आज १६ जनवरी, संगीतकार ओ. पी. नय्यर साहब का जन्मदिवस है। जन्मदिन की मुबारक़बाद स्वीकार करने के लिए वो हमारे बीच आज मौजूद तो नहीं हैं, लेकिन हम उन्हे अपनी श्रद्धांजली ज़रूर अर्पित कर सकते हैं उन्ही के बनाए एक दिल को छू लेने वाले गीत के ज़रिए। नय्यर साहब के बहुत सारे गानें अब तक हमने 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में सुनवाया है। आज हम जो गीत सुनेंगे वो उस दौर का है जब नय्यर साहब के गानों की लोकप्रियता कम होती जा रही थी। ७० के दशक के आते आते नए दौर के संगीतकारों, जैसे कि राहुल देव बर्मन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल आदि, ने धूम मचा दी थी। ऐसे में पिछले पीढ़ी के संगीतकार थोड़े पीछे ही रह गए। उनमें नय्यर साहब भी शामिल थे। लेकिन १९७२ की फ़िल्म 'प्राण जाए पर वचन न जाए' में उन्होने कुछ ऐसा संगीत दिया कि इस फ़िल्म के गानें ना केवल सुपरहिट हुए, बल्कि जो लोग कहने लगे थे कि नय्यर साहब के संगीत में अब वो बात नहीं रही, उनके ज़ुबान पर ताला लगा दिया। आशा भोसले की आवाज़ में इस फ़िल्म का "चैन से हमको कभी आप ने जीने ना दिया, ज़हर जो चाहा अगर पीना तो पीने ना दिया" एक कालजयी रचना है जिसे लिखा था एस. एच. बिहारी साहब ने और धुन जैसा कि हमने बताया नय्यर साहब का। बड़ा ही नर्मोनाज़ुक संगीत है। नय्यर साहब का आम तौर पर जिस तरह का जोशीला और थिरकता हुआ संगीत रहता था, उसके बिल्कुल विपरीत अंदाज़ का यह गाना है। बहुत ही मीठा है और इसके बोल तो दिल को चीर कर रख देते हैं। आज सुनिए इसी कालजयी रचना को, इस बेमिसाल तिकड़ी, यानी कि एस. एच. बिहारी, ओ. पी. नय्यर, और आशा भोसले को सलाम करते हुए।
ओ. पी. नय्यर और आशा भोसले ने साथ साथ फ़िल्म संगीत में एक लम्बी पारी खेली है। करीब करीब १५ सालों तक एक के बाद एक सुपर डुपर हिट गानें ये दोनों देते चले आए हैं। कहा जाता है कि प्रोफ़ेशनल से कुछ हद तक उनका रिश्ता पर्सनल भी हो गया था। ७० के दशक के आते आते जब नय्यर साहब का स्थान शिखर से डगमगा रहा था, उन दिनों दोनों के बीच भी मतभेद होने शुरु हो गए थे। दोनों ही अपने अपने उसूलों के पक्के। फलस्वरूप, दोनों ने एक दूसरे से किनारा कर लिया सन् १९७२ में। इसके ठीक कुछ दिन पहले ही इस गीत की रिकार्डिंग् हुई थी। दोनों के बीच चाहे कुछ भी मतभेद चल रहा हो, दोनों ने ही प्रोफ़ेशनलिज़्म का उदाहरण प्रस्तुत किया और गीत में जान डाल दी। फ़िल्म के रिलीज़ होने के पहले ही इस फ़िल्म के गानें चारों तरफ़ छा गए। ख़ास कर यह गीत इतना ज़्यादा लोकप्रिय हो गया था कि फ़िल्मफ़ेयर पत्रिका ने आशा भोसले को उस साल के अवार्ड फ़ंकशन के लिए 'सिंगर ऒफ़ दि ईयर' चुन लिया। लेकिन दुखद बात यह हो गई कि आशा जी नय्यर साहब से कुछ इस क़दर ख़फ़ा हो गए कि वो ना केवल फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड लेने नहीं आईं, बल्कि इस फ़िल्म से यह गाना भी हटवा दिया जब कि गाना रेखा पर फ़िल्माया जा चुका था। फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड फ़ंकशन में नय्यर साहब ने आशा जी का पुरस्कार ग्रहण किया, और ऐसा कहा जाता है कि उस फ़ंकशन से लौटते वक़्त उस अवार्ड को गाड़ी से बाहर फेंक दिया और उसके टूटने की आवाज़ भी सुनी। कहने की आवश्यकता नहीं कि आशा और नय्यर के संगम का यह आख़िरी गाना था। समय का उपहास देखिए, इधर इतना सब कुछ हो गया, और उधर इस गीत में कैसे कैसे बोल थे, "आप ने जो है दिया वो तो किसी ने ना दिया", "काश ना आती अपनी जुदाई मौत ही आ जाती"। ऐसा लगा कि आशा जी नय्यर साहब के लिए ही ये बोल गा रही हैं। बहुत अफ़सोस होता है यह सोचकर कि इस ख़ूबसूरत संगीतमय जोड़ी का इस तरह से दुखद अंत हुआ। ख़ैर, सुनिए यह मास्टरपीस और सल्युट कीजिए ओ. पी. नय्यर की प्रतिभा को!
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
जिस राह हम बिछड़े थे, उस मोड़ पे कभी मिलना, ये धूप छाया बन जाएगी, मत पूछना कहाँ,साथ चलना...
अतिरिक्त सूत्र - कल इस बहतरीन गीतकार का जन्मदिन भी है जिन्होंने इस गीत को लिखा है
पिछली पहेली का परिणाम- इंदु जी आपने टक्कर दे रखी शरद जी को तगड़ी....२ अंकों के लिए बधाई...
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको सुनवा रहे हैं प्रसिद्ध कहानियाँ। पिछले सप्ताह आपने पंडित माधवराव सप्रे लिखित व्यंग्य रचना "एक टोकरी भर मिट्टी" का पॉडकास्ट अनुराग शर्मा की आवाज़ में सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम आपकी सेवा में प्रस्तुत कर रहे हैं हरिशंकर परसाई लिखित व्यंग्य "एक अशुद्ध बेवकूफ", जिसको स्वर दिया है अनुराग शर्मा ने। "एक अशुद्ध बेवकूफ" का कुल प्रसारण समय मात्र 7 मिनट 57 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं।
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
मेरी जन्म-तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है। यह भूल है। तारीख ठीक है। सन् गलत है। सही सन् 1922 है। । ~ हरिशंकर परसाई (1922-1995) हर शनिवार को आवाज़ पर सुनें एक नयी कहानी वे बोले, "मैं आपसे कुछ लेने आया हूं।" मैंने समझा ये शायद ज्ञान लेने आये हैं। (हरिशंकर परसाई के व्यंग्य "एक अशुद्ध बेवकूफ" से एक अंश)
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हमारे देश में ऐसे कई तरक्की पसंद अज़ीम शायर जन्में हैं जिन्होने आज़ादी के बाद एक सांस्कृतिक व सामाजिक आंदोलन छेड़ दिया था। इन्ही शायरों में से एक नाम था क़ैफ़ी आज़मी का, जिनकी इनक़िलाबी शायरी और जिनके लिखे फ़िल्मी गीत आवाम के लिए पैग़ाम हुआ करती थी। कैफ़ी साहब ने एक साक्षात्कार में कहा था कि 'I was born in Ghulam Hindustan, am living in Azad Hindustan, and will die in a Socialist Hindustan'. आज 'स्वरांजली' में श्रद्धांजली कैफ़ी आज़मी साहब को, जिनकी कल, यानी कि १४ जनवरी को ९२-वीं जयंती थी। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ ज़िले की फूलपुर तहसील के मिजवां गाँव में एक कट्टर धार्मिक और ज़मींदार ख़ानदान में अपने माँ बाप की सातवीं औलाद के रूप में जन्में बेटे का नाम सय्यद अतहर हुसैन रिज़वी रखा गया जो बाद में कैफ़ी आज़मी के नाम से मशहूर हुए। शिक्षित परिवार में पैदा हुए कैफ़ी साहब शुरु से ही फक्कड़ स्वभाव के थे। पिता उन्हे मौलवी बनाने के ख़्वाब देखते रहे लेकिन कैफ़ी साहब मज़हब से दूर होते गए। उनके गाँव की फ़िज़ां ही कुछ ऐसी थी कि जिसने उनके दिलो-दिमाग़ को इस तरह रोशन किया कि सारी उम्र न उन्हे हिंदू समझा गया, न मुसलमान। लखनऊ के जिस मजहबी स्कूल में उनको पढ़ाई के लिए दाखिल कराया गया, कैफ़ी साहब ने वहीं के मौलवियों के खिलाफ़ आन्दोलन शुरु कर दिया। नतीजतन उन्हे स्कूल से बाहर कर दिया गया। बाद में उन्होने प्राइवेट में इम्तिहान देकर अपनी तालीम पूरी की। ११ वर्ष की कच्ची उम्र में ही "इतना तो किसी की ज़िन्दगी में ख़लल पड़े" जैसी नज़्म लिखने वाले कैफ़ी साहब ने किशोरावस्था में ही बग़ावती रास्ता अख़्तियार कर लिया था। १९ साल के होते होते वो कम्युनिस्ट पार्टी के साथ चल पड़े और पार्टी की पत्रिका 'जंग' के लिए लिखने लगे। पढ़ाई छोड़ कर १९४२ में भारत छोड़ो आन्दोलन से जुड़ गए। उर्दू में प्रगतिशील लेखन के आन्दोलन से जुड़े कैफ़ी साहब ने १९४७ में बम्बई आकर पार्टी के 'मज़दूर मोहल्ला' एवं 'कौमी जंग' अख़बारों का सम्पादन कार्य सम्भाल लिया। (सौजन्य: लिस्नर्स बुलेटिन, अंक-११९, अगस्त २००२)
