Saturday, January 10, 2009

सुनो कहानी: प्रेमचंद की 'आत्माराम'



उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी 'आत्माराम'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ''नेकी'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं प्रेमचंद की अमर कहानी "आत्माराम", जिसको स्वर दिया है लन्दन निवासी कवयित्री शन्नो अग्रवाल ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 18 मिनट और 40 सेकंड।

नीचे के प्लेयर से सुनें.
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मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ...मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं
~ मुंशी प्रेमचंद (१८३१-१९३६)

हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए प्रेमचंद की एक नयी कहानी

उस धुंधले प्रकाश में उसका जर्जर शरीर, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर देखकर किसी अपरिचित मनुष्य को उसके पिशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोगों के कानों में आवाज आती—‘सत्त गुरुदत्त शिवदत्त दाता’ लोग समझ जाते कि भोर हो गयी।
(प्रेमचंद की "आत्माराम" से एक अंश)



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* जनवरी २००९ के पॉडकास्ट कवि सम्मेलन के लिए रिकॉर्डिंग भेजने की अन्तिम तिथि: १७ जनवरी २००९


#Twenty First Story, Atmaram: Munsi Premchand/Hindi Audio Book/2009/01. Voice: Shanno Aggarwal

Friday, January 9, 2009

"अमृता - इमरोज़"- रंजना भाटिया की नज़र में




पॉडकास्ट पुस्तक समीक्षा (अंक २)

अमृता इमरोज
लेखिका – उमा त्रिलोक
मूल्य – 120
प्रकाशक – पेंगुइन बुक्स इंडिया प्रा. लि. भारत
आईएसबीएन नं. – 0-14-309993-0


उमा त्रिलोक की किताब को पढ़ना मुझे सिर्फ़ इस लिए अच्छा नही लगा कि यह मेरी सबसे मनपसंद और रुह में बसने वाली अमृता के बारे में लिखी हुई है ..बल्कि या मेरे इस लिए भी ख़ास है कि इसको इमरोज़ ने ख़ुद अपने हाथो से हस्ताक्षर करके मुझे दिया है ...उमा जी ने इस किताब में उन पलों को तो जीवंत किया ही है जो इमरोज़ और अमृता की जिंदगी से जुड़े हुए बहुत ख़ास लम्हे हैं साथ ही साथ उन्होंने इस में उन पलों को समेट लिया है जो अमृता जी की जीवन के आखरी लम्हे थे. और उन्होंने हर पल उस रूहानी मोहब्बत के जज्बे को अपनी कलम में समेट लिया है

फ़िर सुबह सवेरे
हम कागज के फटे हुए टुकडों की तरह मिले
मैंने अपने हाथ में उसका हाथ लिया
उसने मुझे अपनी बाहों में भर लिया

और फ़िर हम दोनों एक सेंसर की तरह हँसे
और फ़िर कागज को एक ठंडी मेज पर रख कर
उस सारी नज़्म पर लकीर फेर दी !

मैंने इस किताब को पढ़ते हुए इसके हर लफ्जे को रुह से महसूस किया एक तो मैं उनके घर हो कर आई थी यदि कोई न भी गया हो तो वह इस किताब को पढ़ते हुए शिद्दत से अमृता के साथ ख़ुद को जोड़ सकता है ...उनके लिखे लफ्ज़ अमृता और इमरोज़ की जिंदगी के उस रूहानी प्यार को दिल के करीब ला देते हैं ..जहाँ वह लिखती है इमरोज़ की पेंटिंग और अमृता जी की कविताओं में, किरदारों में एक ख़ास रिश्ता जुडा हुआ दिखायी देता है ..एक ऐसा प्यार का रिश्ता जिसे सामजिक मंजूरी की जरुरत नही पड़ती है ...

मैं एक लोकगीत
बेनाम ,हवा में खड़ा
हवा का हिस्सा
जिसे अच्छा लगूं
वो याद कर ले
जिसे और अच्छा लगूं
वो अपना ले --
जी में आए तो गा भी ले
में एक लोकगीत
जिसको नाम की
जरुरत नही पड़ी...


प्यार के कितने रंग हैं और कितनी दिशाएँ और कितनी ही सीमायें हैं...कौन जान सकता है...

उमा जी का हर बार अमृता जी के यहाँ जाना रिश्तो की दुनिया का एक नया सफर होता...यह उन्होंने न केवल लिखा है बलिक इस को उनके लिखे में गहराई से महसूस भी किया जा सकता है...इस किताब में अमृता का अपने बच्चो के साथ रिश्ता भी बखूबी लिखा है उन्होंने..और इमरोज़ से उनके बच्चो के रिश्ते को बखूबी दर्शाया है लफ्जों के माध्यम से..उमा उनसे आखरी दिनों में मिली जब वह अपनी सेहत की वजह से परेशान थी तब उमा जी जो की रेकी हीलर भी है इस मध्याम से उनके साथ रहने का मौका मिला जिससे वह हर लम्हे को अपनी इस किताब में लिख पायी अपने आखरी दिनों की कविता "मैं तेनु फेर मिलांगी" जो उन्होंने इमरोज़ के लिए लिखी थी उसका अंगेरजी में अनुवाद करने को बोला था

इमरोज़ के भावों को उस आखरी वक्त के लम्हों को बहुत खूबसूरती से उन्होंने लिखा है...सही कहा है उमा जी ने की प्यार में मन कवि हो जाता है वह कविता को लिखता ही नही कविता को जीता है तभी उमा के संवेदना जताने पर इमरोज़ कहते हैं कि एक आजाद रुह जिस्म के पिंजरे से निकल कर फ़िर से आज़ाद हो गई...

