'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप इन दिनों सुन रहे हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन का मनमोहक संगीत फ़िल्म संगीत के स्वर्णयुग का एक सुरीला अध्याय है। उनकी हर रचना बेजोड़ है, बावजूद इसके कि उन्होने दूसरे सफल संगीतकारों की तरह बहुत ज़्यादा फ़िल्मों में संगीत नहीं दिया है। उनके गीतों में हमारी संस्कृति की अनुगूँज सुनाई देती है। उनके संगीत में है रागों का अनुराग, संगीत का वह रस भरा संसार है कि जिसमें बार बार डुबकी लगाने को जी चाहता है। फ़िल्म संगीत की दुनिया से जुड़े संगीतकारों की इस दुनिया में मदन मोहन अलग ही नज़र आते हैं। संगीतकार बेशक़ एक दौर में अपनी संगीत यात्रा पूरी कर चला जाता है, लेकिन उनका संगीत काल और समय से परे होता है। मदन मोहन का संगीत भी कालजयी है और रहेगा जो साया बन हमेशा हमारे साथ चलेगा और बाँटता रहेगा हमारी ख़ुशियाँ, हमारे ग़म। मदन मोहन साहब को हम ने जिस क़दर अपने दिलों में बसा रखा है, वो कभी वहाँ से उतर नहीं पायेंगे। कुछ इसी तरह का भाव उनके उस गीत में भी है जो आज हम चुनकर लाये हैं इस महफ़िल के लिए। "ज़मीं से हमें आसमाँ पर बिठाके गिरा तो न दोगे, अगर हम यह पूछें कि दिल में बसा के भुला तो न दोगे"। मदन मोहन का संगीत न कभी आसमाँ से ज़मीं पर गिरेगा और न ही हम कभी उन्हे भुला पायेंगे। आशा भोंसले और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ों में राजेन्द्र कृष्ण का लिखा 'अदालत' फ़िल्म का यह युगल गीत आज पेश है 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में।
सन् १९५८ में मदन मोहन ने कुल ८ फ़िल्मों में संगीत दिया था और ख़ास बात यह कि ये आठों फ़िल्में अलग अलग बैनर की थीं। ये ८ फ़िल्में हैं - आखिरी दाव, एक शोला, नाइट क्लब, अदालत, चांदनी, जेलर, ख़ज़ांची, और खोटा पैसा। पहले तीन फ़िल्मों में गीतकार थे मजरूह सुल्तानपुरी और बाक़ियों में राजेन्द्र कृष्ण साहब। 'अदालत' क्वात्रा फ़िल्म्स की प्रस्तुति थी जिसके निर्देशक थे कालीदास, और मुख्य भूमिकायों में थे प्रदीप कुमार, नरगिस और प्राण। इस फ़िल्म में लता जी के गाये तीन ग़ज़लों ने फ़िल्म जगत में तहलका मचा दिया था और इसी फ़िल्म के बाद से मदन मोहन साहब को फ़िल्मी ग़ज़लों का शहज़ादा कहा जाने लगा था। लताजी की गायी हुई ये तीन ग़ज़लें थीं "युं हसरतों के दाग़ मोहब्बत में धो लिए", "जाना था हमसे दूर बहाने बना लिए" और "उनको यह शिकायत है के हम कुछ नहीं कहते"। लेकिन आशा जी और रफ़ी साहब का गाया प्रस्तुत युगल गीत भी उतना ही पुर-असर है। नर्मोनाज़ुक रोमांटिक गीतों में यह गीत एक बेहद सम्मानीय स्थान रखता है इसमें कोई दोराय नहीं है। आज जब आशा जी और मदन साहब की एक साथ बात चली है तो विविध भारती के 'संगीत सरिता' कार्यक्रम में आशा जी, पंचम दा और गुलज़ार साहब की बातचीत का एक अंश यहाँ पेश कर रहा हूँ जिसमें मदन मोहन का ज़िक्र छिड़ा है -
"आशा: एक बात है, मदन भइया ने ग़ज़ल, ठुमरी, कजरी पर बहुत सारे गानें बनाये हैं। पंचम: वो अख़तरी बाई, सिद्धेश्वरी बाई जैसे कलाकारों को इतना सुनते थे, और एक और बात वो खाना भी बहुत अच्छा बनाते थे, आप को पता है? गुलज़ार: मैं तो स्वाद से बता देता था कि यह मदन भाईसाहब ने बनाया है। पंचम: वो मेरे पिताजी के लिए बनाकर लाते थे, टिंडे-गोश्त। आशा: मैने तो भिंडी-गोश्त खाया है!"