कैफ़ी आज़मी के शुरुआती वक़्त का ज़िक्र हमने उपर किया। उनके जीवन से जुड़ी बातों का सिलसिला आगे भी 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर जारी रहेगा। बहरहाल आइए अब ज़िक्र करें कैफ़ी साहब के लिखे उस गीत का जिसे आज हम इस महफ़िल में सुनने जा रहे हैं। यह गीत है १९६६ की फ़िल्म 'आख़िरी ख़त' का, "और कुछ देर ठहर और कुछ देर न जा"। 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का निर्माण किया था चेतन आनंद ने। कहानी, स्कीनप्ले और निर्देशन भी उन्ही का था। राजेश खन्ना, नक़ीजहाँ, नाना पाल्सेकर और इंद्राणी मुखर्जी अभिनीत यह फ़िल्म बॊक्स ऒफ़िस पर तो कामयाब नहीं रही, लेकिन फ़िल्म का संगीत चला। लता मंगेशकर का गाया "बहारों मेरा जीवन भी सँवारो" में पहाड़ी राग का बेहद सुरीला प्रयोग सुनने को मिलता है। ख़य्याम साहब के संगीत में कैफ़ी साहब की गीत रचनाएँ हवाओं पर सवार हो कर चारों तरफ़ फैल गईं। इस फ़िल्म की एक ख़ास बात यह है कि गायक भुपेन्द्र ने अपना पहला फ़िल्मी गीत इसी फ़िल्म के लिए गाया था "रात है जवाँ जवाँ"। उन्होने चेतन आनंद की माशहूर फ़िल्म 'हक़ीक़त' और इस फ़िल्म में छोटे रोल भी किए, और "रात है..." गीत तो उन्ही पर फ़िल्माया गया था। भुपेन्द्र 'आख़िरी ख़त' के 'आर्ट डिरेक्टर' भी थे। ख़ैर, भुपेन्द्र की बातें हम तफ़सील से फिर किसी दिन करेंगे, आज ज़िक्र कैफ़ी साहब का और इस फ़िल्म के लिए उनके लिखे और रफ़ी साहब के गाए हुए गीत "और कुछ देर ठहर" का। जैसा कि हमने कहा कि 'आख़िरी ख़त' व्यावसायिक दृष्टि से नाकामयाब रही लेकिन इसका संगीत कामयाब रहा, तो इसी के बारे में कैफ़ी साहब ने भी कुछ कहा था विविध भारती के 'जयमाला' कार्यक्रम में, जिसकी रिकार्डिंग् सन् १९८८ में की गई थी। ये हैं वो अंश - "फ़िल्मी गानों की मकबूलियत में यह बहुत ज़रूरी है कि वह जिस फ़िल्म का गाना हो वह फ़िल्म मक़बूल हो। अगर फ़िल्म नाकाम रहती है तो उसकी हर चीज़ नाकाम हो जाती है। मेरी दो तीन बड़ी बड़ी फ़िल्में नाकाम हो गईं, हालाँकि गानें उनके भी मक़बूल हुए। फिर भी फ़िल्मी दुनिया में यह मशहूर हो गया कि कैफ़ी लिखते तो अच्छा हैं लेकिन उनके सितारे ख़राब हैं। इसलिए फ़िल्मकार अक्सर मेरा नाम सुनकर अपने कानों में हाथ रख लेते थे।" जी नहीं कैफ़ी साहब, आपको चाहने वाले अपने कानों पर हाथ कभी नहीं रखेंगे, बल्कि हम ना केवल अपने कानों से बल्कि अपने दिलों से आपके लिखे गीतों का दशकों से आनंद उठाते चले आ रहे हैं, और आज भी उठा रहे हैं। पेश-ए-ख़िद्मत है कैफ़ी आज़मी साहब को श्रद्धांजली स्वरूप 'आख़िरी ख़त' फ़िल्म का गीत। ख़य्याम साहब का संगीत और रफ़ी साहब की आवाज़।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
सोच से वो पल बिछड़ने का हटता नहीं, ये दर्द तेरी जुदाई का जालिम घटता नहीं, चैन से मर पायेगें मुमकिन नहीं लगता, गम से भरी जिंदगी में लम्हा कटता नहीं...
अतिरिक्त सूत्र - एक संगीतकार जिनकी कल जयंती है ये गीत उनका है
पिछली पहेली का परिणाम- शरद जी डबल फिगर यानी ११ अंकों पर पहुँच गए हैं आप, जहाँ तक हमारी जानकारी है कैफी साहब की जयंती आज ही है.वैसे इंदु जी का कहना सही है, जवाब के मामले में आप गलत हों मुमकिन नहीं....
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
आज १४ जनवरी है। आज ही के दिन आज से ठीक १० साल पहले १९९१ में हम से बहुत दूर चले गए थे फ़िल्म संगीत के एक और बेहद गुणी संगीतकार जिन्हे हम चित्रगुप्त के नाम से जानते हैं। आज 'स्वरांजली' की चौथी कड़ी में हम अपने श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहे हैं चित्रगुप्त जी की पुण्य स्मृति को। चित्रगुप्त एक ऐसे संगीतकार रहे हैं जिन्हे बहुत ज़्यादा ए-ग्रेड फ़िल्मों में संगीत देने का मौका नहीं मिल पाया। लेकिन उनका संगीत हमेशा ए-ग्रेड ही रहा। फ़िल्म के चलने ना चलने से किसी संगीतकार के प्रतिभा का आंकलन नहीं किया जा सकता। लेकिन एक के बाद एक स्टंट, धार्मिक और कम बजट की सामाजिक फ़िल्मों में संगीत देते रहने की वजह से वो टाइप कास्ट हो गए। लेकिन फिर भी कई बार उन्हे बड़ी फ़िल्में भी मिली और उनमें उन्होने साबित कर दिखाया कि वो किसी दूसरे समकालीन बड़े संगीतकार से कुछ कम नहीं हैं। 'गंगा की लहरें', 'ऊँचे लोग', 'आकाशदीप', 'एक राज़', 'मैं चुप रहूँगी', 'औलाद', 'इंसाफ़', 'बैक कैट', 'लागी नाही छूटे राम', और 'काली टोपी लाल रुमाल' जैसी फ़िल्में आज भी सुरीले और हिट संगीत के लिए याद किए जाते हैं। चित्रगुप्त जी के बेटे हैं संगीतकार जोड़ी आनंद और मिलिंद। अपने पिता को याद करते हुए मिलिंद विविध भारती पर कहते हैं, "पापा पोएट्री पे बहुत ज़्यादा ध्यान देते थे। उनका कहना था कि 'words contribute more than 50% of a song'. अगर शब्द अच्छे हों तो गाना भी अच्छा लगता है सुनने में और मुखड़ा अगर अच्छा हो तो गाना भी हिट हो जाता है। कभी कभी तो कॊम्पोज़ करते समय वो ख़ुद ही कुछ बोल रख लेते थे, जिनमें से कभी कभी वही बोल फ़ाइनल गाने में भी रख लिए जाते, पूरा का पूरा नहीं, एक दो लाइन।"
दोस्तों, आज चित्रगुप्त जी के नाम हम जिस गीत को समर्पित कर रहे हैं वह है फ़िल्म 'ऊँचे लोग' से मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में मजरूह सुल्तानपुरी का लिखा एक बेहद मशहूर गाना "जाग दिल-ए-दीवाना ऋत जागी वस्ल-ए-यार की"। 'ऊँचे लोग' १९६५ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण दक्षिण के सत्यम-नंजुंदन ने किया था। फणी मजुमदार निर्देशित यह फ़िल्म रिलीज़ हुई थी १९ अगस्त के दिन। अशोक कुमार, राजकुमार और फ़ीरोज़ ख़ान इस फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे। इस गीत के साथ दादामुनि अशोक कुमार की यादें जुड़ी हुई हैं। तभी तो जब वो विविध भारती पर 'जयमाला' पेश करने सन् १९६८ में तशरीफ़ लाए थे, तब इस फ़िल्म को और इस गीत को याद करते हुए कहा था - "एक फ़िल्म बनी थी 'ऊँचे लोग', जिसमें केवल तीन गानें थे और हीरोइन ना के बराबर। फ़िल्म तो नहीं चली पर इसका एक गीत मुझे पसंद है। इस गीत में रिकार्ड को तीन मिनट तक खींचने की कोशिश की गई है, पर ऒर्केस्ट्रेशन अच्छा ज़रूर है। अगली बार चित्रगुप्त जी मिलेंगे तो कहूँगा कि बोल लिखवा लें ताकी यह खींचाव ना हो। सुनिए यह गीत।" दोस्तों, हम कह नहीं सकते कि दादामुनि ने फिर चित्रगुप्त जी को अपनी राय दी होंगी या नहीं, हम तो यही कहेंगे कि पसंद अपनी अपनी ख़याल अपना अपना। आइए सुनते हैं यह सुरीला नग़मा। चित्रगुप्त के स्वरबद्ध किए गीतों को सुनकर सपनें नींद से जाग उठते हैं, उमंगें अँगड़ाइयाँ लेने लगती हैं, और हसरतें गाने लगती हैं, बिल्कुल इसी गीत की तरह, मुलाहिज़ा फ़रमाइए।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
ज़ालिम है बहुत रुकता ही नहीं, ये वक्त कमबख्त सुनता ही नहीं, संवार लूं आँखों में जिस्म दमकता, निहार लूं दो पल हुस्न के जलवे....
