Saturday, February 28, 2009

वो हमसे चुप हैं...हम उनसे चुप हैं...मनाने वाले मना रहे हैं...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 09

"तुम्हारी महफ़िल में आ गये हैं, तो क्यूँ ना हम यह भी काम कर लें, सलाम करने की आरज़ू है, इधर जो देखो सलाम कर लें". दोस्तों, सन 2006 में फिल्म "उमरावजान" की 'रीमेक' बनी थी, जिसका यह गीत काफ़ी लोकप्रिय हुआ था. अनु मलिक ने इसे संगीतबद्ध किया था, याद है ना आपको यह गीत? अच्छा एक और गीत की याद हम आपको दिलाना चाहेंगे, क्या आपको सन् 2002 में बनी फिल्म "अंश" का वो गीत याद है जिसके बोल थे "मची है धूम हमारे घर में" जिसके संगीतकार थे नदीम श्रवण? चलिए एक और गीत की याद आपको दिलवाया जाए. संगीतकार जोडी लक्ष्मीकांत प्यारेलाल के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर और साथियों ने राज कपूर की 'हिट फिल्म' सत्यम शिवम सुंदरम में एक गीत गाया था जिसके बोल थे "सुनी जो उनके आने की आहट, गरीब खाना सजाया हमने". इन तीनो गीतों पर अगर आप गौर फरमाएँ तो पाएँगे की इन तीनो गीतों के मुख्डे की धुन करीब करीब एक जैसी है. अब आप सोच रहे होंगे कि इनमें से किस गीत को हमने चुना है आज के 'ओल्ड इस गोल्ड' के लिए. जी नहीं, इनमें से कोई भी गीत हम आपको नहीं सुनवा रहे हैं. बल्कि हम वो गीत आपको सुनवाना चाहेंगे जिसके धुन से प्रेरित होकर यह तीनो गाने बने. है ना मज़े की बात!

तो अब उस 'ओरिजिनल' गीत के बारे में आपको बताया जाए! यह गीत है सन् 1950 में बनी फिल्म "सरगम" का जिसे लता मंगेशकर और चितलकर ने गाया था. जी हाँ, यह वही चितलकर हैं जिन्हे आप संगीतकार सी रामचंद्र के नाम से भी जानते हैं. फिल्मीस्तान के 'बॅनर' तले बनी इस फिल्म में राज कपूर और रेहाना थे, और इस फिल्म के गाने लिखे थे पी एल संतोषी ने. उन दिनों पी एल संतोषी और सी रामचंद्र की जोडी बनी हुई थी और इन दोनो ने एक साथ कई 'हिट' फिल्मों में काम किया. तो अब आप बेक़रार हो रहे होंगे इस गीत को सुनने के लिए. हमें यकीन है कि इस गीत को आप ने एक बहुत लंबे अरसे से नहीं सुना होगा, तो लीजिए गुज़रे दौर के उस ज़माने को याद कीजिए और सुनिए सी रामचंद्रा का स्वरबद्ध किया हुया यह लाजवाब गीत सिर्फ़ और सिर्फ़ आवाज़ के 'ओल्ड इस गोल्ड' में.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. हेलन पर फिल्माए गए इस क्लब सोंग में जोड़ी है ओ पी नैयर और आशा की.
२. गीतकार हैं शेवन रिज़वी.
३. मुखड़े में शब्द है -"कातिल"

कुछ याद आया...?

पिछली पहेली का परिणाम-
पहली बार तन्हा जी ने जवाब देने की कोशिश की और परीक्षा में खरे उतरे. मनु जी और दिलीप जी दोनों ने भी एक बार फिर सही गीत पकडा. आप सभी को बधाई.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



सुनो कहानी: कुर्रत-उल-ऐन हैदर की 'फोटोग्राफर'



उर्दू लेखिका कुर्रत-उल-ऐन हैदर की कहानी 'फोटोग्राफर'

'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत आज हम आपको सुनवा रहे हैं कुर्रत-उल-ऐन हैदर की कहानी 'फोटोग्राफर'। पिछले सप्ताह आपने शन्नो अग्रवाल की आवाज़ में प्रेमचंद की रचना ''पत्नी से पति'' का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं कुर्रत-उल-ऐन हैदर की 'फोटोग्राफर', जिसको स्वर दिया है श्रीमती नीलम मिश्रा ने। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। कहानी का कुल प्रसारण समय है: 14 मिनट।

यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।



कुर्रत-उल-ऐन हैदर (१९२६ - २००७)
कुर्रत-उल-ऐन हैदर का जन्म २० जनवरी १९२६ में उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ नगर में हुआ था. विभाजन के समय वे पाकिस्तान चली गयी थीं परन्तु बाद में वापस भारत आ गयीं और मृत्युपर्यंत (२१ अगस्त २००७) यहीं रहीं. ऐनी आपा के नाम से प्रसिद्ध हैदर, इम्प्रिंट की प्रबंध-संपादिका रहीं और इलसट्रेटड वीकली के सम्पादन मंडल में भी रहीं. वे भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अतिरिक्त अमेरिका के केलिफोर्निया, शिकागो, विस्कोंसिन, और एरिजोना विश्वविद्यालयों से जुडी रही हैं. उनकी कुछ कृतियाँ: पतझड़ की आवाज़, रोशनी का सफ़र, चाय के बाग़, मेरे भी सनम खाने, सफीना-ए-गम-ऐ-दिल, और गर्दिश-ऐ-रंग-ए-चमन.
हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी



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#Twenty Seventh Story, Photographer: Stories/Hindi Audio Book/2009/08. Voice: Neelam Mishra

Friday, February 27, 2009

टिम टिम टिम तारों के दीप जले...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 08

'ओल्ड इस गोल्ड' में आज बारी है एक सदाबहार युगल गीत को सुनने की. दोस्तों, फिल्मकार वी शांताराम और संगीतकार वसंत देसाई प्रभात स्टूडियो के दिनो से एक दूसरे से जुडे हुए थे, जब वसंत देसाई वी शांताराम के सहायक हुआ करते थे. वी शांताराम को वसंत देसाई के प्रतिभा का भली भाँति ज्ञान था. इसलिए जब उन्होंने प्रभात छोड्कर अपने 'बैनर' राजकमल कलामंदिर की नीव रखी तो वो अपने साथ वसंत देसाई को भी ले आए. "दहेज", "झनक झनक पायल बाजे", "तूफान और दीया", और "दो आँखें बारह हाथ" जैसी चर्चित फिल्मों में संगीत देने के बाद वसंत देसाई ने राजकमल कलामंदिर की फिल्म "मौसी" में संगीत दिया था सन 1958 में. इस फिल्म में एक बडा ही प्यारा सा गीत गाया था तलत महमूद और लता मंगेशकर ने. यही गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में.

हालाँकि वी शांताराम प्रभात स्टूडियो छोड चुके थे, लेकिन उसे अपने दिल से दूर नहीं होने दिया. उन्होने अपने बेटे का नाम इसी 'स्टूडियो' के नाम पर प्रभात कुमार रखा. और उनके इसी बेटे ने फिल्म "मौसी" का निर्देशन किया. सुमति गुप्ते और बाबूराव पेंढारकर अभिनीत यह फिल्म बहुत ज़्यादा नहीं चली लेकिन इस फिल्म का गीतकार भरत व्यास का लिखा यह युगल गीत चल पडा. कुछ लोगों का कहना था कि वसंत देसाई के संगीत में शास्त्रीयता और मराठी लोक संगीत की भरमार होती है और उसमें विविधता का अभाव है. इस गीत के ज़रिए वसंत-दा ने ऐसे आरोपों को ग़लत साबित किया. एक और बात, इसी गीत की धुन पर तेलुगु के संगीतकार घनतसला ने 1960 की तेलुगु फिल्म शांतीनिवासं में एक गीत बनाया जिसके बोल थे "'कम कम कम'". हल्का फुल्का 'कॉंपोज़िशन' और 'ऑर्केस्ट्रेशन', सहज बोल, और मधुर गायिकी, इन सब के आधार पर मौसी फिल्म के इस युगल गीत के दीये टीम टीम करके नहीं बल्कि अपनी पूरी रौशनी के साथ चमकने लगे और आज भी इसकी चमक वैसी ही बरक़रार है.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. लता मंगेशकर और चितलकर की आवाजें हैं इस मशहूर युगल गीत में.
२. इसी फिल्म के नाम की एक और फिल्म बनी थी १९७९ में जिसमें ऋषि कपूर और जय प्रदा की प्रमुख भूमिकाएं थी.
३. मुखड़े में शब्द हैं -"चुप"

कुछ याद आया...?

