Saturday, October 29, 2011

जाँनिसार अख्तर की पोयट्री में क्लास्सिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का संतुलन था - विजय अकेला की पुस्तक से



ओल्ड इज़ गोल्ड - शनिवार विशेष - 65
गीतकार विजय अकेला से बातचीत उन्हीं के द्वारा संकलित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' पर (भाग-१)

'ओल्ड इज़ गोल्ड' के सभी श्रोता-पाठकों को सुजॉय चटर्जी का प्यार भरा नमस्कार! 'शनिवार विशेषांक' के साथ मैं एक बार फिर हाज़िर हूँ। दोस्तों, आपनें इस दौर के गीतकार विजय अकेला का नाम तो सुना ही होगा। जी हाँ, वो ही विजय अकेला जिन्होंने 'कहो ना प्यार है' फ़िल्म के वो दो सुपर-डुपर हिट गीत लिखे थे, "एक पल का जीना, फिर तो है जाना" और "क्यों चलती है पवन... न तुम जानो न हम"; और फिर फ़िल्म 'क्रिश' का "दिल ना लिया, दिल ना दिया" गीत भी तो उन्होंने ही लिखा था। उन्हीं विजय अकेला नें भले ही फ़िल्मों में ज़्यादा गीत न लिखे हों, पर उन्होंने एक अन्य रूप में भी फ़िल्म-संगीत जगत को अपना अमूल्य योगदान दिया है। गीतकार आनन्द बक्शी के गीतों का संकलन प्रकाशित करने के बाद हाल ही में उन्होंने गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों का संकलन प्रकाशित किया है, जिसका शीर्षक है 'निगाहों के साये'। आइए आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम विजय अकेला जी से बातचीत करें और जानने की कोशिश करें इस पुस्तक के बारे में।

सुजॉय - विजय जी, बहुत बहुत स्वागत है आपका 'आवाज़' के इस मंच पर। मैं सुजॉय चटर्जी, आप का इस मंच पर स्वागत करता हूँ, नमस्कार!

विजय अकेला - नमस्कार सुजॉय जी!

सुजॉय - सबसे पहले मैं आपको बधाई देता हूँ 'निगाहों के साये' के प्रकाशित होने पर। आगे कुछ कहने से पहले मैं आपको यह बता दूँ कि जाँनिसार साहब का लिखा यह जो गीत है न "ये दिल और उनकी निगाहों के साये", यह बचपन से मेरा पसन्दीदा गीत रहा है।

विजय अकेला - जी, बहुत ही सुकून देने वाला गीत है, और संगीत भी उतना सुकूनदायक है इस गीत का।

सुजॉय - क्या इस किताब के लिए यह शीर्षक 'निगाहों के साये' आप ही नें सुझाया था?

विजय अकेला - जी हाँ।

सुजॉय - यही शीर्षक क्यों?

विजय अकेला - क्योंकि यह उनका न केवल एक हिट गीत था, बल्कि कोई भी इस गीत से उन्हें जोड़ सकता था। यही शीर्षक मुझे सब से बेहतर लगा।

सुजॉय - तो चलिए इसी गीत को सुनते हैं, फ़िल्म 'प्रेम पर्बत' का यह गीत है लता जी की आवाज़ में, जयदेव का संगीत है।
गीत - ये दिल और उनकी निगाहों के साये (प्रेम पर्बत)


सुजॉय - अच्छा विजय जी, यह बताइए कि आप नें संकलन के लिए आनन्द बक्शी जी के बाद जाँनिसार साहब को ही क्यों चुना?

विजय अकेला - बक्शी जी ही की तरह जाँनिसार साहब की भी फ़िल्मी गानों की कोई किताब नहीं आई थी। जाँनिसार साहब भी एक ग़ज़ब के शायर हुए हैं और मैं उनसे मुतासिर रहा हूँ, इसलिए मैंने उन्हें चुना। गोल्डन ईरा उनकी वजह से महकी है, रोशन हुई है ऐसा मैं मानता हूँ।

सुजॉय - विजय जी, इससे पहले कि मैं आप से अगला सवाल पूछूँ, मैं अपने पाठकों की जानकारी के लिए यहाँ पर 'निगाहों के साये' किताब की भूमिका में वो शब्द प्रस्तुत करता हूँ जो किसी समाचार पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं इसी किताब के बारे में।