अतिरिक्त सूत्र - आज यानी १४ जनवरी को महान शायर की जयंती भी है
पिछली पहेली का परिणाम- इंदु जी २ अंक और आपके खाते में जुड़े, बधाई, अवध जी और दिलीप जी आपका भी धन्येवाद.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'स्वरांजली' में आज हम उस संगीतकार को श्रद्धांजली अर्पित कर रहे हैं जिनका ज़िक्र हमने इसी शृंखला की पहली कड़ी में किया था। जी हाँ, जयदेव जी। उनका स्वरबद्ध गीत यशुदास जी के जन्मदिन पर आप ने सुना था। जयदेव जी का देहावसान हुआ था ६ जनवरी के दिन। आज १३ जनवरी हम दे रहे हैं उन्हे अपनी श्रद्धांजली। जयदेव जी के बारे मे क्या कहें, इतने सुरीले थे वो कि उनका हर गीत उत्कृष्ट हुआ करता था। उनका कोई भी गीत ऐसा नहीं जो कर्णप्रिय ना हो। जयदेव जी की धुनों के लिए उत्कृष्टता से बढ़कर कोई शब्द नहीं है, ऐसा विविध भारती के यूनुस ख़ान ने भी कहा था जयदेव जी पर 'आज के फ़नकार' कार्यक्रम प्रस्तुत करते हुए। चाहे शास्त्रीय संगीत हो या लोक संगीत, जयदेव के गीतों में कुछ भी अनावश्यक नहीं लगता। गीत के अनुरूप धुन की पूर्णता का अहसास कराता है उनका संगीत, ना कुछ कम ना कुछ ज़्यादा। विविध भारती के ही एक अन्य कार्यक्रम में वरिष्ठ उद्घोषक कमल शर्मा ने कहा था कि "धुन रचने से पहले जयदेव गीतकार की रचना को सुनते थे, उसकी वज़न को परखते थे। उनका विचार था कि शब्द पहले आने चाहिए, गीत का अर्थ गड़बड़ाना नहीं चाहिए। फिर उसके बाद वो अपने असरदार संगीत से गीत को पूर्णता तक पहुँचाते थे।" जयदेव जी अपने गीतों में स्थान, काल और पात्र का पूरा पूरा ख़याल रखते थे। तभी तो राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी फ़िल्म 'रेशमा और शेरा' के संगीत में उन्होने राजस्थान का रंग भरा। मांड और ख़ास राजस्थानी लोक संगीत और शास्त्रीय संगीत का ऐसा ब्लेंडिंग् किया कि इस फ़िल्म के गानें अमरत्व को प्राप्त हो गए। ख़ास कर लता जी के गाए दो गानें, जिनमें से एक ("तू चंदा मैं चांदनी") हम आपको 'दस राग दस रंग' शृंखला के अन्तर्गत सुनवा चुके हैं। और दूसरा गीत है "एक मीठी सी चुभन, एक हल्की सी अगन मैं आज पवन में पाऊँ", जिसे आज हम लेकर आए हैं।
'रेशमा और शेरा' १९७१ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था सुनिल दत्त ने। सुनिल दत्त साहब ने फ़िल्म का ना केवल निर्माण किया बल्कि फ़िल्म को निर्देशित भी किया और पर्दे पर 'शेरा' की भूमिका में छा भी गए। 'रेशमा' की भूमिका मे थीं वहीदा रहमान। यह एक मल्टि-स्टारर फ़िल्म थी, और अन्य महत्वपूर्ण किरदारों में शामिल थे राखी, विनोद खन्ना, और अमिताभ बच्चन। इस फ़िल्म में संजु बाबा, यानी कि हमारे संजय दत्त साहब बतौर बाल कलाकार एक क़व्वाली में नज़र आए थे। जैसा कि फ़िल्म के शीर्षक से प्रतीत होता है कि यह रेशमा और शेरा की प्रेम कहानी है, लेकिन दोनों के परिवारों में ज़बरदस्त दुश्मनी है, जिसे अंग्रेज़ी में feudal conflict कह सकते हैं। ऐसे में कई क्रूर हादसों से गुज़रती हुई एस. अली. रज़ा की कहानी आगे बढ़ती है। इस फ़िल्म ने समीक्षकों की बहुत तारीफ़ें बटोरी और कई पुरस्कारों से फ़िल्म को सम्मानित भी किया गया। १९७२ में बर्लिन फ़िल्म महोत्सव में इस फ़िल्म का नामांकन हुआ 'गोल्डन बर्लिन बीयर' पुरस्कार के लिए। इस फ़िल्म के मधुर संगीत के लिए जयदेव जी को राष्ट्रीय पुरस्कार (सिल्वर लोटस) से सम्मानित किया गया। फ़िल्म में गानें लिखे कवि नीरज, बालकवि बैरागी, राजेन्द्र कृष्ण और उद्धव कुमार ने। आज का गीत उद्धव कुमार का लिखा हुआ है। ये बड़े ही कमचर्चित गीतकार रहे, जिन्होने इस फ़िल्म के अलावा संगीतकार रोशन के लिए 'हमलोग' और 'शीशम' जैसी फ़िल्मों में गीत लिखे हैं। दोस्तो, विविध भारती के 'संगीत सरिता' में जब अनिल बिस्वास जी तशरीफ़ लाए थे, उन्होने कई संगीतकारों की रचनाओं का ज़िक्र किया था जो उनके दिल के बेहद क़रीब थे। जयदेव जी के जिन तीन गीतों का उन्होने उल्लेख किया था वे थे फ़िल्म 'गमन' के दो गीत "सीने में जलन" और "आपकी याद आती रही रात भर", तथा तीसरा गीत था "एक मीठी सी चुभन"। इस गीत को बजाते हुए उन्होने इस तरह से कहा था कि "मैं जयदेव का वही चीज़ सुनाना चाहता हूँ जिसने मेरे दिल में एक चुभन डाल दिया है, समझ गए ना?" चलिए, जयदेव जी की इस मीठी चुभन का अनुभव हम भी करते हैं लता जी की आवाज़ में।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
वो परी थी आसमानी कोई, जिसके होने सा था चमन गुलज़ार, अब तो बस फिजा में गूंजती है कोई याद, उजड़ी महफ़िलों को क्यों रोये दिले नाशाद...