अमृता इमरोज़ के प्यार को रुह से महसूस करने वालों के लिए यह किताब शुरू से अंत तक अपने लफ्जों से बांधे रखती है...और जैसे जैसे हम इस के वर्क पलटते जाते हैं उतने ही उनके लिखे और साथ व्यतीत किए लम्हों को ख़ुद के साथ चलता पाते हैं...

आज से कुछ साल पहले अमृता इमरोज़ ने समाज को धता बता कर साथ रहने का फैसला किया था. यह दस्तावेज है उनकी जुबानी उनकी कहानी का..इमरोज़ कहते हैं..."एक सूरज आसमान पर चढ़ता है. आम सूरज सारी धरती के लिए. लेकिन एक सूरज ख़ास सूरज सिर्फ़ मन की धरती के लिए उगता है,इस से एक रिश्ता बन जाता है,एक ख्याल,एक सपना,एक हकीक़त..मैंने इस सूरज को पहली बार एक लेखिका के रूप में देखा था,एक शायरा के रूप में,किस्मत कह लो या संजोग,मैंने इस को ढूंढ़ कर अपना लिया,एक औरत के रूप में,एक दोस्त के रूप में,एक आर्टिस्ट के रूप में,और के महबूबा के रूप में !"

कल रात सपने में एक
औरत देखी
जिसे मैंने कभी नही देखा था
इस बोलते नैन नक्श बाली को
कहीं देखा हुआ है ..

कभी कभी खूबसूरत सोचे
खूबसूरत शरीर भी धारण कर लेती है...




प्रस्तुति -रंजना भाटिया


Thursday, January 8, 2009

कुछ यूँ दिये निदा फ़ाज़ली ने जवाब



निदा फ़ाज़ली की ही आवाज़ में सुनिए हिन्द-युग्म के पाठकों के सवालों के जवाब


जवाब देते निदा फ़ाज़ली
हिन्द-युग्म ने यह तय किया है कि जनवरी २००९ से प्रत्येक माह कला और साहित्य से जुड़ी किसी एक नामी हस्ती से आपकी मुलाक़ात कराया करेगा। आपसे से सवाल माँगेंगे जो आप उस विभूति से पूछना चाहते हैं और उसे आपकी ओर से आपके प्रिय कलाकार या साहित्यकार के सामने रखेंगे। सारा कार्रक्रम रिकॉर्ड करके हम आपको अपने आवाज़ मंच द्वारा सुनवायेंगे।

हमने सोचा कि शुरूआत क्यों न किसी शायर से हो जाय। क्योंकि हिन्द-युग्म की शुरूआत भी कुछ रचनाकारों से ही हुई थी। ४ जनवरी २००९ को हमने आपसे मशहूर शायर निदा फ़ाज़ली से पूछने के लिए सवाल माँगे। आपने भेजे और हम ६ जनवरी को पहुँच गये निदा के पास। मुलाक़ात से जुड़े निखिल आनंद गिरि के अनुभव आप बैठक पर पढ़ भी चुके हैं।
आज हम लेकर आये हैं आपके सवालों के जवाब निदा फ़ाजली की ज़ुबाँ से। यह मुलाकात बहुत अनौपचारिक मुलाक़ात थी, इसलिए रिकॉर्डिंग की बातचीत भी वैसी है। आप भी सुनिए।




निदा फ़ाज़ली से पाठकों की ओर से सवाल किया है निखिल आनंद गिरि और शैलेश भारतवासी ने।

अंत में प्रेमचंद सहजवाला की निदा फ़ाजली से हुई बातचीत के अंश भी हैं।

ज़रूर बतायें कि आपको हमारा यह प्रयास कैसा लगा?

Wednesday, January 7, 2009

एक धक्का दो....जोश की जमीन पे, विश्वास बीन के...



आवाज़ की टीम गर्व के साथ पेश कर रही है एक बेहद प्रताभाशाली गायिका तरन्नुम मालिक

जैसा कि हमारे नियमित श्रोता जानते हैं कि आवाज़ पर नए संगीत का दूसरा सत्र बीते माह "जो शजर" गीत के साथ खत्म हो गया. इस सत्र में हमने कुल २७ गीत उतारे जिन्हें श्रोताओं का भरपूर प्यार मिला, ये गीत आजकल समीक्षा के दूसरे चरण में हैं जिसके बाद हमें मिलेंगें हमारे टॉप १० गीत जिसमें से कोई एक गीत होगा हमारे दूसरे सत्र का सरताज गीत. पर सत्र खत्म होने का ये कतई अर्थ नही है कि हम नई प्रतिभाओं को इस मंच के माध्यम से दुनिया के सामने रखना बंद कर देंगें. ये प्रक्रिया बदस्तूर जारी रहेगी.

२६ नवम्बर २००८ को जो कुछ मुंबई में हुआ, उससे हर संवेदनशील ह्रदय आहत हुआ. कलाकारों ने अपनी कला के माध्यम से आम आदमी के भीतर उबलते ज़ज्बातों को दुनिया के सामने रखा. रहमान ने शिवमणि के साथ मिलकर "जिया से जिया" गीत रच डाला. आदेश श्रीवास्तव ने उस्ताद रशीद खान और जोया अख्तर के साथ मिलकर एक नई एल्बम बनायी, वहीं सुनिधि चौहान ने वसुंधरा दास और श्रुति के साथ एक ऐसा गीत बनाया जिसमें इन आतंकवादी हमलों की कड़ी भर्त्सना की गई. शिबानी कश्यप ने भी इन हादसों में मरे मासूमों को समर्पित गीत रचा "अलविदा" जो आजकल चैनलों पर खूब बज रहा है. हिंद युग्म ने भी अपनी बात ऋषि-बिस्वजीत और सजीव की टीम के माध्यम से अपने अंदाज़ में कही, जिसे इन्टरनेट पर खासी लोकप्रियता मिली.