(पिछली पहेली का परिणाम)
अरे ये क्या हुआ...मनु जी इस बार कैसे चूक गए भाई...खैर मीत जी ने एकदम सही जवाब दिया.
आखिर हमारे सचिन शून्य पर आउट हो ही गए...क्या किया जाये नीलम जी :),
नीरज जी आपका स्वागत है....सही कहा आपने.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.




बांसुरी के स्वर में डूबा नीला आसमां...




मुरली से उनका प्रेम अब जग जाहिर होने लगा, भारत ही नही विदेशो में भी उनकी मुरली के सुर लोगो को आनंदित करने लगे । पंडित हरीप्रसाद चौरसिया जी की बांसुरी वादन की शिक्षा और कटक के मुंबई आकाशवाणी केन्द्र पर उनकी नियुक्ति के बारे में हमने आलेख के पिछले अंक में जाना, अब आगे...

पंडित हरिप्रसाद जी के मुरली के स्वर अब श्रोताओ पर कुछ ऐसा जादू करने लगे कि उनके राग वादन को सुनकर श्रोता नाद ब्रह्म के सागर में डूब जाने लगे,उनका बांसुरी वादन श्रोताओ को बांसुरी के सुरों में खो जाने पर विवश करने लगा । संपूर्ण देश भर में उनके बांसुरी के कार्यक्रम होने लगे,भारत के साथ साथ यूरोप, फ्रांस, अमेरिका, जापान आदि देशो में उनकी बांसुरी के स्वर गुंजायमान होने लगे।

बड़ी बांसुरी पर शास्त्रीय संगीत बजाने के बाद छोटी बांसुरी पर जब पंडित हरिप्रसाद जी धुन बजाते तो श्रोता बरबस ही वाह वाह करते,सबसे बड़ी बात यह की बड़ी बांसुरी के तुंरत बाद छोटी बांसुरी को बजाना बहुत कठिन कार्य हैं, बड़ी बांसुरी की फूंक अलग और छोटी बांसुरी की फूंक अलग,दोनों बांसुरीयों पर उंगलिया रखने के स्थान अलग । ऐसा होते हुए भी जब वे धुन बजाते, सुनने वाले सब कुछ भूल कर बस उनके बांसुरी के स्वरों में खो जाते ।

मैंने कई बार तानसेन संगीत समारोह में उनका बांसुरी वादन सुना हैं, उनके आने की बात से ही तानसेन समारोह का पुरा पंडाल ठसाठस भर जाता, रात के चाहे २ बजे या ४ श्रोता उनकी बांसुरी सुने बिना हिलते तक नही हैं, पंडाल में अगर बैठने की जगह नही हो तो कई श्रोता देर रात तक पंडाल के बाहर खडे रह कर उनकी बांसुरी सुनते हैं, उनका धुनवादन श्रोताओ में बहुत ही लोकप्रिय हैं, लगता हैं मानों स्वयं श्री कृष्ण बांसुरी पर धुन बजा कर नाद देव की स्तुति कर रहे हैं ।

उनके बांसुरी वादन के अनेकों ध्वनि मुद्रण निकले हैं, १९७८ में "कृष्ण ध्वनी " सन १९८१ में राग हेमवती, देशभटियाली, का रिकॉर्डिंग,१९९० में इम्मोर्टल सीरिज, गोल्डन रागा कलेक्शन, माया, ह्रदय, गुरुकुल जैसे अत्यन्त प्रसिद्द रेकॉर्ड्स के साथ अन्य कई रिकॉर्ड निकले और अत्यंत लोकप्रिय हुए हैं ।पंडित शिव कुमार शर्मा जी के साथ मिल कर शिव -हरी के नाम से प्रसिद्द जोड़ी ने चाँदनी ,डर,लम्हे, सिलसिला आदि फिल्मो में दिया संगीत अत्यन्त लोकप्रिय हुआ, इनके संगीत निर्देशित सिनेमा को उत्कृष्ट संगीत निर्देशन का फिलअवार्ड भी मिला हैं ।सुनते हैं सिलसिला फ़िल्म का गीत नीला आसमान सो गया ।


पंडित हृदयनाथ मंगेशकर, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी के बारे में कहते हैं :"पंडित हरिप्रसाद और पंडित शिव कुमारशर्मा जी जैसे दिग्गज कलाकार हमारे साथ थे यह हमारा बडा भाग्य था ।" कई मराठी और हिन्दी गानों में बांसुरी पर बजाये पंडित जी के पार्श्व संगीत ने इन गानों में मानों प्राण भर दिए । पंडित जी को राष्ट्रिय व अंतरराष्ट्रिय कई सम्मान प्राप्त हुए, संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार ,पद्मश्री,पद्मभूषण,पद्मा विभूषण ,कोणार्क सम्मान,यश भारती सम्मान के साथ अन्य कई महत्वपूर्ण सम्मानों से सम्मानित किया गया।

पश्चिमी संगीत के कलाकारों के साथ इनके फ्यूजन संगीत के कई रिकार्ड्स भी निकले । वृंदावन नामक मुमी के जुहू में स्थित गुरुकुल की स्थापना पंडित जी द्वारा की गई, इस गुरुकुल में गुरु शिष्य परम्परा से देशी -विदेशी शिष्यों को संगीतकी शिक्षा दी जाती है । पंडित जी का शिष्य समुदाय काफी बडा हैं ।

पंडित हरिप्रसाद जी बांसुरी पर सुंदर आलाप के साथ वादन का प्रारंभ करते हैं, जोड़,झाला,मध्यलय,द्रुत गत यह सब कुछ इनके वादन में निहित होता हैं,इनकी वादन शैली,स्सुमधुर,तन्त्रकारी के साथ साथ लयकारी का भी समावेश किए हुए हैं ।

बांसुरी पर पंडित हरिप्रसाद जी के स्वर इसी तरह युगों युगों तक भारतीय संगीत प्रेमियों के ह्रदय पर राज करते रहे यही मंगल कामना ।

आइये सुनते हैं पंडित जी का बांसुरी पर पानी पर लिखी कवितायें एल्बम "वाटर" से -


आलेख प्रस्तुतिकरण -
वीणा साधिका
राधिका बुधकर





Thursday, February 26, 2009

शोख नज़र की बिजिलियाँ...दिल पे मेरे गिराए जा..