अतिरिक्त सूत्र - १४ जनवरी १९९१ में इस संगीतकार ने अंतिम सांसे ली थी
पिछली पहेली का परिणाम- अरे आप गलत कैसे हो सकती हैं इंदु जी, बिलकुल सही जवाब और इस बार मिलते हैं २ अंक भी बधाई
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
आज की महफ़िल का श्रीगणेश हो, इससे पहले हीं हम आपसे माफ़ी माँगना चाहते हैं और वो इसलिए क्योंकि आज की महफ़िल थोड़ी छोटी रहनी वाली है। कारण? कारण यह है कि लेखक(यहाँ पर मैं) सामग्रियाँ इकट्ठा करने में इतना मशगूल हो गया कि लिखने के लिए पर्याप्त वक्त हीं नहीं निकाल पाया। तो आज की महफ़िल बस ४५ मिनट में लिखी गई है.. अब इतने कम वक्त में क्या सोचा जा सकता है और क्या लिखा जा सकता है। तो चलिए इस माफ़ीनामे पर दस्तखत करने के बाद महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं।इस महफ़िल में जिस गज़ल की पेशी या फिर अच्छे शब्दों में कहना हो तो ताज़पोशी होने वाली है,उसे लिखने वालीं गज़लगो पाकिस्तान के कुछ चुनिंदा शायराओं में शुमार होती हैं। ये शायराएँ पाकिस्तान में पल-बढ रहे रूढिवादियों और पाकिस्तान के इस्लामिकरण के खिलाफ़ जोर-शोर से आवाज़ उठाती आई हैं। इनके गुस्से की तब सीमा नहीं रही जब १० फरवरी १९७९ को पाकिस्तान में "हुदूद अध्यादेश" पारित किया गया, जिसके तहत क़्फ़्क़ (झूठी गवाही), ज़िना (नाज़ायज़ संबंध) और ज़िना-बिल-जब्र(बलात्कार) की स्थिति में महिलाओं को चादर और चाहरदीवारी के अंदर ढकेल देने का प्रस्ताव था.. यानि कि अगर किसी महिला का बलात्कार हो जाए तब भी दोषी महिला हीं है, पुरूष नहीं। इन शायराओं ने "शरिया" (इस्लामिक कानून) के तहत खुद को अच्छी औरत साबित करने से साफ़ इंकार कर दिया और ऐसी कविताएँ लिखीं जो आज भी पुरूष-प्रधान समाज के सीने पर कील ठोंकने का काम करती हैं। इन सात शायराओं के नाम हैं: किश्वर नाहिद, फ़हमिदा रियाज़, सईदा गज़दर, सारा शगुफ़्ता, इशरत आफ़रीन, नीलमा सरवर और ज़ेहरा निगह। इन सातों की कुछ चुनिंदा रचनाओं का संकलन "वी सिनफ़ुल वीमेन" नाम से १९९० में लंदन के वीमेन्स प्रेस से प्रकाशित किया गया। रचनाओं का अंग्रेजी में अनुवाद "रूख्साना अहमद" ने किया है। "वी सिनफ़ुल वीमेन" यानि कि "हम गुनहगार औरतें" किश्वर नाहिद की रचना है। आगे बढने से पहले हम चाहेंगे कि आप एक नज़र उस रचना पर डाल लें:
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो मानती नहीं रौब चोगाधारियों की
शान का
जो बेचती नहीं अपने जिस्म
जो झुकाती नहीं अपने सिर
जो जोड़ती नहीं अपने हाथ।
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जबकि हमारे जिस्मों की फसल बेचने वाले
करते हैं आनंद
हो जाते हैं लब्ध-प्रतिष्ठ
बन जाते हैं राजकुमार इस दुनिया के।
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो निकलती हैं सत्य का झंडा उठाए
राजमार्गों पर झूठों के अवरोधों के खिलाफ
जिन्हें मिलती हैं अत्याचार की कहानियाँ हरेक दहलीज पर
ढेर की ढेर
जो देखती हैं कि सत्य बोलने वाली ज़बानें
दी गयीं हैं काट
ये हम गुनहगार औरतें हैं
अब,चाहे रात भी करे पीछा
ये आंखें बुझेंगी नहीं
क्योंकि जो दीवार ढाह दी गयी है
मत करो ज़िद दोबारा खड़ा करने की उसे ।
ये हम गुनहगार औरतें हैं
जो मानती नहीं रौब चोगाधारियों की
शान का
जो बेचती नहीं अपने जिस्म
जो झुकाती नहीं अपने सिर
जो जोड़ती नहीं अपने हाथ।
कितना जोश भरा है इन पंक्तियों में, तभी तो इन शायराओं को छुप-छुपकर और घुट-घुटकर अपना जीवन तमाम करना पड़ा था या फिर पड़ रहा है। इन्हीं शायराओं में से एक थीं सारा शगुफ़्ता, जिन्हें पाकिस्तान का अमृता प्रीतम भी कहा जाता था, लेकिन उन्हें एक दिन समाज के सामने मजबूर होना पड़ा और १९८४ में(जिस दौरान उनकी उम्र महज़ ३० साल थी) उन्होंने जहर खाकर आत्महत्या कर ली...साहित्य को एक चमकता सितारा हासिल हो रहा था, लेकिन नियति को कुछ और हीं मंजूर था। इसरत आफ़रीन को तो अपनी ज़िंदगी बचाने के लिए अपने पति के साथ भागकर हिन्दुस्तान आना पड़ा। ज़ेहरा निगह की लिखी रचना "हुदूद अध्यादेश" उन लड़कियों को समर्पित है, जो इस कानून के कारण अपनी बाकी ज़िंदगी जेल में गुजारने को मजबूर हैं। गज़दर की "१२ फरवरी १९८३" उन रचनाओं में सबसे बड़ी रचना है, जिसमें उन्होंने लाहौर में की गई एक रैली का ज़िक्र किया है, जिसमें २०० से भी ज्यादा महिलाओं ने "गवाह के कानून" के खिलाफ़ हिस्सा लिया था..यह कानून ऐसा था(है), जिसमें पीड़ित महिला के बयान को तब तक तवज्जो नहीं दी जाती है, जब तक कोई और महिला उसके पक्ष में गवाही न दे दे। ये सारे इतने बेहूदे कानून हैं कि इनके बारे में कुछ लिखना भी अजीब लगता है। अब हम आपको उस शायरा का नाम बता देते हैं जिसकी गज़ल से आज की महफ़िल सजी है.. उस शायरा का नाम है "नीलमा सरवर"। इनके बारे में व्यक्तिगत जानकारी तो कुछ हासिल नहीं हुई, ना हीं इनकी कोई भी रचना हिन्दी में लिखी हुई दिखी हमें, इसलिए हम इनकी वह रचना यहाँ पर पेश किए देते हैं, जो अंग्रेजी में अनुवादित है और "वी सिनफ़ुल वीमेन" में शामिल की गई है.. रचना का नाम है "प्रीज़न" यानि कि कारागार:
As I sat in a garden full of flowers
I saw a huge cage
Crammed with human beings,
Pallid of hue
Wild-eyed
Wild-haired human beings
In that small cramped cage.
Some sat, some lay on the floor
But they were all thinking something.
Perhaps of their punishments
Or of their crimes
Or, maybe, about those people
Who sat outside the cage
And smugly presumed they were free.
अह्हा.. इस रचना में स्वतंत्र और परतंत्र होने के बीच की नाजुक डोर बड़े हीं आराम से हटाई गई है.. वह जो आज़ाद दिखता है, क्या सही मायने में वह आज़ाद है। नहीं है... यानि कि जो कारागार में है, बस वही गुलाम नहीं है, वह भी गुलाम है जो बाहर आराम से अपने लौन में बैठकर चाय पी रहा है। कभी सोचिएगा..आप..आराम से। चलिए इस कविता के बाद नीलम जी के एक शेर पर भी नज़र दौड़ा लेते हैं। यहाँ भी वही रोष, वही नाराज़गी और वही सच्चाई विद्यमान है:
देखते हीं देखते वो क्या से क्या हो जाएगा,
आज जो गुल है वो कल बस खाक-ए-पा हो जागा।
और ये रही आज की गज़ल, जिसे हमने "इंतज़ार" एलबम से लिया है। इस गज़ल को अपनी आवाज़ दी है हामिद अली खान साहब ने।(इनके बारे में कभी आगे गुफ़्तगू करेंगे..आज वक्त के मामले में थोड़ा हाथ तंग है) लफ़्ज़ों में खौलते जज़्बातों को महसूस करना हो तो एक-एक हर्फ़ को खुद पढें, खुद गुनगुनाएँ। आपको मालूम पड़ जाएगा कि लिखते वक्त कवयित्री किन मनोभावों से गुजर रही थीं। मक़्ते तक पहुँचते-पहुँचते वह दर्द पूरी तरह से मुखर हो जाता है। है ना? :
उदास लोगों से प्यार करना कोई तो सीखे,
सुफ़ेद लम्हों में रंग भरना कोई तो सीखे।
कोई तो आए फ़िज़ा में पत्ते उगाने वाला,
गुलों की खुशबू को कैद करना कोई तो सीखे।
कोई दिखाए मोहब्बतों के सराब मुझको,
मेरी निगाहों से बात करना कोई तो सीखे।
कोई तो आए नई रूतों का ____ लेकर,
अंधेरी रातों में चाँद बनना कोई तो सीखे।
कोई पयंबर, कोई इमाम-ए-ज़मां हीं आए,
असीर जहनों में सोच भरना कोई तो सीखे।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
पिछली महफिल का सही शब्द था "शरारत" और शेर कुछ यूं था -
वो एकबार तेरी शरारत से तौबा,
मेरा रूठ जाना तेरा मनाना।
इस शब्द की सबसे पहले पहचान की "अवध" जी ने। अवध जी, कोई बात नहीं..गलती इंसान से हीं होती है :) और वैसे भी हमने भी तो एक गलती की। आपने अगर शायर का नाम नहीं डाला तो हम भी तो वह काम कर सकते थे, लेकिन आलस्य... क्या कीजिएगा। वाकई क़तील साहब का वह शेर कमाल का था। और यह शेर भी कमाल का है, जो आपने लिखा है:
उफ यह कमसिनी, यह मासूमियत तेरी
जान ले गयी मेरी इक शरारत तेरी. (स्वरचित)
सजीव जी और निर्मला जी! हौसला-आफ़ज़ाई का शुक्रिया।
सीमा जी, हमें आप पर नाज़ है। जहाँ हमारे पुराने मित्र हमसे धीरे-धीरे कन्नी काटने लगे हैं (कहने में दु:ख तो होता हीं है), वहीं आप हमारे लिए उम्मीद की लौ बनकर आती हैं और महफ़िल की शमा बुझने नहीं देतीं। यह रही आपकी पेशकश:
वो और वफ़ा-दुश्मन मानेंगे न माना है
सब दिल की शरारत है आँखों का बहाना है (जिगर मुरादाबादी)
हँसी मासूम सी बच्चों की कापी में इबारत सी
हिरन की पीठ पर बैठे परिन्दे की शरारत सी (बशीर बद्र)
हंगामा-ए-ग़म से तंग आकर इज़्हार-ए-मुसर्रत कर बैठे
मशहूर थी अपनी ज़िंदादिली दानिस्ता शरारत कर बैठे (शकील बँदायूनी)
मंजु जी, हमें इस बात की खुशी है कि आपको हमारी महफ़िल पसंद आती है। मौलिक सृजन करके लिखना आसान नहीं होता और यह हम जैसों से अधिक कौन जान सकता है :) । यह रहा आपका स्वरचित शेर:
उनकी अदाओं की शरारतों ने घायल कर दिया ,
अरे!हम तो उनसे दिल लगा ही बैठे .