'निगाहों के साये' मशहूर शायर जाँनिसार अख़्तर की फ़िल्मी यात्रा का एक ऐसा संकलन है जिसमें ग़ज़लों की रवानी है तो गीतों की मिठास भी और भावनाओं का समन्दर है तो जलते हुए जज़्बात भी। इसीलिए इस संकलन के फ़्लैप पर निदा फ़ाज़ली नें लिखा है: "जाँनिसार अख़्तर एक बाहेमियन शायर थे। उन्होंने अपनी पोयेट्री में क्लासिकल ब्यूटी और मॉडर्ण सेंसब्लिटी का ऐसा संतुलन किया है कि उनके शब्द ख़ासे रागात्मक हो गए हैं।" १९३५-३६ में ही जाँनिसार अख़्तर तरक्के पसंद आंदोलन का एक हिस्सा बन गए थे। सरदार जाफ़री, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ और साहिर लुधियानवी की तरह अख़्तर साहब फ़िल्मी दुनिया के इल्मी शायर थे। विजय अकेला द्वारा संपादित यह संकलन कई अर्थों में विशिष्ट है। २१८ गीतों को तिथिवार सजाया गया है। पहला गीत 'शिकायत' फ़िल्म से है जिसकी रचना १९४८ में हुई थी और अंतिम गीत 'रज़िया सुल्तान' से है जिसे शायर नें १९८३ में रचा था। यानी ३५ वर्षों का इतिहास इस संकलन में है। कई ऐसी फ़िल्मों के नग़में भी इस संग्रह मे हैं जो अप्रदर्शित रहीं जैसे 'हम हैं राही प्यार के', 'मर्डर ऑन हाइवे', 'हमारी कहानी'। यह विजय अकेला का साहसिक प्रयास ही है कि ऐसी दुर्लभ सूचनाएँ इस पुस्तक में पढ़ने को मिलती हैं। इसके साथ डॉ. गोपी चंद नारंग का संस्मरण 'इंकलाबों की घड़ी' है, जावेद अख़्तर के साथ बातचीत के अंश, नैनिताल और भोपाल से जाँनिसार अख़्तर की बेगम सजिया अख़्तर के लिखे दो ख़त, हसन कमाल की बेबाक टिप्पणी, ख़य्याम का भाव से भरा लेख, सपन (जगमोहन) की भावभीनी श्रद्धांजलि आदि इस पुस्तक में दी गई हैं।


सुजॉय - तो दोस्तों, अब आपको अंदाज़ा हो गया होगा कि विजय जी के इस पुस्तक का क्या महत्व है गुज़रे ज़माने के अनमोल नग़मों के शौकीनों के लिए। अच्छा विजय जी, बातचीत को आगे बढ़ाने से पहले क्यों न एक गीत सुन लिया जाये अख़त्र साहब का लिखा हुआ और आपकी पसंद का भी?


विजय अकेला - ज़रूर, 'छू मंतर' का "ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना"

सुजॉय - वाह! "तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना", आइए सुनते हैं रफ़ी साहब की आवाज़ और नय्यर साहब की तर्ज़।

गीत - ग़रीब जान कर मुझको न तुम मिटा देना (छू मंतर)


सुजॉय - विजय जी, आपके इस पुस्तक के बारे में तो हमनें उस समाचार पत्र में छपे लेख से जान लिया, पर यह बताइए कि हर एक गीत के पूरे-पूरे बोल आपनें कैसे प्राप्त किए? किन सूत्रों का आपनें सहारा लिया?

विजय अकेला - CDs तो जाँनिसार साहब की फ़िल्मों के जैसे मार्केट में थे ही नहीं, एक 'रज़िया सुल्तान' का मिला, एक 'नूरी' का, एक 'सी.आई.डी' का, बस, और नहीं।

सुजॉय - जी, तो फिर बाकी आपनें कहाँ ढूंढे?

विजय अकेला - मुझे फ़िल्म-हिस्टोरियन सी. एम. देसाई साहब के पास जाना पड़ा। फिर आकाशवाणी की लाइब्रेरी में जहाँ FM पे मैं जॉकी भी हूँ, और फिर आख़िर में जावेद (अख़्तर) साहब के भाई शाहीद अख़्तर के पास गया जिनको जाँनिसार साहब नें अपने रेकॉर्ड्स, फ़ोटोज़, रफ़ बूक्स वगेरह दे रखी थी, और जिन्होंने उन्हें सम्भाल कर रखा भी था।

सुजॉय - सुनार को ही सोने की पहचान होती है।

विजय अकेला - मगर रेकॉर्ड्स मिलने के बाद प्रोब्लेम यह आई कि इन्हें कहाँ सुनी जाए, कोई रेकॉर्ड-प्लेयर तो है नहीं आज!

सुजॉय - बिल्कुल! पर आपकी यह समस्या का समाधान कैसे हुआ, यह हम जानेंगे अगली कड़ी में। और भी कुछ सवाल आप से पूछने हैं, लेकिन आज बातचीत को यहीं विराम देंगे, लेकिन उससे पहले जाँनिसार साहब का लिखा आपकी पसंद का एक और गीत सुनना चाहेंगे।

विजय अकेला - "मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है"

सुजॉय - बहुत ख़ूब! 'ब्लैक कैट' फ़िल्म का गीत है, एन. दत्ता का संगीत है, लता जी की आवाज़, सुनते हैं।
गीत - मैं तुम्ही से पूछती हूँ मुझे तुमसे प्यार क्यों है (ब्लैक कैट)


तो दोस्तों, यह थी बातचीत गीतकार विजय अकेला से उनके द्वारा संकलित व सम्पादित गीतकार जाँनिसार अख़्तर के गीतों की किताब 'निगाहों के साये' से सम्बंधित। इस बातचीत का दूसरा व अन्तिम भाग आप तक पहुँचाया जायेगा अगले सप्ताह इसी स्तंभ में। आज अनुमति दीजिये, और हमेशा बने रहिए 'आवाज़' के साथ। नमस्कार!