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 07

'ओल्ड इस गोल्ड' में आज गिरनेवाली है बिजली, यह बिजली आपके दिल पर गिरेगी और यह बिजली है किसी के शोख नज़र की. जी हाँ, "शोख नज़र की बिजलियाँ दिल पे मेरे गिराए जा". आशा भोसले की आवाज़ फिल्म "वो कौन थी" में. यूँ तो मदन मोहन की चेहेती रही हैं लता मंगेशकर, लेकिन समय समय पर उन्होने आशा भोसले से कुछ ऐसे गीत गवाए हैं जो केवल आशा भोंसले ही गा सकती थी, और यह गीत भी ऐसा ही एक गीत है. क्योंकि यह गीत फिल्म के 'हेरोईन' साधना पर नहीं, बल्कि 'वेंप' हेलेन पर फिल्माया जाना था, इसलिए आशा भोंसले की आवाज़ चुनी गयी जिसमें ज़रूरत थी एक मादकता की, एक नशीलेपन की, जो नायक को अपनी ओर सम्मोहित करे. और ऐसे गीतों में आशा-जी की आवाज़ किस क़दर निखरकर सामने आती है यह किसी को बताने की ज़रूरत नहीं. बस, फिर क्या था, आशा भोंसले ने इस गीत को इस खूबसूरती से गाया कि इस फिल्म के दूसरे 'हिट' गीतों के साथ साथ इस गीत ने भी सुन्नेवालों के दिलों में एक अलग ही जगह बना ली.

राज खोंसला निर्देशित फिल्म "वो कौन थी" बनी थी सन 1964 में. राजा महेंदी अली ख़ान के खूबसूरत बोल, मदन मोहन का सुरीला नशीला संगीत और आशा भोंसले की मनमोहक और मादकता से भारी आवाज़ है इस गीत में. गीत के शुरू में आशा-जी के आलाप की हरकतें इस गीत को और ज़्यादा खूबसूरत बनाती है. आज के दौर में इस तरह के 'सिचुयेशन' पर जिस तरह के अश्लील और सस्ते गीत बनाए जा रहे हैं, आज के फिल्मकारों और गीतकारों को ऐसे गीतों से सबक लेनी चाहिए कि ऐसे 'सेडक्टिव सिचुयेशन' पर भी कितने ऊँचे स्तर के गीत लिखे जा सकते हैं. आज भी जब हम इस गीत को सुनते हैं तो हमारी आँखों के सामने हेलेन बर्फ के मैदान पर 'आइस-स्केटिंग' करती हुई नज़र आती हैं. इस गीत के सन्दर्भ में एक और बात कहना चाहेंगे कि इस गीत के बनने के बरसों बाद संगीतकार श्यामल मित्रा ने फिल्म अमानुष में एक गीत स्वरबद्ध किया था जिसके मुखड़े की धुन इस गीत से बहुत मिलती जुलती है. याद आया कौन सा गीत? वो गीत था "गम की दवा तो प्यार है, गम की दावा शराब नहीं". क्यूँ सच कहा ना? तो लीजिए पेश-ए-खिदमत है "शोख नज़र की बिजलियाँ"-



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. तलत महमूद और लता की आवाजें.
२. भारत व्यास के बोल और वसंत देसाई का संगीत
३. गीत में "ट्विंकल ट्विंकल" के लिए इस्तेमाल होने वाले हिंदी शब्द गीत का पंच है.

कुछ याद आया...?

मनु जी का तो कायल होना पड़ेगा...हर बार सही जवाब के साथ उपस्थित हो जाते हैं...नीलम जी की पहली गलती है इसलिए माफ़ कर देते हैं :)

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.









बाजे मुरलिया बाजे (पंडित हरिपसाद चौरसिया जी पर विशेष आलेख)




बाँसुरी ......वंसी ,वेणु ,वंशिका कई सुंदर नामो से सुसज्जित हैं बाँसुरी का इतिहास, प्राचीनकाल में लोक संगीत का प्रमुख वाद्य था बाँसुरी । अधर धरे मोहन मुरली पर, होंठ पे माया विराजे, बाजे मुरलियां बाजे ..................

मुरली और श्री कृष्ण एक दुसरे के पर्याय रहे हैं । मुरली के बिना श्री कृष्ण की कल्पना भी नही की जा सकती । उनकी मुरली के नाद रूपी ब्रह्म ने सम्पूर्ण चराचर सृष्टि को आलोकित और सम्मोहित किया । कृष्ण के बाद भी भारत में बाँसुरी रही, पर कुछ खोयी खोयी सी, मौन सी. मानो श्री कृष्ण की याद में उसने स्वयं को भुला दिया हो, उसका अस्तित्व तो भारत वर्ष में सदैव रहा. हो भी कैसे न ? आख़िर वह कृष्ण प्रिया थी. किंतु श्री हरी के विरह में जो हाल उनके गोप गोपिकाओ का हुआ कुछ वैसा ही बाँसुरी का भी हुआ, कुछ भूली -बिसरी, कुछ उपेक्षित सी बाँसुरी किसी विरहन की तरह तलाश रही थी अपने मुरलीधर को, अपने हरी को ।

युग बदल गए, बाँसुरी की अवस्था जस की तस् रही, युगों बाद कलियुग में पंडित पन्नालाल घोष जी ने अपने अथक परिश्रम से बांसुरी वाद्य में अनेक परिवर्तन कर, उसकी वादन शैली में परिवर्तन कर बाँसुरी को पुनः भारतीय संगीत में सम्माननीय स्थान दिलाया। लेकिन उनके बाद पुनः: बाँसुरी एकाकी हो गई ।

हरी बिन जग सुना मेरा ,कौन गीत सुनाऊ सखी री?
सुर,शबद खो गए हैं मेरे, कौन गीत बजाऊ सखी री ॥


बाँसुरी की इस अवस्था पर अब श्री कृष्ण को तरस आया और उसे उद्धारने को कलियुग में जहाँ श्री विजय राघव राव और रघुनाथ सेठ जैसे महान कलाकारों ने महान योगदान दिया, वही अवतार लिया स्वयं श्री हरी ने, अपनी प्रिय बाँसुरी को पुनः जन जन में प्रचारित करने, उसके सुर में प्राण फूँकने, उसकी गरिमा पुनः लौटाने श्री हरी अवतरित हुए हरी प्रसाद चौरसिया जी के रूप में । पंडित हरीप्रसाद चौरसिया जी......एक ऐसा नामजो भारतीय शास्त्रीयसंगीत में बाँसुरी की पहचान बन गया ।एक ऐसा नाम जिसने श्री कृष्ण की प्राणप्रिय बाँसुरी को, पुनः: भारत वर्ष में ही नही बल्कि सम्पूर्ण विश्व में सम्पूर्ण चराचर जगत में प्रतिष्ठित किया, प्रतिस्थापित किया, प्रचारित किया । गुंजारित कियासम्पूर्ण सृष्टि को बाँसुरी के नाद देव से । आलोकित किया बाँसुरी के तम्हरण ब्रह्म नाद रूपी प्रकाश से ब्रह्माण्ड को ।

श्री कृष्ण का जन्म हुआ था मथुरा नगरी के कारावास में, मथुरा नगरी यानी यमुना की नगरी, उसके पावन जल के सानिध्य में श्री कृष्ण का बालपन, कुछ यौवन भी गुजरा. पंडित हरीप्रसाद जी का जन्म १ जुलाई १९३८ के दिन गंगा,यमुना सरस्वती नदी के संगम पर बसी पुण्य पावननगरी इलाहाबाद में हुआ,पहलवान पिता की संतान पंडित हरी प्रसादजी को उनके पिताजी पहलवान ही बनाना चाहते थे, किंतु उनका प्रेम तो भारतीय संगीत से था, बाँसुरी से था । शास्त्रीय गायन की शिक्षा पंडित राजाराम जी से प्राप्त की और बाँसुरी वादन की शिक्षा पंडित भोलानाथ जी से प्राप्त की । संगीत साधना से पंडित हरिप्रसादजी का बाँसुरी वादन सतेज होने लगा । बाँसुरी वादन की परीक्षा में सफल होने के बाद पंडितजी आकाशवाणी पर बाँसुरी के कार्यक्रम देने लगे। कुछ समय पश्चात् आकाशवाणी के कटक केन्द्र पर इनकी नियुक्ति हुई और इनके उत्कृष्ट कार्य के कारण ५ वर्ष के भीतर ही आकाशवाणी के मुख्यालय मुंबई में इनका तबादला हो गया।

पहले पंडित जी सीधी बाँसुरी बजाते थे, तत्पश्चात उन्होंने आडी बाँसुरी पर संगीत साधना शुरू की, बाँसुरी में गायकी अंग, तंत्र वाद्यों का आलाप आदि अंगो के समागम की साधना पंडित जी करने लगे । उसी समय इनका संगीत प्रशिक्षण आदरणीय अन्नपूर्णा देवी जी के सानिध्य में प्रारम्भ हुआ, विदुषी अन्नपूर्णा जी के संगीत शिक्षा से इनकी बाँसुरी और भी आलोकित हुई ।आइये सुनते हैं पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जी का बांसुरी वादन, तबले पर है उस्ताद जाकिर हुसैन. ये दुर्लभ विडियो लगभग ९३ मिनट का है. हमें यकीन है इसे देखना-सुनना आपके लिए भी एक सम्पूर्ण अनुभव रहेगा.



