगुली से एक सार्थक मुलाकात

० शरद तैलंग

संगीत जगत में स्व. बेगम अख्तर की शिष्या रीटा गांगुली ने न केवल फ़िल्मों में गीत गाए बल्कि अपनी अदाकारी भी दिखाई है। कुछ वर्षों पूर्व वे एक दिन मेरे गाँव टीकमगढ़ जा पहुंचीं। उन्हें मालूम हुआ था कि टीकमगढ़ में एक बहुत ही बुजुर्ग महिला असगरी बाई रहतीं हैं जो ध्रुपद धमार तथा पुरानी गायिकी दादरा और टप्पा की बहुत ही कुशल गायिका हैं। राजाओं के ज़माने में असगरी बाई राज दरबार की प्रमुख गायिका थीं तथा हर शुभ अवसर पर महल में उनकी महफ़िल सजती थी किन्तु राजाओं के राज्य चले जाने के बाद असगरी बाई भी एक झोपडी में अपने दिन गुजार रहीं थी। मेरे बड़े भाई स्व विक्रम देव तैलंग उनके घर अक्सर मिलने जाया करते थे। रीटा गांगुली को भी वे उनसे मिलवाने ले गए। उनकी दयनीय हालत देख कर रीटा जी ने उन्हें अपने साथ दिल्ली चलने का प्रस्ताव उनके समक्ष रखा जिसे असगरी बाई ने स्वीकार कर लिया। दिल्ली में असगरी बाई को कुछ संगीत समारोहों में रीटा जी ने प्रस्तुत किया तथा मुख्य रूप से ध्रुपद गायकी के सम्मेलनों में। धीरे धीरे असगरी बाई का नाम पूरे देश में ध्रुपद गायिका के रूप में फैलने लगा। उस समय ध्रुपद गायन में महिला कलाकार गिनी चुनी थी, उनके अलावा जयपुर की मधु भट्ट का नाम ही लिया जा सकता है। फिर एक दिन सुना कि असगरी बाई को मध्यप्रदेश शासन के पुरस्कार के अलावा पद्मश्री सम्मान भी प्रदान किया गया है।

बात आई गई हो गई। कोटा में कुछ समय बाद ही स्व बेग़म अख्तर की याद में एक ग़ज़ल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया जिसमें मुख्य अतिथि के रूप में रीटा गांगुली जी कोटा पधारीं। चूंकि वो मेरे गाँव में मेरे घर जा चुकीं थीं इसलिए मेरे मन में उनसे मिलने की प्रबल इच्छा थी। मैं, जिस होटल में वे रुकीं थी, वहाँ पंहुच गया। वे उस समय एक किताब पढ़ रहीं थी, मुझे देखते ही उन्होंनें वो किताब एक तरफ़ रख दी। मैनें अपना परिचय दिया तथा असगरी बाई तथा मेरे गाँव में उनकी यात्रा का सन्दर्भ दिया। वे मुझसे मिलकर बहुत खुश हुईं। थोडी देर बातचीत के बाद उन्होनें मुझसे पूछा कि क्या आप भी कुछ गाने का शौक रखते हैं? मैनें जब उनको यह बताया कि हाँ स्टेज प्रोग्राम भी करता हूँ तथा आकाशवाणी जयपुर से सुगम संगीत भी प्रसारित होते हैं, उन्होनें फ़ौरन हारमोनियम मेरे आगे खिसका दिया और कहा कि कुछ सुनाइए। मैनें अपनी एक कम्पोज़ीशन दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल 'कहाँ तो तय था चिरागां हर एक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए" उनको सुनाई। बीच बीच में वे भी उस धुन में हल्के से एक दो ताने लगा दिया करतीं थीं। मेरा गाना सुनकर वे बोली- बहुत अच्छी कम्पोज़ीशन है, आजकल लोग दूसरों की कम्पोज़ीशन चुरा लेते है और अपनी कहकर महफ़िलों में सुनाया करते हैं, आप किसी अच्छे स्टूडियों में इनको रिकॊर्ड करा लीजिए मैं आपको मुम्बई के एक अच्छे स्टूडियों के नाम पत्र लिख कर देती हूँ वे मेरे अच्छे परिचित हैं। फ़िर थोड़ी देर बाद वे बोली कि अजीब संयोग है आपके आने से पहले मैं दुष्यन्त कुमार की यही ग़ज़ल पढ़ रही थी और जब वो किताब जो मेरे आने पर उन्होंने रख दी थी उसको पलट कर दिखाई तो इसी ग़ज़ल का पेज़ सामने खुला हुआ था। वे बोली आज मैं भी आपकी ये कम्पोज़ीशन चुरा रही हूँ लेकिन जिस महफ़िल में भी इसे सुनाऊंगी आपका नाम लेकर ही सुनाऊंगी। मैं भी शाम को महफ़िल में उनसे मिलने का वादा करके वहाँ से रुखसत हो गया ।


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वाह! वाक़ई हैरत की बात थी कि शरद जी ने जिस ग़ज़ल को गाकर सुनाया, रीटा जी वही ग़ज़ल उस वक़्त पढ़ रहीं थीं। इस सुंदर संस्मरण के बाद आइए अब शरद जी की फ़रमाइश पर एक फ़िल्मी ग़ज़ल सुना जाए। मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी हुई ग़ज़ल है और फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का ही है। जी हाँ, उसी १९५४ की फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' का है जिसमें संगीतकार ग़ुलाम मोहम्मद ने ग़ालिब की ग़ज़लों को बड़े ख़ूबसूरत तरीकों से स्वरबद्ध किया था। सुरैय्या और तलत महमूद की आवाज़ों में ये ग़ज़लें फ़िल्मी ग़ज़लों में ख़ास जगह रखती हैं। सुनते हैं इन दो महान आवाज़ों में "दिल-ए-नादान तुझे हुआ क्या है"। लेकिन उससे पहले सुरैय्या जी की यादों के ख़ज़ाने जो उन्होंने बाँटे विविध भारती पर ख़ास इसी फ़िल्म के बारे में - "ज़िंदगी में कुछ मौके ऐसे आते हैं जिन पे इंसान सदा नाज़ करता है। मेरी ज़िंदगी में भी एक ऐसा मौका आया था जब 'मिर्ज़ा ग़ालिब' को राष्ट्रपति पुरस्कार मिला, और उस फ़िल्म का एक ख़ास शो राष्ट्रपति भवन में हुआ था, जहाँ हमने पण्डित नेहरु जी के साथ बैठ कर यह फ़िल्म देखी थी। पण्डित नेहरु हर सीन में मेरी तारीफ़ करते और मैं फूली ना समाती।" और दोस्तों, फूले तो हम भी नहीं समाते ऐसे प्यारे प्यारे सदाबहार लाजवाब गीतों को सुन कर। पेश-ए-ख़िदमत है शरद तैलंग जी के अनुरोध पर 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की यह युगल ग़ज़ल।

गीत - दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है


तो ये था 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का ख़ास साप्ताहिक अंक 'ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ाने'। यह साप्ताहिक सिलसिला आपको कैसी लग रही है और इसे और भी बेहतर और आकर्षक कैसे बनाया जा सकता है, आप अपने विचार और सुझाव हमारे ईमेल पते oig@hindyugm.com पर लिख सकते हैं। तो आज के लिए बस इतना ही, अगले हफ़्ते किसी और साथी के ईमेल और उनकी यादों के साथ हम फिर हाज़िर होंगे, और 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के नियमीत अंक में आप से कल शाम फिर मुलाक़ात होगी, तब तक के लिए हमें दीजिए इजाज़त, लेकिन आप बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

प्रस्तुति: सुजॊय चटर्जी

कृश्न चन्दर - एक गधे की वापसी - अंतिम भाग (3/3)



सुनो कहानी: एक गधे की वापसी- कृश्न चन्दर - अंतिम भाग (3/3)

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने प्रीति सागर की आवाज़ में सुधा अरोड़ा की एक कथा अन्नपूर्णा मंडल की आखिरी चिट्ठी का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कृश्न चन्दर की कहानी "एक गधे की वापसी" का अंतिम भाग, जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने।

कहानी का कुल प्रसारण समय 7 मिनट 39 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।

एक गधे की वापसी के पिछले अंश पढने के लिये कृपया नीचे दिए लिंक्स पर क्लिक करें
एक गधे की वापसी - प्रथम भाग
एक गधे की वापसी - द्वितीय भाग

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



यह तो कोमलांगियों की मजबूरी है कि वे सदा सुन्दर गधों पर मुग्ध होती हैं
~ पद्म भूषण कृश्न चन्दर (1914-1977)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी

मैं महज़ एक गधा आवारा हूँ।
( "एक गधे की वापसी" से एक अंश)


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#Eighty Seventh Story, Ek Gadhe Ki Vapasi: Folklore/Hindi Audio Book/2010/31. Voice: Anurag Sharma

Friday, August 20, 2010

जब हुस्न-ए-इलाही बेपर्दा हुआ वी डी, ऋषि और नए गायक श्रीराम के रूबरू



Season 3 of new Music, Song # 17

सूफी गीतों का चलन इन दिनों इंडस्ट्री में काफी बढ़ गया है. लगभग हर फिल्म में एक सूफियाना गीत अवश्य होता है. ऐसे में हमारे संगीतकर्मी भी भला कैसे पीछे रह सकते हैं. सूफी संगीत की रूहानियत एक अलग ही किस्म का आनंद लेकर आती है श्रोताओं के लिए, खास तौर पे जब बात हुस्न-ए-इलाही की तो कहने ही क्या. जिगर मुरादाबादी के कलाम को विस्तार दिया है विश्व दीपक तन्हा ने. दोस्तों गुलज़ार साहब इंडस्ट्री में इस फन के माहिर समझे जाते हैं. ग़ालिब, मीर आदि उस्ताद शायरों के शेरों को मुखड़े की तरह इस्तेमाल कर आगे एक मुक्कमल गीत में ढाल देने का काम बेहद खूबसूरती से अंजाम देते रहे हैं वो. हम ये दावे के साथ कह सकते हैं इस बार हमारे गीतकार उनसे इक्कीस नहीं तो उन्नीस भी नहीं हैं यहाँ. ऋषि ने पारंपरिक वाद्यों का इस्तेमाल कर सुर रचे हैं तो गर्व के साथ हम लाये हैं एक नए गायक श्रीराम को आपके सामने जो दक्षिण भारतीय होते हुए भी उर्दू के शब्दों को बेहद उ्म्दा अंदाज़ में निभाने का मुश्किल काम कर गए हैं इस गीत में. साथ में हैं श्रीविद्या, जो इससे पहले "आवारगी का रक्स" गा चुकी हैं हमारे लिए. तो एक बार सूफियाना रंग में रंग जाईये, और डूब जाईये इस ताज़ा गीत के नशे में.

गीत के बोल -


इश्क़.. इश्क़
मौला का करम
इश्क़... इश्क़
आशिक का धरम

हम कहीं जाने वाले हैं दामन-ए-इश्क़ छोड़कर,
ज़ीस्त तेरे हुज़ूर में, मौत तेरे दयार में.....

हबीब-ए-हुस्न-ए-इलाही
हबीब-ए-हुस्न-ए-इलाही

हम ने जिगर की
बातें सुनी हैं
मीलों आँखें रखके
रातें सुनी हैं
एक हीं जिकर है
सब की जुबां पे
साँसें सारी जड़ दे
शाहे-खुबां पे

सालों ढूँढा खुद में जो रेहां
हमने पाया तुझमें वो निहां..

खुल्द पूरा हीं वार दें, हम तो तेरे क़रार पे....

हबीब-ए-हुस्न-ए-इलाही...
हबीब-ए-हुस्न-ए-इलाही...

मोहब्बत काबा-काशी
मोहब्बत कासा-कलगी
मोहब्बत सूफ़ी- साकी,
मोहब्बत हर्फ़े-हस्ती..

