सुर संगम - 31 -लोक संगीत शैली "कजरी" (प्रथम भाग)
महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है|
शास्त्रीय और लोक संगीत के प्रति समर्पित साप्ताहिक स्तम्भ "सुर संगम" के आज के अंक में हम लोक संगीत की मोहक शैली "कजरी" अथवा "कजली" से अपने मंच को सुशोभित करने जा रहे हैं| पावस ने अनादि काल से ही जनजीवन को प्रभावित किया है| लोकगीतों में तो वर्षा-वर्णन अत्यन्त समृद्ध है| हर प्रान्त के लोकगीतों में वर्षा ऋतु को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है| उत्तर प्रदेश के प्रचलित लोकगीतों में ब्रज का मलार, पटका, अवध की सावनी, बुन्देलखण्ड का राछरा, तथा मीरजापुर और वाराणसी की "कजरी"; लोक संगीत के इन सब प्रकारों में वर्षा ऋतु का मोहक चित्रण मिलता है| इन सब लोक शैलियों में "कजरी" ने देश के व्यापक क्षेत्र को प्रभावित किया है| "कजरी" की उत्पत्ति कब और कैसे हुई; यह कहना कठिन है, परन्तु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर और शब्द मिले होंगे और जब लोकजीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से लोकगीत हमारे बीच हैं| प्राचीन काल से ही उत्तर प्रदेश का मीरजापुर जनपद माँ विंध्यवासिनी के शक्तिपीठ के रूप में आस्था का केन्द्र रहा है| अधिसंख्य प्राचीन कजरियों में शक्तिस्वरूपा देवी का ही गुणगान मिलता है| आज "कजरी" के वर्ण्य-विषय काफी विस्तृत हैं, परन्तु "कजरी" गायन का प्रारम्भ देवी गीत से ही होता है|
"कजरी" के वर्ण्य-विषय ने जहाँ एक ओर भोजपुरी के सन्त कवि लक्ष्मीसखी, रसिक किशोरी आदि को प्रभावित किया, वहीं हजरत अमीर खुसरो, बहादुर शाह ज़फर, सुप्रसिद्ध शायर सैयद अली मुहम्मद 'शाद', हिन्दी के कवि अम्बिकादत्त व्यास, श्रीधर पाठक, द्विज बलदेव, बदरीनारायण उपाध्याय 'प्रेमधन' आदि भी "कजरी" के आकर्षण मुक्त न हो पाए| यहाँ तक कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी अनेक कजरियों की रचना कर लोक-विधा से हिन्दी साहित्य को सुसज्जित किया| साहित्य के अलावा इस लोकगीत की शैली ने शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में भी अपनी आमद दर्ज कराई| उन्नीसवीं शताब्दी में उपशास्त्रीय शैली के रूप में ठुमरी की विकास-यात्रा के साथ-साथ कजरी भी इससे जुड़ गई| आज भी शास्त्रीय गायक-वादक, वर्षा ऋतु में अपनी प्रस्तुति का समापन प्रायः "कजरी" से ही करते है| कजरी के उपशास्त्रीय रूप का परिचय देने के लिए हमने अपने समय की सुप्रसिद्ध गायिका रसूलन बाई के स्वरों में एक रसभरी "कजरी" -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." का चुनाव किया है| यह लोकगीतकार छबीले की रचना है; जिसे रसूलन बाई ने ठुमरी के अन्दाज में प्रस्तुत किया है| इस "कजरी" की नायिका अपने मायके में ही दिन व्यतीत कर रही है, सावन बीतने ही वाला है और वह विरह-व्यथा से व्याकुल होकर अपने पिया के घर जाने को उतावली हो रही है| लीजिए, आप भी सुनिए यह कजरी गीत -
कजरी -"तरसत जियरा हमार नैहर में..." - गायिका : रसूलन बाई