अगली कड़ी में पंडित हरिप्रसाद चौरासियाँ जी की बांसुरी यात्रा सविस्तार

आलेख प्रस्तुतिकरण
वीणा साधिका
राधिका बुधकर
विडियो साभार - राजश्री डॉट कॉम




Wednesday, February 25, 2009

रुलाके गया सपना मेरा...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 06

दोस्तों, हम उम्मीद करते हैं कि आवाज़ पर 'ओल्ड इस गोल्ड' का यह जो सिलसिला हमने शुरू किया है, वो आपको पसंद आ रहा होगा, और आप इन गीतों और बातों का लुत्फ़ उठा रहे होंगे. आपको यह स्तंभ कैसा लग रहा है, आपकी क्या प्रतिक्रिया है, आपके क्या सुझाव हैं, हमें ज़रूर बताईएगा. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में प्रस्तुत है एक बहुत ही मशहूर फिल्म का एक गीत. इस फिल्म के सभी के सभी गीत 'सूपर-डूपर हिट' रहे, और फिल्म भी बेहद कामयाब रही. हम बात कर रहे हैं सन 1967 में बनी फिल्म "जुवेल थीफ" की. नवकेतन के 'बॅनर' तले बनी इस फिल्म को निर्देशित किया था विजय आनंद ने, और मुख्य भूमिकाओं में थे अशोक कुमार, देव आनंद, वैजन्ती माला और तनूजा. एक तरफ 'सस्पेनस' से भरी रोमांचक कहानी, तो दूसरी तरफ मधुर गीत संगीत इस फिल्म के आकर्षण रहे. अगर हम यूँ कहे कि यह फिल्म संगीतकार सचिन देव बर्मन के सफलतम फिल्मों में से एक है तो शायद ग़लत नहीं होगा. इस फिल्म का हर एक गीत अपने आप में सदा बहार है जो आज भी अक्सर कहीं ना कहीं से गूंजते हुए सुनाई देते हैं.

यूँ तो इस फिल्म के ज़्यादातर गाने खुशमीज़ाज हैं, रंगीन हैं, लेकिन एक गीत ऐसा है जो नायिका की वेदना को दर्शाता है. लेकिन इस दर्द भरे गीत ने भी उतनी ही लोकप्रियता बटोरी जितनी कि इस फिल्म के दूसरे खुशरंग गीतों ने. मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे और लता मंगेशकर की आवाज़ में यह गीत है "रुलाके गया सपना मेरा, बैठी हूँ कब हो सवेरा". इस गीत को आपको सुनवाते हुए मुझे याद आ रहा है एस डी बर्मन के ही संगीत निर्देशन में सन 1947 का वो गाना जिसे गीता रॉय ने गाया था और राजा महेंडी अली ख़ान ने लिखा था. क्या आप अंदाज़ा लगा सकते हैं मैं किस गीत की ओर इशारा कर रहा हूँ ? जी हाँ, गीता रॉय का गाया "मेरा सुंदर सपना बीत गया". इन दोनो गीतों को अगर आप एक के बाद एक सुनेंगे तो आपको इनमें एक अजीब सी समानता नज़र आएगी. गीता रॉय की आवाज़ में "दो भाई" फिल्म का यह गीत हम आपको फिर कभी सुनवाएँगे, आज यहाँ पर जुवेल थीफ फिल्म के गीत का आनंद उठाइये. इस गीत के बोल जितने सुंदर हैं उतना ही सुंदर है बर्मन दादा का संगीत और इस गीत का संगीत-संयोजन.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. आशा की आवाज़ में एक चुलबुला गीत.
२. संगीत मदन मोहन का था इस राज खोंसला निर्देशित सस्पेंस फिल्म में.
३. मुखड़े में शब्द है - "ख्याल".

कुछ याद आया...?

एक बार फिर मनु जी, महेंद्र कुमार जी ने सही गीत पकडा. दो नए विजेता भी हैं नारायण जी और नीलम जी के रूप में, सभी को बधाई.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.






जनता का जागरण हुआ है- महाश्वेता देवी



सुनिए प्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी से शैलेश भारतवासी की बातचीत

जनवरी २००९ से हिन्द-युग्म ने, कला और साहित्य जगत की महान हस्तियों से इंटरव्यू के माध्यम से मिलवाने का स्तम्भ आरम्भ किया है। पिछले महीने आपने निदा फ़ाज़ली की निखिल आनंद गिरि, शैलेश भारतवासी और प्रेमचंद सहजवाला की बातचीत सुनी थी।

इस बार सुनिए भारत की मशहूर लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता महाश्वेता देवी से शैलेश भारतवासी की बातचीत। निदा फ़ाज़ली का साक्षात्कार लेने का अवसर हिन्द-युग्म को हिन्द-युग्म के ही सदस्य नाज़िम नक़वी ने उपलब्ध कराया था। महाश्वेता देवी से मिलने का अवसर भी शैलेश को नाज़िम ने
ही अपनी पत्रकार मित्र सादिया अज़िम ('समय' के कोलकाता शहर की वरिष्ठ संवाददाता) की मदद से उपलब्ध कराया। इस मुलाक़ात को सफल बनाने में कोलकाता के ब्लॉगर और 'समाज-विकास' के संपादक शम्भू चौधरी का भी बहुत सहयोग मिला। महाश्वेता देवी से पूछने के लिए हमने बहुत से पाठकों से प्रश्न आमंत्रित किये थे, उनमें से कुछ सवालों को शैलेश भारतवासी ने महाश्वेता देवी के सामने रखा भी, लेकिन उन्होंने बहुत से प्रश्नों को विषय से अलग मानकर उत्तर देने से इंकार कर दिया।

यह मुलाक़ात १३ फरवरी २००९ की है। स्थान- गोल्फ-ग्रीन, कोलकाता में स्थित महाश्वेता देवी का आवास।
चित्र- देबज्योति चक्रवर्ती

नीचे के प्लेयर से सुनें औरे बतायें कि यह मुलाक़ात कैसी लगी?




Tuesday, February 24, 2009

मेरी दुनिया है माँ तेरे आंचल में...