Thursday, October 27, 2011

रिश्ता ये कैसा है....जिस रिश्ते से बंधे हैं जगजीत और उनके चाहने वाले



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 775/2011/215

मस्कार! 'जहाँ तुम चले गए', इन दिनों 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी है गायक और संगीतकार जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप यह लघु शृंखला में जिसमें हम उनके गाये और स्वरबद्ध गीत सुन रहे हैं। अब तक हमने इस शृंखला में चार गीत सुनें जगजीत जी द्वारा स्वरबद्ध किए हुए, जिनमें से दो उन्हीं के गाये हुए थे, तथा एक एक गीत लता जी और आशा जी की आवाज़ में थे। आज जो गीत हम लेकर आये हैं, उसे भी जगजीत जी नें ही कम्पोज़ किया है, पर गाया है उनकी पत्नी और गायिका चित्रा सिंह नें। यह गीत है फ़िल्म 'आज' का "रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है"। यह १९९० की फ़िल्म थी महेश भट्ट द्वारा निर्देशित। फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज किरण, कुमार गौरव, अनामिका पाल, स्मिता पाटिल और मार्क ज़ुबेर। फ़िल्म के तमाम गीत जगजीत और चित्रा सिंह नें गाये। फ़िल्म का शीर्षक गीत जगजीत जी का गाया हुआ था। फ़िल्म 'राही' के उसी गीत की तरह यह भी एक आशावादी दार्शनिक गीत था "फिर आज मुझे रुमको बस इतना बताना है, हँसना ही जीवन है, हँसते ही जाना है"। आज का प्रस्तुत गीत भी बड़ा ख़ूबसूरत गीत है, बोलों के लिहाज़ से भी और संगीत के लिहाज़ से भी। इस गीत को लिखा है मदन पाल नें। मदन पाल का नाम फ़िल्मी गीतकार के रूप में ज़्यादा चर्चित नहीं हुआ पर इस गीत के बोलों पर ग़ौर करें तो अनुमान लगाया जा सकता है कि वो किस स्तर के गीतकार थे...

"रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है।
पहचान जिससे नहीं थी कभी
अपना बना है वही अजनबी,
रिश्ता ये कैसा है, नाता ये कैसा है।
तुम्हे देखते ही रहूँ मैं हमेशा
मेरे सामने यूं ही बैठे रहो तुम,
करूँ दिल की बातें मैं ख़ामोशियों से,
और अपने लबों से न कुछ भी कहो तुम,
ये रिश्ता है कैसा, ये नाता है कैसा।
तेरे तन की ख़ुशबू भी लगती है अपनी
ये कैसी लगन है ये कैसा मिलन है
तेरे दिल की धड़कन भी लगती है अपनी
तुम्हे पाके महसूस होता है ऐसे
के जैसे कभी हम जुदा ही नहीं थे
ये माना के जिस्मों के घर तो नए हैं
मगन है पुराने ये बंधन दिलों के।"


दोस्तों, पिछली चार कड़ियों में हमनें कई कलाकारों के शोक संदेश पेश किए, आइए आज भी कुछ और शोक संदेश पढ़ें। गायिका उषा उथुप कहती हैं - "I can’t believe it. It was because of him that ordinary men could enjoy good Ghazal. We worked together in a jingle when I was just staring my career. "He is the person who introduced the 12-string guitar and the bass guitar in ghazal singing, in a way no one could. I spoke to him recently. What a human being. It is a great loss." समकालीन ग़ज़ल गायक पंकज उधास नें जगजीत सिंह को वर्सेटाइल सिंगर कहते हुए बताया कि "I am devastated after hearing the tragic news." दोस्तों, आज दीपावली है, आप सभी को शुभकामनाएँ देते हुए जगजीत सिंह के संगीत का दिया जलाते हैं और सुनते हैं चित्रा जी की मनमोहक आवाज़ में यह ख़ूबसूरत गीत।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
आवाज़ है दिलराज कौर की, और मुखड़े में शब्द है "देवी"

पिछले अंक में

खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Wednesday, October 26, 2011

तेरे गीतों की मैं दीवानी ओ दिलबरजानी...फिल्म संगीत की शोखियों से भी वाकिफ़ थे जगजीत



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 774/2011/214

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की एक और कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। दोस्तों, चारों तरफ़ दीवाली की धूम है, ख़ुशियों भरा आलम है, पर इस बार दीवाली मनाने को जी नहीं करता। ग़ज़लों के शहदाई ग़मगीन हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह के आकस्मिक निधन से। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर इन दिनों जारी है स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप उन्हें समर्पित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। इसमें हम न केवल उनके गाये फ़िल्मी गीत सुनवा रहे हैं, बल्कि ज़्यादा से ज़्यादा कोशिश यही है कि उनके द्वारा स्वरबद्ध फ़िल्मों के गीत शामिल किए जाएँ। आज हमनें जिस गीत को चुना है, उसे जगजीत सिंह नें स्वरबद्ध किया है और गाया है आशा भोसले नें। गीत के बारे में बताने से पहले ये रहा आशा जी का शोक संदेश - "जगजीत जी की ग़ज़लें मन को शान्ति देती है, उनकी ग़ज़लों को सुनना एक सूदिंग् एक्स्पीरियन्स होता है। अगर किसी को दैनन्दिन तनाव से बाहर निकलना चाहता है तो सबसे अच्छा साधन है जगजीत सिंह का कोई रेकॉर्ड बजाना। मुझे चित्रा के लिए बहुत अफ़सोस है। उन्होंने पहले अपने बेटे को खोया, और अब पति को। वो अब बहुत अकेली हो गई है"। और दोस्तों, लता जी की तरह आशा जी की फ़ेवरीट ग़ज़ल है "सरकती जाये है रुख़ से नकाब"।