मूलतः "कजरी" महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला लोकगीत है| परिवार में किसी मांगलिक अवसर पर महिलाएँ समूह में कजरी-गायन करतीं हैं| महिलाओं द्वारा समूह में प्रस्तुत की जाने वाली कजरी को "ढुनमुनियाँ कजरी" कहा जाता है| भारतीय पञ्चांग के अनुसार भाद्रपद मास, कृष्णपक्ष की तृतीया (इस वर्ष 16 अगस्त) को सम्पूर्ण पूर्वांचल में "कजरी तीज" पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है| इस दिन महिलाएँ व्रत करतीं है, शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी का पूजन-अर्चन करती हैं और "रतजगा" (रात्रि जागरण) करते हुए समूह बना कर पूरी रात कजरी-गायन करती हैं| ऐसे आयोजन में पुरुषों का प्रवेश वर्जित होता है| यद्यपि पुरुष वर्ग भी कजरी गायन करता है; किन्तु उनके आयोजन अलग होते हैं, जिसकी चर्चा हम आगे करेंगे| "कजरी" के विषय परम्परागत भी होते हैं और अपने समकालीन लोकजीवन का दर्शन कराने वाले भी| अधिकतर कजरियों में श्रृंगार रस (संयोग और वियोग) की प्रधानता होती है| कुछ "कजरी" परम्परागत रूप से शक्तिस्वरूपा माँ विंध्यवासिनी के प्रति समर्पित भाव से गायी जाती है| भाई-बहन के प्रेम विषयक कजरी भी सावन मास में बेहद प्रचलित है| परन्तु अधिकतर "कजरी" ननद-भाभी के सम्बन्धों पर केन्द्रित होती हैं| ननद-भाभी के बीच का सम्बन्ध कभी कटुतापूर्ण होता है तो कभी अत्यन्त मधुर भी होता है| दोनों के बीच ऐसे ही मधुर सम्बन्धों से युक्त एक "कजरी" अब हम आपको सुनवाते हैं, जिसे केवल महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "कजरी" के रूप प्रस्तुत किया गया है| इस "कजरी" को स्वर दिया है- सुप्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका विदुषी गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत और जयता पाण्डेय ने| आप भी सुनिए; यह मोहक कजरी गीत-
समूह कजरी -"घरवा में से निकली ननद भौजाई ..." - गिरिजा देवी, प्रभा देवी, डाली राहुत व जयता पाण्डेय
"कजरी" गीत का एक प्राचीन उदाहरण तेरहवीं शताब्दी का, आज भी न केवल उपलब्ध है, बल्कि गायक कलाकार इस "कजरी" को अपनी प्रस्तुतियों में प्रमुख स्थान देते हैं| यह "कजरी" हजरत अमीर खुसरो की बहुप्रचलित रचना है, जिसकी पंक्तियाँ हैं -"अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया..." | अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर की एक रचना -"झूला किन डारो रे अमरैयाँ..." भी बेहद प्रचलित है| भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की कई कजरी रचनाओं को विदुषी गिरिजादेवी आज भी गातीं हैं| भारतेन्दु ने ब्रज और भोजपुरी के अलावा संस्कृत में भी कजरी-रचना की है| एक उदाहरण देखें -"वर्षति चपला चारू चमत्कृत सघन सुघन नीरे | गायति निज पद पद्मरेणु रत, कविवर हरिश्चन्द्र धीरे |" लोक संगीत का क्षेत्र बहुत व्यापक होता है| साहित्यकारों द्वारा अपना लिये जाने के कारण कजरी-गायन का क्षेत्र भी अत्यन्त व्यापक हो गया| इसी प्रकार उपशास्त्रीय गायक-गायिकाओं ने भी "कजरी" को अपनाया और इस शैली को रागों का बाना पहना कर क्षेत्रीयता की सीमा से बाहर निकाल कर राष्ट्रीयता का दर्ज़ा प्रदान किया| शास्त्रीय वादक कलाकारों ने "कजरी" को सम्मान के साथ अपने साजों पर स्थान दिया, विशेषतः सुषिर वाद्य के कलाकारों ने| सुषिर वाद्यों; शहनाई, बाँसुरी, क्लेरेनेट आदि पर कजरी की धुनों का वादन अत्यन्त मधुर अनुभूति देता है| "भारतरत्न" सम्मान से अलंकृत उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ की शहनाई पर तो "कजरी" और अधिक मीठी हो जाती थी| यही नहीं मीरजापुर की सुप्रसिद्ध कजरी गायिका उर्मिला श्रीवास्तव आज भी अपने कार्यक्रम में क्लेरेनेट की संगति अवश्य करातीं हैं| आइए अब हम आपको सुषिर वाद्य बाँसुरी पर कजरी धुन सुनवाते हैं, जिसे सुप्रसिद्ध बाँसुरी वादक पण्डित पन्नालाल घोष ने प्रस्तुत किया है-