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 05

दोस्तों, पिछले दिनों मुझे एक एस एम् एस मिला था मेरे किसी दोस्त से, जिसमें माँ पर एक बहुत अच्छी बात कही गयी थी, जो मैं आप के साथ बाँटना चाहूँगा. उस एस एम् एस में लिखा गया था "क्या आप जानते हैं माँ भगवान से भी बढ्कर क्यूँ है? क्यूंकि भगवान तो हमारे नसीब में सुख और दुख दोनो देकर भेजते हैं, लेकिन हमारी माँ हमें सिर्फ़ और सिर्फ़ सुख ही देना चाहती है." सच दोस्तों, इस दुनिया में अगर कोई चीज़ अनमोल है तो वो है माँ की ममता, माँ का प्यार. माँ के आँचल का महत्व वही जान सकता है जिसकी माँ नहीं है. हमारी हिन्दी फिल्मों में भी माँ को एक ऊँचा स्थान दिया गया है. कई गीत भी बने हैं. आज 'ओल्ड इस गोल्ड' में हम हर माँ को कर रहे हैं सलाम फिल्म "तलाश" के एक गीत के ज़रिए. संगीतकार सचिन देव बर्मन ने इस फिल्म में उत्कृष्ट संगीत तो दिया ही था, उन्होने अपनी आवाज़ में एक ऐसा गीत गाया था जो अपने आप में अद्वितीय है, अनूठा है. 1969 में प्रदर्शित ओ पी रलन के इस फिल्म में बर्मन दादा ने गाया था "मेरी दुनिया है माँ तेरे आँचल में". बर्मन दादा के गाए गीतों में कभी किसी मांझी का भटियालि संगीत उभरकर सामने आता है तो कभी विदा होती नायिका की वेदना और कभी भूखे प्यासे होंठों और पेट की पुकार. संवेदना भरे सुर ही सचिन-दा के संगीत और गायिकी की विशेषताएँ हैं. माँ के आँचल का महत्व समझाता यह गीत बर्मन दादा की आवाज़ पाकर जैसे और भी पुर-असर बन जाता है, जो दिल में इस क़दर उतर जाता है की आँखें नम हुए बिना नहीं रहती.

मजरूह सुल्तानपुरी के लिखे इस गीत को अगर आप ने पर्दे पर देखा होगा या फिर यह फिल्म देखी होगी तो आपको याद होगा की इस गीत में राजेंद्र कुमार को रोते हुए दिखाया गया है, जो अपनी माँ सुलोचना की गोदी पर सर रखकर रो रहे हैं, और यह गीत पार्श्वसंगीत के तौर पर बजा जा रहा है. इसमें कोई शक़ नहीं की सचिन-दा के गाए इस गीत के बिना यह 'सीन' शायद उतनी असरदार नहीं हो पाता. सचिन-दा ने जिस तरह से अपने आप को पूरी तरह से इस गाने में डूबोकर गाया है, शायद ही कोई ऐसा हो जिसके दिल पर यह गीत अपनी छाप ना छोडे. दुनिया की हर एक माँ को सलाम करते हुए आपको सुनवा रहे हैं तलाश फिल्म का यह गीत एस डी बर्मन की आवाज़ में, सुनिए -



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. नवकेतन के बैनर पर बनी एक सुपर हिट सस्पेंस त्रिलर है ये फ़िल्म.
२. आवाज़ है लता मंगेशकर की, ये गीत उनके गाये सर्वश्रेष्ठ गीतों में से एक है.
३. मुखड़े में शब्द है -"सवेरा"

कुछ याद आया...?

मनु जी हर बार लगातार सही जवाब दे रहे हैं, महेंद्र कुमार जी ने भी सही जवाब दिया, दिलीप जी ने गीत तो पकड़ लिया पर फ़िल्म का नाम ग़लत बता गए. खैर आप सभी को बधाई.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.



तलत महमुद का था अंदाजें बयां कुछ और...



गायक तलत महमूद की ८५ वीं जयंती पर विशेष

गीत संगीत के बिना जरा जीवन की कल्पना करिये और लगे हाथ यह कल्पना भी कर डालिये कि तलत महमुद जैसे गायक की खूबसूरत मखमली आवाज यदि हमारे कानों तक पहुँचनें से महरुम रहती तो। तब ज्यादा कुछ न होता, धरती अपनी जगह ही बनी रहती, आसमान भी वहीं स्थिर रहता, बस हम इन बेहद खूबसूरत गीतों को सुननें से महरूम रह जाते। "वो दिन याद करो","आहा रिमझिम के वो प्यारे प्यारे गीत लिये","प्यार पर बस तो नहीं फिर भी", जैसे गीत हमारे नीरस जीवन, में मधुर रस घोलते हैं।

सुनिए १९६८ में आई फ़िल्म "आदमी" से रफी और तलत का गाया गीत, गीतकार हैं शकील बदायूँनी और संगीत है नौशाद का -


तहजीब के शहर लखनऊ में २४ फरवरी १९२४ में जन्में तलत महमुद को बचपन से ही संगीत का बेहद शौक था। वे संगीत के इतने दीवाने थे कि पूरी पूरी रात वे संगीत सुनते सुनते ही बिता देते थे। उन्होनें संगीत की विधिवत शिक्षा प.भट्ट से ली। अपने संगीत कैरियर की शुरूआत मीर, जिगर, दाग गजलों से की। उस समय संगीत की सबसे बडी कंपनी एच एम वी के लिये उन्होनें १९४१ "सब दिन एक समान नहीं था"; गीत गवाया जो बेहद प्रसिद हुआ। १९४४ में उनका गाया गैर फिल्मी गीत "तस्वीर तेरी दिल मेरा बहला ना सकेगी" बेहद मशहुर हुआ और आज तक वह सबसे ज्यादा बिकने वाली गैर फिल्मी अलबम बनी हुई है।

सुनिए गीत "बेरहम आसमां", तलत, राजेंदर कृष्ण और मदन मोहन.-


तलत ने फिल्मों में आने से पहले आकाशवाणी लखनऊ और फिर बाद में कलकता आकाशवाणी में तपन कुमार के नाम से कई गैर फिल्मी गीत गाये। लखनऊ और कलकता में अपने गायन का लोहा मनवाने के बाद उनकी किस्मत उन्हें १९४९ में बम्बई ले आई जहाँ उनके हुनर को पहले ही पहचाना जा चुका था। बम्बई में उन्के गायन का चर्चा आम हो चुका था। महान संगीतकार अनिल विश्वास ने जब तलत को सुना तो वे उनकी कँपकपाहट में सिमटी हुई आवाज से बेहद प्रभावित हुये। पर जब अनिल विश्वास जी की जब दुबारा तलत महमुद जी से मुलाकात हुई तो उन्होनें तलत की आवाज में मौजूद कंपकपाहट गायब देखी, इसका कारण पुछनें पर तलत ने जवाब दिया की सभी कहते हैं की मैं जब गाता हुँ तो मेरी आवाज काँपती हैं, तो मैं उसे अपनी आवाज में तबदील कर के गा रहा हुँ। तब अनिल विश्वास ने कहाँ अपनी प्राकर्तिक आवाज को बदलने की गलती मत करना, मुझे तुम्हारी वो ही काँपती हुई आवाज चाहियें। आगे चलकर वह कंपकंपाहट ही तलत महमुद के गायन की विशेषता बनी।

उसी कंपकंपाती आवाज़ का जादू है इस गीत में भी- "तस्वीर बनता हूँ..."-


तलत महमुद फिल्मों में अभिनय करना चाहते थे, अपने शानदार व्यक्तित्व के कारण उन्हें फिल्में भी मिली पर अभिनय के बजाये उनका गायन ही ज्यादा उभर कर सामने आया। उन्कें द्वारा अभिनीत पहली फिल्म १९४५ में बनी 'राजलक्ष्मी' थी और आखिरी नूतन के साथ "सोनें की चिडियाँ"। फिल्म सिटी बम्बई आने पर उनको जो पहला गीत गाने को मिला वह था, संगीतकार अनिल विश्वास के निर्देशन में दिलीप कुमार पर फिल्माया गया गीत "ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो"। दिलीप कुमार के सीधे सरल प्रेमी की छवि पर तलत महमुद की कोमल आवाज बेहद मेल खाती थी।

लता के साथ गाया ये दोगाना भला कौन भूल सकता है..."इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा..." -