शामिख जी, बड़ी देर से आपकी आमद हुई। कुछ और देर कर देते तो आपके ये शेर इस महफ़िल में पेश होने से छूट जाते:
गुल था शरारत करने लगा जब
तितली ने कोसा जा खार हो जा (हमारे श्याम सखा ’श्याम’ जी)
अब के सावन में शरारत ये मेरे साथ हुई,
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई (गोपालदास 'नीरज')
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'स्वरांजली' की दूसरी कड़ी में आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला में इन दिनों हम याद कर रहे हैं फ़िल्म संगीत के सुनहरे दौर के उन कलाकारों को जिनका इस जनवरी के महीने में जन्मदिन या स्मृति दिवस होता है। गत ५ जनवरी को संगीतकार सी. रामचन्द्र जी की पुण्यतिथि थी। आज हमारी 'स्वरांजली' उन्ही के नाम! जैसा कि हमने पहली भी कई बार उल्लेख किया है कि सी. रामचन्द्र उन पाँच संगीतकारों में शुमार पाते हैं जिन्हे फ़िल्म संगीत के क्रांतिकारी संगीतकार होने का दर्जा दिया गया है। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत मुख्यता शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत और सुगम संगीत पर ही आधारित हुआ करती थी, ऐसे में सी. रामचन्द्र जी ने पाश्चात्य संगीत को कुछ इस क़दर हिंदी फ़िल्मी गीतों में इस्तेमाल किया कि वह एक ट्रेंडसेटर बन कर रह गया। यह ज़रूर है कि इससे पहले भी पाश्चात्य साज़ों का इस्तेमाल होता आया है, लेकिन गीतों को पूरा का पूरा एक वेस्टर्ण लुक सी. रामचन्द्र जी ने ही पहली बार दिया था। और देखिए, जहाँ एक तरफ़ उनके "शोला जो भड़के", "संडे के संडे", "ईना मीना डीका", "मिस्टर जॊन बाबा ख़ान" जैसे गीत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ कोमल से कोमल शास्त्रीय अंदाज़ वाले गानें भी बेशुमार हैं जैसे कि "धीरे से आजा री अखियन में", "जाग दर्द-ए-इश्क़ जाग", "जा री जा री ओ कारी बदरिया", "तू छूपी है कहाँ मैं तरसता यहाँ" वगेरह। कहने का अर्थ यह कि उन्होने अपने आप को वर्सेटाइल बनाए रखा और किसी एक स्टाइल के साथ ही चिपके नहीं रहे। आज उन्हे श्रद्धांजली स्वरूप हमने जिस गीत को चुना है उसे सुनते ही आपके चेहरे पर मुस्कुराहट खिल जाएगी। यह है सन् १९४९ की फ़िल्म 'पतंगा' का 'ऒल टाइम फ़ेवरिट' "मेरे पिया गए रंगून, किया है वहाँ से टेलीफ़ून"।
१९४९ में एच. एस. रवैल पहली बार फ़िल्म निर्देशन के क्षेत्र में उतरे 'वर्मा फ़िल्म्स' के बैनर तले बनी इसी फ़िल्म, यानी कि 'पतंगा' के साथ। फ़िल्म 'शहनाई' की सफलता के बाद सी. रामचन्द्र और गीतकार राजेन्द्र कृष्ण की जोड़ी जम चुकी थी। इस फ़िल्म में भी इसी जोड़ी ने गीत-संगीत का पक्ष संभाला। 'पतंगा' के मुख्य कलाकार थे श्याम और निगार सुल्ताना। याकूब और गोप, जिन्हे भारत का लौरल और हार्डी कहा जाता था, इस फ़िल्म में शानदार कॊमेडी की। 'शहनाई' की तरह इस 'रोमांटिक कॊमेडी' फ़िल्म को भी सी. रामचन्द्र ने ख़ूब अंजाम दिया। ख़ास कर आज का प्रस्तुत गीत तो जैसे एक कल्ट सॊंग् बन कर रह गया। टेलीफ़ोन पर बने गीतों का ज़िक्र इस गीत के बिना अधुरी समझी जाएगी। बल्कि युं कहें कि टेलीफ़ोन पर बनने वाला यह सब से लोकप्रिय गीत रहा है आज तक। शम्शाद बेग़म और स्वयं चितलकर का गाया हुआ यह गीत एक नया कॊन्सेप्ट था फ़िल्म संगीत के लिए (सी.रामचन्द्र को हम पहले ही क्रांतिकारी करार दे चुके हैं)। भले इस गीत को सुन कर ऐसा लगता है कि नायक और नायिका एक दूसरे से टेलीफ़ोन पर बात करे हैं, लेकिन असल में यह गीत एक स्टेज शो का हिस्सा है। उन दिनों बर्मा में काफ़ी भारतीय जाया करते थे, शायद इसीलिए रंगून शहर का इस्तेमाल हुआ है। (द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का रंगून से गहरा नाता था)। आज के दौर में शायद ही रंगून का ज़िक्र किसी फ़िल्म में आता होगा। फ़िल्म 'पतंगा' के दूसरे हल्के फुल्के हास्यप्रद गीतों में शामिल है शमशाद बेग़म का गाया "गोरे गोरे मुखड़े पे गेसू जो छा गए", "दुनिया को प्यारे फूल और सितारे, मुझको बलम का नाम", शमशाद और रफ़ी का गाया डुएट "बोलो जी दिल लोगे तो क्या क्या दोगे" और "पहले तो हो गई नमस्ते नमस्ते", शमशाद और चितलकर का गाया एक और गीत "ओ दिलवालों दिल का लगाना अच्छा है पर कभी कभी"। दोस्तों, यह वह साल था जिस साल लता मंगेशकर 'महल' और 'बरसात' जैसी फ़िल्मों में गीत गा कर चारों तरफ़ हलचल मचा दी थी। इस फ़िल्म में उन्होने भी कुछ गीत गाए। एक गाना था शमशाद बेग़म के साथ "प्यार के जहान की निराली सरकार है", और तीन दर्द भरे एकल गीत भी गाए, जिनमें जो सब से ज़्यादा हिट हुआ था वह था "दिल से भुला दो तुम हमें, हम ना तुम्हे भुलाएँगे"। दोस्तों, आज सी. रामचन्द्र जी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए हम भी यही कहते हैं कि आप ने जो संगीत हमारे लिए रख छोड़ा है, उसे हमने अभी तक कलेजे से लगाए रखा है, और आनेवाली तमाम पीढ़ियाँ भी इन्हे सहज कर रखेंगी ज़रूर! चलिए माहौल को अब थोड़ा सा हल्का करते हैं, और देहरादून से रंगून के बीच की इस बातचीत का मज़ा लेते हैं।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
अंगडाई लेकर जागी सुबह, फिर किलकारियां गूंजी आँगन में, उसकी पायल की झंकार सुन, नींद से जागा है मेरा संसार....