एक तेरे इश्क़ में डूबकर हमें मौत की कमी न थी,
पर जी गए तुझे देखकर, हमें ज़िंदगी अच्छी लगी।



मेकिंग ऑफ़ "हुस्न-ए-इलाही" - गीत की टीम द्वारा

श्रीराम: मैं सूफ़ी गानों का हमेशा से हीं प्रशंसक रहा हूँ, इसलिए जब ऋषि ने मुझसे यह पूछा कि क्या मैं "हुस्न-ए-इलाही" गाना चाहूँगा, तो मैंने बिना कुछ सोचे फटाफट हाँ कह दिया। इस गाने की धुन और बोल इतने खूबसूरत हैं कि पहली मर्तबा सुनने पर हीं मैं इसका आदी हो चुका था। गाने की धुन साधारण लग सकती है, लेकिन गायक के लिए इसमें भी कई सारे रोचक चैलेंजेज थे/हैं। ऋषि चाहते थे कि कि "सालों ढूँढा खुद में जो रेहां" पंक्ति को एक हीं साँस में गाया जाए। अब चूँकि यह पंक्ति बड़ी हीं खूबसूरत है तो मुझे हर लफ़्ज़ में जरूरी इमोशन्स और एक्सप्रेसन्स भी डालने थे और बिना साँस तोड़े हुए (जो कि असल में टूटी भी) यह करना लगभग नामुमकिन था। मैं उम्मीद करता हूँ कि मैंने इस पंक्ति के साथ पूरा न्याय किया होगा। इस गाने में कुछ शब्द ऐसे भी हैं, जिन्हें पूरे जोश में गाया जाना था और साथ हीं साथ गाने की स्मूथनेस भी बरकरार रखनी थी, इसलिए आवाज़ के ऊपर पूरा नियंत्रण रखना जरूरी हो गया था। विशेषकर गाने की पहली पंक्ति, जो हाई-पिच पर है.. इसे ऋषि ने गाने में तब जोड़ा जब पूरे गाने की रिकार्डिंग हो चुकी थी। चूँकि यह मेरा पहला ओरिजिनल है, इसलिए मेरी पूरी कोशिश थी कि यह गाना वैसा हीं बनकर निकले, जैसा ऋषि चाहते थे। मैं यह कहना चाहूँगा कि इसे गाने का मेरा अनुभव शानदार रहा। साथ हीं मैं श्रीविद्या की तारीफ़ करना चाहूँगा। उनकी मधुर मेलोडियस आवाज़ ने इस गाने में चार चाँद लगा दिए हैं। और अंत में मैं ऋषि और विश्व दीपक को इस खूबसूरत गाने के लिए बधाई देना चाहूँगा।

श्रीविद्या:मेर हिसाब से हर गीत कुछ न कुछ आपको सिखा जाता है. इस गीत में मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया इसकी धुन ने जो सूफी अंदाज़ की गायिकी मांगती है. हालाँकि मेरा रोल गीत में बेहद कम है पर फिर भी मैं खुश हूँ कि मैं इस गीत का हिस्सा हूँ. ये ऋषि के साथ मेरा दूसरा प्रोजेक्ट है और मुझे ख़ुशी है विश्व दीपक और श्रीराम जैसे पतिभाशाली कलाकारों के साथ ऋषि ने मुझे इस गीत के माध्यम से काम करने का मौका दिया

ऋषि एस: "हुस्न-ए-इलाही" गाने का मुखड़ा "जिगर मुरादाबादी" का है.. मेरे हिसाब से मुखड़ा जितना खूबसूरत है, उतनी हीं खूबसूरती से वी डी जी ने इसके आस-पास शब्द डाले हैं और अंतरा लिखा है। आजकल की तकनीकी ध्वनियों (टेक्नो साउंड्स) के बीच मुझे लगा कि एक पारंपरिक तबला, ढोलक , डफ़्फ़ वाला गाना होना चाहिए, और यही ख्याल में रखकर मैंने इस गाने को संगीतबद्ध किया है। मुंबई के श्रीराम का यह पहला ओरिज़िनल गाना है। उन्होंने इस गाने के लिए काफ़ी मेहनत की है और अपने धैर्य का भी परिचय दिया है। मैंने उनसे इस गाने के कई सारे ड्राफ़्ट्स करवाए, लेकिन वे कभी भी मजबूरी बताकर पीछे नहीं हटे। उनकी यह मेहनत इस गाने में खुलकर झलकती है। आउटपुट कैसा रहा, यह तो आप गाना सुनकर हीं जान पाएँगें। इस गाने में फीमेल लाइन्स बहुत हीं कम हैं, फिर भी श्रीविद्या जी ने अपनी आवाज़ देकर गाने की खूबसूरती बढा दी है। इस गाने को साकार करने के लिए मैं पूरी टीम का तह-ए-दिल से आभारी हूँ।

विश्व दीपक: आवाज़ पर महफ़िल-ए-ग़ज़ल लिखते-लिखते न जाने मैंने कितना कुछ जाना, कितना कुछ सीखा और कितना कुछ पाया.. यह गाना भी उसी महफ़िल-ए-ग़ज़ल की देन है। जिगर मुरादाबादी पर महफ़िल सजाने के लिए मैंने उनकी कितनी ग़ज़लें खंगाल डाली थी, उसी दौरान एक शेर पर मेरी नज़र गई। शेर अच्छा लगा तो मैंने उसे अपना स्टेटस मैसेज बना लिया। अब इत्तेफ़ाक देखिए कि उस शेर पर ऋषि जी की नज़र गई और उन्होंने उस शेर को मेरा शेर समझकर एक गाने का मुखरा गढ डाला। आगे की कहानी यह सूफ़ियाना नज़्म है| जहाँ तक इस नज़्म में गायिकी की बात है, तो पहले हम इसे पुरूष एकल (मेल सिंगल) हीं बनाना चाहते थे, लेकिन हमें सही मेल सिंगर मिल नहीं रहा था। हमने यह गाना श्रीराम से पहले और दो लोगों को दिया था। एक ने पूरा रिकार्ड कर भेज भी दिया, लेकिन हमें उसकी गायिकी में कुछ कमी-सी लगी। तब तक हमारा काफ़ी समय जा चुका था। ऋषि इस गाने को जल्द हीं रिकार्ड करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने मुझसे पूछा कि हमारे पास फीमेल सिंगर्स हैं, क्या हम इसे फीमेल सॉंग बना सकते हैं। मुझे कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन ऋषि को हीं लगा कि गाने का मूड और गाने का थीम मेल सिंगर को ज्यादा सूट करता है। इस मुद्दे पर सोच-विचार करने के बाद आखिरकार हमने इसे दो-गाना (डुएट) बनाने का निर्णय लिया। श्रीविद्या ने अपनी रिकार्डिंग हमें लगभग एक महीने पहले हीं भेज दी थी। उनकी मीठी आवाज़ में आलाप और "इश्क़ इश्क़" सुनकर हमें अपना गाना सफल होता दिखने लगा। लेकिन गाना तभी पूरा हो सकता था, जब हमें एक सही मेल सिंगर मिल जाता। इस मामले में मैं कुहू जी का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा, जिन्होंने ऋषि को श्रीराम का नाम सुझाया। श्रीराम की आवाज़ में यह गाना सुन लेने के बाद हमें यह पक्का यकीन हो चला था कि गाना लोगों को पसंद आएगा। मुज़िबु पर इस गाने को लोगों ने हाथों-हाथ लिया है, आशा करता हूँ कि हमारे आवाज़ के श्रोता भी इसे उतना हीं प्यार देंगे।

श्रीराम ऐमनी
मुम्बई में जन्मे और पले-बढे श्रीराम गायन के क्षेत्र में महज़ ७ साल की उम्र से सक्रिय हैं। ये लगभग एक दशक से कर्नाटक संगीत की शिक्षा ले रहे हैं। आई०आई०टी० बम्बे से स्नातक करने के बाद इन्होंने कुछ दिनों तक एक मैनेजमेंट कंसल्टिंग कंपनी में काम किया और आज-कल नेशनल सेंटर फॉर द परफ़ोर्मिंग आर्ट्स (एन०सी०पी०ए०) में बिज़नेस डेवलपेंट मैनेज़र के तौर पर कार्यरत हैं। श्रीराम ने अपने स्कूल और आई०आई०टी० बम्बे के दिनों में कई सारे स्टेज़ परफोरमेंश दिए थे और कई सारे पुरस्कार भी जीते थे। ये आई०आई०टी० के दो सबसे बड़े म्युज़िकल नाईट्स "सुरबहार" और "स्वर संध्या" के लीड सिंगर रह चुके हैं। श्रीराम हर ज़ौनर का गाना गाना पसंद करते हैं, फिर चाहे वो शास्त्रीय रागों पर आधारित गाना हो या फिर कोई तड़कता-फड़कता बालीवुड नंबर। इनका मानना है कि कर्नाटक संगीत में ली जा रही शिक्षा के कारण हीं इनकी गायकी को आधार प्राप्त हुआ है। ये हर गायक के लिए शास्त्रीय शिक्षा जरूरी मानते हैं। हिन्द-युग्म (आवाज़) पर यह इनका पहला गाना है।

श्रीविद्या कस्तूरी
कर्णाटक संगीत की शिक्षा बचपन में ले चुकी विद्या को पुराने हिंदी फ़िल्मी गीतों का खास शौक है, ये भी मुजीबु पे सक्रिय सदस्या हैं. ये इनका दूसरा मूल हिंदी गीत है। हिन्द-युग्म पर इनकी दस्तक सजीव सारथी के लिखे और ऋषि द्वारा संगीतबद्ध गीत "आवारगी का रक्स" के साथ हुई थी।

ऋषि एस
ऋषि एस॰ ने हिन्द-युग्म पर इंटरनेट की जुगलबंदी से संगीतबद्ध गीतों के निर्माण की नींव डाली है। पेशे से इंजीनियर ऋषि ने सजीव सारथी के बोलों (सुबह की ताज़गी) को अक्टूबर 2007 में संगीतबद्ध किया जो हिन्द-युग्म का पहला संगीतबद्ध गीत बना। हिन्द-युग्म के पहले एल्बम 'पहला सुर' में ऋषि के 3 गीत संकलित थे। ऋषि ने हिन्द-युग्म के दूसरे संगीतबद्ध सत्र में भी 5 गीतों में संगीत दिया। हिन्द-युग्म के थीम-गीत को भी संगीतबद्ध करने का श्रेय ऋषि एस॰ को जाता है। इसके अतिरिक्त ऋषि ने भारत-रूस मित्रता गीत 'द्रुजबा' को संगीत किया। मातृ दिवस के उपलक्ष्य में भी एक गीत का निर्माण किया। भारतीय फिल्म संगीत को कुछ नया देने का इरादा रखते हैं।

विश्व दीपक 'तन्हा'
विश्व दीपक हिन्द-युग्म की शुरूआत से ही हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। आई आई टी, खड़गपुर से कम्प्यूटर साइंस में बी॰टेक॰ विश्व दीपक इन दिनों पुणे स्थित एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में बतौर सॉफ्टवेयर इंजीनियर अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। अपनी विशेष कहन शैली के लिए हिन्द-युग्म के कविताप्रेमियों के बीच लोकप्रिय विश्व दीपक आवाज़ का चर्चित स्तम्भ 'महफिल-ए-ग़ज़ल' के स्तम्भकार हैं। विश्व दीपक ने दूसरे संगीतबद्ध सत्र में दो गीतों की रचना की। इसके अलावा दुनिया भर की माँओं के लिए एक गीत को लिखा जो काफी पसंद किया गया।

Song - Husn-E-Ilaahi
Voice - Sriraam and Srividya
Music - Rishi S
Lyrics - Vishwa Deepak
Graphics - Prashen's media


Song # 16, Season # 03, All rights reserved with the artists and Hind Yugm

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Thursday, August 19, 2010

राह में रहते हैं, यादों में बसर करते हैं.....मुसाफिर गुलज़ार के यायावर दिल की बयानी है ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 465/2010/165