तलत महमूद की आवाज में एक खूबसूरत मिठास, सादगी, सुरूचि थी जो उनके समकालीनों में नदारद थी। उर्दू का उनका उच्चारण बेहद साफ सुथरा और सधा हुआ था, जो गजलों के लिये उपयुक्त होता है सो उनके हिस्से में ज्यादा गजल आई। फिल्मों में गजलों को नया आयाम देते हुये तलत महमुद ने बेहतरीन गजलें संगीत जगत को दी। कालंतर में उनको गजलों का शहनशाह कहा गया। उनकी मिश्री सी मिट्ठी आवाज में नफासत के साथ जो कंपकपाहट सुनाई देती है जो दुर्लभ है। जैसे समुंदर की लहरें किनारों से टकराती है या फिर दीये की काँपती लौ, ठीक उसी तरह का आभास देती है तलत महमुद की आवाज।

सुनिए एक बार फ़िर तलत और मदन मोहन की टीम..."दो दिन की मोहब्बत में..."-


मखमली आवाज के धनी तलत महमुद ने १२ भारतीय भाषाओं में गाया और फिल्म अभिनेता के रूप में उन्होनें १३ फिल्मों में काम किया। तलत ने अपने ४० साल के कैरियर में लगभग ८०० गीत गाये जिनमें से कई तो अदभुत गीत है "ए गमें दिल क्या करूँ","रिमझिम के ये प्यारे प्यारे गीत लिये", "हमसे आया न गया", "तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ","शामें गम की कसम", "इतना ना मुझसे तु प्यार बढा","फिर वही शाम वो ही तनहाई","मेरी याद में न तुम आँसु बहाना", "ऐ मेरे दिल","तस्वीर बनाता हूँ","जाये तो जाये क्हाँ"," मिलते ही आँखे दिल हुआ दिवाना किसीका","दिले नादान तुझे हुआ क्या है","मैं दिल हुँ एक अरमान भरा","है सबसे मधुर", "प्यार पर बस तो नहीं","ये नई नई प्रीत है", "रात ने क्या क्या ख्वाब दिखाये","अँधें जहान के अँधें रास्ते", "जब छाये सावन की घटा","कोई नहीं मेरा इस दुनिया में'"," '' आँसू समझ कर","बेरहम आसमान","बुझ गयी गम की हवा","जिन्दगी देने वाले सुन","ये हवा ये रात सुहानी", "जो खुशी से चोट खाये वो नजर क्हाँ से लाऊँ", "आंसू तो नहीं मेरी आँखों में'',"सितारों तुम गवाह रहना मेरा","मोहब्बत तुर्क की मानें","वो जालिम प्यार क्या जानें","रो रो बीता जीवन सारा", "जिऊँगा जब तलक तेरे अफसाने याद आयेगें","आँसु तो नहीं हैं आँखों में","दो दिन की मोहब्बत में तुमनें" तुम्हें नींद आयेगी, तुम तो सो भी जाओगें, किसका ले लिया है दिल, ये भी भुल जाओगें, जैसे अनगिन्त गीत तलत महमुद जी आवाज में दर्ज हैं।

"सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या हुआ..."- एक और बेशकीमती गीत -


तलत ने बेहतरीन शायरों के साथ काम किया। वे अच्छी शायरी पर हमेशा जोर देते थे। शकील बदायुँनी, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुलतानपुरी के अनमोल शब्दों पर तलत महमुद ने अपनी मखमली आवाज का जामा पहनाया। शकील बदायुँनी से उनकी दोस्ती आखिर तक बनी रही। ५०-६० वह दौर संगीत के लिहाज से स्वर्णिम था। बेहतरीन संगीतकार, लाजवाब शायर, प्रतिभा सम्पंन गायकों का दौर था वह।

फिल्मों के अलावा तलत महमुद अपने गैर फिल्मी गीतों के लिये भी याद किये जायेगें। उनकें कुछ गैर फिल्मी गीतों के बोल इस प्रकार से हैं,"दिल की गहराई नाप कर","जिसने दिल को आँसु बसाके", "कहीं इश्क का तकाजा", "जिंदगी की रात में","जिंदगी की उदास राहों में", "गजल का साज उढाओं बढी उदास", '"उसकी हसरत है जिसे दिल से","असर उसको जरा नहीं होता","सभी अंदाजें हुसन प्यारे हैं", "कोई आरजु नहीं है"। तलत महमुद ने उस समय के सभी बडे अभिनेताओं के लिये अपनी आवाज दी। देव आनन्द के लिये गाये उनके गीत हैं "जाये तो जाये कहाँ","ये नई नई प्रीत है",सुनील दत के लिये गाया उनका प्रसिद्ध गीत है "जलते हैं जिसके लिये" और "इतना ना मुझ से तु प्यार बढा, कि मैं इक बादल आवारा,भारत भूषण के लिये, "इश्क मुझको नहीं वहशत ही सही","तेरी आँख के आँसू पी जाऊँ",लेकिन सबसे ज्यादा दिलीप कुमार पर तलत महमुद की आवाज का इस्तेमाल किया गया।

सुनिए फ़िल्म किनारे किनारे से "देखी तेरी खुदाई..." संगीत है जयदेव का -


देश में ही नहीं उनके लाखों प्रशंसक विदेशों में भी थे इसीलिये उन्कें गीतों का आयोजन विदेशों में भी होने लगे। १९५६ में तलत महमुद पहले फिल्म गायक बने जिन्होनें विदेशों में व्यवसायिक शो दिये। इस तरह के शो की शुरूआत सबसे पहले तलत महमुद से ही हुई थी। ६० के उतरार्थ में तेज संगीत का दौर शुरू हो चुका था, तलत महमूद अपने आप को उस माहौल में ढाल पाने में असमर्थ थे सो वक्त रहते उन्होनें फिल्म गायन से अपने को अलग कर लिया। पर गैर फिल्मी गीत वे लम्बें अरसे तक गाते रहे। बाद में पार्किन्सन की बीमारी ने उनकी आवाज पर असर डालाना शुरू कर दिया। लम्बे अरसे तक वे बीमार रहे, १९९६ में अपनी आवाज रूपी धरोहर हम संगीत प्रेमियों को सौंप कर चले गये।

आज भी मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश के आवाज की तरह गाने वाले मिल जायेगे पर तलत महमुद की मखमली आवाज की नकल करने वाला गायक नहीं मिल सका है। आज २४ फरवरी को उनकी जयंती पर हम तलत महमुद के दीवाने बस इतना ही कह सकते हैं,तलत महमुद का था अँदाजें बया कुछ और...-



प्रस्तुति - विपिन चौधरी

Monday, February 23, 2009

माई री मैं कासे कहूँ...मदन मोहन की दुर्लभ आवाज़ में



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 04

दोस्तों, अगर संगीतकार मदन मोहन के स्वरबद्ध फिल्मों पर गौर किया जाए तो हम पाएँगे की कुछ फिल्मों को छोड्कर इनमें से अधिकतर फिल्में 'बॉक्स ऑफीस' पर उतनी कामयाब नहीं रही. लेकिन जहाँ तक इन फिल्मों के संगीत का सवाल है, तो हर एक फिल्म में मदन मोहन का संगीत कामयाब रहा, जिन्हे भूरी भूरी प्रशंसा मिली. सच तो यह है कि मदन मोहन के संगीत में ऐसे कुछ कम चलनेवाले फिल्मों के कई गीत आज कालजयी बन गये हैं. ऐसा ही एक कालजयी गीत आज हम आपके लिए लेकर आए हैं 'ओल्ड इस गोल्ड' में.