आशा जी के गाये जिस गीत को हम आज सुनने जा रहे हैं वह है फ़िल्म 'प्रेम गीत' का, "तेरे गीतों की मैं दीवानी, ओ दिलबरजानी, तूने कही और मैंने मानी, ओ दिलबरजानी"। 'प्रेम गीत' १९८१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण पवन कुमार और लखन सिन्हा नें किया। सूदेश इसार निर्देशित इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे राज बब्बर और अनीता राज। फ़िल्म के गीत लिखे इन्दीवर नें और संगीत के लिए चुना गया जगजीत सिंह को। उत्तम सिंह इस फ़िल्म में जगजीत सिंह के सहायक के रूप में काम किया था। फ़िल्म की कहानी कुछ इस तरह की थी कि आकाश और शिखा साथ में एक डान्स ट्रूप में काम करते हैं और दोनों में प्यार हो जाता है। पर कहानी उस समय नाटकीय मोड़ लेती है जब शिखा को ब्रेन कैन्सर हो जाता है और वो गर्भवती भी है। फ़िल्म के सभी गीत बेहद सराहे गये थे, जैसे कि "होठों से छू लो तुम, मेरा गीत अमर कर दो" (जगजीत सिंह), "आओ मिल जायें हम सुगन्ध और सुमन की तरह" (अनुराधा, सुरेश), "देख लो आवाज़ देकर पास अपने पाओगे" (अनुराधा), "ख़्वाबों को सच न कर दूँ एक रात ऐसी दे दो" (सुरेश), "दुल्हे राजा आयेंगे सहेली को ले जायेंगे" (आशा, साथी), "तुमने क्या क्या किया है हमारे लिए" (आशा), और आज का प्रस्तुत गीत। तो आइए सुना जाये आज का गीत। इस गीत को सुन कर इस बात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जगजीत सिंह को अगर मौका दिया जाये तो वो किसी भी व्यावसायिक सफल संगीतकार से किसी बात में कम नहीं है। यह गीत न तो कोई ग़ज़ल है न ही कोई संजीदा गाना, बल्कि एक हल्का-फुल्का स्टेज गीत। गीत में अरबी शैली की झलक मिलती है। आइए सुना जाये।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
मदन पाल रचित ये गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है -"अजनबी"

पिछले अंक में
ये हुई न बात अमित जी
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


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Tuesday, October 25, 2011

ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो....आशा के स्वर जगजीत के सुरों में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 773/2011/213

मस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं ग़ज़ल सम्राट जगजीत सिंह को, जिनका पिछले १० अक्टूबर को देहावसान हो गया। 'जहाँ तुम चले गए' शृंखला की कल की कड़ी में हमने लता जी का शोक-संदेश आप तक पहुंचाया था, आइए आज कुछ और शोक-संदेश पढ़ें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नें कहा कि जगजीत सिंह अपने गोल्डन वायस के लिए हमेशा याद किए जायेंगे। उनके शब्दों में - "by making ghazals accessible to everyone, he gave joy and pleasure to millions of music lovers in India and abroad....he was blessed with a golden voice. The ghazal maestro’s music legacy will continue to “enchant and entertain” the people." गीतकार जावेद अख़्तर बताते हैं, "जगजीत सिंह की मृत्यु नें हिन्दी फ़िल्म और म्युज़िक इंडस्ट्री को कभी न पूरी होने वाले क्षति पहुँचाई है। मैंने उनको पहली बार स्कूल में रहते हुए सुना था जब मैं IIT Kanpur के एक कार्यक्रम में गया था, वह था 'Music Night by Jagjit Singh and Chitra'।" शास्त्रीय गायिका शुभा मुदगल नें कहा - "He was an icon. There is nothing I can say to console his wife (Chitra). All I can say is that he will never be forgotten. I pray to God to give her the strength to recover from the loss."

आज की कड़ी के लिए हमने जिस गीत को चुना है, वह है फ़िल्म 'राही' का। फ़िल्म में संगीत जगजीत सिंह और चित्रा सिंह का था। 'राही' १९८७ की फ़िल्म थी जिसमें संजीव कुमार, शत्रुघ्न सिंहा और स्मिता पाटिल नें मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। लखन सिंहा निमित व रमण कुमार निर्देशित इस फ़िल्म में जगजीत सिंह और चित्रा सिंह के गाये गीत तो थे ही, साथ ही आशा भोसले, सुरेश वाडकर, महेन्द्र कपूर, मीनू पुरुषोत्तम और भुपेन्द्र के गाये गीत भी शामिल थे। फ़िल्म ज़्यादा नहीं चली, इसके गानें भी अनसुने ही रह गए, पर एक गीत जो रेडियो पर काफ़ी गूंजा, वह था जगजीत जी की एकल आवाज़ में ज़िन्दगी से भरपूर "ज़िन्दगी में सदा मुस्कुराते रहो, फ़ासले कम करो, दिल मिलाते रहो"। आज जब जगजीत जी हमारे बीच नहीं है, इस गीत को सुनते हुए ऐसा लगता है कि वो यहीं कहीं आसपास हैं। यह गीत ही इतना आशावादी है, ज़िन्दगी से लवरेज़ है कि इस गीत को सुनते हुए यह कल्पना करना मुश्किल हो जाता है कि इसे गाने वाला शारीरिक रूप से हमारे साथ नहीं है। आइए इस गीत को सुनें और उनके कहेनुसार मुस्कुरायें और उनके मुस्कुराते हुए चेहरे को याद करें। गीतकार हैं नक्श ल्यालपुरी।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
आशा की आवाज़ में है ये गीत जगजीत द्वारा संगीतबद्ध