"मुसाफ़िर हूँ यारों, ना घर है ना ठिकाना, मुझे चलते जाना है, बस चलते जाना"। दोस्तों, गुलज़ार साहब के इसी गीत के बोलों को लेकर हमने इस शृंखला का नाम रखा है 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। अब देखिए ना, कुछ कुछ इसी भाव से मिलता जुलता गुलज़ार साहब ने एक और गीत भी तो लिखा था फ़िल्म 'नमकीन' में! याद आया? "राह पे रहते है, यादों पे बसर करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन, हम तो सफ़र करते हैं"। किसी ट्रक ड्राइवर के किरदार के लिए इस गीत से बेहतर गीत शायद उसके बाद फिर कभी नहीं बन पाया है। किशोर कुमार की आवाज़ में राहुल देव बर्मन के संगीत से सँवरे इस गीत को आज हम पेश कर रहे हैं। 'नमकीन' गुलज़ार साहब के फ़िल्मी करीयर की एक बेहद महत्वपूर्ण फ़िल्म रही। यह १९८२ की फ़िल्म थी जिसका निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने ही किया था। शर्मिला टैगोर, संजीव कुमार, वहीदा रहमान, शबाना आज़मी और किरण वैराले फ़िल्म के मुख्य किरदार निभाये। यह समरेश बासु की कहानी पर बनी फ़िल्म थी जिनकी कहानी पर गुलज़ार साहब ने उससे पहले १९७७ में फ़िल्म 'किताब' का निर्माण किया था। 'नमकीन' गुलज़ार साहब की उन सेन्सिटिव फ़िल्मों में से एक है जो हमारे समाज की कुछ ना कुछ अनछुये पहलु पर वार करती है जिन पहलुओं पर आम तौर पर किसी दूसरे फ़िल्मकारों की नज़र ना पड़ी हो। आप में से बहुतों ने यह फ़िल्म देखी होगी। और अगर नहीं देखी है तो हम आपको इसकी कहानी संक्षिप्त में बताना चाहेंगे क्योंकि यह आम फ़िल्मी कहानी से बिलकुल अलग है। तीन कुंवारी लड़कियाँ अपनी बूढ़ी माँ के साथ हिमाचल प्रदेश के किसी सुदूर गाँव में रहती हैं। जुगनी (वहीदा रहमान) जो किसी ज़माने में नौटंकी में नाच गानें किया करती थीं, अब मसाले बेच कर और अपने घर में किरायेदार रख कर अपना और अपनी तीन बेटियों का गुज़ारा करती है। बेटियों में सब से बड़ी है निमकी (शर्मिला टैगोर), उसके बाद है मिट्ठु (शबाना आज़मी) जो गूंगी है, और सबसे छोटी वाली का नाम है चिंकी (किरण वैराले)। जुगनी का पति धनिराम (टी.पी. जैन) एक सारंगीवादक है जो शराब के नशे में धुत रहता है, और बीच बीच में आकर अपनी बेटियों को अपने साथ ले जाकर नौटंकियों में नचवाने की कोशिश करता रहता है, लेकिन जुगनी ऐसा होने नहीं देती। एक बार गेरुलाल (संजीव कुमार), जो एक ट्रक ड्राइवर है, जुगनी के घर में किरायेदार बन कर आता है। वहाँ रहते रहते उसे उन चारों की ज़िंदगियों की कठिनाइयों का अंदाज़ा होने लगता है और उनसे हमदर्दी भी बढ़ने लगती है। वो निमकी को पसंद भी करने लगता है। लेकिन दूसरी तरफ़ मिट्ठु भी गेरुलाल को मन ही मन चाहने लगती है। एक ट्रक ड्राइवर होने की वजह से एक दिन गेरुलाल को वहाँ से जाना पड़ता है। जाने से पहले वो अपने दिल की बात निमकी से कह देता है और उससे शादी करने की भी बात कहता है। लेकिन अपनी बूढ़ी माँ और दो बहनों की जिम्मेदारी को नज़रंदाज़ कर अपना घर बसाने के बारे में वो भला कैसे सोचती! इसलिए वो गेरुलाल को मना कर देती है, और उसे मिट्ठु से शादी कर लेने को कहती है। लेकिन गेरुलाल को यह गवारा नहीं होता और वो चल देता है। उसके जाते ही उस परिवार की ज़िंदगियों में भी कई बदलाव आ जाते हैं। मिट्ठु, जो पहले से ही गूंगी थी, अब गेरुलाल के चले जाने से अपना मानसिक संतुलन खो बैठती है और आत्महत्या कर लेती है। जुगनी इस सदमे को बरदाश्त नहीं कर पाती तो और वो भी चल बसती है। इस बात का फ़ायदा उठाकर धनिराम चिंकी को अपने साथ ज़बरदस्ती ले जाता है शहर। अब निमकी अकेली रह जाती है घर में। बरसों बाद गेरुलाल एक नौटंकी देखने जाता है और वहाँ पर चिंकी को नाचते हुए देख कर हैरान रह जाता है। उसे उस परिवार पर आई तूफ़ान का पता चल जाता है और वो तुरंत निमकी के घर जाता है जहाँ वो अकेली रह रही होती है। और आख़िरकार वो उसे अपने साथ ले जाता है। यही है 'नमकीन' की कहानी।

इस फ़िल्म को बहुत सराहना मिली थी और कई सारे पुरस्कार भी जीते इस फ़िल्म ने उस साल, जो इस प्रकार हैं - राष्ट्रीय पुरस्कार: सर्वश्रेष्ठ ध्वनि (एसाभाई एम. सूरतवाला); फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार: सर्वश्रेष्ठ कहानी (समरेश बासु), सर्वर्श्रेष्ठ कला निर्देशन (अजीत बनर्जी), सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (वहीदा रहमान - नामांकन), सर्वश्रेष्ठ सह-अभिनेत्री (किरं वैराले - नामांकन)। सह-अभिनेत्री का पुरस्कार उस साल सुप्रिया पाठक ले गए थे फ़िल्म 'बाज़ार' के लिए। जहाँ तक फ़िल्म के गीत संगीत के पक्ष का सवाल है, किशोर कुमार के गाए इस गीत के अलावा, आशा भोसले और साथियों की आवाज़ों में उन तीनों बहनों की मसाले कूटते हुए "आँकी चली बाँकी चली, चौरंगी में झाँकी चली" गीत हमें सचमुच हिमाचल के किसी सुदूर गाँव में लिए जाता है। शबाना आज़मी पर फ़िल्माया गया "फिर से अय्यो बदरा बिदेसी, अब के पंख में मोती जड़ूँगी" भी एक बेहद सुंदर गीत है। आशा जी की ही आवाज़ में "बड़ी देर से मेघा बरसा हो रामा" भी लोकप्रिय हुआ था। लेकिन अल्का याज्ञ्निक का गाया और किरण वैराले पर फ़िल्माया नौटंकी गीत "ऐसा लगा कोई सुरमा नजर मा" लोकप्रिय नहीं हुआ। तो आइए आज किशोर दा का गाया गीत सुनते हैं जो आज भी ट्रक ड्राइवरों का ऐंथेम सॊंग्‍ बना हुआ है। आपको बता दें कि यह जो पंक्ति है "ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं", यह दरअसल गुलज़ार साहब का लिखा हुआ नहीं है, बल्कि इसे लिखा था राम प्रसाद बिसमिल ने जो एक क्रांतिकारी कवि थे और शहीद भगत सिंह के साथी भी। उनका लिखा हुआ एक देश भक्ति गीत १९७५ की फ़िल्म 'आंदोलन' में भूपेन्द्र ने गाया था जिसका शुरुआती शेर था "दर-ओ-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं, ख़ुश रहो अहले वतन हम तो सफ़र करते हैं", जो इस देश पर मर मिटने वाले शहीदों को समर्पित है। इसी का इस्तेमाल गुलज़ार साहब ने फ़िल्म 'नमकीन' के इस गीत में किया था। और अब आपको यह बताते हुए कि परसों शनिवार 'ओल्ड इज़ गोल्ड - ईमेल के बहाने यादों के ख़ज़ानें' में ज़रूर पधारिएगा, अब हम आप से इजाज़त ले रहे हैं, नमस्कार!



क्या आप जानते हैं...
कि फ़िल्म 'नमकीन' को १९८२ में दूरदर्शन पर रिलीज़ करना पड़ा था क्योंकि इसे कोई डिस्ट्रिब्युटर ख़रीदने को तैयार नहीं हुआ। फ़िल्म का डी.वी.डी वर्ज़न १९९८ में जारी किया गया और जिसका क्लाइमैक्स मूल फ़िल्म से अलग था। मूल फ़िल्म के अंत में गेरुलाल वापस आकर करीब करीब ख़ाली घर देखता है। डी.वी.डी वर्ज़न में इस अंश को हटा दिया गया।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फिल्म के संवाद और गीत गुलज़ार साहब ने लिखे थे, निर्देशक कौन थे - २ अंक.
२. इस दार्शनिक गीत को किस गायक ने गाया है - २ अंक.
३. मुखड़े में शब्द है -"बंधू", संगीतकार बताएं - ३ अंक.
४. किस अभिनेता पर फिल्माया गया है ये गीत - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर कनाडा टीम जम कर खेली, मगर ३ अंक शरद जी के खाते में आये जो अब ९० के आंकडे को छू चुके हैं, बधाई सबको

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Wednesday, August 18, 2010

जब भी ये दिल उदास होता है....जब ओल्ड इस गोल्ड के माध्यम से गायिका शारदा ने शुभकामनाएँ दी गुलज़ार साहब को



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 464/2010/164

ज १८ अगस्त है। गुलज़ार साहब को हम अपनी तरफ़ से, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की तरफ़ से, आवाज़' परिवार की तरफ़ से, और 'हिंद युग्म' के सभी चाहनेवालों की तरफ़ से जनमदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ देते हैं, और ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि उन्हें दीर्घायु करें, उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करें, और वो इसी तरह से शब्दों के, गीतों के, ग़ज़लों के ताने बाने बुनते रहें और फ़िल्म जगत के ख़ज़ाने को समृद्ध करते रहें। आज उनके जनमदिन पर 'मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला में हम जिस गीत को चुन लाए हैं वह है फ़िल्म 'सीमा' का। मोहम्मद रफ़ी और शारदा की आवाज़ों में यह गीत है "जब भी ये दिल उदास होता है, जाने कौन आसपास होता है"। वैसे रफ़ी साहब की ही आवाज़ है पूरे गीत में, शारदा की आवाज़ आलापों में सुनाई पड़ती है। यह सन् १९७१ में निर्मित 'सीमा' है जिसका निर्माण सोहनलाल कनवर ने किया था और जिसे सुरेन्द्र मोहन ने निर्देशित किया था। राकेश रोशन, कबीर बेदी, सिमी गरेवाल, पद्मा खन्ना, चाँद उस्मानी, और अभि भट्टाचार्य अभिनीत इस फ़िल्म का संगीत निर्देशन शंकर जयकिशन ने किया था। फ़िल्म तो फ़्लॊप रही, लेकिन इस फ़िल्म का यह गीत आज भी सदाबहार गीतों में शामिल किया जाता है। विविध भारती के 'बायस्कोप की बातें' कार्यक्रम में लोकेन्द्र शर्मा ने एक बार इस फ़िल्म की बातें बताते हुए कहा था कि जयकिशन चाहते थे कि यह गीत लता जी गाएँ, लेकिन शंकर जिन्होंने इस गीत की धुन बनाई थी, वो उन दिनों शारदा को प्रोमोट कर रहे थे, इसलिए उन्होंने शारदा का ही नाम फ़ाइनल कर लिया। इससे शंकर और जयकिशन के बीच थोड़ा सा मनमुटाव हो गया था, और कहा जाता है कि लता जी भी थोड़ी नाराज़ हो गई थीं शंकर पर। दोस्तों, इन सब बातों की मैं पुष्टि तो नहीं कर सकता, लेकिन क्योंकि ये सब विविध भारती पर आया था, इसलिए मान लेते हैं कि ये सच ही होंगे।

दोस्तों, शारदा जी इन्टरनेट पर सक्रीय हैं, और इसी बात का फ़ायदा उठाते हुए हमने उनसे ईमेल द्वारा सम्पर्क किया और उनसे इस गीत से जुड़ी हुई उनकी यादें जाननी चाही। ईमेल के जवाब में उन्होंने जो कुछ लिखा था, उसका हिंदी अनुवाद ये रहा - "शुक्रिया सुजॊय जी! जब भी ये दिल उदास होता है गीत को याद करना ही एक बेहद सुखद अनुभव होता है। यह गीत जब बना था उस समय को याद करते हुए बहुत रोमांच हो आता है। मेरे लिए तो एक सपना जैसा था कि रफ़ी साहब मेरे बगल में खड़े होकर मेरे साथ गा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि गुलज़ार साहब ने असंख्य गीत लिखे हैं एक से बढ़कर एक, लेकिन यह गीत भीड़ में अलग नज़र आता है। इस गीत का कॊनसेप्ट और बोल, दोनों ही यूनिक हैं। गुलज़ार साहब को उनके जनमदिन पर मेरी ओर से बहुत बहुत शुभकामनाएँ और आशा करती हूँ कि वो इसी तरह से आगे भी हमें बहुत सारे सुंदर गानें देते रहेंगे"। आशा है शारदा जी की ये बातें गुलज़ार साहब तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के माध्यम से पहुँच गई होंगी। दोस्तों, यह पहला मौका था कि जब 'ओल्ड इज़ गोल्ड' ने किसी कलाकार से सीधे सम्पर्क स्थापित कर उनके विचारों को आलेख का हिस्सा बनाया, जिसे हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' का एक और नया क़दम ही कहेंगे। हम कोशिश करेंगे कि आगे भी कई और कलाकारों के उद्‍गार हम इसी तरह आप तक पहुँचा पाएँगे। आइए अब हम सब मिलकर सुनते हैं फ़िल्म 'सीमा' का यह गीत, और गुलज़ार साहब को एक बार फिर से सालगिरह की ढेरों शुभकामनाएँ!



क्या आप जानते हैं...
कि गुलज़ार साहब ने टीवी धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' और 'किरदार' का निर्देशन किया, तथा 'दि जंगल बूक', ''एक कहानी और मिली', 'पोटली बाबा की', 'गुच्छे', 'दाबे अनार के' और 'ऐलिस इन वंडरलैण्ड' जैसे धारावाहिकों के शीर्षक गीत भी लिखे।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. फिल्म में नायक एक ट्रक चालक की भूमिका में हैं, किसने निभाया है इस किरदार को - २ अंक.
२. इस फिल्म का निर्देशन भी गुलज़ार साहब ने किया था, किनकी कहानी पर अधर्तित थी ये फिल्म - ३ अंक.
३. इसी कहानीकार की एक और कहानी पर गुलज़ार फिल्म बना चुके थे, कौन सी थी वो फिल्म - २ अंक.
४. किस गायक की मधुर आवाज़ है इस गीत में - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी सेहत का ध्यान रखिये आपको हम सब ने मिस किया, कनेडा वाले किशोर जी, प्रतिभा जी और नवीन जी तैयार मिले जवाबों के साथ. मनु जी और इंदु जी का आना भी सुखद लगा...