अब इससे पहले कि आप के मुँह में पानी आये (अगर आप नॊन-वेज हैं तो), आप को सुनवा रहे हैं यह गीत!
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन साहब के लाजवाब संगीत से सजी फिल्म का है ये गीत. 2. राजा मेहंदी अली खान के हैं बोल इस दर्द भरे गीत में. 3. मुखड़े में शब्द है - "सितारे".
पिछली पहेली का परिणाम - पराग जी ने बहुत दिनों बाद बाज़ी मारी आपके अंक हुए ६. मंजू जी बस ज़रा सा पीछे रह गयी. शरद जी, मनु जी, तपन जी और शमिख जी सब आये सही जवाब की पड़ताल करने, दिलीप जी आपने बिलकुल सही कहा मदन साहब के इस गीत की और उनके संगीत जितनी तारीफ की जाए कम है, कल स्वप्न जी नज़र नहीं आई.....आपकी कमी खली....:)
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
'सुनो कहानी' इस स्तम्भ के अंतर्गत हम आपको हिंदी कहानियाँ सुनवा रहे हैं। पिछले सप्ताह आपने अनुराग शर्मा की आवाज़ में प्रसिद्ध हिंदी साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द की कहानी "वैराग्य" का पॉडकास्ट सुना था। आवाज़ की ओर से आज हम लेकर आये हैं उभरते हिंदी साहित्यकार गौरव सोलंकी की कहानी ""बाँहों में मछलियाँ"", जिसको स्वर दिया है पारुल पुखराज ने।
कहानी का कुल प्रसारण समय 6 मिनट 25 सेकंड है। सुनें और बतायें कि हम अपने इस प्रयास में कितना सफल हुए हैं। प्रस्तुत कहानी का टेक्स्ट "कहानी कलश" पर उपलब्ध है.
यदि आप भी अपनी मनपसंद कहानियों, उपन्यासों, नाटकों, धारावाहिको, प्रहसनों, झलकियों, एकांकियों, लघुकथाओं को अपनी आवाज़ देना चाहते हैं हमसे संपर्क करें। अधिक जानकारी के लिए कृपया यहाँ देखें।
7 जुलाई, 1986 को उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के 'जिवाना गुलियान' गाँव में जन्मे गौरव सोलंकी ने कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे हैं और कवितायें भी। हर शनिवार को आवाज़ पर सुनिए एक नयी कहानी मैं कहता हूं कि मुझे फ़िल्म देखनी है। वह पूछती है, “कौन सी?” मुझे नाम बताने में शर्म आती है। वह नाम बोलती है तो मैं हाँ भर देता हूं। मेरे गाल लाल हो गए हैं।
("तुम्हारी बाँहों में मछलियाँ क्यों नहीं हैं" से एक अंश)
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'ओल्ड इज़ गोल्ड' में इन दिनों हम उस सुर साधक की बातें कर रहे हैं जिनका अंदाज़ था सब से जुदा, जिनका संगीत कानों से होते हुए सीधे रूह में समा जाता है। वह संगीत, जो कभी प्रेम, कभी विरह, कभी पीड़ा, तो कभी प्यार में समर्पण की भावना जगाती है। अपने संगीत से श्रोताओं को बेसुध कर देनेवाले उस सुर-गंधर्व को हम और आप मदन मोहन के नाम से जानते हैं। 'मदन मोहन विशेष' के तीसरे अंक में आज हम उनके संगीत के जिस रंग को लेकर आये हैं वह रंग है अपनी महबूबा से बिछड़ने की घड़ी में दिल से निकलती पुकार, कि काश वो एक बार हमें जाने से रोक ले। छुट्टी पर आये सैनिक को अचानक तार मिलता है कि पड़ोसी मुल्क ने हमारे देश पर हमला बोल दिया है और उसे तुरंत सीमा पर पहुँचना है। ऐसे में एक दम से महबूबा से जुदा होने का ख़याल सैनिक के दिल को दहलाकर रख देता है। क्या पता कि फिर कभी उन से इस ज़िंदगी में मुलाक़ात हो, ना हो! १९६४ में बनी चेतन आनंद की फ़िल्म 'हक़ीक़त' की हम बात कर रहे हैं, जिसके मुख्य कलाकार थे चेतन आनंद और प्रिया राजवंश। १९६२ के 