बाँसुरी पर कजरी धुन : वादक - पन्नालाल घोष
ऋतु प्रधान लोक-गायन की शैली "कजरी" का फिल्मों में भी प्रयोग किया गया है| हिन्दी फिल्मों में "कजरी" का मौलिक रूप कम मिलता है, किन्तु 1963 में प्रदर्शित भोजपुरी फिल्म "बिदेसिया" में इस शैली का अत्यन्त मौलिक रूप प्रयोग किया गया है| इस कजरी गीत की रचना अपने समय के जाने-माने लोकगीतकार राममूर्ति चतुर्वेदी ने और संगीतबद्ध किया है एस.एन. त्रिपाठी ने| यह गीत महिलाओं द्वारा समूह में गायी जाने वाली "ढुनमुनिया कजरी" शैली में मौलिकता को बरक़रार रखते हुए प्रस्तुत किया गया है| इस कजरी गीत को गायिका गीत दत्त और कौमुदी मजुमदार ने अपने स्वरों से फिल्मों में कजरी के प्रयोग को मौलिक स्वरुप दिया है| आप यह मर्मस्पर्शी "कजरी" सुनिए और मैं कृष्णमोहन मिश्र आपसे "कजरी लोक गायन शैली" के प्रथम भाग को यहीं पर विराम देने की अनुमति चाहता हूँ| अगले रविवार को इस श्रृंखला का दूसरा भाग लेकर पुनः उपस्थित रहूँगा|
"नीक सैंयाँ बिन भवनवा नाहीं लागे सखिया..." : फिल्म - बिदेसिया : गीता दत्त, कौमुदी मजुमदार व साथी
और अब बारी है इस कड़ी की पहेली की जिसका आपको देना होगा उत्तर तीन दिनों के अंदर इसी प्रस्तुति की टिप्पणी में। प्रत्येक सही उत्तर के आपको मिलेंगे ५ अंक। 'सुर-संगम' की ५०-वीं कड़ी तक जिस श्रोता-पाठक के हो जायेंगे सब से अधिक अंक, उन्हें मिलेगा एक ख़ास सम्मान हमारी ओर से।
पहेली: सुर-संगम के २८वें अंक में हमने आपको पंडित गणेश प्रसाद मिश्र की आवाज़ में "टप्पा" सुनाया था| आगामी अंक में हम आपको सुनवाएँगे उनके दादा जी की आवाज़ में कजरी| आपको बताना है उनका नाम|
पिछ्ली पहेली का परिणाम: अमित जी को एक बार फिर से बधाई!!!
अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तंभ को और रोचक बना सकते हैं!आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० बजे कृष्णमोहन जी के साथ 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!
खोज व आलेख - कृष्णमोहन मिश्र
प्रस्तुति - सुमित चक्रवर्ती
आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.
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8 श्रोताओं का कहना है :
Pt. Bade Ramdas Ji Mishra
बहुत ही मधुर गीत, कृष्ण मोहन जी इन दिनों रविवार की सुबहों को खुशगवार किये हुए हैं
‘सुर संगम’ के आज के अंक की पहेली में आंशिक संशोधन
दोस्तों, आज की पहेली में अगले अंक में पण्डित गणेशप्रसाद मिश्र के दादाजी की आवाज़ में कजरी सुनवाने की सूचना दी गई है। वास्तव में अगले अंक में हम जो कजरी आपको सुनवाने जा रहें हैं, वह पण्डित गणेशप्रसाद मिश्र के दादा जी की आवाज़ में नहीं, बल्कि स्वयं उन्हीं की रचना है और उस उपशास्त्रीय कजरी को स्वर दिया है- रचनाकार के प्रपौत्र अर्थात पण्डित गणेशप्रसाद मिश्र के पुत्र ने। थोड़े शाब्दिक हेर-फेर के कारण पाठकों को हुई असुविधा या भ्रम के लिए हमे खेद है।
कृष्णमोहन मिश्र
कृष्णमोहन जी इसका मतलब ये हुआ कि इस बार के अंक गए. सारी मेहनत पर पानी :(
वैसे अभी भी confusion है. पुत्र या प्रपोत्र?
पुत्र तो Pandit Vidyadhar Mishra हैं.
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