उभरते हुए लेखक और निर्देशक अभिषेक भोला ने इन घटनाओं के बाद अपना गुस्सा कुछ शब्दों में समेटा और अपने चंद दोस्तों को एस एम् एस कर दिया. उनकी एक दोस्त और तेज़ी से कमियाबी की दिशा में अग्रसर पार्श्व गायिका तरन्नुम मालिक ने उनके उन शब्दों को स्वरों का जामा पहना दिया, और इस तरह बना एक नया गीत "एक धक्का दो..". उनके प्रयासों से प्रभावित होकर एक और पार्श्व गायक मित्र जुबेन गर्ग ने अपने होम स्टूडियो में पहले इस गीत को तरन्नुम की आवाज़ में रिकॉर्ड किया. प्रयास से प्रयास जुड़ते गये, और गाने का दम ख़म देखकर संगीतकार ललित सेन उन्हें इस गीत को अपने स्टूडियो "सबा" में री-रिकॉर्डिंग और मिक्सिंग करने की अनुमति दी, जिससे गीत और निखर गया. अभिषेक ने अपने दोस्तों की इस मेहनत को और पुख्ता रूप देने के उद्देश्य से अपनी टीम लेकर व्यक्तिगत हैंडी कैम से मुंबई के नेशनल पार्क, मनौरी, नरीमन पॉइंट और गेट वे ऑफ़ इंडिया के कुछ स्थानों पर जाकर कुछ दृश्य फिल्माए. क्षेत्रीय लोगों ने और पर्यटकों ने इस शूट में हिस्सा लिया और इस तरह बना देशभक्ति और मानवता का संदेश देता एक जोशीला गीत.

सुनिए और महसूस कीजिये आज के हालतों में भी देश के युवाओं के मन में उठते तूफानों को -




टीम -

संगीतकार और गायिका - तरन्नुम मालिक
सह गायक - संतोष और सुहेल
गीतकार - अभिषेक भोला
प्रोग्रामर - ब्रिन्गी
रीकोरडिस्ट - रफीक (सबा स्टूडियो)
कैमरा - गुरदीप मेहरा
एडिटर - मानिल कुमार रे
विडियो निर्देशक - अभिषेक भोला और केशव मेहता
अभिनय - तरन्नुम मालिक, जगजीत सैनी, बोब्बी कुमार, शिवम् शर्मा, प्रीटी शर्मा, रवि और मुंबई वासी.


गायिका तरन्नुम से हम जल्दी ही आपका विस्तार से परिचय करवाएंगे. तब तक देखिये ये दमदार विडियो और इन उभरते हुए फनकारों को अपने विचार देकर प्रोत्साहित करें या मार्गदर्शन दें.



SPECIAL NEW SONGS SERIES # 01 "EK DHAKKA DO", OPENED ON AWAAZ HIND YUGM ON 07/01/2009

Tuesday, January 6, 2009

ताल से ताल मिला - रहमान के साथ



मोजार्ट ऑफ़ मद्रास को जन्मदिन की ढेरों शुभकामनाओं सहित -
बात तब की है, जब रहमान "गुरू" फिल्म के गाने रिकार्ड कर रहे थे। "नुसरत" साहब के एक बहुत हीं सोफ्ट-से गाने "सजना तेरे बिना" ने उन्हें बेहद प्रभावित किया था। गौरतलब बात है कि "रहमान" की गिनती नुसरत साहब के बड़े फैन्स में की जाती है। रहमान भी "सजना तेरे बिना" जैसा हीं कोई सोफ्ट-सा गाना तैयार करना चाहते थे। "नुसरत" साहब का या फिर कहिये उनकी दुआओं का यह असर हुआ कि २५ मिनट का गाना बन कर तैयार हो गया। छ:-सात मुखरों से सजे इस गाने की एडिटिंग शुरू हुई और अंतत: गाने को इसकी मुकम्मल और संतुलित लंबाई मिल गई। मज़े की बात यह है कि इस गाने से पहले रहमान ने "ऎ हैरते आशिकी" गाना भी बना लिया था. "ऎ हैरते आशिकी" के पीछे का वाक्या भी बड़ा हीं मज़ेदार है। अमीर खुसरो के एक नज़्म "ये शरबती आशिकी" ने "रहमान" पर गहरा असर किया था। रहमान इसे धुनों में उतारना चाहते थे, लेकिन फारसी की बहुलता आड़े आ रही थी। तब खेवनहार के तौर पर आए "गुलज़ार साहब" जिन्होने "ये शरबती आशिकी" को अलग हीं अंदाज़ देकर बना दिया "ऎ हैरते आशिकी",जिसे "क्यूँ उर्दू-फारसी बोलते हो, दस कहते हो, दो तोलते हो" जैसे मिसरों ने मिश्री-सा मीठा कर दिया। तो हाँ हम बात कर रहे थे उस २५ मिनट के गाने की। "गुरू" के निर्देशक मणिरत्नम को "ऎ हैरते आशिकी" भारी-भरकम-सा लग रहा था, जिसे वो फिल्म की शुरूआत में नहीं डालना चाहते थे। तब नुसरत साहब की दुआओं से उपजे गाने को फिल्म का पहला गाना बनने का मौका मिला। वह गाना था "तेरे बिना" ("सजना तेरे बिना" से "सजना" को देशनिकाला मिल गया ) । इस गाने को रहमान ने कादिर खान और चिन्मयी की आवाज़ों में रिकार्ड कर लिया । लेकिन तभी मणिरत्नम को "दिल से" के "दिल से" की याद आ गई। मणिरत्नम जिद्द पर अड़ गए कि यह गाना अगर रहमान खुद नहीं गाते तो गाना फिल्म में रहेगा हीं नहीं। रहमान द्वंद्व में, कादिर खान के साथ धोखा भी नहीं कर सकते थे,लेकिन गाना भी प्यारा था । अंतत: रहमान ने हामी भर दी और हमें रहमान की आवाज़ में प्यारा-सा गाना सुनने को मिल गया। वैसे गाने में कादिर खान की आवाज़ है, लेकिन महज़ आलाप में हीं।