1970 में एक फिल्म आई थी "दस्तक", जिसका निर्देशन किया था राजिंदर सिंह बेदी ने. संजीव कुमार और रहना सुल्तान अभिनीत यह फिल्म 'बॉक्स ऑफीस' पर बुरी तरह से 'फ्लॉप' रही. लेकिन इस फिल्म के संगीत के लिए मदन मोहन को मिला भारत सरकार की ओर से उस साल के सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार. यहाँ यह याद रखना ज़रूरी है की राष्ट्रीय पुरस्कार सभी भाषाओं के फिल्मों को ध्यान में रखकर दिया जाता है. इसका यह अर्थ हुआ कि मदन मोहन केवल 'बोलीवुड' के संगीतकारों में ही नहीं बल्कि देश भर के सभी भाषाओं के संगीतकारों में श्रेष्ठ साबित हुए. बहरहाल हम वापस आते हैं फिल्म दस्तक के संगीत पर. इस फिल्म के गाने बहुत ही ऊँचे स्तर के हैं जिनमें 'मास-अपील' से ज़्यादा 'क्लास-अपील' की झलक है. यह गाने आम जनता में बहुत ज़्यादा चर्चित ना रहे हों, लेकिन संगीत के सुधि श्रोताओं को इन गीतों की अहमियत का पूरा पूरा अहसास है. मजरूह सुल्तानपुरी ने इस फिल्म में गीत लिखे और लता मंगेशकर की पूर-असर आवाज़ ने इन गीतों को मधुरता की चोटी पर पहुँचा दिया. चाहे वो "हम हैं माता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह" हो या फिर शास्त्रीयता का रंग लिए हुए "बैयाँ ना धरो ओ बलमा", हर एक गीत अपने आप में एक 'मास्टरपीस' है. लता मंगेशकर का ही गाया एक और गीत है "माई री मैं कासे कहूँ पीर अपने जिया की", जिसे सुनकर मानो मान एक अजीब दर्द से भर उठ्ता है. इसी गीत को हमने चुना है आज के इस स्तंभ में, लेकिन जो आवाज़ आप इस गीत में सुनेंगे, वो लता मंगेशकर की नहीं बल्कि खुद मदन मोहन की होगी. जी हाँ, इस गीत को मदन मोहन साहब ने भी गाया था, और क्या खूब गाया था. सुनिए यह गीत और महसूस कीजिए दर्द में डूबे किसी दिल की पुकार!



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. सचिन दा का अमर संगीत.
२. उन्हीं की अपनी आवाज़ में में है ये दुर्लभ गीत
३. ममतत्व से भरे इस गीत के मुखड़े में "आंचल" शब्द आता है.

कुछ याद आया...?

कल की पहेली का सही जवाब दिया महेंद्र कुमार शर्मा जी और मनु जी ने. आप दोनों को बधाई.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सदर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

इन्टरनेट पर बना पहला इंडो रशियन मैत्री गीत - द्रुज़्बा



"सर पे लाल टोपी रूसी, फ़िर भी दिल है हिन्दुस्तानी...." जब राज कपूर ने चैपलिन अंदाज़ में इस गीत पर कदम थिरकाए, तब वो रूस में इतने लोकप्रिय साबित हुए कि वो और उनकी पूरी टीम रूस में हिन्दुस्तानी भाषा, कला और संस्क्रति की पहचान ही बन गए. १९५० में राजनितिक आवश्यकताओं और व्यापार उद्देश्यों के चलते दोनों देशों के बीच जिस रिश्ते की बुनियाद पड़ी थी कालांतर में संगीत और कला के आदान प्रदान ने उसे एक आत्मीय दोस्ती में तब्दील कर दिया. रूस की झलक फिल्मों में भी खूब रही, राज कपूर की ही "मेरा नाम जोकर" और अभी हालिया प्रर्दशित "दसविदानिया" में भी रुसी कनक्शन देखने को मिला है.


एक ऐसा ही मौका हिंद युग्म को भी मिला, जब दिल्ली स्थित रशियन कल्चरल सेंटर ने हिंद युग्म के गीत संगीत प्रभाग से भारत रूस दोस्ती पर एक गीत बनाने का आग्रह किया. हर बार की तरह युग्म की टीम एक बार फ़िर उम्मीदों पर खरी उतरी, और फरवरी के पहले सप्ताह में जो गीत हमने सेंटर को भेजा समीक्षा के लिए, उसे १९ तारिख को होने वाले एक भव्य समारोह के लिए चुन लिया गया. साथ ही यह भी कहा गया कि इस गीत की सी डी को उसी कार्यक्रम में मुख्य अतिथि द्वारा विमोचित किया जाएगा, और मोस्को में होने वाले एक अंतर्राष्ट्रीय समारोह के लिए भेजा भी जाएगा.

हिंद युग्म के लिए ये बेहद हर्ष की बात है कि ये गीत इतने बड़े आयोजन के लिए चुना गया है. आखिर कला को सार्थक उद्देश्य देना ही तो हमारा लक्ष्य है. तो दोस्तों, आज हम सगर्व इसी इंडो रशियन गीत का इन्टरनेट पर विश्वव्यापी विमोचन कर रहे हैं, गीत के बोल लिखे हैं सजीव सारथी ने, संगीतबद्ध किया है ऋषि एस ने और आवाजें हैं, बिस्वजीत नंदा और मिथिला कानुगो की. सुनिए -



और अब देखिये उस कार्यक्रम की एक झलक, जो संपन्न हुआ रशियन सेंटर फॉर साइंस एंड कल्चर २४ फिरोजशाह रोड, नई दिल्ली में १९-०२-२००९ को. कार्यक्रम में बहुत से भारतीय कलाकारों ने रशियन नृत्य परफोर्म किए तो रशियन कलाकारों ने भारतीय रंग में ढल कर ख़ुद को पेश किया. पूरा कार्यक्रम एक शानदार अनुभव रहा जहाँ मुख्य अतिथि थे डाक्टर शकील अहमद खान (डैरक्टर जनरल, नेहरू युवा केन्द्र संगठन). और भी बहुत से पार्टी सांसद और जाने माने अथितियों के बीच हिंद युग्म का प्रतिनिधित्व कर रहे थे - तपन शर्मा, नीलम मिश्रा, सजीव सारथी,जॉय कुमार और नसीम. कार्यक्रम की कुछ झलकियाँ आप यहाँ देखें. कार्यक्रम का संचालन कर रही पूर्णिमा आनंद ने सी डी के विमोचन को कार्यक्रम का सबसे शानदार आकर्षण बताया. देखिये किस तरह विमोचित सिंगल ट्रैक - द्रुज्बा.



गीत के बोल -

जब हम कहे नमस्ते,
तब तुम कहना मिलाया मोया, ( my sweet )
न तुम कहो कभी अलविदा,
न हम कहें दसविदानिया, ( good bye )
तुम जानते हो मुझको,
या तेब्या पानीमायु, (and i understand u)
ये दोस्ती ये रिश्ता,
कायम रहे ये ज़ज्बा,
इंडो रशियन द्रुज्बा...( indo russian friendship )

दूरियां मिट गई, सरहदें गुम हो गयी,
दिल मिले दोस्ती गहरी और हो गयी,
बरसों पुराना है अपना याराना...
मोस्को से नई दिल्ली का
गठ बंधन है ये पक्का,
ये दोस्ती ये रिश्ता,
कायम रहे ये ज़ज्बा,
इंडो रशियन द्रुज्बा...

शान्ति हो विश्व में, जंग न हो अब कहीं,
ख्वाब है मेरा ये तेरा भी सपना यही,
मिल के सुनना है सब को बताना...
रूबल बड़ा न रूपया,
उंचा है प्यार का रुत्बा,
ये दोस्ती ये रिश्ता,
कायम रहे ये ज़ज्बा,
इंडो रशियन द्रुज्बा...