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले.. ज़िंदगी और मौत के बीच उलझे ज़ौक़ को साथ मिला बेग़म और सहगल का



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९७

नाज़ है गुल को नज़ाक़त पै चमन में ऐ ‘ज़ौक़’,
इसने देखे ही नहीं नाज़-ओ-नज़ाक़त वाले

इस तपिश का है मज़ा दिल ही को हासिल होता
काश, मैं इश्क़ में सर-ता-ब-क़दम दिल होता

यूँ तो इश्क़ और शायर/शायरी में चोली-दामन का साथ होता है, लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो इश्क़ को बखूबी समझते हैं और हर शेर लिखने से पहले स्याही को इश्क़ में डुबोते चलते हैं। ऐसे शायरों का लिखा पढने में दिल को जो सुकूं मिलता है, वह लफ़्ज़ों में बयां नहीं किया जा सकता। ज़ौक़ वैसे हीं एक शायर थे। जितनी आसानी ने उन्होंने "सर-ता-ब-कदम" दिल होने की बात कही है या फिर यह कहा है कि गुलशन के फूलों को जो अपनी नज़ाकत पे नाज़ है, उन्हें यह मालूम नहीं कि यह नाज़-ओ-नज़ाकत उनसे बढकर भी कहीं और मौजूद है .. ये सारे बिंब पढने में बड़े हीं आम मालूम होते हैं ,लेकिन लिखने वाले को हीं पता होता है कि कुछ आम लिखना कितना खास होता है। मैंने ज़ौक़ की बहुत सारी ग़ज़लें पढी हैं.. उनकी हर ग़ज़ल और ग़ज़ल का हर शेर इस बात की गवाही देता है कि यह शायर यकीनन कुछ खास रहा है। फिर भी न जाने क्यों, हमने इन्हें भुला दिया है या फिर हम इन्हें भुलाए जा रहे हैं। इस गु़स्ताखी या कहिए इस गलती की एक हीं वज़ह है और वह है ग़ालिब की हद से बढकर भक्ति। अब होता है ये है कि जो भी सुखनसाज़ या सुखन की कद्र करने वाला ग़ालिब को अपना गुरू मानने लगता है, उसके लिए यक-ब-यक ज़ौक़ दुश्मन हो जाते हैं। उन लोगों को यह लगने लगता है कि ज़ौक़ की हीं वज़ह से ग़ालिब को इतने दु:ख सहने पड़े थे, इसलिए ज़ौक़ निहायत हीं घटिया इंसान थे। इस सोच का जहन में आना होता है कि वे सब ज़ौक़ की शायरी से तौबा करने लगते हैं। मुझे ऐसी सोच वाले इंसानों पे तरस आता है। शायर को उसकी शायरी से मापिए, ना कि उसके पद या ओहदे से। ज़ौक़ ज़फ़र के उस्ताद थे और उनके दरबार में रहा करते थे.. अगर दरबार में रहना गलत है तो फिर ग़ालिब ने भी तो दरबार में रहने के लिए हाथ-पाँव मारे थे। तब तो उन्हें भी बुरा कहा जाना चाहिए, पथभ्रष्ट कहा जाना चाहिए। सिर्फ़ ग़ालिब और ज़ौक़ के समकालीन होने के कारण ज़ौक़ से नाक-भौं सिकोड़ना तो सही नहीं। मुझे मालूम है कि हममें से भी कई या तो ज़ौक़ को जानते हीं नहीं होंगे या फिर जानकर भी अनजान रहना हीं पसंद करते होंगे। अपने वैसे मित्रों के लिए मैं "प्रकाश पंडित" जी के खजाने से "ज़ौक़" से ताल्लुक रखने वाले कुछ मोती चुनकर लाया हूँ। इसे पढने के बाद यकीनन हीं ज़ौक़ के प्रति बरसों में बने आपके विचार बदलेंगें।

प्रकाश जी लिखते हैं:
उर्दू शायरी में ‘ज़ौक़’ का अपना खास स्थान है। वे शायरी के उस्ताद माने जाते थे। आखिरी बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र के दरबार में शाही शायर भी थे।

बादशाह की उस्तादी ‘ज़ौक़’ को किस क़दर महंगी पड़ी थी, यह उनके शागिर्द मौलाना मुहम्मद हुसैन आज़ाद की ज़बानी सुनिए:
"वह अपनी ग़ज़ल खुद बादशाह को न सुनाते थे। अगर किसी तरह उस तक पहुंच जाती तो वह इसी ग़ज़ल पर खुद ग़ज़ल कहता था। अब अगर नयी ग़ज़ल कह कर दें और वह अपनी ग़ज़ल से पस्त हो तो बादशाह भी बच्चा न था, 70 बरस का सुख़न-फ़हन था। अगर उससे चुस्त कहें तो अपने कहे को आप मिटाना भी कुछ आसान काम नहीं। नाचार अपनी ग़ज़ल में उनका तख़ल्लुस डालकर दे देते थे। बादशाह को बड़ा ख़याल रहता था कि वह अपनी किसी चीज़ पर ज़ोर-तबअ़ न ख़र्च करें। जब उनके शौक़े-तबअ़ को किसी तरफ़ मुतवज्जह देखता जो बराबर ग़ज़लों का तार बांध देता कि तो कुछ जोशे-तबअ़ हो इधर ही आ जाय।"

शाही फ़रमायशों की कोई हद न थी। किसी चूरन वाले की कोई कड़ी पसंद आयी और उस्ताद को पूरा लटका लिखने का हुक्म हुआ। किसी फ़क़ीर की आवाज़ हुजूर को भा गयी है और उस्ताद पूरा दादरा बना रहे हैं। टप्पे, ठुमरियां, होलियां, गीत भी हज़ारों कहे और बादशाह को भेंट किये। खुद भी झुंझला कर एक बार कह दिया :

ज़ौक मुरत्तिब क्योंकि हो दीवां शिकवाए-फुरसत किससे करें
बांधे हमने अपने गले में आप ‘ज़फ़र’ के झगड़े हैं


"ज़ौक़" के काव्य के स्थायी तत्वों की व्याख्या के पहले उनके बारे में फैली हुई कुछ भ्रांतियों का निवारण आवश्यक मालूम होता है। पहली बात तो यह है कि समकालीन होने के लिहाज़ से उन्हें ‘ग़ालिब’ का प्रतिद्वंद्वी समझ लिया जाता है और चूंकि यह शताब्दी ‘ग़ालिब’ के उपासकों की है इसलिए ‘ज़ौक़’ से लोग खामखाह ख़ार खाये बैठे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि समकालीन महाकवियों में कुछ न कुछ प्रतिद्वंद्विता होती ही है और ‘ज़ौक़’ ने भी कभी-कभी मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ की छेड़-छाड़ की बादशाह से शिकायत कर दी थी, लेकिन इन दोनों की प्रतिद्वंद्विता में न तो वह भद्दापन था जो ‘इंशा’ और ‘मसहफ़ी’ की प्रतिद्वंद्विता में था, न इतनी कटुता जो ‘मीर’ और ‘सौदा’ में कभी-कभी दिखाई देती है। असल में उनके बीच प्रतिद्वंद्विता का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था। ‘ग़ालिब’ नयी भाव-भूमियों को अपनाने में दक्ष थे और वर्णन-सौंदर्य की ओर से उदासीन; ‘ज़ौक़’ का कमाल वर्णन-सौंदर्य में था और भावना के क्षेत्र में बुजुर्गों की देन ही को काफ़ी समझते थे। जैसा कि हर ज़माने के समकालीन महाकवि एक दूसरे के कमाल के क़ायल होते हैं, यह दोनों बुजुर्ग भी एक-दूसरे के प्रशंसक थे। ग़ालिब ‘ज़ौक़’ के प्रशंसक थे और अपने एक पत्र में उन्होंने ‘ज़ौक़’ के इस शे’र की प्रशंसा की है :

अब तो घबरा के ये कहते हैं कि मर जायेंगे
मर गये पर न लगा जी तो किधर जायेंगे।


और उधर ‘ज़ौक़’ भी मुंह-देखी में नहीं बल्कि अपने दोस्तों और शागिर्दों मैं बैठकर कहा करते थे कि मिर्ज़ा (ग़ालिब) को खुद अपने अच्छे शे’रों का पता नहीं है और उनका यह शे’र सुनाया करते थे:

दरियाए-मआ़सी तुनुक-आबी से हुआ खुश्क
मेरा सरे-दामन भी अभी तक न हुआ था।

ज़ौक़ की असली सहायक उनकी जन्मजात प्रतिभा और अध्ययनशीलता थी। कविता-अध्ययन का यह हाल कि पुराने उस्तादों के साढ़े तीन सौ दीवानों को पढ़कर उनका संक्षिप्त संस्करण किया। कविता की बात आने पर वह अपने हर तर्क की पुष्टि में तुरंत फ़ारसी के उस्तादों का कोई शे’र पढ़ देते थे। इतिहास में उनकी गहरी पैठ थी। तफ़सीर (कुरान की व्याख्या) में वे पारंगत थे, विशेषतः सूफी-दर्शन में उनका अध्ययन बहुत गहरा था। रमल और ज्योतिष में भी उन्हें अच्छा-खासा दख़ल था और उनकी भविष्यवाणियां अक्सर सही निकलती थीं। स्वप्न-फल बिल्कुल सही बताते थे। कुछ दिनों संगीत का भी अभ्यास किया था और कुछ तिब्ब (यूनानी चिकित्सा-शास्त्र) भी सीखी थी। धार्मिक तर्कशास्त्र (मंतक़) और गणित में भी वे पटु थे। उनके इस बहुमुखी अध्ययन का पता अक्सर उनके क़सीदों से चलता है जिनमें वे विभिन्न विद्याओं के पारिभाषिक शब्दों के इतने हवाले देते हैं कि कोई विद्वान ही उनका आनंद लेने में समर्थ हो सकता है। उर्दू कवियों में इस कोटि के विद्वान कम ही हुए हैं।

‘ज़ौक़’ १२०४ हि. तदनुसार १७८९ ई. में दिल्ली के एक ग़रीब सिपाही शेख़ मुहम्मद रमज़ान के घर पैदा हुए थे। शेख़ रमज़ान नवाब लुत्फअली खां के नौकर थे। शेख़ इब्राहीम (ज़ौक़ का असल नाम) इनके इकलौते बेटे थे। इस कमाल के उस्ताद ने १२७१ हिजरी (१८५४ ई.) में सत्रह दिन बीमार रहकर परलोक गमन किया। मरने के तीन घंटे पहले यह शे’र कहा था:

कहते हैं ‘ज़ौक़’ आज जहां से गुज़र गया
क्या खूब आदमी था, खुदा मग़फ़रत करे

ग़ालिब और ज़ौक़ के बीच शायराना नोंक-झोंक और हँसी-मज़ाक के कई सारे किस्से मक़बूल हैं। मुझे याद नहीं कि मैंने यह वाक्या ग़ालिब के लिए सजी महफ़िल में सुनाया था या नहीं, अगर सुनाया हो, तब भी दुहराए देता हूँ। बात एक गोष्ठी की है । मिर्ज़ा ग़ालिब मशहूर शायर मीर तक़ी मीर की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे थे । शेख इब्राहीम ‘जौक’ भी वहीं मौज़ूद थे । ग़ालिब द्वारा मीर की तारीफ़ सुनकर वे बैचेन हो उठे । वे सौदा नामक शायर को श्रेष्ठ बताने लगे । मिर्ज़ा ने झट से चोट की- “मैं तो आपको मीरी समझता था मगर अब जाकर मालूम हुआ कि आप तो सौदाई हैं ।” यहाँ मीरी और सौदाई दोनों में श्लेष है । मीरी का मायने मीर का समर्थक होता है और नेता या आगे चलने वाला भी । इसी तरह सौदाई का पहला अर्थ है सौदा या अनुयायी, दूसरा है- पागल।

ज़ौक़ कितने सौदाई थे या फिर कितने मीरी... इसका निर्धारण हम तो नहीं कर सकते, लेकिन हाँ उनके लिखे कुछ शेरों को पढकर और उन्हें गुनकर अपने इल्म में थोड़ी बढोतरी तो कर हीं सकते हैं:

आँखें मेरी तलवों से मल जाए तो अच्छा
है हसरत-ए-पा-बोस निकल जाए तो अच्छा

ग़ुंचा हंसता तेरे आगे है जो गुस्ताख़ी से
चटखना मुंह पे वहीं बाद-सहर देती है

आदमीयत और शै है, इल्म है कुछ और शै
कितना तोते को पढ़ाया पर वो हैवाँ ही रहा

वाँ से याँ आये थे ऐ 'ज़ौक़' तो क्या लाये थे
याँ से तो जायेंगे हम लाख तमन्ना लेकर


चलिए अब इन शेरों के बाद उस मुद्दे पर आते हैं, जिसके लिए हमने महफ़िल सजाई है। जानकारियाँ देना हमारा फ़र्ज़ है, लेकिन ग़ज़ल सुनना/सुनवाना तो हमारी ज़िंदगी है.. फ़र्ज़ के मामले में थोड़ा-बहुत इधर-उधर हो सकता है, लेकिन ज़िंदगी की गाड़ी पटरी से हिली तो खेल खत्म.. है ना? तो आईये.. लगे हाथों हम आज की ग़ज़ल से रूबरू हो लें। आज हम जो ग़ज़ल लेकर महफ़िल में हाज़िर हुए हैं उसे ग़ज़ल-गायिकी की बेताज बेगम "बेगम अख्तर" की आवाज़ नसीब हुई है। इतना कह देने के बाद क्या कुछ और भी कहना बचा रह जाता है। नहीं ना? इसलिए बिना कुछ देर किए, इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाया जाए:

लायी हयात, आये, क़ज़ा ले चली, चले
अपनी ख़ुशी न आये न अपनी ख़ुशी चले

बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले

कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

हो उम्रे-ख़िज़्र भी तो भी कहेंगे ब-वक़्ते-मर्ग
हम क्या रहे यहाँ अभी आये अभी चले

दुनिया ने किसका राहे-फ़ना में दिया है साथ
तुम भी चले चलो युँ ही जब तक चली चले

नाज़ाँ न हो ख़िरद पे जो होना है वो ही हो
दानिशतेरी न कुछ मेरी दानिशवरी चले

जा कि हवा-ए-शौक़ में हैं इस चमन से 'ज़ौक़'
अपनी ___ से बादे-सबा अब कहीं चले




वैसे तो हम एक महफ़िल में एक हीं गुलुकार की आवाज़ में ग़ज़ल सुनवाते हैं। लेकिन इस ग़ज़ल की मुझे दो रिकार्डिंग्स हासिल हुई थी.. एक बेग़म अख्तर की और एक कुंदन लाल सहगल की। इन दोनों में से मैं किसे रखूँ और किसे छाटूँ, मैं यह निर्धारित नहीं कर पाया। इसलिए बेगम की आवाज़ में ग़ज़ल सुनवा देने के बाद हम आपके सामने पेश कर रहे हैं "सहगल" साहब की बेमिसाल आवाज़ में यही ग़ज़ल एक बार फिर:



चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "उम्र" और शेर कुछ यूँ था-

आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है

इस शब्द पर ये सारे शेर महफ़िल में कहे गए:

आह को चाहिये इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक (ग़ालिब)

सर्द रातों की स्याही को चुराकर हमने
उम्र यूँ काटी तेरे शहर में आकर हमने (आशीष जी)

उम्रभर तलाशा था हमने जिस हंसी को
आज वो खुद की ही दीवानगी पे आई है (अवनींद्र जी)

उनके बच्चे भी सोये हैं भूखे
जिनकी उम्र गुजरी है रोटियाँ बनाने में (नीलम जी की प्रस्तुति.. शायर का पता नहीं)

उम्र-ए-दराज़ माँग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इन्तज़ार में । (बहादुर शाह ज़फ़र)

ता-उम्र ढूंढता रहा मंजिल मैं इश्क़ की,
अंजाम ये कि गर्द-ए-सफर लेके आ गया। (सुदर्शन फ़ाकिर)

उम्र हो गई तुम्हें पहचानने में ,
अभी तक न जान पाई हमदम मेरे ! (मंजु जी)

दिल उदास है यूँ ही कोई पैगाम ही लिख दो
अपना नाम ना लिखो तो बेनाम ही लिख दो
मेरी किस्मत में गम-ए-तन्हाई है लेकिन
पूरी उम्र ना सही एक शाम ही लिख दो. (शन्नो जी की पेशकश.. शायर का पता नहीं)

उम्र जलवों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं
हर शब्-ए-ग़म की सहर हो ये ज़रूरी तो नहीं (ख़ामोश देहलवी) .. नीलम जी, आपके शायर का नाम गलत है।

पिछली महफ़िल की शान बने आशीष जी। इस उपलब्धि के लिए आपको ढेरों बधाईयाँ। मुझे पिछली महफ़िल इसलिए बेहद पसंद आई क्योंकि उस महफ़िल में अपने सारे मित्र मौजूद थे, बस सीमा जी को छोड़कर। न जाने वो किधर गायब हो गई हैं। सीमा जी, आप अगर मेरी यह टिप्पणी पढ रही हैं, तो आज की महफ़िल में टिप्पणी देना न भूलिएगा :) मनु जी, आपको ग़ज़ल पढने में अच्छी लगी, लेकिन सुनने में नहीं। चलिए हमारी आधी मेहनत तो सफल हुई। जहाँ तक सुनने-सुनाने का प्रश्न है और गुलुकार के चयन का सवाल है तो अगर मैं चाहता तो मेहदी हसन साहब या फिर गुलाम अली साहब की आवाज़ में यह ग़ज़ल महफ़िल में पेश करता, लेकिन इनकी आवाज़ों में आपने "पत्ता-पत्ता" तो कई बार सुनी होगी, फिर नया क्या होता। मुझे हरिहरण प्रिय हैं, मुझे उनकी आवाज़ अच्छी लगती है और इसी कारण मैं चाहता था कि बाकी मित्र भी उनकी आवाज़ से रूबरू हो लें। दक्षिण भारत से संबंध रखने के बावजूद उर्दू के शब्दों को वो जिस आसानी से गाते हैं और जितनी तन्मयता से वो हर लफ़्ज़ के तलफ़्फ़ुज़ पर ध्यान देते हैं, उतनी मेहनत तो हिंदी/उर्दू जानने वाला एक शख्स नहीं करता। मेरे हिसाब से हरिहरण की ग़ज़ल सुनी जानी चाहिए.. हाँ, आप इनकी ग़ज़लों की तुलना मेहदी हसन या गुलाम अली से तो नहीं हीं कर सकतें, वे सब तो इस कला के उस्ताद हैं, लेकिन यह कहाँ लिखा है कि उस्ताद के सामने शागिर्द को मौका हीं न मिले। मेरी ख्वाहिश बस यही मौका देने की थी... कितना सफल हुआ और कितना असफल, ये तो बाकी मित्र हीं बताएँगे। अवनींद्र जी और शन्नो जी, आप दोनों ने स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर हमें शुभकामनाएँ दीं, हमारी तरफ़ से भी आप सभी स्वजनों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.. मराठी में कहें तो "शुभेच्छा".. महाराष्ट्र में रहते-रहते यह एक शब्द तो सीख हीं गया हूँ :)

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

Tuesday, August 17, 2010

घुंघटा गिरा है ज़रा घुंघटा उठा दे रे....जब गुलज़ार साहब बोले लता जी के बारे में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 463/2010/163

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में आप सभी का एक बार फिर हार्दिक स्वागत है। इन दिनों इस स्तंभ में जारी है गीतकार व शायर गुलज़ार साहब के लिखे गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। जिस तरह से मुसाफ़िर निरंतर चलता जाता है, बस चलता ही जाता है, ठीक उसी तरह से गुलज़ार साहब के गानें भी चलते चले जा रहे हैं। ना केवल उनके पुराने गानें, जो उन्होंने ६०, ७० और ८० के दशकों में लिखे थे, वो आज भी बड़े चाव से सुनें जाते हैं, बल्कि बदलते वक़्त के साथ साथ हर दौर में उन्होंने ज़माने की रुचि का नब्ज़ सही सही पकड़ा, और आज भी "दिल तो बच्चा है जी", "इब्न-ए-बतुता" और "पहली बार मोहब्बत की है" जैसे गानों के ज़रिये आज की पीढ़ी के दिनों पर राज कर रहे हैं। हिंदी फ़िल्म इंडस्ट्री में वो जिस तरह की हैसियत रखते हैं, शायद ही किसी और गीतकार, शायर और फ़िल्मकार ने एक साथ रखा होगा। आइए 'मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला की तीसरी कड़ी में आज सुनें लता मंगेशकर की आवाज़ में फ़िल्म 'पलकों की छाँव में' से "घुंघटा गिरा है ज़रा घुंघटा उठा दे रे, कोई मेरे माथे की बिंदिया सजा दे रे"। फ़िल्म में संगीत लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल का था। १९७७ की इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राजेश खन्ना, हेमा मालिनी, असरानी, फ़रीदा जलाल, कन्हैयालाल और लीला मिश्रा प्रमुख। कल के फ़िल्म 'सितारा' की तरह इस फ़िल्म को भी मेरज ने ही निर्देशित किया था। 'पलकों की छाँव में' की कहानी गुलज़ार साहब ने ख़ुद लिखी थी। अब क्योंकि गुलज़ार साहब पर ही शृंखला चल रही है और उन्ही की लिखी कहानी भी है, तो क्यों ना इस फ़िल्म की थोड़ी सी भूमिका आपको दे दी जाए! रवि (राजेश खन्ना) स्नातक बनने के बाद नौकरी ना मिलने पर एक दूर दराज़ के गाँव में डाकिये की नौकरी लेकर आ जाता है। यहाँ कई अलग अलग तरह के लोगों से उसकी मुलाक़ात होती है। यहीं उसे मोहिनी (हेमा मालिनी) भी मिलती है जिसके साथ उसकी दोस्ती तो होती है, लेकिन रवि इस रिश्ते कोई कुछ हद आगे तक ले जाने की बात सोचता है मन ही मन। और तभी उसे पता चलता है कि मोहिनी दरअसल किसी और से प्यार करती है। आर्मी का कोई जवान जो एक बार उस गाँव में ट्रेनिंग के लिए आया था। रवि मोहिनी और उसके प्रेमी को मिलाने की ठान लेता है, लेकिन बदक़िस्मती से रवि ही उस अर्मी जवान के शहीद हो जाने की ख़बर ले आता है। इस फ़िल्म की कहानी और पार्श्व कुछ हद तक हमें फ़िल्म 'ख़ुशबू' की याद भी दिला जाती है।

दोस्तों, इससे पहले कि आप इस गीत का आनंद लें, आज लता जी की तारीफ़ में कुछ वो बातें हो जाए जो गुलज़ार साहब ने कभी कहे थे विविध भारती पर। "लता जी के बारे में मैं कुछ कहना चाहता हूँ जो कभी किसी से आज तक नहीं कहा। लता जी के लिए मेरे दिल में बड़ी श्रद्धा है, कई सदियों में ऐसी आवाज़ कभी पैदा होती है। आगे आने वाली सदियों के लिए नहीं सोचता, वो उनकी आवाज़ को संभाल लेंगे, अफ़सोस तो उन सभी पर है जो उनकी आवाज़ सुने बग़ैर ही इस दुनिया से गुज़र गए"। दोस्तों, कितनी सच्चाई है गुलज़ार के इन शब्दों में! कितनी नीरस और बेजान रही होगी उन लोगों की ज़िंदगी जो लता जी की आवाज़ नहीं सुन पाए। ख़ैर, आज के गीत की बात करें तो लोक शैली में पिरोया हुआ गाना है। इस गीत में भी गुलज़ार साहब का यूनिक स्टाइल साफ़ झलकता है। आँखों में रात का काजल लगाना, आँगन में ठण्डे सवेरे बिछा देना, पैरों में मेहन्दी की अगन लगा देना जैसी तुलनाएँ व उपमाएँ एक वही तो देते आये हैं। अंतिम अंतरे में कितनी ख़ूबसूरती से वो लिखते हैं कि ना चिट्ठी आई ना संदेसा आया, कोई कम से कम झूट-मूट ही दरवाज़े की किवाडिया हिला दे ताकि किसी के आने की आस जगे! तो आइए सुना जाए आज का यह गीत।



क्या आप जानते हैं...
कि गुलज़ार साहब को ५ बार राष्ट्रीय पुरस्कार और १९ बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार से नवाज़ा गया है। इन १९ फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कारों में ९ पुरस्कार बतौर गीतकार उन्हें दिया गया जो कि किसी भी गीतकार के लिए सर्वाधिक है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस गीत में किस गायिका ने रफ़ी साहब के साथ आवाज़ मिलायी है - ३ अंक.
२. सुरेन्द्र मोहन निर्देशित इस फिल्म के नाम की एक मशहूर फिल्म पहले भी बन चुकी है जिसमें नूतन ने अभिनय किया था, फिल्म का नाम बताएं - १ अंक.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द है "वादा". संगीतकार बताएं - २ अंक.
४. इस फिल्म के नायक कौन है - २ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
किशोर जी ३ अंक आपके बहुत बधाई. नवीन जी प्रतिभा जी और वाणी जी सही जवाब आप सब के. कुछ क्रेडिट इंदु जी को भी अवश्य दें जिन्होंने इटें अनोखे अंदाज़ में हिंट दिए. हमारे देसी धुरंधर सब कहाँ गायब हैं ?

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

"तेरे मस्त-मस्त दो नैन" गाता हुआ हुड़हुड़ाता आ पहुँचा है एक दबंग, जिसके लिए मुन्नी भी बदनाम हो गई..