कादिर खान की आवाज़ में "तेरे बिना" यहाँ सुने-



सौम्या राव की आवाज़ में "शौक है" सुनें,जिसे ओडियो में रीलिज नहीं किया गया, लेकिन फिल्म में विद्या बालन और माधवन पर फिल्माया गया था।


यह तो हम सभी जानते हैं कि रहमान का वास्तविक नाम "दिलीप कुमार" है। रहमान जब रहमान नहीं थे, बल्कि अपने दोस्तों के साथ संगीत तैयार करने वाले "दिलीप" थे, तब उन्होंने "शुभा" नाम की एक गायिका के साथ "सेट मी फ्री" (set me free) नाम का अंग्रेजी गानों का एलबम तैयार किया था। यह बात "रोजा" के रीलिज होने से पहले की है। इस एलबम को "मैंग्नासाउंड" नाम की कंपनी ने रीलिज किया था। चूँकि संगीतकार नया था, गीतकार नया था, गायिका नयी थी और लोगों की पसंद पुराने ढर्रे की, "सेट मी फ्री" कुछ ज्यादा कमाल नहीं कर सकी। दो साल बाद "रोज़ा" रीलिज हुई और "रहमान" रातोंरात अव्वल नंबर के संगीतकारों में शुमार हो गए । "रोज़ा" में पहली बार दिलीप को "ए०आर०रहमान" के रूप में पेश किया गया था। "दिलीप" के "ए०आर०रहमान" बनने की कहानी जितनी दु:खद(पिता की मृत्य, बहन की लाईलाज बिमारी)है,उतनी हीं रोमांचक भी है। "दिलीप" के पूरे परिवार ने धर्म-परिवर्तन का फैसला कर लिया था। "दिलीप" की माँ ज्योतिष में बेहद यकीन करती थी। चेन्नई के जानेमाने ज्योतिष "उलगनथम" के पास एक बार "दिलीप", उनकी बहन और उनकी माँ का जाना हुआ। उनकी माँ ने उस ज्योतिष से "दिलीप" के लिए कोई इस्लामिक नाम सुझाने का आग्रह किया। "उलगनथम" ने नाम दिया "अब्दुल रहमान" लेकिन कहा कि इसे "ए०आर०रहमान" कहो । बार-बार यह पूछने पर भी कि इसमें "आर०" किस शब्द के लिए है, उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया, बस इतना हीं कहा कि "ए०आर०रहमान" नाम हीं इसे प्रसिद्धि दिलायेगा। आगे चलकर प्रख्यात संगीतकार "नौशाद" की सलाह पर "ए०आर०" हुआ "अल्लाह रक्खा" । जब फिल्म रोजा रीलिज होने वाली थी,तो इस फिल्म के कैसेट्स के कवर पर "दिलीप कुमार" लिखने की पूरी तैयारी हो चुकी थी। तभी रहमान की माँ ने निर्देशक "मणिरत्नम" से संपर्क किया और उनसे गुजारिश की कि "दिलीप कुमार" की बजाय "ए०आर०रहमान" लिखा जाए और इस तरह "दिलीप" हो गए "ए०आर०रहमान" । हाँ तो हम बात कर रहे थे "सेट मी फ्री" की। रोज़ा की सफलता के बाद "मैग्नासाउंड" कंपनी ने "रहमान" के नाम को भुनाना चाहा। रहमान से इजाजत लिए बिना उन लोगों ने पुराने कैसेट्स को नए कवर में बाज़ार में उतार दिया, चेन्नई में जगह-जगह बड़ी-बड़ी होर्डिंग्स लगा दी और कैसेट को रहमान का सबसे पहला अंतर्राष्ट्रीय एलबम कहा गया । जाहिर सी बात है रीलौंच हुए कैसेट को "रहमान" के नाम के कारण बाज़ार तो मिलना हीं था, कैसेट्स हाथों-हाथ बिक गए,वही कैसेट जिसकी पहले केवल ३०० प्रतियाँ हीं बिकी थी। आज भी हम से कई "सेट मी फ्री" को आज के रहमान का एलबम मानते हैं, जबकी "रहमान" खुद इसके रीलौंच से नाराज़ थे। उनका कहना था कि यह कैसेट उनके लिए एक प्रयोग मात्र था,"मैग्नासाउंड" जब इसे रीलौंच हीं करना चाहती थी तो उनसे धुनों का कच्चापन तो खत्म करा लेती। लेकिन रूपयों के चकाचौंध ने "मैग्नासाउंड" की आँखों पर पट्टी डाला हुआ था। गनीमत देखिए कि उसी कंपनी ने २००६ में फिर से उसी एलबम को रीलिज किया है और इस बार भी "रहमान" के नाम ने उसे करोड़ों की कमाई करा दी है। यह है "रहमान" के संगीत का कमाल...........क्या हुआ कि कच्चा है....लेकिन है तो रहमान का हीं।