अतिरिक्त सूत्र - इस संगीतकार की पुण्यतिथि ६ जनवरी है
पिछली पहेली का परिणाम- शरद जी लौटे हैं २ अंकों के लिए बधाई, अनुराग जी बिलकुल सही कहा आपने...इंदु जी आशा है अब तबियत बेहतर होगी आपकी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
जनवरी का महीना फ़िल्म संगीत जगत के लिए एक ऐसा महीना है जिसमें अनेक कलाकारों के जन्मदिवस तथा पुण्यतिथि पड़ती है। इस साल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की शुरुआत हमने की पंचम यानी कि राहुल देव बर्मन के पुण्यतिथि को केन्द्रित कर उन पर आयोजित लघु शृखला 'पंचम के दस रंग' के ज़रिए, जो कल ही पूर्णता को प्राप्त हुई है। पंचम के अलावा जनवरी के महीने में और भी बहुत सारे संगीतकारों, गीतकारों और गायकों के जन्मदिन व स्मृतिदिवस हैं, तो हमने सोचा कि क्यों ना दस अंकों की एक ख़ास लघु शृंखला चलाई जाए जिसमें ऐसे कलाकारों को याद कर उनके एक एक गीत सुनवा दिए जाएँ और उनसे जुड़ी कुछ बातें भी की जाए। तो लीजिए प्रस्तुत है आज, यानी ११ जनवरी से लेकर २० जनवरी तक 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की ख़ास शृंखला 'स्वरांजली'। दोस्तों, आज है ११ जनवरी। और कल, यानी कि १० जनवरी को था हिंदी और दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध पार्श्वगायक यशुदास जी का जनमदिन। जी हाँ, यशुदास, जिनका नाम कई जगह बतौर जेसुदास भी दिखाई दे जाता है। तो हम यशुदास जी को कहते हैं 'बिलेटेड हैप्पी बर्थडे'!!! पद्मभूषण डॊ. कट्टास्सरी जॊसेफ़ यशुदास (Kattassery Joseph) का जन्म १० जनवरी १९४० को कोचिन में पिता Augustine Joseph और माँ Alicekutty के घर हुआ था। यशुदस के बारे में विस्तृत जानकारी आप उनकी वेबसाइट पर प्राप्त कर सकते हैं। हम यहाँ बस इतना ही कहेंगे कि उन्होने भारतीय और विदेशी भाषाओं में कुल ४०,००० से उपर गानें गाए हैं। उन्हे ७ बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक के राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं जो किसी पार्श्वगायक के लिए सब से अधिक बार है। मलयालम के कई फ़िल्मों में उन्होने बतौर संगीतकार भी काम किया है और उन्हे वहाँ 'गान गधर्व' के नाम से संबोधित किया जाता है।
दोस्तों, यशुदास एक ऐसे गायक हैं जिनका स्तर बहुत ऊँचा है। ७० के दशक के अंतिम भाग से लेकर ९० के दशक के शुरआती सालों तक उन्होने हिंदी फ़िल्म जगत में बेहतरीन से बेहतरीन गानें गाए हैं। दक्षिण में उनके गाए गीतों की संख्या तो भूल ही जाइए। और सब से बड़ी बात यह कि हिंदी फ़िल्मों के लिए उन्होने जितने भी गानें गाए हैं, उनका स्कोर १००% रहा है। यानी कि उनका हर गीत सुरीला है, कभी भी उन्होने कोई सस्ता गीत नहीं गाया, कभी भी व्यावसायिक्ता के होड़ में आकर अपने स्तर को गिरने नहीं दिया। आज जब हम उनके गाए गीतों को याद करते हैं, तो हर गीत लाजवाब, हर गीत बेमिसाल पाते हैं। शास्त्रीय और लोक संगीत पर आधारित गानें उनसे ज़्यादा गवाए गये हैं। और आज के लिए हमने एक बहुत ही ख़ूबसूरत सा गीत चुना है शास्त्रीय रंग में ढला हुआ। फ़िल्म का नाम है 'आलाप' और गाने के बोल हैं "चांद अकेला जाए सखी री"। फ़िल्म 'आलाप' १९७७ की फ़िल्म थी जिसका निर्माण किया था ऋषिकेश मुखर्जी और एन. सी. सिप्पी ने। ऋषि दा की ही कहानी थी और उन्ही का निर्देशन था। अमिताभ बच्चन, रेखा, छाया देवी और ओम प्रकाश जैसे स्टार कास्ट के होते हुए, और ऋषि दा जैसे निर्देशक और कहानीकार के होने के बावजूद यह फ़िल्म बुरी तरह से फ़्लॊप हुई। ऐसा सुनने में आता है कि फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद 'मोहन स्टुडियो' में १५ अप्रैल १९७७ के दिन फ़िल्म के कुछ अंश दोबारा फ़िल्माए गए, लेकिन फिर भी वो फ़िल्म के क़िस्मत को नहीं बदल सके। आज अगर यह फ़िल्म याद की जाती है तो बस इसके गीतों की वजह से। संगीतकार जयदेव का सुरीला संगीत इस फ़िल्म में सुनाई देता है जो शास्त्रीय संगीत पर आधारित है। दोस्तों, जयदेव जी की भी पुण्य तिथि इसी महीने की ६ तारीख़ को थी। आगे चलकर इस शृंखला में हम उन्हे भी अलग से अपनी स्वरांजली अर्पित करेंगे। डॊ. राही मासूम रज़ा ने फ़िल्म 'आलाप' के संवाद लिखने के साथ साथ फ़िल्म के गानें भी लिखे, सिवाय एक गीत के ("कोई गाता मैं सो जाता") जिसे डॊ. हरिवंशराय बच्चन ने लिखा था। फ़िल्म के ज़्यादातर गानें यशुदास ने ही गाए, एक गीत भुपेन्द्र की आवाज़ में था। गायिकाओं में लता मंगेशकर, दिलराज कौर, और शास्त्रीय गायिकाएँ कुमारी फ़य्याज़ और मधुरानी की आवाज़ें शामिल थीं। फ़िल्म की कहानी पिता पुत्र के आपस के मतभेद को लेकर था। जहाँ पुत्र को गीत संगीत का शौक है और उसी दिशा में आगे बढ़्ना चाहता है, वहीं उद्योगपति पिता चाहता है कि बेटा उन्ही की राह पर चले। बस इसी के इर्द गिर्द घूमती है कहानी। तो आइए, अब इस सुमधुर गीत का आनंद उठाया जाए। चलते चलते आपको यह बता दें कि फ़िल्म 'आलाप' समर्पित किया गया था गायक मुकेश की पुण्यस्मृति को जिनका इस फ़िल्म के रिलीज़ के कुछ महीनें पहले अमरीका में निधन हो गया था। तो दोस्तों, आज यशुदास जी को उनकी ७१ वीं वर्षगांठ पर बधाइयाँ देने के साथ साथ स्वर्गीय मुकेश जी को भी हम अर्पित कर रहे हैं हमारी स्वरांजली।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
बिछड गयी खुशबू पवन से, रूखी धूल उड़े रे, मुरझे फूल करे क्या गुजारा, हंसना भूल गए रे....
अतिरिक्त सूत्र- इस गीत के माध्यम से हम याद करेंगें उस संगीतकार को जिनकी पुण्यतिथि इस माह की ५ तारीख को थी.
पिछली पहेली का परिणाम- इंदु जी, फिर एक बार आपको एक ही अंक मिलेगा, आज की पहेली में मौका दीजिए किसी और को जीतने का ताकि अगले जवाब के साथ आपको फिर २ अंक मिले, वैसे आपकी याददाश्त का जवाब नहीं, इस पहेली को सुलझाना आसान नहीं था, बधाई...
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
सजीव - 'ताज़ा सुर ताल' की इस साल की दूसरी कड़ी में सभी का हम स्वागत करते हैं। पिछली बार 'दुल्हा मिल गया' की गीतों की चर्चा हुई थी और गानें भी हमने सुनें थे, आज बारी है एक महत्वपूर्ण फ़िल्म की, जिसकी चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है।
सुजॊय - चर्चा शुरु हुए साल बीत चुका है और अभी तक फ़िल्म बाहर नहीं आई, ऐसी तो मुझे बस एक ही फ़िल्म की याद आ रही है, सलमान ख़ान का 'वीर'।
सजीव - बिल्कुल सही पहचाना तुमने! आख़िर अब इस फ़िल्म के गानें रिलीज़ हो चुके हैं, और फ़िल्म के प्रोमोज़ भी आने शुरु हो गए हैं। आज फ़िल्म 'वीर' की बातें और 'वीर' का संगीत 'ताज़ा सुर ताल' पर।
सुजॊय - तो सजीव, जब 'वीर' की बात छिड़ ही गई है तो बात आगे बढ़ाने से पहले इस फ़िल्म का मशहूर गीत "सलाम आया" सुन लेते हैं और श्रोताओं को भी सुनवा देते हैं, उसके बाद इस गीत के बारे में चर्चा करेंगे और 'वीर' की बातों को आगे बढ़ाएँगे।
सजीव - ज़रूर! बस इतना बता दें कि इस फ़िल्म के संगीतकार हैं साजिद-वाजिद और गीतकार हमारे गुलज़ार साहब।
गीत - सलाम आया...Salaam aaya (veer)
सुजॊय - रूप कुमार राठोड़, श्रेया घोषाल और सुज़ेन डी'मेलो की आवाज़ों में यह सुरीला गीत हमने सुना। बहुत दिनों के बाद ऐसा ख़ूबसूरत गीत आया है, क्यों?
सजीव - बिल्कुल! पीरियड फ़िल्मों की अगर बात करें तो 'जोधा अक़बर' के बाद यही पहला पीरियड फ़िल्म रिलीज़ होने जा रहा है। फ़िल्म 'वीर' के इस गीत को सुनते हुए फ़िल्म 'जोधा अक़बर' का "कहने को जश्न-ए-बहारा है" की याद आ जाती है जैसे!
सुजॊय - हाँ, अंदाज़ कुछ कुछ उसी तरह का है। एक चीज़ आपने ग़ौर की है आजकल, कि शुद्ध युगल गीत होते ही नहीं हैं इन दिनों। दो मुख्य गायक गायिका के साथ एक तीसरी आवाज़ को भी शामिल कर लिया जाता है कुछ चुनिंदा बोलों और आलापों को गाने के लिए। यह एक ट्रेंड सी जैसे चल पड़ी है।
सजीव - अगर ऐसा ही चलता रहा तो प्योर डुएट्स तो ख़त्म ही हो जाएँगे! ख़ैर, जब तक गाना अच्छा है, तब तक चाहे दो लोग गाएँ या तीन, बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ता। और बताओ इस गीत के बारे में और क्या ऒब्ज़र्वेशन है तुम्हारी?