पिछले अंक में
एक बार फिर अमित जी एकदम सही हैं आप
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Monday, October 24, 2011

सिंदूर की होय लम्बी उमरिया...जगजीत और लता जी की पहली भेंट



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 772/2011/212

नमस्कार! 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में कल से हमने शुरु की है मशहूर ग़ज़ल गायक व संगीतकार स्वर्गीय जगजीत सिंह को श्रद्धांजली स्वरूप हमारी ख़ास शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। उनका जाना ग़ज़ल-जगत के लिए एक विराट क्षति है जिसकी कभी भरपाई नहीं हो सकती। स्वर-साम्राज्ञी लता मंगेशकर नें अपने शोक संदेश में एक निजी न्यूज़ चैनल को बताया, "इस बात का मुझे बहुत दुख है, बहुत ही ज़्यादा दुख है कि जगजीत जी आज हमारे बीच नहीं रहे। मैंने उनके साथ काम किया है, और एक ही रेकॉर्ड किया था, और वो उस वक़्त बहुत चला था। और मुझे वो सब बातें याद आती हैं कि कैसे उन्होंने वह गाना रेकॉर्ड किया था, कैसे वो मुझे सिखाते थे, क्या क्या बातें होती थीं, सब। पहले तो वो मुझे गानें पढ़ के सुनाये, ग़ज़लें जो थीं, फिर कहा कि जो पसन्द नहीं आती हैं, वो मत गाइए। मैंने कहा कि नहीं ऐसी बात नहीं है, सभी ग़ज़लें अच्छी हैं। और जब उन्होंने रिहर्सल्स शुरु किए तो एक चीज़ वो बताते थे कि ऐसा नहीं वैसा होना चाहिए, इस तरह से नहीं इस तरह से गाना चाहिए, मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे मैं एक नई सिंगर आई हूँ और मुझे कोई सिखा रहा है। इस तरह से उन्होंने वो रेकॉर्ड किया था। और मेरे साथ बहुत अच्छी बात करते थे, हालाँकि हमारा मिलना नहीं होता था, बहुत कम मिलते थे, कभी-कभार, पर जब भी मिलते थे, बहुत अच्छी तरह से बात करते थे। उनकी ख़ास बात जो थी, वो क्लासिकल सिंगर थे, रियाज़ किया करते थे, अब तक वो रियाज़ करते थे, और रियाज़ करते हुए उन्होंने अपनी आवाज़ बदली और अपनी आवाज़ बदलकर वो गाने लगे, उन्होंने जो जो ग़ज़लें गाई हैं, वो सब बहुत अलग तरह से गाई हैं। उनके जैसा भारत में ग़ज़ल सिंगर और कोई है नहीं। उनकी बहुत सी ग़ज़लें हैं जो मुझे पसन्द है। "सरकती जाये है" जो उन्होंने गाई थी, शायद उनकी पहली ग़ज़ल थी, आपको याद होगा वह बहुत चली थी, बहुत अच्छा गाया था उन्होंने।"

'दि टाइम्स ऑफ़ इण्डिया' को दिए एक साक्षात्कार में लता जी नें कहा उन्होंने पहली बार जगजीत सिंह का नाम तब सुना जब वो संगीतकार मदन मोहन के लिए कोई गाना रेकॉर्ड कर रही थीं। लता जी नें बताया, "मैंने मदन भैया से पूछा कि वो क्यों इस नए गायक से अपनी ग़ज़लें नहीं गवाते? शायद उस वक़्त जगजीत जी की आवाज़ उस वक़्त के हीरोज़ को सूट नहीं करती थी। लेकिन जब मैंने उनकी आवाज़ सुनी तो हैरान रह गई। मैं उस वक़्त के संगीतकारों को बताया करती थी उनकी आवाज़ के बारे में। पर शायद उनकी आवाज़ ग़ैर फ़िल्म-संगीत के लिए ही बनी थी। लेकिन बाद में वो फ़िल्मों में भी गाए और कई अभिनेताओं के लिए गाए। शुरु शुरु में 'सजदा' में केवल मेरी आवाज़ और जगजीत जी का संगीत होना था। यह एक मौका था जब मुझे उस कलाकार के साथ काम करने का मौका मिला जिनकी आवाज़ मैं मैं बरसों से पसन्द करती आई थी। इसलिए मैं इस मौके को गँवाना नहीं चाहती थी। मैंने उनसे बस इतनी गुज़ारिश की कि वो मुझसे शराब और महख़ाने की ग़ज़लें न गवाएँ। जब मैंने "दर्द से मेरा दामन भर दे या अल्लाह" गाया तो वो बड़े भावुक हो गए थे। वो अपनी ज़िन्दगी के एक दर्दनाक हादसे से गुज़र रहे थे और इस ग़ज़ल नें उनके दिल को छू लिया था। लेकिन इस ऐल्बम के जिस ग़ज़ल को उन्हें और उनकी पत्नी चित्रा को सबसे ज़्यादा पसन्द आई, वो थी "धुआँ बनके फ़िज़ा में उड़ा दिया मुझको"। दोस्तों, लता जी नें बार बार कहा कि जगजीत जी के साथ उन्होंने केवल 'सजदा' में ही काम किया, पर जहाँ तक मेरा ख़याल है कि १९८९ में एक फ़िल्म आई थी 'कानून की आवाज़', जिसमें संगीत था जगजीत सिंह था और इस फ़िल्म में उन्होंने लता जी से एक गीत गवाया था "सिंदूर की होय लम्बी उमरिया, मेरा जुग जुग जिये सांवरिया"। इंदीवर का लिखा यह गीत जया प्रदा पे फ़िल्माया गया था। आइए आज इसी गीत का आनन्द लिया जाये।