'इंडो-चायना वार' पर आधारित इस फ़िल्म की कहानी बहुत ही मार्मिक थी। चेतन आनंद को इस फ़िल्म के लिए भरपूर सराहना तो मिली ही, ऐसी युद्ध वाली फ़िल्म में भी बेहद सुरीला संगीत देकर मदन मोहन साहब ने उस से भी ज़्यादा प्रशंसा बटोरी। यूं तो युद्ध की पृष्ठभूमी पर केन्द्रित कई फ़िल्में बनीं हैं और उनमें वीर रस के कई गानें भी शामिल हुए हैं, लेकिन 'हक़ीक़त' के रफ़ी साहब का गाया "कर चले हम फ़िदा जान-ओ-तन साथियों" को सुनकर एक अजीब सी अनुभूती होती है। न चाहते हुए भी आँखें भर आती हैं हर बार, रोंगटें खड़े हो जाते हैं, यह गीत उन जाँबाज़ सैनिकों के लिए हमें अपना सर श्रद्धा से झुकाने पर विवश कर देती है। लेकिन रफ़ी साहब की ही आवाज़ में आज का प्रस्तुत गीत भले ही वीर रस से ओत प्रोत न हो, लेकिन उसमें भी कुछ ऐसी बात है कि यकायक आँखें नम सी हो जाती हैं। मैने पहले भी दो एक बार कहा है कि कुछ गानें ऐसे होते हैं कि जिनके बारे में ज़्यादा कहना नहीं चाहिए बल्कि सिर्फ़ उसे सुनकर दिल से महसूस करनी चाहिए, यह गीत भी इसी श्रेणी में आता है। इस फ़िल्म के गीतों में मदन साहब का जितना योगदान है, उतना ही योगदान है गीतकार और शायर कैफ़ी आज़्मी का, जिनके कलेजा चीर कर रख देने वाले बोलों ने फ़िल्म के गीतों को अमर बना दिया है।
यह तो आप को पता ही होगा कि लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल की जोड़ी के प्यारेलाल-जी शुरु शुरु में वायलिन बजाया करते थे। कई संगीतकारों के लिए उन्होने बजाया और उनमें से एक मदन मोहन भी थी। स्वतंत्र संगीतकार बन जाने के बाद भी कुछ समय तक उन्होने दूसरे संगीतकारों के गीतों में अपने वायलिन के जलवे दिखाये हैं, और फ़िल्म 'हक़ीक़त' का प्रस्तुत नग़मा इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। आइए जानते हैं इस गीत मे प्यारेलाल जी के योगदान के बारे में ख़ुद उन्ही के शब्दों में, जो उन्होने विविध भारती के 'उजाले उनकी यादों के' शृंखला में कहे थे - "एक गाना मैं आप को, एक हादसा बताऊँ मैं आप को, कि 'हक़ीक़त' पिक्चर के अंदर मदन मोहन जी का "मैं यह सोचकर उसके दर से", तो यह गाना रिकार्ड हो रहा था महबूब स्टुडियोज़ के अंदर। इस गीत में पहले 'फ़्ल्युट सोलो' था, और 'पियानो सोलो' था, लेकिन बाद में, मुझे मालूम नहीं क्यों, मदन जी बाहर आये और बात की सोनिक जी से। सोनिक-ओमी, तो सोनिक जी से बात की कि 'भई कुछ चेंज करना है', और ऐसा था कि जो शुरु से लेकर आख़िर तक आप सिर्फ़ 'वायलिन' सुनेंगे, और एंड में जाकर पियानो आता है।" दोस्तों, कहने का तात्पर्य यह है कि पहले इस गीत के लिए बाँसुरी और पियानो की धुन रखी गयी थी, लेकिन बाद में पूरे गीत में केवल प्यारेलाल जी का वायलिन रखा गया। गीत में बस यही एक साज़ मुख्य रूप से सुनायी देता है, और बिछड़ने के दर्द भरे पल को और भी ज़्यादा सजीव बनानें में वायलिन जो कमाल दिखा सकता है वह कोई और साज़ नहीं दिखा सकता तो लीजिये, मदन मोहन, कैफ़ी आज़्मी, मोहम्मद रफ़ी, प्यारेलाल और चेतन आनंद को सलामी देते हुए सुनते हैं आज का यह दिल को छू लेनेवाला गीत।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन साहब ने बेहद खूबसूरत गीत दिए थे इस फिल्म में. 2. आशा -रफी के युगल स्वर है इस गीत में. 3. पहला अंतरा शुरू होता है इन शब्दों से -"ऐ रात..."