सुजॊय - इसका जो संगीत संयोजन हुआ है, जिसे हम अरेन्जमेंट कहते हैं, वह भारतीय साज़ों के आधार पर किया गया है। अब ये ध्वनियाँ हो सकता है कि सीन्थेसाइज़र से निकले होंगे, लेकिन सितार और बाँसुरी की मीठी तानें बहुत दिनों के बाद किसी फ़िल्मी गीत में सुनने को मिला है।
सजीव - साथ ही कोरस का और स्ट्रिंग् इन्स्ट्रुमेंट्स जैसे कि वायलिन्स का भी सुंदर प्रयोग मिलता है। और अरे भई गीतकार का ज़िक्र तो हमने किया ही नहीं। गुलज़ार साहब के बोलों ने भी तो उतना ही कमाल किया है!
सुजॊय - कोई शक़ नहीं इसमें। और इससे एक और बात साबित हो जाती है कि अगर बोल अच्छे हों तो आज के दौर के संगीतकार भी मधुर संगीत दे सकते हैं। साजिद वाजिद अब तक चलताऊ किस्म के गानें ही बनाते आए हैं, लेकिन देखिए सुलज़ार के बोल पाकर कितना अच्छा गाना बना कर दिखाया है! अच्छा, अब दूसरा गाना कौन सा सुनवा रहे हैं?
सजीव - दूसरा गाना है सोनू निगम का गाया हुआ, मुखड़े के बोल हैं "मेहरबानियाँ"।
गीत - मेहरबानियाँ..meharbaaniyan (veer)
सजीव - यह गाना कैसा लगा?
सुजॊय - हाँ, एक अलग ही अंदाज़ का गाना है, लेकिन अगर इस पीरियड फ़िल्म के पार्श्व की बात करें तो मुझे ऐसा लगा कि गा्ने का रीदम और अंदाज़ थोड़ा ज़्यादा मॊडर्ण सा बन गया है। अगर किसी को यह न बताया जाए कि यह एक पीरियड फ़िल्म का गीत है, तो इसे सुन कर लगेगा कि कॊलेज के लड़कों पर फ़िल्माया गया है जो फ़िल्म की नायिका के साथ मस्ती कर रहे हैं।
सजीव - और एक बात नोटिस की है तुमने? गीत का जो शुरुआती संगीत है और शुरुआती रीदम है वह फ़िल्म 'दिल चाहता है' के सोनू निगम के ही गाए "तन्हाई" गीत के रीदम से बहुत मिलता जुलता है।
सुजॊय - वाक़ई! अब अगला गाना सुनने से पहले ज़रा इस फ़िल्म की बातें हो जाएँ?
सजीव - ज़रूर! 'वीर' फ़िल्म के निर्माता हैं विजय गलानी। निर्देशक हैं अनिल शर्मा। कहानी और स्क्रीनप्ले शैलेश वर्मा और सलमान ख़ान ने मिलकर लिखा है। सल्लु मियाँ के अलावा फ़िल्म में नायिका की भूमिका में है लिज़ा लज़रुस। साथ में हैं मिथुन चक्रबर्ती, जैकी श्रोफ़ और शाहरुख़ ख़ान भी हैं इस फ़िल्म में। किसी भी पीरियड फ़िल्म में सिनेमाटोग्राफ़ी का महत्वपूर्ण पक्ष होता है, तो इस फ़िल्म में यह विभाग सम्भाला है गोपाल शाह ने।
सुजॊय - चलिए, फ़िल्म के कास्ट और क्रू से तो आपने हमारा परिचय करा दिया, अब एक गीत सुनने की बारी है। बताइए अब कौन सा गाना सुना जाए?
सजीव - अब हम सुनेंगे मिली जुली आवाज़ों में "ताली मार दो हत्थी वीरा", जिसे गाया है सुखविंदर सिंह, राहत फ़तेह अली ख़ान, वाजिद और नोमान पिंटो ने।
गीत - ताली मार...taali maar (veer)
सुजॊय - इस गीत में भी नयापन है। साजिद-वाजिद का ख़ास ट्रेडमार्क इस गीत में सुनने को मिलता है। इस गीत के मुखड़े को अगर आप ने ग़ौर से सुना है तो आपको २००९ की उनकी फ़िल्म 'वांटेड' के गीत "लव मी बेबी लव मी" की याद आ जाएगी।
सजीव - सच कहा तुमने। इस गीत का संगीत संयोजन अच्छा हुआ है। तालियाँ बजाकर गीत का पूरा रिदम खड़ा किया गया है। पिछले गीत में हमें जिस पीरियड अंदाज़ की कमी लग रही थी, वह इस गीत में कुछ हद तक पूरा हुआ है।
सुजॊय - अच्छा सजीव, हम बार बार 'पीरियड पीरियड' कह रहे हैं, क्या आपको कुछ अंदाज़ा है कि किस पीरियड की यह फ़िल्म है। कहानी का मूल क्या है?
सजीव - जहाँ तक मैंने सुना है या पढ़ा है कहीं पे, यह उस समय की कहानी है जब अंग्रेज़ इस देश में अपना शासन चलाया करते थे। उनके 'डिवाइड ऐंड रूल' पॊलिसी की वजह से कई राजा महाराजा और नवाब झांसे में आ गए और अपना बहुमूल्य राजपाठ उन फ़िरंगियों के हाथों सौंप दिया। लेकिन एक जाती ऐसी भी थी जिन्होने मौत को ग़ुलामी से बेहतर माना। और यह जाती थी पिंडरी। पिंडरियों के रगों में वो ख़ून था जो अपने अंतिम साँसों तक अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए युद्ध करते थे। और पिंडरियों में सब से साहसी, सब से ज़्यादा शक्तिशाली पिंडरी का नाम था 'वीर'। वीर ने अंग्रेज़ों की ग़ुलामी स्वीकार नहीं की, जिसकी वजह से अंग्रेज़ों के अलावा माधवगढ़ के राजा से भी दुश्मनी मोल ली। दूसरी तरफ़ वीर प्रेम करता था उसी राजा की पुत्री यशोधरा से। वीर के पिता की बेइज़्ज़ती का बदला दाव पर था, उसका प्यार दाव पर लग चुका था, उसका अपना अस्तित्व भी दाव पर था। तलवारें टकराईं,एक के बाद एक शव गिरने लगे युद्ध भूमि पर। क्या होता है फ़िल्म के अंत में? यही देखना है हमें जैसे ही यह फ़िल्म रिलीज़ होती है।
सुजॊय - यानी की हिन्दुस्तानी "ग्लादियेटर" हैं सल्ल्लू मियां यहाँ. चलिए हमें और हमारे पाठकों को एक अंदाज़ा हो गया फ़िल्म के बारे में। अब देखना है कि जनता किस तरह से फ़िल्म को ग्रहण करती है। ख़ैर, अब आज के चौथे गीत की बारी। अब मैं आपको सुनवाउँगा राहत फ़तेह अली ख़ान और सुज़ेन डी'मेलो कई आवाज़ों में एक नर्मोनाज़ुक गीत, "सुरीली अखियों वाले"। "सलाम आया" गाने की तरह यह गीत भी बेहद कोमल और प्यार भरा है, जिसे सुन कर सही मायने में अच्छा लगता है। और राहत साहब का सुफ़ीयाना अंदाज़ गीत में अच्छा रंग ले आया है। इंटर्ल्युड म्युज़िक में कोरस का अच्छा इस्तेमाल हुआ है।
सजीव - और एक बार फिर गुलज़ार साहब के बोलों ने गीत को एक अलग मुकाम तक पहुँचाया है। लेकिन यह बताना मुश्किल है कि सुज़ेन डी'मेलो ने जिन अंग्रेज़ी बोलों को गाया है उन्हे भी गुलज़ार साहब ने ही लिखे हैं या फिर कोई और!
सुजॊय - गीत सुनने से पहले इस गीत से मिलता जुलता एक गीत का ज़िक्र मैं करना चाहूँगा। गीत है फ़िल्म 'लगान' का "ओ री छोरी मान भी ले बात मोरी"। इस गीत में जहाँ उदित और अल्का गीत को गाते है, वहीं दूसरी तरफ़ एक ब्रिटिश लड़की वसुंधरा दास की आवाज़ में अंग्रेज़ी के बोल गाती हैं। और 'वीर' के इस गीत में भी ऐसा ही लगता है कि कोई अंग्रेज़ लड़की ने सुज़ेन वाले पोर्शन गाए होंगे!
गीत - सुरीली आँखों वाले...surili akhiyon waale (veer)
सजीव - और अब माहौल को थोड़ा और बदलते हुए एक ठुमरी सुनते हैं "कान्हा बैरन हुई बांसुरी, कान्हा क्यो तेरे अधर लगी"।
सुजॊय - वाह, क्या बात है!