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
खुद जगजीत की आवाज़ में ये गीत है जिसके मुखड़े में शब्द है - "फासले", गीतकार है नक्श ल्यालपुरी

पिछले अंक में
अमित जी सच बताईये क्या आपने ये गीत पहले सुना था, मैंने तो नहीं सुना था कभी :)
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

Sunday, October 23, 2011

तुम इतना जो मुस्कुरा रही हो....जब कैफी के सवालों को स्वरों में साकार किया जगजीत ने



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 770/2011/210

मस्कार! श्रोता-मित्रों, गत १० अक्टूबर को काल के क्रूर हाथों नें हमसे छीन लिया एक बेमिसाल फ़नकार को। ये वो फ़नकार रहे जिनकी मख़मली आवाज़ नें ग़ज़ल गायकी को न केवल एक नया आयाम दिया, बल्कि छोटे, बड़े, बूढ़े, हर पीढ़ी के चहेते ग़ज़ल गायक बन कर उभरे। ग़ज़ल-सम्राट जगजीत सिंह अब हमारे बीच नहीं रहे। ब्रेन-हैमरेज की वजह से उन्हें २३ सितम्बर को मुंबई के लीलावती अस्पताल में भर्ती कराया गया था। १८ दिनों तक ज़िन्दगी और मौत के बीच लड़ाई चली और आख़िर में मौत हावी हो गया, और १० अक्टूबर सुबह ८:१० बजे जगजीत जी इस फ़ानी दुनिया को हमेशा हमेशा के लिए अलविदा कह गए। ऐसा लगा जैसे उन्हीं का गाया वह गीत उन पर लागू हो गया कि "चिट्ठी न कोई संदेस, जाने वह कौन सा देस, जहाँ तुम चले गए"। पर जीवितावस्था में जगजीत जी जो काम कर गए हैं, वो उन्हें अमर बना दिया है। जब जब ग़ज़ल गायकी की बात चलेगी, जब जब ग़ज़लों का ज़िक्र छिड़ेगा, तब तब जगजीत सिंह का नाम सम्मान से लिया जाएगा। स्वर्गीय जगजीत सिंह को 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से श्रद्धांजली स्वरूप आज से हम 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर शुरु कर रहे हैं उन्हीं को समर्पित लघु शृंखला 'जहाँ तुम चले गए'। दोस्तों, यूं तो जगजीत सिंह एक महान ग़ज़ल गायक के रूप में जाने जाते रहेंगे, पर यही एक क्षेत्र नहीं था उनकी महारथ का। वो न केवल एक बेहतरीन गायक थे, बल्कि एक सुरीले संगीतकार भी थे। ग़ज़लें तो उन्होंने कम्पोज़ की ही, कई फ़िल्मों में कई सुमधुर गीतों का संगीत भी उन्होंने तैयार किया है। और क्योंकि 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मूलत: फ़िल्मी गीतों पर आधारित स्तंभ है, इसलिए इस शृंखला में हम जगजीत की आवाज़ का जादू तो बिखेरेंगे ही, पर ज़्यादातर वो गीत शामिल किए जाएंगे जिन्हें उन्होंने स्वरब्द्ध किया है और अन्य गायक-गायिकाओं नें अपनी आवाज़ें बख्शी हैं।

'जहाँ तुम चले गए' शृंखला की पहली कड़ी हम जगजीत जी की मखमली आवाज़ से ही सजाना चाहेंगे। फ़िल्म 'अर्थ' में उनका और चित्रा जी का संगीत था और इस फ़िल्म के तमाम गीत और ग़ज़लें उन दोनों नें ही गाए थे। फ़िल्म का हर गीत लाजवाब, हर ग़ज़ल बेहतरीन। जब भी इस फ़िल्म की रचनाओं में से एक को चुनने की बात आती है तो बड़ी दुविधा होती है कि किसे चुने और किसे छोड़ दें। "झुकी झुकी सी नज़र", "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो", "कोई ये कैसे बताये कि वो तन्हा क्यों है", "तेरे ख़ूशबू में बसे ख़त" और "तू नहीं तो ज़िन्दगी में और क्या रह जाएगा"। आज के लिए हमने चुना है "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो, क्या ग़म है जिसको छुपा रहे हो"। जगजीत जी के चेहरे पर एक मुस्कुराहट ज़रूर बनी रहती थी, पर उनके मन में एक गहरा ग़म भी छुपा हुआ था। उनका एकलौता जवान बेटा विवेक एक कार ऐक्सिडेण्ट में चल बसा। किसी बाप के लिए अपने बेटे के जनाज़े से ज़्यादा बोझ और किस चीज़ का हो सकता है भला! ख़ैर, 'अर्थ' फ़िल्म की बात करें, तो यह १९८२ की महेश भट्ट की फ़िल्म थी जिसमें शबाना आज़मी, कुलभूषण खरबन्दा, स्मिता पाटिल, राज किरण और रोहिणी हत्तंगड़ी नें मुख्य भूमिकाएँ निभाईं। दोस्तों, इस फ़िल्म की तमाम जानकारियाँ हमनें अपनी उस कड़ी में दिया था जिसमें हमने इस फ़िल्म से "तू नहीं तो..." ग़ज़ल सुनवाई थी। आज जब जगजीत जी हमारे बीच नहीं हैं, ऐसा लगता है कि चित्रा जी की गाई इस ग़ज़ल का एक एक शब्द सच हो गया है -"तू नहीं तो ज़िन्दगी में और क्या रह जाएगा, दूर तक तन्हाइयों का सिलसिला रह जाएगा"। पहले बेटे और अब पति को खोने के बाद आज चित्रा जी की मनस्थिति क्या होगी, इसका हम भली-भाँति अंदाज़ा लगा सकते हैं। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि जगजीत जी की आत्मा को शान्ति दें और चित्रा जी को शक्ति दें इस कठीन स्थिति से गुज़रने की। 'आवाज़' परिवार की तरफ़ से जगजीत सिंह की पुण्य स्मृति को नमन! सुनते हैं "तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो" और याद करते हैं जगजीत के उसी हर-दिल-अज़ीज़ मुस्कुराते हुए चेहरे को। इस ग़ज़ल को लिखा है कैफ़ी आज़मी नें। और हाँ, जगजीत जी के निधन पर 'अर्थ' के फ़िल्मकार महेश भट्ट नें अपने ट्विटर पेज पर लिखा है - "Just heard the news that Jagjit Singh has paased away. My film ARTH would not have touched the hearts of millions of people without the contribution of Jagjit Singh. Thank you friend.Thank you."