पिछली पहेली का परिणाम - शरद जी एक बार फिर बाज़ी मार गए, ४२ अंकों के लिए बधाई जनाब. सवाल आसान था, पर स्वप्न जी का कंप्यूटर धोखा दे गया. मनु जी, रचना जी, सुमित जी, मीत जी और दिलीप जी उम्मीद है आप सब मदन मोहन साहब पर प्रस्तुत इस श्रृंखला का भरपूर आनंद ले रहे होंगें.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
रात कुछ ऐसा हुआ जैसा होता तो नहीं, थाम कर रखा मुझे मैं भी खोता तो नहीं - आने वाली फिल्म "कमीने" में लिखे "गुलज़ार" साहब के ये शब्द हमारी आज की महफ़िल पर बखूबी फिट हो रहे हैं। अहा! आज की महफ़िल नहीं, दर-असल पिछली महफ़िल के जवाबों के साथ ऐसा हीं कुछ हुआ है, जो अमूमन होता नहीं है। हमारे "शरद" साहब, जिनका बाकी सभी लोहा मानते हैं और एक तरह से हमारी मुहिम को उन्होंने हीं थाम कर रखा है, वही भटकते हुए दिखे। पहले प्रयास में बस एक सही जवाब, क्या जनाब! आपसे ऐसी तो उम्मीद नहीं थी हमारी। और यह देखिए आपने गलत रास्ता दिखाया तो कुलदीप भाई भी उसी रास्ते पर चल निकले। यह अलग बात है कि आप दोनों ने "दिशा" जी का सही जवाब आने के बाद अपनी टिप्पणियाँ हटा दी,लेकिन हमारी पैनी निगाहों से आप दोनों बच न सके। हमने आपकी कारस्तानी पकड़ हीं ली और भाईयों "ऐसा भी तो नहीं होता" कि आप अपने जवाब हटा लें। अब चूँकि पहला सही जवाब "दिशा" जी ने दिया, इसलिए एक बार फिर से ४ अंक उन्हीं के हिस्से में जाते हैं। दूसरा सही जवाब देने के लिए "शरद" जी को पुनश्च ३ अंकों से नवाज़ा जाता है। कुलदीप जी आप दुबारा आए और इस बार सही जवाब के साथ आए, लेकिन चूँकि आपने एपिसोड नंबर्स नहीं दिए, इसलिए कायदे से तो आपको कुछ भी नहीं मिलना चाहिए था, लेकिन आपके परिश्रम से खुश होकर हम आपको १ अंक देते हैं। इन तीनों महारथियों के अलावा किसी ने भी सवालों का जवाब देना सही नहीं समझा। कोई बात नहीं, "वो सारे चुप जो बैठे हैं कभी तो नींद तोड़ेंगे, हमारे दिल की दस्तक को, भला कैसे वो मोड़ेंगे।" हाँ तो तीन कड़ियों के बाद अंकों का गणित कुछ इस तरह है: शरद जी: १० अंक, दिशा जी: ८ अंक और कुलदीप जी: १ अंक। अब आज के सवालों की ओर रूख करते हैं। २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है,मतलब कि उससे जुड़ी बातें किस अंक में की गई थी। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) "मेरी दादी अनवरी बेगम पारो, दादा रफ़ीक़ गज़नवी, अम्मी ज़रिना और खुद मेरा फ़िल्मों से गहरा नाता रहा है और मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरी बेटी ज़रीना भी इसी क्षेत्र में अपना भविष्य आजमाने जा रही है।" -ये बोल जिन फ़नकारा के हैं उन्होंने अपनी संगीत यात्रा की शुरूआत "ए बी ए" ज़ौनर के गानों से की थी। २) १९७८ में मुजफ़्फ़र अली की एक फ़िल्म के लिए जयदेव के संगीत निर्देशन में इन्होंने अपना पहला गाना गाया। लेकिन इन्हें सही प्रसिद्धि १८ साल बाद मिली, जब मुंबई के एक फ़नकार के साथ इनके फ़्युजन एलबम को लोगों ने काफ़ी पसंद किया।