पिछले अंक में हम बातें कर रहे थे रहमान के संगीत के अनोखे अंदाज़ के बारे मे। रहमान जानते हैं कि उन्हें किस वाद्य-यंत्र से कितनी ध्वनि चाहिए। कल हम "ताल" की बात पर रूके थे। तो "ताल" का हीं किस्सा सुनाते हैं। "ताल से ताल मिला" की रिकार्डिंग हो रही थी। "रहमान" धुन तैयार कर चुके थे, अब बस म्युजिसियन्स या कहिए वादकों को अपना काम करना था। "ताल से ताल मिला" अगर आपको याद हो तो आप महसूस करेंगे कि इस गाने में "तबला" का बेहद खूबसूरत प्रयोग किया गया है। दर-असल इसका सारा श्रेय जाता है रहमान के अनूठेपन को। तबला-वादक इस गाने की धुन को बेहद आसान और कन्वेंशनल मान रहा था। लेकिन रहमान जानते थे कि उन इस गाने में तबले का प्रयोग कैसे करना है। उन्होंने तबला-वादक को अपनी ऊँगलियों में रबर-बैंड के सहारे आईस-क्रीम-स्टीक्स बाँधने को कहा ,फिर धुन भी अनकन्वेंशनल हो गई और तबले की आवाज भी।

तो चलिए सुनते हैं "ताल" से "ताल से ताल मिला"-



रहमान के स्टुडियो में गानों की रिकार्डिंग कितने अलहदा तरीके से होती है, उसके कई प्रमाण है। रहमान गानों की रिकार्डिंग के वक्त स्टुडियो की हरेक आवाज़ को रिकार्ड कर लेते हैं,फिर चाहे वह माईक का ग्लिच हीं क्यों ना हो। एक ऎसा हीं मज़ेदार वाक्या हुआ तमिल फिल्म "कदल वाईरस" के एक गाने की रिकार्डिंग के वक्त । गाने में नायक की खाँसी की आवाज़ की जरूरत थी। गाने की रिकार्डिंग के बीच में गायक खाँस पड़ता है। इस एक खाँसी के अलावा गाने की रिकार्डिंग के दौरान गायक कभी भी खाँसी की वास्तविक नकल नहीं कर पाता। खाँसी के बिना पूरी रिकार्डिंग खत्म हो जाती है। रहमान पहले से रिकार्ड कर रखी हुई गायक "मनू" की वास्तविक खाँसी को हीं गाने में फिट कर देते हैं। ऎसे हीं कई किस्से हैं जो रहमान को औरों से अलग करते हैं और परफेक्शनिस्ट बनाते हैं। कहा जाता है कि रहमान गायक के अनुसार धुन में फेरबदल नहीं करते,बल्कि धुन के मुताबिक गायक चुनते हैं। बहुत कम लोगों को यह पता होगा कि रहमान की बड़ी बहन "रेहाना" भी एक गायिका हैं ,लेकिन रहमान ने अपने कैरियर के १७ साल बीत जाने के बाद तमिल फिल्म "शिवाजी" में उन्हं गाने का अवसर दिया। रहमान संगीत को जीते हैं,इसलिए संगीत के साथ धोखा करने की सोच भी नहीं सकते । रहमान धुन के अनुसार गायको के साथ प्रयोग करते रहते हैं। यही कारण है कि हम "दौड़" फिल्म के एक गाने "ओ भंवरे" में "येशुदास" की आवाज़ सुनते हैं, जिसकी शायद हीं कोई कल्पना कर सकता है ।

आप भी "दौड़" के "ओ भँवरे" का मज़ा लीजिए:



रहमान ने किसी भी संगीतकार से ज्यादा ४ रजत कमल पुरस्कार(silver lotus, national award) प्राप्त किये हैं उन्हें ये पुरस्कार क्रमश: रोज़ा(१९९२), मिन्सारा कनावु(१९९७), लगान(२००१) और कनतिल मुतमित्तल(२००२)के लिए प्रदान किए गए। टाईम मैगजीन ने "रोज़ा" के संगीत को विश्व के सर्वश्रेष्ठ १० गीतों में शुमार किया है। टाईम मैगजीन ने रहमान को "मोज़ार्ट औफ मद्रास" की उपाधि से भी नवाज़ा है। पूरे विश्व में अबतक रहमान के १० करोड़ से भी ज्यादा साउंडट्रैकस एवं फिल्म -स्कोर्स बिक चुके हैं। यह उपलब्धि उन्हें संसार के १० सबसे बड़े रिकार्ड आर्टिस्टों की कतार में ला खड़ा करती है। यह किसी भी भारतीय के लिए फख़्र की बात है।

चलिए अंत में हम सुनते हैं रहमान का संगीतबद्ध एवं स्वरबद्ध किया हुआ फिल्म "लगान" का "बार-बार हाँ, चले चलो" गाना-



अंत में जाते-जाते रहमान को उनके जन्मदिवस पर ढेरों शुभकामनाएँ। खुदा करे कि उनपर बरकत बनी रहे और पूरा संगीत-जगत सदियों तक उनके संगीत और गीत का यूँ हीं लुत्फ़ लेता रहे। आमीन!!!!