चलिए अब खेलते हैं एक "गेस गेम" यानी सिर्फ एक हिंट मिलेगा, आपने अंदाजा लगाना है उसी एक हिंट से अगले गीत का. जाहिर है एक हिंट वाले कई गीत हो सकते हैं, तो यहाँ आपका ज्ञान और भाग्य दोनों की आजमाईश है, और हाँ एक आई डी से आप जितने चाहें "गेस" मार सकते हैं - आज का हिंट है -
जगजीत सिंह द्वारा संगीतबद्ध ये गीत शुरू होता है इस शब्द से "सिन्दूर"

पिछले अंक में
अमित जी अब समझे कौन सी मशहूर गज़ल है ये ?
खोज व आलेख- सुजॉय चट्टर्जी


इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को

‘जिनके दुश्मन सुख मा सोवें उनके जीवन को धिक्कार...’ वीर रस की लोक-काव्य-धारा : आल्हा



सुर संगम- 40 – आल्हा-ऊदल चरित्रों की ऐतिहासिकता

(पहला भाग)
सुर संगम’ के गत सप्ताह के अंक में हमने बुन्देलखण्ड की वीर-भूमि में उपजी और और समूचे उत्तर भारत में लोकप्रिय लोक-गायन शैली ‘आल्हा’ पर चर्चा आरम्भ की थी। आज के अंक में हम इस लोकगाथा के दो वीर चरित्रों- आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता पर चर्चा करेंगे। बारहवीं शताब्दी में उपजी लोक संगीत की यह विधा अनेक शताब्दियों तक श्रुति परम्परा के रूप जीवित रही। परिमाल राजा के भाट जगनिक ने इस लोकगाथा को गाया और संरक्षित किया। आल्हा और ऊदल की ऐतिहासिकता के विषय में पिछले दिनों हमने बुन्देलखण्ड की लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के शोधकर्त्ता, उरई निवासी श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से चर्चा की थी।

बारहवीं शताब्दी के इतिहास में आल्हा और ऊदल का उल्लेख उस रूप में नहीं मिलता, जिस रूप में ‘आल्ह खण्ड’ में किया गया है, इस प्रश्न पर श्री कुमुद का कहना है कि इतिहास केवल राजाओं को महत्त्व देता है, सामान्य सैनिकों को नहीं,चाहे वे कितने भी वीर क्यों न हों। गायक जगनिक ने पहली बार सेना के सामान्य सरदारों और सैनिकों को अपनी गाथा में शामिल कर उनका यशोगान किया। उसने बहादुर सैनिकों को उनके यथोचित सम्मान से विभूषित किया। आल्हा और ऊदल राजा नहीं थे। इसलिए उनके बारे में इतिहास में उल्लेख नहीं मिलता है। जबकि इतिहासकार महोबा के राजा परमाल, दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान और जयचन्द को ऐतिहासिक व्यक्तित्व मानते हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा के लेखन का कार्य सबसे पहले ब्रिटिश शासनकाल में फर्रुखाबाद के कलेक्टर सर चार्ल्स इलियट ने १८६५ में कराया। इसका संग्रह ‘आल्ह खण्ड’ के नाम से प्रचलित हुआ तथा यह पहला संग्रह कन्नौजी भाषा में था।