सजीव - बिल्कुल, और वह भी रेखा भारद्वाज की गाई हुई। 'ओम्कारा' और 'दिल्ली-६' के बाद रेखा भारद्वाज एक मशहूर गायिका के रूप में प्रतिष्ठित हो चुकी हैं। और इस ठुमरी को भी क्या ख़ूब अंजाम दिया है उन्होने! बेग़म अख़्तर की ठुमरी वाला अंदाज़ जैसे यकयक ज़हन में आ जाता है।
सुजॊय - इस ठुमरी में तबले से रिदम तैयार किया गया है जैसा कि होना ही चहिए था। और रेखा जी के साथ में आवाज़ मिलाई है तोशी साबरी, शरीब साबरी और शबाब साबरी ने। देखना यह है कि क्या यह गीत भी "ससुराल गेंदाफूल" की तरह लोकप्रिय होती है या नहीं!
सजीव - देखो जिस तरह से तुमने "मेहेरबानियाँ" गीत में "तन्हाई" और "ताली" गीत में "लव मी बेबी" गीत की झलक पाई थी, वैसे ही इस ठुमरी में भी मैं एक और गीत के सुर ढूंढ़ पाया हूँ।
सुजॊय - कौन सा?
सजीव - रेखा भारद्वाज जब दूसरी बार "कान्हा" गाती हैं, तब उसके साथ "मितवा, कहे धड़कनें तुझसे क्या" गीत के "मितवा" वाले अंश की धुन से मेल महसूस की जा सकती है।
गीत - कान्हा बैरन हुई बांसुरी...kaanha (veer)
सुजॊय - तो कुल मिलाकर हम यह कह सकते हैं कि इस फ़िल्म का संगीत अच्छा है, क्यों सजीव?
सजीव - हाँ, कम से कम साजिद वाजिद आज तक जिस तरह का संगीत देते आए हैं, उस लिहाज़ से तो यह उनका सब से बेहतरीन ऐल्बम माना जाना चाहिए इसे। जिस तरह से हिमेश भाई का 'तेरे नाम' फिर कभी नहीं बना पाया, वैसे ही हो सकता है कि 'वीर' के साथ भी साजिद वाजिद का नाम वैसे ही जुड़ जाए। यह तो वक़्त ही बताएगा।
वीर के संगीत को आवाज़ रेटिंग **** रेखा भारद्वाज के गाये गीत के अलावा अन्य गीतों की बहुत अधिक शेल्फ वेल्यू नहीं नज़र आती, कुछ बार सुनने के बाद आप कुछ बोरियत महसूस करेंगें, पर जहाँ तक गीतों के स्तर का सवाल है, निराशा नहीं हाथ लगती. "सलाम आया","सुरीली अखियों वाले" (सुंदर बोल), और कान्हा जैसे गीतों के चलते ये अल्बम २०१० की हिट परेड में विशेष महत्त्व रखेगी. आवाज़ ने दिए ४ तारे.
अब पेश है आज के तीन सवाल.
TST ट्रिविया # ०४-"सलाम आया" और "रफ़्ता रफ़्ता देखो आँख मेरी लड़ी है" गीत में आप क्या समानता खोज सकते हैं?
TST ट्रिविया # ०५-साजिद-वाजिद की पहली ग़ैर फ़िल्मी ऐल्बम और पहली फ़िल्मी ऐल्बम का नाम बताइए।
TST ट्रिविया # ०६- संगीतकार साजिद-वाजिद ने गीतकार आनंद बक्शी साहब के साथ एक फ़िल्म में काम किया था। कौन सी थी वह फ़िल्म?
TST ट्रिविया में अब तक - सीमा जी दो सही जवाबों के साथ ४ अंक अर्जित कर लिए.याद रहे आप लोग रेटिंग देकर भी १ अंक कम सकते हैं, इन नए गीतों पर आपकी राय हम जानना चाहते हैं.
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
दोस्तों, 'पंचम के दस रंग' लघु शृंखला को सुनते हुए आज हम आ पहुँचे हैं दसवीं कड़ी, यानी इस शृंखला की अंतिम कड़ी पर। आज का रंग है 'आइटम सॊंग्'। आइटम सॊंग्स की परम्परा नई नहीं है। बहुत पहले से ही हमारी फ़िल्मों में आइटम सॊंग्स बनते आए हैं। हाँ, इतना ज़रूर बदलाव आया है कि पहले ऐसे गानें फ़िल्म की कहानी से जुड़े हुए लगते थे, शालीनता भी हुआ करती थी, लेकिन आज के दौर के आइटम सॊंग्स केवल सस्ती पब्लिसिटी और अंग प्रदर्शन के लिए ही इस्तेमाल में लाए जाते हैं। साहब, आइटम सॊंग किसे कहते हैं पंचम दा ने दुनिया को दिखाया था १९७५ की ब्लॊकबस्टर फ़िल्म 'शोले' में "महबूबा महबूबा" गीत को बना कर और ख़ुद उसे गा कर। जलाल आग़ा और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ यह गीत उतना ही अमर है जितना कि फ़िल्म 'शोले'। आज के इस अंतिम कड़ी के लिए पंचम दा की आवाज़ में इस गीत से बेहतर भला और कौन सा गीत हो सकता था! फ़िल्म 'शोले' की हम और क्या बातें करें, इसके हर पहलु तो बच्चा बच्चा वाक़िफ़ है, इसलिए आइए आज इस गीत की थोड़ी चर्चा की जाए।
"महबूबा महबूबा" मध्य एशिया के अरबी संगीत पर आधारित है। इस गीत में जो एक ख़ास साज़ आपको सुनाई देता है, क्या आपको पता है वह कौन सा साज़ है? यह है इरानीयन संतूर। जी हाँ, पंडित शिव कुमार शर्मा, हमारे देश के सुविख्यात संतूर वादक ने ही इस गानें में इरानीयन संतूर बजाया था। पंडित जी पंचम के गहरे दोस्तों में से थे। आइए उन्ही की ज़ुबानी सुनें पंचम और उनके इस अनोखे गीत के बारे में। ये बातें पंडित जी ने विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम के अन्तर्गत 'मेरी संगीत यात्रा' शृंखला के दौरान कहे थे। "गहरी दोस्ती थी हमारी, अभी पंचम का जब ज़िक्र कर रहे हैं हम लोग, तो जैसा कहते हैं ना बहुत जिद्दत की बात सोचते रहते थे। कुछ ऐसी बात कि इस बात में से नया क्या निकाले? तो उसी की मैं आपको एक मिसाल बताउँगा कि फ़िल्म बन रही थी 'शोले'। शोले फ़िल्म इंडस्ट्री की एक 'ऒल टाइम ग्रेट फ़िल्म' है। तो उसमें म्युज़िक उन्होने दिया था। और एक, जैसा मैंने कहा, जिद्दत कुछ ना कुछ करते रहते थे} तो अपने गाने में भी कुछ आवाज़ ऐसी बनाते थे कि अलग अंदाज़ का एक गाने का स्टाइल क्रीएट किया। तो 'शोले' का एक गाना बहुत मशहूर हुआ था, "महबूबा महबूबा"। वो पंचम ने ख़ुद गाया भी था} उसमें उन्होने इरानीयन संतूर इस्तेमाल किया। इरानीयन संतूर हमारे संतूर से टोनल क्वालिटी में अलग है, शेप भी अलग है, सिस्टेम तो वही है, और ये मेरे पास कैसे आया कि १९६९ में मैं इरान गया था शिराज़ फ़ेस्टिवल में बजाने के लिए। इंटर्नैशनल फ़ेस्टिवल हुआ था तो वहाँ की सरकार ने मुझे एक गिफ़्ट दिया था। तो पंचम ने क्या किया कि इरानीयन संतूर को, अब सोचिए कि ये इलेक्ट्रॊनिक म्युज़िक तो आज हुआ है, 'शोले' कभी आई थी, राजकमल स्टुडियो में उन्होने अपनी तरह से एक एक्स्पेरिमेंट करके उसकी टोन में कुछ बदलाव किया और एक अलग अंदाज़ का टोन बनाया, जो उस गाने की मूड को सूट करे। पंचम की आवाज़ और साथ में इरानीयन संतूर।" और दोस्तों, हम भी बेशक़ आप को सुनवाना चाहेंगे यह गीत। आशा है पंचम पर केन्द्रित इस लघु शृंखला का आप सभी ने भरपूर आनंद उठाया होगा और पंचम की ये बातें जो शम्मी कपूर, आशा भोसले, गुलज़ार और पंडित शिव कुमार शर्मा ने कहे, आपको अच्छे लगे होंगे! अपनी राय ज़रूर लिख भेजिएगा। कल से एक नई शृंखला के साथ हम फिर हाज़िर होंगे, तब तक के लिए दीजिए सुजॊय को इजाज़त और अब मैं पहेली प्रतियोगिता के संचालन के लिए बागडोर हस्तांतरित करता हूँ सजीव जी को। नमस्ते!
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
सुबह सुबह की बेला में ही, कैसी की रुत ने ठिठोली, अंग अंग भीग गयो रे मोरा, खेल गए बादल यूं होली,
पिछली पहेली का परिणाम- इंदु जी एक और अंक जुड़ा आपके खाते में, ३ अंकों पर पहुंचा आपका स्कोर, रही बात महबूबा गीत के गोल्ड होने या न होने के सवाल पर, तो हम ये फैसला अपने सुधि श्रोताओं पर ही छोड़ते हैं, चलिए आज इसी पर सब अपनी अपनी राय रखिये...
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
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