चित्र में (उपर) शांत और सोम्य रहमान, (नीचे) प्रिय निर्देशक मणि रत्नम के साथ
प्रस्तुति - विश्व दीपक "तन्हा"




लक्ष्य छोटे हों या बड़े, पूरे होने चाहिए- शैलेश भारतवासी



डैलास, अमेरिका के एफ॰एम॰ रेडियो चैनल 'रेडियो सलाम नमस्ते' को दिये गये अपने साक्षात्कार में हिन्द-युग्म के संस्थापक-नियंत्रक शैलेश भारतवासी ने कहा कि किसी व्यक्ति या संस्था की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह चाहे छोटे लक्ष्य बनायें या बड़े लक्ष्य बनाये, उसे पूरा करे। शैलेश रेडियो सलाम नमस्ते के हिन्दी कविता को समर्पित साप्ताहिक कार्यक्रम 'कवितांजलि' के २१ दिसम्बर के कार्यक्रम में टेलीफोनिक इंटरव्यू दे रहे थे। हमें वह रिकॉर्डिंग प्राप्त हो गई है। आप भी सुनें, शैलेश की बातें और उसके बाद रेडियो सलाम नमस्ते के श्रोताओं की बातें।




आदित्य प्रकाश
यह कार्यक्रम डैलास, अमेरिका में ही वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत हिन्दी सेवी आदित्य प्रकाश सिंह द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। आदित्य प्रकाश की आवाज़ सुनकर हर एक हिन्दी प्रेमी को हिन्दी के लिए कुछ कर गुजरने की ऊर्जा मिलती है। आदित्य प्रकाश सिंह अपने खर्चे से दुनिया भर के हिन्दी कर्मियों को अपने कवितांजलि कार्यक्रम से जोड़ते हैं। यहाँ तक कि स्टूडियो तक आने-जाने का खर्च भी ये ही उठाते हैं। मूल रूप से भारत में बिहार के रहनेवाले आदित्य प्रकाश कविताओं के शौक़ीन तो हैं ही, खुद एक कवि भी हैं। कभी इनके बारे में हम आवाज़ पर विस्तार से बातें करेंगे।


Monday, January 5, 2009

वो जिसने हिन्दी फ़िल्म संगीत की तस्वीर ही बदल दी...- ए आर रहमान.




बात १९९१ की है। तमिल फिल्म इंडस्ट्री के बेहतरीन निर्देशक मणिरत्नम और बेहतरीन संगीतकार इल्लैया राजा की वर्षों पुरानी जोड़ी टूट चुकी थी। मणिरत्नम एक नए और फ्रेश संगीतकार की खोज में थे। हर साल की तरह उस साल भी मणिरत्नम का एक जानेमाने अवार्ड फंक्शन में जाना हुआ। समारोह शुरू होने से पहले वहाँ कुछ ऎड जिंगल्स (ad jingles) प्ले हो रहे थे। मणिरत्नम धुनों से काफी प्रभावित हुए। उन्होंने उस संगीतकार के कुछ और गानों की फरमाईश की। धुनों का असर बढता गया। समारोह के बाद मणिरत्नम उस संगीतकार के म्युजिक रिकार्डिंग स्टुडियो भी गए। उस गुमनाम संगीतकार ने अपना एक पुराना गीत मणिरत्नम को सुनाया, जिसे उसने बरसों पहले "कावेरी विवाद" के सिलसिले में तैयार किया था। मणिरत्नम ने तनिक भी देर न करते हुए, अपनी नई फिल्म के लिए इस गीत की माँग कर दी और साथ हीं साथ इस नए-से संगीतकार को साईन भी कर लिया। वह मकबूल फिल्म थी "बालचंदर्स कवितालय" की "रोज़ा", वह गाना था "तमिज़ा तमिज़ा", जो हिंदी में अनुवादित होकर हुआ "भारत हमको जान से प्यारा है" और वह अनजाना सा संगीत-दिग्दर्शक था महज़ २४ साल का "अब्दुल रहमान",जिसे आज सारी दुनिया "ए०आर०रहमान" के नाम से जानती है। जानकारी के लिए बता दूँ कि "तमिज़ा तमिज़ा" दर-असल तमिलनाडु की गौरवशाली भूमि,इतिहास एवं वर्त्तमान का बखान है, जिसे जब हिंदी में बदला गया तो इससे किसी प्रदेश की बजाय पूरे हिन्दुस्तान की बात जुड़ गई। रही बात "अब्दुल रहमान" की तो फिल्म-इंडस्ट्री में इससे बड़ी और अनोखी इंट्री आज तक किसी भी फनकार की नहीं हुई। पहली हीं फिल्म "रोज़ा" के गानों के लिए "रहमान" को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया।