आल्हा-ऊदल चरित्रों और ‘आल्ह खण्ड’ की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हुए श्री कुमुद ने कहा कि आज भी अनेक शिलालेख और भवन मौजूद हैं, जो प्रमाणित करते हैं कि आल्हा-ऊदल ऐतिहासिक पात्र हैं। उन्होंने बताया कि आल्हा और मलखान के शिलालेख हैं। श्री कुमुद के अनुसार वर्ष ११८२ के शिलालेख में यह उल्लेख है कि पृथ्वीराज चौहान ने महोबा के परमाल राजा को पराजित किया था। आल्हा के ऐतिहासिक व्यक्तित्व की पुष्टि उत्तर प्रदेश के जनपद ललितपुर में मदनपुर के एक मन्दिर में लगे ११७८ के एक शीलालेख से भी होती है। इसमें आल्हा का उल्लेख बिकौरा-प्रमुख अल्हन देव के नाम से हुआ है। मदनपुर में आज भी ६७ एकड़ की एक झील है। इसे मदनपुर तालाब भी कहते हैं। इसके पास ही बारादरी बनी है। यह बारादली आल्हा-ऊदल की कचहरी के नाम से प्रसिद्ध है। इस बारादरी और झील को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है। आल्हा-ऊदल को ऐतिहासिक चरित्र सिद्ध करने वाले शिलालेखों और अभिलेखों की चर्चा हम जारी रखेंगे। थोड़ा विराम लेकर अब हम आपको प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के आल्हा-विशेषज्ञ विजय सिंह की आवाज़ में ‘आल्ह खण्ड’ से एक प्रसंग सुनवाते है-

आल्हा गायन : स्वर – विजय सिंह : प्रसंग – माड़वगढ़ की लड़ाई


आल्हा गायकी और इसके चरित्रों की ऐतिहासिकता के विषय में श्री कुमुद ने बताया कि पृथ्वीराज रासौ में भी चन्द्रवरदाई ने आल्हा को अल्हनदेव शब्द से सम्बोधित किया है। उस काल में बिकौरा गाँवों का समूह था। आज भी बिकौरा गाँव मौजूद है। इसमें ११वीं और १२वीं शताब्दी की इमारते हैं। इससे प्रतीत होता है कि पृथ्वीराज चौहान के हाथों पराजित होने से चार साल पहले महोबा के राजा परमाल ने आल्हा को बिकौरा का प्रशासन प्रमुख बनाया था। यह गाँव मदनपुर से ५ किलोमीटर की दूरी पर स्थित है तथा दो गाँवों में विभक्त है। एक को बड़ा बिकौरा तथा दूसरे को छोटा बिकौरा कहा जाता है। उन्होंने बताया कि महोबा में भी ११वीं और १२वीं शताब्दी के ऐसे अनेक भवन मौजूद हैं जोकि आल्हा-ऊदल की प्रमाणिकता को सिद्ध करते हैं। इसी तरह सिरसागढ़ मे मलखान की पत्नी का चबूतरा भी एक ऐतिहासिक प्रमाण है। यह चबूतरा मलखान की पत्नी गजमोदनी के सती-स्थल पर बना है। पृथ्वीराज चौहान के साथ परमाल राजा की पहली लड़ाई सिरसागढ़ में ही हुई थी। इसमें मलखान को पृथ्वीराज ने मार दिया था। यहीं उनकी पत्नी सती हो गई थी। सती गजमोदिनी की मान्यता इतनी अधिक है कि उक्त क्षेत्र मे गाये जाने वाले मंगलाचरण में पहले सती की वन्दना की जाती है। उन्होंने बताया कि आल्हा ऊदल की ऐतिहासिकता की पुष्टि पन्ना के अभिलेखों में सुरक्षित एक पत्र से भी होती है। यह पत्र महाराजा छत्रसाल ने अपने पुत्र जगतराज को लिखा था।

श्री कुमुद ने आगे कहा कि आल्हा के किले को भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने संरक्षित किया है। आल्हा की लाट, मनियादेव का मन्दिर, आल्हा की सांग आज भी मौजूद हैं। इन्हें भी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने मान्यता दी है। आइए अब हम आपको १९५९ में प्रदर्शित फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ में प्रयुक्त एक आल्हा गीत सुनवाते हैं। हिन्दी फिल्मों में आल्हा की धुन पर आधारित गीतों का प्रयोग कम ही हुआ है। बहुत खोज करने पर यह गीत प्राप्त हो सका है। पिछले दशक में प्रदर्शित फिल्म ‘मंगल पाण्डे’ के एक गीत में भी आल्हा-धुन का प्रयोग किया गया था। हमारे पाठको को यदि आल्हा-गीतों की धुन पर आधारित किसी फिल्म-गीत की जानकारी हो तो हमें अवश्य सूचित करें।

आइए सुनते हैं, मोहम्मद रफी के स्वर में फिल्म ‘सम्राट पृथ्वीराज चौहान’ का यह आल्हा गीत, भरत व्यास के शब्दों को संगीतबद्ध किया है बसन्त देसाई ने-

आल्हा –‘लो कामना पूरी हुई हैं....’ : स्वर – मोहम्मद रफी : गीतकार – भरत व्यास


सुर संगम पहेली : पिछले कुछ सप्ताह से इस स्तम्भ की पहेली स्थगित थी। इस अंक से हम पुनः पहेली आरम्भ कर रहे हैं।

आज का प्रश्न – अगले अंक में हम आपसे आगरा घराने के एक उस्ताद संगीतज्ञ की चर्चा करेंगे, जिन्हें ‘आफताब-ए-मौसिकी’ की उपाधि से नवाजा गया था। उस महान गायक का आपको नाम और घराना बताना है।

अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम एक उस्ताद शास्त्रीय गायक के व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

चित्र परिचय : आल्हा-ऊदल की आराध्य मैहर की देवी माँ शारदा


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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