ताज़ा सुर ताल ३१/२०१०

विश्व दीपक - 'ताज़ा सुर ताल' के इस अंक में हम सभी का स्वागत करते हैं। सुजॊय जी, अब ऐसा लगने लगा है कि साल २०१० के हिट गीतों की फ़ेहरिस्त ने रफ़्तार पकड़ ली है; एक के बाद एक फ़िल्म आती जा रही है और हर फ़िल्म का कोई ना कोई गीत ज़रूर हिट हो रहा है।

सुजॊय - हिट गीतों की अगर बात करें तो कभी कभी कामयाब गीतों का फ़ॊरमुला फ़िल्मकारों और कुछ हद तक अभिनेता पर भी निर्भर करता है, ऐसा अक्सर देखा गया है। अब सलमान ख़ान को ही लीजिए, शायद ही उनका कोई फ़िल्म ऐसा होगा, जिसके गानें हिट ना हुए होंगे। वैसे तो उनकी फ़िल्में भी ख़ूब चलती हैं, लेकिन उनके फ़्लॊप फ़िल्मों के गानें भी कम से कम चल पड़ते हैं।

विश्व दीपक - ठीक कहा, इसी साल उनकी फ़िल्म 'वीर' बॉक्स ऑफ़िस पर नाकामयाब रही, लेकिन फ़िल्म के गाने चल पड़े थे, ख़ास कर "सलाम आया" गीत तो बहुत पसंद किया गया। पिछले कुछ सालों से सलमान ख़ान की फ़िल्मों में साजिद-वाजिद संगीत दे रहे हैं। 'तेरे नाम' की अपार कामयाबी के बावजूद सल्लु मिया ने हिमेश रेशम्मिया से साजिद वाजिद पर स्विच-ओवर कर लिया था। पिछले साल 'वाण्टेड' और इस साल जनवरी में प्रदर्शित 'वीर' के बाद अब सलमान और साजिद-वाजिद की तिकड़ी लेकर आए हैं फ़िल्म 'दबंग', और आज 'टी.एस.टी' में इसी फ़िल्म के गानें।

सुजॊय - 'दबंग' अभिनव कश्यप निर्देशित फ़िल्म है जिसमें सलमान ख़ान की नायिका बनी हैं नवोदित अभिनेत्री सोनाक्षी सिन्हा। साथ मे हैं अरबाज़ ख़ान, सोनू सूद, विनोद खन्ना, डिम्पल कपाडिया, महेश मांजरेकर और ओम पुरी। यानी कि एक ज़बरदस्त स्टार-कास्ट है इस फ़िल्म में। साजिद वाजिद के धुनों पर गानें लिखे हैं जलीश शेरवानी ने। लेकिन एक गीत ललित पण्डित ने लिखा और स्वरबद्ध किया है। फ़ैज़ अनवर ने भी एक गीत लिखा है।

विश्व दीपक - कहते हैं सौ सुनार की एक लुहार की, तो यहाँ भी वही बात है, फ़ैज़ साहब ने जो एक गीत लिखा है, वही फ़िल्म के बाक़ी सभी गीतों पर भारी है। सुनते हैं राहत फ़तेह अली ख़ान और श्रेया घोषाल की आवाज़ों में वही गीत।

गीत - तेरे मस्त मस्त दो नैन


सुजॊय - वाह! अच्छा लगा। सूफ़ी क़व्वाली अंदाज़ का यह गीत राहत साहब के फ़िल्मी गायन करीयर का एक और यादगार गीत बनने जा रहा है। 'वीर' के "सुरीली अखियों वाली" के बाद, साजिद-वाजिद के लिए फिर एक बार उन्होंने अपने आप को सिद्ध किया है इस गीत में। साजिद वाजिद के कम्पोज़िशन्स की अच्छी बात यह लगती है कि वो भारतीय साज़ों की ध्वनियों का ज़्यादा इस्तेमाल करते हैं जिससे गीत ज़्यादा कर्णप्रिय बन जाता है।

विश्व दीपक - और रही बात इस गीत के बोलों की, तो फ़ैज़ अनवर, जो एक अनुभवी फ़िल्मी गीतकार रहे हैं और ९० के दशक में बहुत सारे हिट गीत दिए हैं, उन्होंने काव्यात्मक शैली अख़्तियार करते हुए इस गीत में लिखा है "माही वे आप सा, दिल ये बेताब सा, तड़पा जाए तड़पा तड़पा जाए, नैनों के झील में, उतरा था युंही दिल, डूबा जाए डूबा डूबा जाए..."। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि यह गीत हर लिहाज़ से सुपरहिट होने का स्तर रखता है। इस गीत के दो वर्ज़न हैं, हमने राहत साहब और श्रेया का युगल वर्ज़न सुना, राहत साहब का एकल वर्ज़न भी है। लगे हाथों उसे भी सुन लते हैं।

गीत - तेरे मस्त मस्त दो नैन (एकल)


सुजॊय - फ़िल्म का तीसरा गीत, या युं कहिए कि ऐल्बम का तीसरा गीत है "मुन्नी बदनाम" जिसे लिखा व स्वरबद्ध किया है जतिन ललित के ललित पण्डित ने। यह एक आइटम नंबर है जिसे ममता शर्मा और ऐश्वर्या ने गाया है। यह गीत मास के लिए है, क्लास के लिए नहीं। चलिए, इसे भी सुनते चलें....

गीत - मुन्नी बदनाम


विश्व दीपक - "मुन्नी बदनाम हुई डारलिंग तेरे लिए", आइटम नंबर होने के साथ इसमें कॊमिक एलीमेण्ट्स भी डाले गए हैं, जैसे कि "ले झंडु बाम हुई डारलिंग तेरे लिए", "शिल्पा सा फ़िगर, बेबो सी अदा" वगेरह। वैसे क्या आपको पता है कि यह गाना "उत्तर प्रदेश" के एक पुराने लोक-गीत "लौंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए" से प्रेरित है। इसी लोक-गीत का इस्तेमाल बप्पी-लाहिड़ी भी एक फिल्म "रॉक डांसर" में कर चुके हैं, जहाँ "लौंडा बदनाम हुआ लौंडिया तेरे लिए" के बोल पर "जावेद जाफ़री" थिड़कते हुए नज़र आए थे। मुझे यह जानकारी मिलिब्लॉग और आईटूएफ़एस के कार्तिक से हासिल हुई है।

सुजॊय - बड़ी हीं अनूठी जानकारी है। खैर, इस मास नंबर के बाद बेहतर यही होगा कि हम अगले गीत की तरफ़ बढ़ें। ऐल्बम का चौथा गीत है सोनू निगम और श्रेया घोषाल का गाया एक नर्मोनाज़ुक रोमांटिक डुएट "चोरी किया रे जिया"। आइए सुनते हैं।

गीत - चोरी किया रे जिया


विश्व दीपक - वैसे तो सोनू और श्रेया के गाए कई यादगार डुएट्स हैं, इस गीत में वैसे कोई नई बात नहीं है, लेकिन गीत का रीदम और संगीत संयोजन अपीलिंग है। गिटार की मेलोडियस स्ट्रिंग्स और उस पर कैची बीट्स सुनने वाले को गीत के साथ जोड़े रखते हैं। सोनू और श्रेया की आवाज़ों ने फिर एक बार साबित किया कि आज के दौर में ये ही दो अव्वल नंबर पर हैं। साजिद-वाजिद ने बहुत से ऐसे रोमांटिक डुएट्स हमें दिए हैं जब भी उन्हें मौका दिया गया है। इस गीत को लिखा है जलीश शेरवानी ने जिन्होंने फ़िल्म 'मुझसे शादी करोगी' में भी "लाल दुपट्टा", "रब करे तुझको भी प्यार हो जाए" जैसे सफल रोमांटिक गीत लिख चुके हैं।

सुजॊय - अब बढ़ते हैं अगले गीत की तरफ़ जो है फ़िल्म का शीर्षक गीत, "हुड़ हुड़ दबंग"। विश्व दीपक जी, आपको "दबंग" शब्द का अर्थ पता है?

विश्व दीपक - हाँ, "दबंग" यानी "निडर" या "निर्भय", जिसे अंग्रेज़ी में "fearless" कह सकते हैं। लेकिन कहीं भी दबंग शब्द का इस्तेमाल पोजिटीव सेन्स में नहीं होता। हम जिस किसी को भी दबंग के विशेषण से नवाज़ते हैं तो इसका मतलब ये होता है कि वह इंसान शक्तिशाली है और दूसरों को दबा कर रखता है। आज भी गाँवों में जमींदारों को इसलिए दबंग कहते हैं क्योंकि वे गरीब जनता का हक़ मारते हैं और जनता उनसे डरी हुई रहती है। "दबंग" और "दलित" एक दूसरे के पूरक हैं। वह जो लोगों को अपनी जूतों तल दबा कर रखे वह "दबंग" और वह जो "दबा" हुआ हो वह "दलित"। इसलिए "दबंग" का अर्थ "निडर" होते हुए भी यह एक निगेटिव वर्ड है। मेरे हिसाब से फिल्म में भी इसी नकारात्मक अर्थ को दर्शाया गया है।

सुजॊय - अच्छा! तो चलिए यह गीत सुन लेते हैं जिसे सुनते हुए मुझे यकीन है आप सब को फ़िल्म 'ओमकारा' का शीर्षक गीत ज़रूर याद आ जाएगा। वैसे इस गीत में भी आवाज़ सुखविंदर सिंह की ही है जिन्होंने 'ओमकारा' का वह गीत गाया था; और इस गीत में सुखविंदर के साथ वाजिद ने भी आवाज़ मिलायी है। "हुड़ हुड़ दबंग" फ़िल्म में सलमान ख़ान के किरदार को वर्णित करता होगा, ऐसा प्रतीत होता है।

गीत - हुड़ हुड़ दबंग


विश्व दीपक - कुछ हेवी ड्रम्स और वायलिन्स का ज़बरदस्त इस्तेमाल हुआ है; लोक शैली में बनाया गया है गीत वाक़ई "ओमकारा" से मिलता जुलता है। लेकिन बोलों के लिहाज़ से "ओमकारा" इससे बहुत उपर ही रहेगा। ख़ैर, गीत बुरा नहीं है। और आइए अब फ़िल्म का अंतिम गीत सुन लिया जाए, यह एक क़व्वाली है वाजिद, मास्टर सलीम, शबाब साबरी और साथियों की आवाज़ों में। "हमका पीनी है" एक ग्रामीण लोक शैली वाला गीत है जो पूरी तरह से सिचुएशनल है। जलीश शेरवानी के बोल।

सुजॊय - फिर एक बार शायद मास नंबर है, ना कि क्लास। ढोलक का मुख्य रूप से इस्तेमाल है, लीजिए आप भी सुनिए।

गीत - हमका पीनी है


सुजॊय - इन छह गीतों को सुन कर यही कह सकता हूँ कि "तेरे मस्त मस्त दो नैन" ही ऐल्बम का सर्वोत्तम गीत है.. असल में दोनों वर्जन्स हीं कमाल के हैं। जैसा कि शुरु में आपने कहा था "सौ सुन्हार की, एक लुहार की", अब मैं भी सहमत हो गया हूँ आप से। सोनू-श्रेया का "चोरी किया रे जिया" भी कर्णप्रिय रहा। विश्व दीपक जी, आज हम 'दबंग' के साथ साथ 'वी आर फ़मिली' के भी कुछ गानें सुनवाने वाले थे। लेकिन 'वी आरे फ़मिली' के गीतों को जब मैंने सुना तो मुझे लगा कि इस फ़िल्म के सभी गीतों को सुनवाना चाहिए। इसलिए अगर संभव हुआ तो अगले हफ़्ते हम 'वी आर फ़ैमिली' के गानें लेकर हाज़िर होंगे। क्या ख़याल है?

विश्व दीपक - जी, आपने सही कहा। वास्तव में मैने अभी तक "वी आर फ़ैमिली" के गाने नहीं सुने, इसलिए प्रोमोज़ में गाने सुनकर मुझे लगा कि कुछ हीं गाने सुनने लायक हैं। और यही कारण है कि पिछले टीएसटी में मैंने यह कह दिया था कि दोनों फिल्मों के गाने साथ करेंगे। लेकिन चूँकि आपने गाने सुने हैं और आपको वे गाने पसंद आए हैं, तब दोनों एलबमों की समीक्षा साथ करने का कोई प्रश्न हीं नहीं उठता। तो अगली टीएसटी "वी आर फ़ैमिली" पर हीं सजेगी। अलग बात है कि उस वक़्त आपके साथ मैं नही सजीव जी रहेंगे, क्योंकि मैं दस दिनों के लिए नदारद होने वाला हूँ.. घर जा रहा हूँ "रक्षा बंधन" के लिए। २९ को लौटूँगा, उसके बाद मैं फिर से आपके साथ आ जाऊँगा। ठीक है? :) जहाँ तक "दबंग" का सवाल है, तो मेरे हिसाब से गाने "मास" के लिए इस कारण से हैं क्योंकि फिल्म हीं "मास" के लिए है। यह फिल्म "वांटेड" की तर्ज़ पर बनाई गई मालूम होती है। जिस तरह वांटेड के गाने क्रिटिक्स ने एलबम सुनने के बाद नकार दिए थे, लेकिन फिल्म रीलिज होने पर उन्हीं गानों ने धूम मचा दी थी। मेरे हिसाब से इस फिल्म के गाने भी फिल्म आने के बाद उसी तरह का कमाल करने वाले हैं। शायद सलमान खान ने "साज़िद-वाज़िद" को ऐसी हिदायत हीं दी हो कि भाई गाने ऐसे बनाओ कि लोग झूम उठे.. वे गाने कितने दिन चलेंगे, इसका ख्याल रखने की कोई जरूरत नहीं। नहीं तो साज़िद-वाज़िद सुमधुर गाने देने में भी उस्ताद हैं। चलिए तो इन्हीं बातों के साथ आज की समीक्षा का समापन करते हैं। जाते-जाते स्वतंत्रता दिवस की बधाईयाँ भी लेते जाईये। जय हिन्द!