चलिए अब अतीत में चलते हैं। "अब्दुल रहमान"(धर्म परिवर्त्तन से पहले ए०एस० दिलीप कुमार)के पिता मलयालम फिल्मों में संगीत दिया करते थे। सलिल चौधरी जैसे संगीतकारों का उनके घर आना-जाना लगा रहता था। ऎसे हीं एक दिन संगीतकार सुदर्शनम मास्टर का रहमान के घर आना हुआ तो उन्होंने देखा कि एक चार साल का बच्चा हार्मोनियम पर एक धुन प्ले कर रहा था। सुदर्शनम साहब ने धुन की लिखी हुई प्रति छुपा दी ताकि बच्चे की तल्लीनता एवं कर्मठता भांप सकें। वही हुआ, जिसका अंदेशा था। बच्चा उसी तत्परता से धुन प्ले करने में लगा रहा,मालूम होता था मानो धुन जबानी याद हो। सुदर्शनम साहब ने तत्क्षण रहमान के पिता को मशवरा दे डाला कि इसे संगीत-साधना में लगाओ। इस तरह महज़ चार साल की उम्र में हीं "रहमान" संगीत की शिक्षा लेने लगे । रहमान जब नौ साल के थे, तो उनके पिता का देहांत हो गया। रहमान उस घटना को याद करते हुए कहते हैं -"मैं संगीत को कभी भी गंभीरता से नहीं लेता था, मैं कम्प्यूटर या इलेक्ट्रानिक इंजीनियर बनना चाहता था, लेकिन पिता की मौत ने मेरे सामने बस एक हीं रास्ता छोड़ा - संगीत। पूरे परिवार की जिम्मेदारी मेरे हीं कंधे पर आ गई। पैसों की कमी थी, इसलिए पहले तो संगीत के साज़-औ-सामान की निलामी करनी पड़ी,लेकिन जब उससे भी काम न बना तो मैं इल्लैया राजा के ट्रुप में की-बोर्ड प्लेअर की तौर पर शामिल हो गया। गिटार बजाना भी वहीं सीखा।" और फिर यूँ संगीत की दुनिया को एक बेजोड़ हीरा मिला,जिसे वक्त ने तराशा था। इसे भी वक्त की विडम्बना कहिये कि जिस दिन उनके पिता की मृत्यु हुई उसी दिन उनका ख़ुद का स्वरबद्ध किया पहला गीत बाज़ार में आया था.

रहमान की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वे धुनों पर अपनी छाप छोड़ना जानते हैं। चाहे धुन कितने भी पारंपरिक क्यूँ न हों, रहमान उसे अपने अलहदा अंदाज में लिखते हैं और अंततोगत्वा वही धुन कुछ नया हीं होकर निकलता है। उनके साउंड रिकार्डिस्ट "श्रीधर" रहमान की इस खूबी के बारे में कहते हैं- "उन्हें अपने हर गाने की खास जरूरत मालूम होती है। मसलन बांसूरी से बस कलरव करती हवा की आवाज़........" । आप रोज़ा का "रोज़ा जानेमन ...." सुने, वहाँ अंतरा के दो छंदों के मध्य आपको बांसुरी का बड़ा हीं मनोरम एवं अनूठा प्रयोग सुनाई देगा। रहमान की यही विशेषता है, जो उन्हें औरों से जुदा करती है।

सुनिए "रोजा जाने मन.." फ़िल्म रोजा से-



अमिताभ बच्चन कार्पोरेशन लिमिटेड(ए०बी०सी०एल०) के तहत आई मणिरत्नम की फिल्म "बम्बे" ने ए०आर०रहमान० के कैरियर को एक अलग हीं ऊँचाई दी। फिल्म हिंदी में डब हुई और सारे गाने बेहद लोकप्रिय हुए। रहमान के लिए बालीवुड के रास्ते खुल गए। राम गोपाल वर्मा ने "रंगीला" के गाने "रहमान" से तैयार करवाए और "रहमान" के संगीत का जादू देखिए कि फिल्म "म्युजिकल" नहीं होकर भी बहुत बड़ी "म्युजिकल हिट" साबित हुई। "रंगीला" के "हाय रामा" गाने को कौन भूल सकता है। हरिहरन की आवाज़ का संतुलन और स्वर्णलता का मदहोश कर देने वाला स्वर बड़ी हीं बारीकी से दिल में उतरता है। भारतीय एवं पाश्चात्य वाद्य-यंत्रों का एक साथ ऎसा प्रयोग भला और कौन संगीतकार कर सकता था। "प्यार ये जाने कैसा है" में सुरेश वाडेकर एवं कविता कृष्णमूर्ति की आवाज़ एवं शास्त्रीय संगीत की स्वर-लहरियाँ रहमान की प्रतिभा का एक नया आयाम दर्शाती हैं । बारीकी से देखें तो यकीनी तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस फिल्म के सभी गाने एक-दूसरे से बेहद अलहदा थे।

सुनिए "प्यार ये जाने कैसा है..." फ़िल्म रंगीला से-



रंगीला के बाद आई रहमान को पहला ब्रेक देने वाले मणिरत्नम की फिल्म "दिल से" और इस फिल्म ने साबित कर दिया कि रहमान कितना दिल से काम करते हैं। "दिल से" के गाने "छैंया छैंया" में रहमान ने "सुखविंदर सिंह" को मौका दिया और इस मौके ने पूरे हिन्दी-फिल्म एवं संगीत जगत को दिया एक नया सितारा। "सुखविंदर" आज भी अपनी कामयाबी का पूरा श्रेय रहमान को हीं देते हैं। फिल्म में रहमान ने एक गाना "दिल से" को अपनी आवाज़ दी और देखते हीं देखते रहमान की आवाज़ कश्मीर से कन्याकुमारी तक फैल गई। सारे संगीत प्रेमी उस सीधी एवं सुलझी हुई आवाज़ के कायल हो गए। यूँ तो रहमान को "हिंदी" की ज्यादा जानकारी नहीं है,लेकिन उनकी आवाज़ सुनकर ऎसा तनिक भी महसूस नहीं होता।