चूँकि आजकल बराबरी का दौर है, इसलिए हमने भी सोचा कि क्यों ना संगीत में भी बराबरी को प्रोत्साहन दें और इसलिए ताबड़तोड़ गायिकाओं पर आधारित अंक पेश करने लगें। यह लगातार चौथा अंक है, जिसमें किसी फ़नकारा की बात की जा रही है। इससे पहले "मल्लिका पुखराज","फ़रीदा खानुम" और "रूना लैला" की गलाकारी का हमने आनंद लिया है। अरे नहीं, हम मज़ाक कर रहे थे। दर-असल इन सारी हस्तियों की बात हीं कुछ ऐसी है, कि बिना किसी तैयारी या बिना किसी पक्षपात के हम हर बार किसी न किसी फ़नकारा की गज़ल या नज़्म को हीं चुने जा रहे हैं। अब अगर आज की फ़नकारा की बात करें तो यकीनन ये भी बाकी सब जितना हीं रूतबा और इल्म रखती हैं, लेकिन न जाने कैसे इनका इतना नाम न हुआ, जितना बाकियों का है। लोग बस "रिफ़्युजी कैम्प्स" की बातें करते हैं या फिर अपने को औरों से अलहदा साबित करने के लिए दर्शाते हैं कि वो भी कभी "रिफ़्युजी कैम्प" में रहे हैं,लेकिन इन फ़नकारा की किस्मत देखिए कि इनकी संगीत-यात्रा को आकाश उन्हीं कैम्प्स में मिला। उन कैम्प्स में ना तो बिजली थी और ना हीं पानी, लेकिन इनके परिवार वालों के पास इनकी आवाज़ थी, जिसके बदौलत ये लोग अपनी ज़िंदगी को जीने का बहाना दिए जा रहे थे। यह बात तब की है, जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश में तब्दील हो रहा था और कई लोगों को खुद को बचाने के लिए पाकिस्तान की ओर जाना पड़ा था। यह बात १९७१ की है। वैसे इनके साथ यह पहली मर्तबा नहीं हो रहा था। इससे पहले हिन्दुस्तान के बँटवारे के वक्त इन्हें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से पूर्वी पाकिस्तान की ओर रूख करना पड़ा था। तो इस तरह इन्हें बँटवारे का दर्द दो बार सहना पड़ा। तो हाँ, बांग्लादेश से पाकिस्तान आई "नादिरा" को उर्दू की तनिक भी जानकारी नहीं थी, लेकिन गाने का शौक़ था(अजी शौक क्या, इन्होंने ख़्वाजा गुलाम मुस्तफ़ा वरसी से बाक़ायदा मौशिकी की तालीम ली है) इसलिए नई जुबां तो सीखनी हीं थी। नई जुबां सीखने के दरम्यान इन्होंने महसूस किया कि अगर उर्दू के आसान अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए जाएँ और वैसे हीं गज़ल गाए जाएँ,जिन्हें समझना आसान हो तो सुनने वालों के दिलों में पैठ बनाने में वक्त नहीं लगेगा.... और यही हुआ। १९७६ में इनका जब पहला गज़लों का एलबम रीलिज़ हुआ तो सारे रिकार्ड़्स हाथों-हाथ बिक गए। अपनी रोयाल्टी लेने ये जब रिकार्ड कंपनी के आफ़िस गईं तो "चेक़" पर लिखी रक़म ने इन्हें सकते में डाल दिया। ७००० रूपये की रकम देख इन्हें खुद पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन जब इन्हें कहा गया कि यह ७००० नहीं बल्कि सत्तर हज़ार है तो इनके तो होश हीं उड़ गए। उस दौर में जिन्हें सत्तर हज़ार की रोयाल्टी मिले ,उनके स्तर को उनकी काबिलियत को आसानी से समझा और जाना जा सकता है। वैसे अपने चाहने वालों के बीच ये "नादिरा" नाम से नहीं जानी जाती, बल्कि इन्हें "मुन्नी बेग़म" कहलाना ज्यादा पसंद है। यह नाम सुनकर तो आप इन्हें पहचान हीं गए होंगे। २३ मार्च २००८ को पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "प्राईड आफ़ परफ़ार्मेंश" से नवाज़ा थां। १९७६ से आज तक ४२ एलबम रीलिज कर चुकीं इन फ़नकारा को आवाज़ परिवार का सलाम!