ग्राफिक सहयोग - प्रशेन और उनकी टीम
छायाचित्र और विडियो प्रस्तुत किया हिंद युग्म के जॉय कुमार ने

Sunday, February 22, 2009

डम डम डिगा डिगा...मौसम भीगा भीगा



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 03

"ओल्ड इस गोल्ड" की शृंखला में आज का गीत है फिल्म छलिया से. दोस्तों, एक 'टीम' बनी थी राज कपूर, मुकेश, शैलेन्द्र, हसरत जयपुरी और शंकर जयकिशन की. 50 के दशक में इस 'टीम' ने एक से एक बेहतरीन 'म्यूज़िकल' फिल्में हमें दी. मुकेश की आवाज़ राज कपूर पर कुछ ऐसी जमी कि इन दोनो को एक दूसरे से जुदा करना नामुमकिन सा हो गया. सन 1960 में जब सुभाष देसाई ने फिल्म छलिया बनाने की सोची तो उन्होने अपने भाई मनमोहन देसाई को पहली बार निर्देशन का मौका दिया. फिल्म का मुख्य किरदार राज कपूर को ध्यान में रखकर लिखा गया. इस तरह से मुकेश को गायक चुन लिया गया. लेकिन गीत संगीत का भार शैलेन्द्र - हसरत और शंकर जयकिशन के बजाय सौंपा गया क़मर जलालाबादी और कल्याणजी आनांदजी को. लेकिन इस फिल्म के गीतों को सुनकर ऐसा लगता है की जैसे वही पुरानी 'टीम' ने बनाए हैं इस फिल्म के गीत. कल्याणजी आनांदजी ने उसी अंदाज़ को ध्यान में रखकर इसके गाने 'कंपोज़' किए. और आगे चलकर कल्याणजी आनंदजी के संगीत निर्देशन में ही मुकेश ने अपने 'करियर' के सबसे ज़्यादा गाने गाए जिनमें से ज़्यादातर मक़बूल भी हुए.

फिल्म छलिया के जिस गीत का ज़िक्र आज हो रहा है, वो है "डम डम डिगा डिगा, मौसम भीगा भीगा". यूँ तो जब मुकेश और कल्याणजी आनंदजी के 'कॉम्बिनेशन' की बात आती है तो हमारे ज़हन में कुछ संजीदे, जीवन दर्शन से ओत-प्रोत, या फिर दर्द भरे नगमें उभरकर सामने आते हैं. लेकिन यह एक ऐसा गीत है जिसमें है भरपूर मस्ती, एक संग्रामकता कि इसे जो भी सुन लेता है वो खुद बा खुद थिरकने लगता है. मुकेश ने इस गाने में यह साबित कर दिया कि वो इस तरह के मस्ती वाले गीतों में भी उतने ही पारदर्शी हैं जितने की संजीदे गीतों में. और एक बात इस गाने से जुडी हुई. अगर आप अंताक्षरी खेलने के शौकीन हैं तो आप ने यह ज़रूर महसूस किया होगा की अंताक्षरी में जब भी 'दा' अक्षर से गीत गाने की बारी आती है तो सबसे पहले यही गीत झट से ज़ुबान पर आ जाता है. यही तो है इस गीत की ख़ासीयत. तो सुनिए यह गीत और झूम जाइए बिन पीए. लेकिन याद रहे, कहीं गिर ना जाना.



और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाईये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -

१. १९७० में आई इस फ़िल्म में संजीव कुमार की प्रमुख भूमिका थी.
२. इस महान संगीतकार को इस फ़िल्म के लिए राष्टीय पुरस्कार मिला था.
३. लता मंगेशकर की डेट्स न मिल पाने के कारण फिल्मांकन के लिए संगीतकार ने इस गीत को अपनी आवाज़ में रिकॉर्ड किया था. बाद में इसे लता ने भी गाया.

कुछ याद आया...?

कल की पहेली का सही जवाब दिया एक बार फ़िर मनु जी ने. आप को बधाई.

प्रस्तुति - सुजॉय चटर्जी



ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सदर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवायेंगे, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

पॉडकास्ट कवि सम्मेलन - फरवरी २००९



Doctor Mridul Kirti - image courtesy: www.mridulkirti.com
डॉक्टर मृदुल कीर्ति
पॉडकास्ट कवि सम्मेलन का वसंत विशेषांक
कविता प्रेमी श्रोताओं के लिए प्रत्येक मास के अन्तिम रविवार का अर्थ है पॉडकास्ट कवि सम्मेलन। आवाज़ के तत्त्वावधान में २००९ इस बार हम लेकर आए हैं आठवें ऑनलाइन कवि सम्मेलन का पॉडकास्ट।

पिछले आयोजनों की तरह इस बार भी इस कार्यक्रम का कुशल और कर्णप्रिय संचालन डॉक्टर मृदुल कीर्ति द्वारा किया गया है।  फ़िर भी इस बार का कवि सम्मलेन कई मायनों में अनूठा है. फरवरी माह के इस कवि सम्मलेन के माध्यम से हम श्रद्धांजलि दे रहे हैं महान कवयित्री और स्वतन्त्रता सेनानी सुभद्रा कुमारी चौहान को जिनकी पुण्यतिथि १५ फरवरी को होती है। इसके साथ ही यह मौसम है वसंत का। ऐसे वासंती समय में हमने इस कवि सम्मलेन में चुना है छः कवियों को, दो महाद्वीपों से, चार भावों को लेकर। साथ ही आगे रहने की अपनी परम्परा का निर्वाह करते हुए इस बार हम लेकर आए हैं अनुराग शर्मा के सद्य-प्रकाशित काव्य संकलन "पतझड़ सावन वसंत बहार" में से कुछ चुनी हुई कवितायें। तो आईये आनंद लेते हैं चार मौसमों का इस बार के कवि सम्मलेन के माध्यम से। आइये, इस सम्मलेन में वैशाली सरल, विभा दत्त, अतुल शर्मा, पंकज गुप्ता, प्रदीप मनोरिया, अनुराग शर्मा और सुभद्रा कुमारी चौहान की इन सुमधुर रचनाओं का आनंद उठाईये।

पिछले सम्मेलनों की सफलता के बाद हमने आपकी बढ़ी हुई अपेक्षाओं को ध्यान में रखा है। हमें आशा ही नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि इस बार का सम्मलेन आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतरेगा और आपका सहयोग हमें इसी जोरशोर से मिलता रहेगा। यदि आप हमारे आने वाले पॉडकास्ट कवि सम्मलेन में भाग लेना चाहते हैं तो अपनी आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके podcast.hindyugm@gmail.com पर भेजें। कवितायें भेजते समय कृपया ध्यान रखें कि वे १२८ kbps स्टीरेओ mp3 फॉर्मेट में हों और पृष्ठभूमि में कोई संगीत न हो। आपकी ऑनलाइन न रहने की स्थिति में भी हम आपकी आवाज़ का समुचित इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे। पॉडकास्ट कवि सम्मेलन के अगले अंक का प्रसारण रविवार २९ मार्च २००९ को किया जायेगा और इसमें भाग लेने के लिए रिकॉर्डिंग भेजने की अन्तिम तिथि है २१ मार्च २००९

नीचे के प्लेयर से सुनें:


यदि आप इस पॉडकास्ट को नहीं सुन पा रहे हैं तो नीचे दिये गये लिंकों से डाऊनलोड कर लें (ऑडियो फ़ाइल तीन अलग-अलग फ़ॉरमेट में है, अपनी सुविधानुसार कोई एक फ़ॉरमेट चुनें)
VBR MP364Kbps MP3Ogg Vorbis

हम सभी कवियों से यह अनुरोध करते हैं कि अपनी आवाज़ में अपनी कविता/कविताएँ रिकॉर्ड करके podcast.hindyugm@gmail.com पर भेजें। आपकी ऑनलाइन न रहने की स्थिति में भी हम आपकी आवाज़ का समुचित इस्तेमाल करने की कोशिश करेंगे।

रिकॉर्डिंग करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। हिन्द-युग्म के नियंत्रक शैलेश भारतवासी ने इसी बावत एक पोस्ट लिखी है, उसकी मदद से आप सहज ही रिकॉर्डिंग कर सकेंगे।

अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।

# Podcast Kavi Sammelan. Part 8. Month: February 2009.
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