"दिल से" के बाद रहमान ने और भी कई हिंदी फिल्मों में संगीत दिया, मसलन "दौड़", "कभी न कभी", "शिखर" ,"लव यू हमेशा" ,"१९४७-अर्थ' , लेकिन रहमान को बालीवुड में सही पहचान मिली फिल्म "ताल" की सफलता के बाद। "ताल" के बाद हीं उन्हें बालीवुड संगीतकारों की फेहरिश्त में शामिल किया जाने लगा। "अर्थ" के दो गाने "रूत आ गई रे" और "ईश्वर अल्लाह" ने भी खासा नाम किया था ,लेकिन फिल्म के बाकी गाने कुछ ज्यादा प्रभाव नहीं दिखा सके। "रूत आ गई रे" को सुखविदंर अब भी अपना सबसे पसंदीदा गाना मानते हैं ...इस गाने में है हीं ऎसी बात कि जो भी सुन ले,वो खो जाए। "ईश्वर अल्लाह" में रहमान के संगीत के साथ-साथ जावेद अख्तर के बोल भी बेहद हृदय-स्पर्शी हैं।

सुनिए "रुत आ गई रे..." फ़िल्म १९४७ - अर्थ से रहमान का गीत -



चित्र में उपर - रहमान पत्नी सैरा बानो के साथ, (याद कीजिये फ़िल्म बॉम्बे में नायिका का भी यही नाम था...)

देखिये रहमान का शायद सबसे पहला इंटरव्यू जो उन्होंने दूरदर्शन के सुरभि कार्यक्रम के लिए दिया था. तब उनकी पहली फ़िल्म "रोजा" प्रर्दशित हुई ही थी.




प्रस्तुति - विश्व दीपक "तन्हा"
(जारी....)

Sunday, January 4, 2009

"हौले हौले" से "जय हो"...- सुखविंदर सिंह का जलवा



सुनिए गोल्डन ग्लोब के लिए नामांकित फ़िल्म स्लमडोग मिलनिअर का जबरदस्त गीत "जय हो..."

आवाज़ के टीम और श्रोताओं ने मिल कर जिस गीत को साल २००८ का सरताज गीत चुना वो है फ़िल्म "रब ने बना दी जोड़ी" का "हौले हौले..." . हौले हौले से जादू बिखेरने वाले इस गीत को गाया है "छैयां छैयां" से रातों रातों सुपर सिंगर बने सुखविंदर सिंह ने. तब से अब तक हर साल सुखविंदर अपने किसी न किसी गीत के माध्यम से टॉप सूची में रहते ही हैं. जहाँ इसी साल फ़िल्म टशन में उनका गाया "दिल हारा रे..." भी हमारी सूची में अपनी जगह बनने में कामियाब रहा वही बीते सालों पर नज़र डालें तो "दर्द-ऐ-डिस्को", "चक दे इंडिया" और ओमकारा के शीर्षक गीत के अलावा इसी फ़िल्म का "बीडी जलाई ले" खासा लोकप्रिय हुआ था. पर कई मायनों में अगर हम देखें तो "हौले हौले" उनकी परिचित शैली से बिल्कुल अलग तरह का गीत है और पहली बार सुनने पर यकीं ही नही होता कि ये वाकई सुखविंदर का गीत है.


और अब हॉलीवुड के सबसे बड़े निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग की फ़िल्म के लिए भी वो गा रहे हैं. ख़ुद सुखविंदर के शब्दों में "स्टीवन स्पीलबर्ग की टीम ने मुझसे संपर्क किया और ये गीत गाने की गुजारिश की, ये एक पारंपरिक लोक गीत है जो कच्छ गुजरात की मिटटी का है और ये गीत जीवन के उत्सव की बात करता है, वैसे मेरा हॉलीवुड कनेक्शन तो "स्लमडोग मिलनिअर" से ही शुरू हो चुका था जहाँ मैंने रहमान जी का स्वरबद्ध किया और गुलज़ार जी का लिखा "जय हो" गीत गाया था. ये गीत मेरा ख़ुद का बहुत पसंदीदा है, मैं जब भी इसे सुनता हूँ, मुस्कुराने लगता हूँ..."

गौरतलब है कि रहमान को इसी फ़िल्म के लिए गोल्डन ग्लोब का नामांकन मिला है. रहमान के बारे में सुखविंदर कहते हैं -"वो एक जीनिअस हैं जिन्होंने भारतीय संगीत को विश्व मंच दिया है. स्वभाव से भी वो बहुत शांत और जमीन से जुड़े हुए इंसान हैं, उन्हें कविता से प्रेम है और वह शख्स संगीत खाता है संगीत पीता है और संगीत से ही साँस लेता है, उनके रोम रोम में संगीत है और उनके जेहन में दिन रात बस संगीत का जनून छाया रहता है..."

बहरहाल इस नए साल में हम सब तो यही चाहेंगें कि रहमान साहब अपनी इस फ़िल्म के लिए गोल्डन ग्लोब जीते. ये भारतीय संगीत के लिए एक बड़ी घटना होगी. सुखविंदर भी इस साल अपने नए गीतों से हम सब को चकित करते रहें. आने वाली फ़िल्म "बिल्लू बार्बर" में उनके गाये गीत श्रोता जल्दी ही सुनेंगें, फिलहाल हम आपको सुनवाते हैं, गोल्डन ग्लोब के लिए नामांकित फ़िल्म "स्लमडोग मिलनिअर" से सुखविंदर का गाया गीत "जय हो...". कहते हैं जीनिअस के काम पहली बार में कम समझ आता है, पर हमारे शब्दों पर यकीन करें इस गीत को धैर्य के साथ ४-५ बार सुनें और अगर इसका जादू आपके सर चढ़ कर न बोले तो कहियेगा. तो सुनिए और दुआ कीजिये कि "जय हो" हमारे संगीत कर्णधारों की विश्व मंच पर भी.




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