ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 103
'राज कपूर विशेष' जारी है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' मे। दोस्तों, कल हमारा अंक ख़त्म हुआ था मुकेशजी की बातों से जिनमें वो बता रहे थे राज कपूर के बारे मे। वहीं से बात को आगे बढ़ाते हुए सुनते हैं कि मुकेश ने आगे क्या कहा था अमीन सायानी को दिये उस पुराने साक्षात्कार मे - "अमीन भाई, एक दिन हम रणजीत स्टूडियो मे बैठे थे। हज़रत के पास एक टूटी-फूटी फ़ोर्ड गाड़ी हुआ करती थी उन दिनों। तो उसमे बिठाया हमें और ले गये बहुत दूर एक जगह। वहाँ ले जाकर अपना फ़ैसला सुनाया कि 'हम एक फ़िल्म 'आग' बनाना चाहते हैं'। तो कुछ 'सीन्स' भी सुनाये। 'सीन्स' तो पसंद आये ही थे मगर मुझे जो ज़्यादा बात पसंद आयी, वह थी कि जिस जोश के संग वो बनाना चाहते थे 'आग' को।" लेकिन 'आग' बनाते समय राज कपूर को काफ़ी तक़लीफ़ों का सामना करना पड़ा था, इस सवाल पर मुकेश कहते हैं - "काफ़ी तकलीफ़ें, अमीन भाई कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता। पैसे की तकलीफ़ें, डेटों की तकलीफ़ें, यानी कि फ़िल्म बनाते समय जो जो तकलीफ़ें आ सकती हैं एक 'प्रोड्युसर' को। वह इम्तिहान था राज कपूर का। फ़िल्म बन भी गयी तो कोई ख़रीदार नहीं। ख़रीदार आये तो हमारा मज़ाक उड़ाया करे। एक ने तो यहाँ तक भी कहा कि 'राज साहब, अगर 'आग' आप ने बनायी है तो अपना थियटर भी बना लीजिये, ताकी आग लगे तो आप ही के थियटर मे लगे।' और आग की जलन मिटाने के लिए फिर 'बरसात' बनी। 'आग' के फ़ेल हो जाने के बावजूद राज कपूर पास हो गये। देखिये कैसे, ये बहुत बड़े 'फ़ाइनन्सर' यु. वी, पुरी, वो आये, और तमाम बिज़नस की ज़िम्मेदारी अपने उपर ले ली, 'डिस्ट्रिब्युशन' की, 'फ़ाइनन्स' की, और राज कपूर के उपर यह ज़िम्मेदारी डाल दी कि 'तुम एक अच्छा युनिट बनाओ और एक बेहरतरीन फ़िल्म बनाओ'। राज लग गये साहब, अब देखिये, फ़िल्म का युनिट बनाने के लिए फ़िल्म लेखक के साथ हर एक 'वर्कर' का तार मिलना चाहिए, यानी सुर मिलना चाहिए। देखिए कैसे कैसे आदमी उन्होने चुने, लेखन के लिए ख़्वाजा अहमद अब्बास, रामानंद सागर, इंदर राज आनंद, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी, 'फ़ोटोग्राफी' मे जल मिस्त्री, राधू परमारकर, तरु दत्त, 'आर्ट डिरेक्शन' मे आचरेकर, 'साउंड रिकॉर्डिंग' मे अल्लाउद्दिन, और 'लास्ट बट नौट द लीस्ट' 'म्युज़िक' मे शंकर जयकिशन और लता मंगेशकर।" तो दोस्तों, यूं बनी थी राज कपूर की टीम जिसका एक महत्वपूर्ण स्तम्भ ख़ुद मुकेश भी थी।
आज जो गीत हम राज साहब को समर्पित कर रहे हैं वह है आर.के बैनर के तले राज कपूर द्वारा निर्मित १९५६ की फ़िल्म 'जागते रहो' का। मुकेश की आवाज़ है और एक बार फिर शैलेन्द्र ने इस गीत मे भी ज़िंदगी के सच्चे रंग भरे हैं। इस फ़िल्म मे राज कपूर, प्रदीप कुमार, सुमित्रा देवी, स्मृति बिस्वास, सुलोचना और पहाड़ी सान्याल मुख्य कलाकार थे। फ़िल्म की आख़री सीन मे नरगिस नज़र आयीं थीं अतिथि कलाकार के रूप मे। आपको यह बता दें कि इसी साल यानी कि १९५६ मे ही प्रदर्शित फ़िल्म 'चोरी चोरी' में राज कपूर और नरगिस की जोड़ी आख़री बार नज़र आयी थी। शोम्भु मित्रा और अमित मित्रा निर्देशित 'जागते रहो' के लेखक थे ख़्वाजा अहमद अब्बास। फ़िल्म मे संगीत, जी नहीं, शंकर जयकिशन का नहीं था, बल्कि संगीत था सलिल चौधरी का, और शैलेन्द्र के साथ साथ प्रेम धवन ने भी फ़िल्म मे गाने लिखे थे। इस फ़िल्म को १९५७ मे चेकोस्लोवाकिया के कारलोवी वारी इंटरनैशनल फ़िल्म महोत्सव मे 'क्रीस्टल ग्लोब ग्रांड प्रिक्स' का ख़िताब हासिल हुआ था। तो लीजिए सुनिए 'ज़िंदगी ख़्वाब है'।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. पद्मिनी पर फिल्माया गया है ये गीत.
२. राज कपूर की एक और सफल फिल्म.
३. दूसरा अंतरा शुरू होता है इन शब्दों से -"याद कर"
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
कमाल हो गया. पराग जी ने गलत जवाब दिया और मज़े की बात कि बाकी सब भी उनकी हाँ में हाँ मिला गए. "बॉबी" राज कपूर द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म है और यहाँ इस शृंखला में हम राज कपूर पर फिल्माए गए गीतों की बात कर रहे हैं. अफ़सोस किसी को भी इस क्लासिक फिल्म की याद नहीं आई और सलिल चौधरी को भी भूला दिया. पराग जी नकारात्मक मार्किंग नहीं है इसलिए आप बच गए :) स्कोर अब भी वही है. आज के लिए सभी को शुभकामनायें.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.