आवाज़ रेटिंग्स: दबंग: ***

और अब आज के ३ सवाल

TST ट्रिविया # ९१- संगीतकार जोड़ी साजिद-वाजिद इन दिनों किस रियल्टी शो में नज़र आ रहे हैं?

TST ट्रिविया # ९२- फ़ैज़ अनवर का एक बड़ा ही मशहूर गीत है जो आया था २००१ की एक फ़िल्म में। गीत के एक अंतरे की पंक्ति है "फूल सा खिल के महका है ये दिल, फिर तुझे छू के बहका है ये दिल"। गीत का मुखड़ा बताइए।

TST ट्रिविया # ९३- 'दबंग' और 'वी आर फ़मिली' के साउंडट्रैक में आप दो समनाताएँ बताएँ।


TST ट्रिविया में अब तक -
पिछले हफ़्ते के सवालों के जवाब:

१. तुलसी कुमार... एल्बम का नाम - "लव हो जाये"
२. रॉकफ़ोर्ड .. उस गाने को "के के" ने गाया था।
३. सलीम-सुलेमान

सीमा जी, आपने दो सवालों के सही जवाब दिए। तीसरे सवाल में शायद आप संगीतकार और प्रोगामर में कन्फ़्युज़ हो गईं। अगर जवाब "जतिन-ललित" होता तो हम पूँछते हीं क्यों? :) और वैसे भी टी०एस०टी० के किसी भी अंक में पूछा गया कोई भी सवाल उसी अंक से संबंधित होता है। तो फिर इस सवाल का जवाब तो "सलीम-सुलेमान" हीं होना था, क्योंकि सवाल में इस अंक के किसी और शख्स का तो नाम हीं नहीं आया था। आगे से ऐसे "हिंट्स" पर ध्यान रखिएगा। :)

Monday, August 16, 2010

ये साये हैं....ये दुनिया है....जो दिखता है उस पर्दे के पीछे की तस्वीर इतने सरल शब्दों में कौन बयां कर सकता है गुलज़ार साहब के अलावा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 462/2010/162

मुसाफ़िर हूँ यारों' शृंखला की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। आज हम इसमें सुनने जा रहे हैं गुलज़ार साहब की लिखे बड़े शहर के तन्हाई भरी ज़िंदगी का चित्रण एक बेहद ख़ूबसूरत गीत में। यह गीत है १९८० की फ़िल्म 'सितारा' का जिसे राहुल देव बर्मन के संगीत में आशा भोसले ने गाया है - "ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की"। अगर युं कहें कि इस गीत के ज़रिये फ़िल्म की कहानी का सार कहा गया है तो शायद ग़लत ना होगा। 'सितारा' कहानी है एक लड़की के फ़िल्मी सितारा बनने की। फ़िल्मी दुनिया की रौनक को रुसवाइयों की रौनक कहते हैं गुलज़ार साहब इस गीत में। वहीं "बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की" में तो अर्थ सीधा सीधा समझ में आ जाता है। मल्लिकारुजुन राव एम. निर्मित इस फ़िल्म के निर्देशक थे मेरज, और फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे मिथुन चक्रबर्ती, ज़रीना वहाब, कन्हैयालाल, आग़ा, दिनेश ठाकुर और पेण्टल। इस फ़िल्म में लता मंगेशकर और भूपेन्द्र का गाया हुआ "थोड़ी सी ज़मीन, थोड़ा आसमाँ, तिनकों का बस एक आशियाँ" गीत भी बेहद मक़बूल हुआ था। आशा जी की ही आवाज़ में फ़िल्म में एक और मुजरा शैली में लिखा हुआ ग़ज़ल था - "आप आए ग़रीबख़ाने में, आग सी लग गई ज़माने में"। जब भी गुलज़ार और पंचम साथ में आए, गाना ऐसा बना कि बस कालजयी बन कर रह गया। अपने इस सुरीले दोस्त के असमय जाने का ग़म गुलज़ार साहब को हमेशा रहा है। पंचम को याद करते हुए गुलज़ार साहब कहते हैं - "तुम्हारे साथ बैठकर सीरियस गीत लिखना बड़ा मुश्किल होता था। तुम्हारे प्रैंक्स ख़त्म नहीं होते। एक बार एक संजीदा गाना लिखते वक़्त तुमने कहा था कि तुम क्यों बंद बोतल की तरह सीरियस बैठे हो? कितने कम लोगों को यह मालूम है कि सिर्फ़ धुन बनाने से ही गाना नहीं बन जाता। तुम्हारे शब्दों में गाने को नरिश (nourish) और परवरिश करनी पड़ती है, कई घंटों नहीं बल्कि कई दिनों तक गाते रहने के बाद ही गाने में चमक आती है। पहले तुम्हारे पीठ पीछे कहता था, अब तुम्हारे सामने कहता हूँ पंचम कि तुम जितने अच्छे क्रीएटिव फ़नकार थे उतने ही बड़े क्राफ़्ट्समैन भी थे।"

फ़िल्म जगत में सितारा बनने का ख़्वाब बहुत से लोग देखते हैं। वो इस जगमगी दुनिया की चमक धमक से इतना ज़्यादा प्रभावित हो जाते हैं कि इस तेज़ चमक के पीछे का अंधेरा कई बार दिखाई नहीं देता। उन लोगों के लिए यह गीत है। ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की। पंचम के जाने के बाद गुलज़ार साहब भी अकेले रह गए थे, भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों के बीच घिर गए थे। ऐसे में अपने परम मित्र को याद करते हुए अपने शायराना अंदाज़ में उन्होंने कहा था - "याद है बारिशों के वो दिन थे पंचम? पहाड़ियों के नीचे वादियों में धुंध से झाँक कर रेल की पटरियाँ गुज़रती थीं। और हम दोनों रेल की पटरियों पर बैठे, जैसे धुंध में दो पौधें हों पास पास। उस दिन हम पटरी पर बैठे उस मुसाफ़िर का इंतेज़ार कर रहे थे, जिसे आना था पिछली शब, लेकिन उसकी आमद का वक़्त टलता रहा। हम ट्रेन का इंतेज़ार करते रहे, पर ना ट्रेन आयी और ना वो मुसाफ़िर। तुम युंही धुंध में पाँव रख कर गुम हो गए। मैं अकेला हूँ धुंध में पंचम!"

ये साये हैं, ये दुनिया है, परछाइयों की,
भरी भीड़ में ख़ाली तन्हाइयों की।

यहाँ कोई साहिल सहारा नहीं है,
कहीं डूबने को किनारा नहीं है,
यहाँ सारी रौनक रुसवाइयों की।

कई चाँद उठकर जले बुझे,
बहुत हमने चाहा ज़रा नींद आए,
यहाँ रात होती है बेदारियों की।

यहाँ सारे चेहरे है माँगे हुए से,
निगाहों में आँसू भी टाँगे हुए से,
बड़ी नीची राहें हैं ऊँचाइयों की।



क्या आप जानते हैं...
कि १९८८ में एक बच्चों की फ़िल्म बनी थी 'चत्रण' जिसमें गुलज़ार, पंचम और आशा भोसले की तिकड़ी के गानें थे। इस फ़िल्म के "ज़िंदगी ज़िंदगी ज़िंदगी ख़ूबसूरत है तू जन्म लेती हुई", "धूप छाँव में ऐसी बुनी ज़िंदगी", "न वो दरिया रुका न किनारा मिला" और "सूखे गीले से मौसम गुज़रते हुए" जैसे काव्यात्मक गीतों का न सुना जाना वाक़ई दुर्भाग्यपूर्ण है।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. इस फिल्म की कहानी भी गुलज़ार साहब ने लिखी है, मुख्य किरदार एक पोस्टमैन का है, किसने निभाया है इसे - २ अंक.
२. लता के गाये इस गीत में संगीत किसका है - २ अंक.
३. फिल्म के निर्देशक कौन हैं - ३ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
भारत में लगता है सब जश-ए-आजादी के उत्साह में डूब गए, सारे जावाब कनाडा से आये मगर हम नहीं समझ पाए कि आप सब किस गीत की बात कर रहे हैं जिसे गुलज़ार साहब ने लिखा है. अंक तो नहीं मिलेगा, पर आप सब ने कोशिश की यही काफी है
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

Sunday, August 15, 2010

सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को....तन मन में देश भक्ति का रंग चढ़ाता गुलज़ार साहब का ये गीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 461/2010/161

'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक नई सप्ताह और एक नई शृंखला के साथ हम हाज़िर हैं। आज रविवार है, यानी कि छुट्टी का दिन। लेकिन यह रविवार दूसरे रविवारों से बहुत ज़्यादा ख़ास बन गया है, क्योंकि आज हम सभी भारतवासियों के लिए है साल का सब से महत्वपूर्ण दिन - १५ अगस्त। जी हाँ, इस देश की मिट्टी को प्रणाम करते हुए हम आप सभी को दे रहे हैं स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ। आज दिन भर आपने विभिन्न रेडियो व टीवी चैनलों में ढेर सारे देशभक्ति के गीत सुनें होंगे जो हर साल आप १५ अगस्त और २६ जनवरी के दिन सुना करते हैं, और सोच रहे होंगे कि शायद उन्ही में से एक हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भी बजाने वाले हैं। यह बात ज़रूर सही है कि आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर देश भक्ति का रंग ही चढ़ा रहेगा, लेकिन यह गीत उन अतिपरिचित और सुपरहिट देश भक्ति गीतों में शामिल नहीं होता, बल्कि इस गीत को बहुत ही कम सुना गया है, और बहुतों को तो इसके बारे में मालूम ही नहीं है कि ऐसा भी कोई फ़िल्मी देशभक्ति गीत है। इससे पहले कि इस गीत की चर्चा आगे बढ़ाएँ, आपको बता दें कि आज से 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु हो रही है नई लघु शृंखला जो केन्द्रित है फ़िल्म जगत के सब से अलग, सब से अनूठे गीतकार व शायर पर। ये वो गीतकार हैं जो कभी बादलों के पंख पर मोती जड़ने की बात कहते हैं, तो कभी सर से आसमाँ उड़ जाने की बात भी करते हैं; कभी रात को भिखारन और चाँद को उसका कटोरा बना देते हैं तो कभी उनका एक पल रात भर नहीं गुज़रता। जी हाँ, ग़ैर पारम्परिक शब्दों का बेहद सरलता से इस्तेमाल करने वाले इस अनोखे गीतकार, अज़ीम शायर और उम्दा लेखक व फ़िल्मकार गुलज़ार साहब के जन्मदिन के अवसर पर आज से अगले दस अंकों तक सुनिए गुलज़ार साहब के लिखे गीतों पर आधारित लघु शृंखला 'मुसाफ़िर हूँ यारों'। आज इस शृंखला की शुरुआत हम इस देश के शहीदों को समर्पित एक देशभक्ति गीत से कर रहे हैं जिसे गुलज़ार साहब ने ८० के दशक में लिखा था। फ़िल्म थी 'जलियाँवाला बाग़', संगीतकार राहुल देव बर्मन, आवाज़ भूपेन्द्र और साथियों की, और गीत के बोल "सूलियों पे चढ़ के चूमें आफ़ताब को, आवाज़ देंगे आओ आज इंकलाब को"।

यह तो आप सभी को मालूम है कि गुलज़ार साहब की फ़िल्मी यात्रा बतौर गीतकार शुरु हुआ था १९६३ की फ़िल्म 'बंदिनी' में "मोरा गोरा अंग लई ले" गीत लिखकर। ६० और ७० के दशकों में गुलज़ार साहब की फ़िल्मोग्राफ़ी पर जब हम नज़र दौड़ाते हैं तो उनमें से किसी में भी कोई देश भक्ति गीत नज़र नहीं आता। वैसे फ़िल्म 'काबुलीवाला' में उन्होंने "ओ गंगा आए कहाँ से" ज़रूर लिखा था, जिसे हम आपको इस स्तंभ में पिछले साल सुनवा चुके हैं। फिर हम आते हैं ८० के दशक में और हमारे हाथ लगता है सन् १९८७ में बनी फ़िल्म 'जलियाँवाला बाग़' जिसका निर्माण व निर्देशन किया था बलराज ताह ने, और जिसकी पटकथा, संवाद और गीत लिखे थे गुलज़ार साहब ने। फ़िल्म में शहीद उधम सिंह का किरदार निभाया था बलराज साहनी ने और अन्य मुख्य कलाकारों में शामिल थे विनोद खन्ना, शबाना आज़्मी, दीप्ति नवल, परीक्षित साहनी, राम मोहन, ओम शिव पुरी और सुधीर ठक्कर प्रमुख। उल्लेखनीय बात यह कि इस फ़िल्म में गुलज़ार साहब ने भी एक किरदार निभाया था। फ़िल्म के संगीत के लिए चुना गया गुलज़ार साहब के प्रिय मित्र पंचम को। और इन दोनों ने मिलकर रचा प्रस्तुत देश भक्ति गीत। फ़िल्म के ना चलने से यह गीत भी कहीं गुम हो गया, लेकिन गुलज़ार साहब और पंचम के अनन्य भक्त श्री पवन झा के सहयोग से यह गीत हमने प्राप्त की और आज के इस ख़ास मौके पर इसे आप तक पहुँचा रहे हैं। आज यह गीत कहीं भी सुनने को नहीं मिलता, यहाँ तक कि विविध भारती पर भी मैंने आज तक नहीं सुना इस गीत को। तो लीजिए इस देश भक्ति के जस्बे को अपने अंदर महसूस कीजिए 'जलियाँवाला बाग़' फ़िल्म के इस गीत के ज़रिए। अभी पिछले साल मैं अमृतसर की यात्रा पर गया हुआ था और जलियाँवाला बाग़ में भी जाने का अवसर मिला। सच कहूँ दोस्तों, तो आज भी वहाँ एक अजीब सी उदासी छायी हुई है। वहाँ की हर एक चीज़ याद दिलाती है उस जघन्य हत्याकाण्ड की जो हमारी स्वाधीनता संग्राम का एक बेहद महत्वपूर्ण अध्याय बन गया। रोलेट ऐक्ट के ख़िलाफ़ शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन कर रहे मासूम लोगों पर जेनरल डायर की फ़ौज ने अंधाधुंद गोलियाँ चलाईं और करीब १५०० लोग उसमें शहीद हो गए। वह कुआँ आज भी वहाँ मौजूद है जिसमें गोलियों से बचने के लिए लोग कूद गए थे। उस कूयें से १२० शव बरामद हुए थे। वह दीवारें आज भी उन गोलियों की निशान अपने उपर लिए खड़े हैं जो आज भी याद दिलाते अंग्रेज़ों की क्रूरता की। वह बरगद का पेड़ आज भी उस मैदान में शांत खड़ा है जो आज एकमात्र ज़िंदा गवाह है उस भयंकर शाम की। इस हत्याकाण्ड का बदला उधम सिंह ने डायर को मार कर ले ही लिया था, और इसी कहानी पर आधारित है १९८७ की यह फ़िल्म। तो आइए अब सुनते है इस गीत को और आप सभी को एक बार फिर से स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएँ।



क्या आप जानते हैं...
कि सन्‍ १९५३ में 'जलियाँवाला बाग़ की ज्योति' नाम से एक फ़िल्म बनी थी जिसमें नायक थे करण दीवान, और फ़िल्म के संगीतकार थे अनिल बिस्वास।

पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)

१. जगमगाती फ़िल्मी दुनिया की कहानी है ये फिल्म, नायिका बताएं - ३ अंक.
२. गायिका कौन है इस बेहद गहरे गीत की - २ अंक.
३. एक अंतरे की पहली लाइन में शब्द है -"सहारा", संगीतकार बताएं - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - १ अंक

पिछली पहेली का परिणाम -
३ अंकों वाला जवाब मिला किशोर जी से, बहुत बधाई आपको. पवन जी, प्रतिभा जी और नवीन जी भी टेस्ट में खरे उतरे, इन दिनों कनाडा वालों का कब्ज़ा है भाई पहेलियों पर....:)

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

रविवार सुबह की कॉफी और जश्न-ए-आजादी पर जोश से भरने वाला एक अप्रकाशित दुर्लभ गीत रफ़ी साहब का गाया - लहराओ तिरंगा लहराओ



रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी चह्टा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. रात कुछ अजीब थी सच कहूँ तो रात चाँदनी ऐसे लग रही थी जैसे आकाश से फूल बरसा रही हो और बादल समय समय पर इधर उधर घूमते हुए सलामी दे रहे हों. और सुबह सुबह सूरज की किरणों की भीनी भीनी गर्मी एक अलग ही अंदाज़ मे अपनी छटा बिखेर रही थी. ऐसा लग रहा था के जैसे ये सब अलमतें हमें किसी ख़ास दिन का एहसास क़रना चाहते हैं. शायद आज सचमुच कोई ख़ास दिन ही तो है और ऐसा ख़ास दिन कि जिसकी तलाश करते हुए ना जाने कितनी आँखें पथरा गयीं, कितनी आँखें इसके इंतज़ार मे हमेशा के लिए गहरी नींद मे सो गयीं.

आज हमारे द्वारा 15 ऑगस्ट को मनाने का अंदाज़ सिर्फ़ कुछ भाषण होते हैं या फिर तिरंगे को फहरा देना कुछ देशभक्ति गीत बजाना जो सिर्फ़ इसी दिन के लिए होते हैं. मुझे याद आ रहा है के 90 के दशक की शुरुआत मे 1 हफ्ते पहले ही से देशभक्ति के गीत रेडियो टीवी पर गूंजने लगते थे. रविवार को प्रसारित होने वाली रंगोली 15 दिन पहले से ही इस दिन का एहसास लेकर आती थी, मगर आज क्या होता है कहने की ज़रूरत नहीं है समझना काफ़ी है. आज़ादी पाने के लिए क्या कुछ करना पड़ा कितनी क़ुर्बानियाँ दीं गयी इन पर लाखों किताबें लिखी जा चुकी हैं और भी शायद लिखी जाती रहेंगी. आज़ादी से पहले भी कुछ साहित्य छपता रहता था दैनिक, साप्ताहिक या मासिक पत्र निकाले जाते थे जिनमें क्रांतिकारियों के लिए संदेश या फिर उनमें जोश भरने के लेख होते थे. कई ऐसे पत्रों को अंग्रेज सरकार ने बंद करा दिया, जब्त कर लिया, उनकी प्रतिया बेचने और खरीदने पर पाबंदियाँ लगा दीं मगर इन सब के बावजूद भी वो उस सैलाब को नहीं रोक पाए. लेखन सामग्री के साथ साथ ही भारतीय फिल्मों ने भी इसमें योगदान किया लेकिन फिल्मों का दायरा पत्रों से ज़्यादा बड़ा था और ज़्यादा असर करता था दूसरे इस प्रकार की फ़िल्मे बनाना एक जोखिम का काम था क्योंकि इसमे पैसा ज़्यादा लगता था. लेकिन फिर भी समय समय पर इस प्रकार की फ़िल्मे बनीं जो अंग्रेज हुकूमत पर सीधे सीधे तो नहीं लेकिन शब्दों के बाणों को छुप छुप कर चलाते थे.

मुझे याद आ रहा है 1944 मे नौशाद अली के संगीत निर्देशन मे बनी “पहले आप” का गीत “हिन्दुस्तान के हम हैं हिन्दुस्तान हमारा, हिंदू मुस्लिम दोनो की आँखों का तारा” इस गीत मे सभी धर्मो को एक साथ मिलकर देश प्रेम की शिक्षा दी गयी है, जो अंगेजों की फुट डालो और शासन करो की नीति को चुनौती देता है यानी एक साथ मिलजुल के रहेंगे तो किसी भी मुसीबत का मुक़ाबला कर सकते हैं. इससे पहले भी 1936 मे आई फिल्म जन्मा भूमि के गीत “ जाई जाई प्यारी जन्मा भूमि” , “ माता ने जानम दिया” और ना जाने कितने ही…….

एक बात जो हम सब पर लागू होती है के जब कोई चीज़ हमें नयी नयी मिलती है तो उसका उन्माद कुछ ज़्यादा होता है जैसे जैसे वक़्त गुज़रता जाता है ये उल्लास कम होता जाता है मगर अपनी आज़ादी के बारे मे ऐसा नहीं है 63 साल गुज़र जाने के बाद भी ये उन्माद कम नहीं हुवा. आज़ादी के बाद जब 31 जनवरी 1948 को राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी “बापू” वीरगति को प्राप्त हुए तो ‘हुसनलाल भगातराम’ के संगीत मे सुर मिलाए ‘राजेन्द्र कृष्णा’ ने और आवाज़ दी मोहम्मद रफ़ी ने. उसके बाद तो फिल्मकारों के जज़्बात ने ऐसा जोश मारा के आज़ादी और देश प्रेम को लेकर फिल्म की जो झड़ी लगी तो ये बारिश अब तक रुकने का नाम नहीं ले रही है शहीद (1948), हिन्दुस्तान हमारा (1950), जलियाँवाला बाग की ज्योति (1953), झाँसी की रानी (1953), शहीद ए आज़म भगत सिंह (1954), वतन (1954), शहीद भगत सिंह (1963), हक़ीक़त (1964), शहीद (1965), नेताजी सुभाष चंद्र बोस् (1966), क्रांति (1980) बॉर्डर (1997), लगान (2001), मंगल पांडे (2005) आदि फ़ेरहिस्त बहुत लंबी है वक़्त बहुत कम.

अच्छा दोस्तो कभी आपने गौर किया है के आज़ादी का पहला जनमदिन कैसे मनाया गया होगा. मैं कभी कभी सोचता हूँ के 15 आगस्त 1948 को आज़ाद देश मे साँस लेने वाले लोगों के लिए कितना सुखदाई होगा वो दिन, क्या जोश रहा होगा, क्या जज़्बात रहे होंगे, किस प्रकार से एक दूसरे को बधाइयाँ दीं गयीं होंगी.

उस वक़्त 15 आगस्त महज़ कोई छुट्टी का दिन नहीं रहा होगा बल्कि एक त्योहार के रूप मे मनाया गया होगा.. इसी से संबंधित एक गीत आज यहाँ पेश किया जा रहा है मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ मे इस गीत के बोल नीचे लिखे हैं इन पर ज़रा ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि सुनते वक़्त इतना ध्यान नहीं दे पाते…

आओ एक बरस की आज़ादी का आओ सब त्योहार मनाओ
नगर नगर और डगर डगर लहराओ तिरंगा लहराओ

यही तिरंगा प्राण हमारा यही हमारी माया
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब पर इसकी छाया
आज इसी झंडे के नीचे आए भारत के बेटों सोचो
आज़ादी के एक बरस मे क्या खोया क्या पाया
आज ईद है आज दीवाली आओ गले लग जाओ
तिरंगा लहराओ

आज के दिन तुम भूल ना जाना बापू जी की अमृत वाणी
दूर ले गयी हमसे उनको एक हमारी नादानी
कब समझोगे राम, मोहम्मद और नानक के बेटों
कब लाएगी रंग हमारे देश पिता की कुर्बानी
जिसने दिया तिरंगा तुमको उसको भूल ना जाओ
तिरंगा लहराओ

आओ आज तिरंगे के नीचे खा लें हम कसमे
प्यार की रीत से बदल डालेंगे नफ़रत की सब रस्मे
वीर जवाहर की सेना बन दुनिया पर छा जाओ
जय हिंद कहो- (4) लहराओ तिरंगा लहराओ
नगर नगर और डगर डगर लहराओ तिरंगा लहराओ


इतना तो तय है कि ये गीत 15 आगस्त 1948 से पहले गाया गया होगा इसकी पहली कड़ी पर ध्यान दें तो आखिरी पंक्ति मे क्या खोया क्या पाया एक बरस मे ही खोने और पाने की बात करने से पता चलता है कि शायर भारत को किस मुकाम पर देखना चाहता है. खैर अब मैं इस गीत के बारे मे ज़्यादा नहीं कहूँगा वरना सुनने का मज़ा कम हो जाएगा मगर इसके साथ ही एक वादा ज़रूर करूँगा के भविष्य मे गीतों की शायराना खूबसूरती को बाहर निकालूँगा, आज़ादी को लेकर फ़िल्मे तो बनती रहीं वहीं प्राइवेट गीत भी कम नहीं गाए गये मगर वो गीत आज श्रोताओं के कुछ ख़ास वर्ग के ही पास हैं और वो उनको आम श्रोताजन को नहीं पहुँचाते हैं इसकी एक ख़ास वजह जो मैं समझता हूँ वो ये हैं कि इन गीतो का मुकाम संगीत प्रेमियों की नज़र मे काफ़ी उँचा होता है और कुछ असामाजिक तत्व जिन्हें संगीत से ख़ास लगाव नहीं होता है इसकी कीमत वसूल करने लग जाते हैं वहीं एक संगीत प्रेमी कभी ये नहीं चाहेगा की इस धरोहर का गलत उपयोग किया जाए.

इस गीत के बारे मे ज़्यादा जानकारी मुझे नहीं मिल पर अगर किसी संगीत प्रेमी के पास हो तो बताएँ.

LAHRAAO TIRANGA LAHRAAO- UNRELEASED RARE SONG BY MD. RAFI



प्रस्तुति- मुवीन



"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.

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