चलिए अब फ़नकारा से आगे बढते हैं और आज के शायर की ओर रुख करते हैं। आज की गज़ल उस शायर की मक़बूलियत का सबूत भी है और सबब भी। हमने पिछली किसी कड़ी में यह कहा था कि "कुछ शायर ऐसे होते हैं, जो अपनी किसी खास गज़ल के कारण अमर हो जाते हैं, फिर वह गज़ल उनकी परछाई बन जाती है और वो उस गज़ल की।" ऐसा हीं कुछ मुद्दा यहाँ भी है। "मन आँगन में शहर बसा है", "चलो उन मंज़रों के साथ चलते हैं", "उसे कहना कभी मिलने चला आए", "तुम हीं अच्छे थे", "पहले पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं", "इस बार दिल ने तुझसे ना मिलने की ठानी है", "तुम ने सच बोलने की जुर्रत की", "ये लोग अब जि़स से इनकार करना चाहते हैं", "ये और बात कि खुद को बहुत तबाह किया", "कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते" - ये सारी कुछ गज़लें हैं, जो उनके नाम पर दर्ज हैं, लेकिन जिस गज़ल ने उन्हें अर्श तक पहुँचाया वो थी- "मैं ख़्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है।" आप हैरत में पड़ गए ना, पहले पहल मैं भी हैरत में पड़ गया था क्योकि इन्हीं अल्फ़ाज़ों से सजा एक नज़्म "तू प्यार है किसी और की, तुझे चाहता कोई और है", हमारे यहाँ गूँजा करता है। क्या कीजिएगा....हमारी नकल करने की आदत गई नहीं है। दिन में दस बार क्यों न हम पाकिस्तान को भला-बुरा कहें,लेकिन गाने चुराने के लिए उसी की ओर हाथ पसारकर खड़े हो जाते हैं। हाँ तो जहाँ तक इस गज़ल की बात है, इसे न सिर्फ़ "मुन्नी बेग़म" ने गाया है, बल्कि कई सारे फ़नकारों ने इस पर अपना गला साफ़ किया है, यहाँ तक कि उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान साहब की भी आवाज़ इस गज़ल को नसीब हुई है। लीजिए इतनी बात हो गई,लेकिन अब तक हमने उस शायर की शिनाख्त नहीं की। तो भाईयो, जनाब "सलीम कौसर" साहब हीं वो खुशकिस्मत शायर है। इससे पहले कि हम आज की गज़ल का लुत्फ़ उठायें,क्यों न इन साहब का हीं लिखा एक शेर देख लिया जाए: जाने तब क्यों सूरज की ख्वाहिश करते हैं लोग, जब बारिश में सब दीवारें गिरने लगती हैं।
लगे हाथों पेश है,आज की गज़ल। जहां-भर का दु:ख-दर्द भुलाकर इस गज़ल की रूमानियत और रूहानियत का आनंद लें: मैं ख़्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है, सरे-आईना मेरा अक्स है, पशे-आईना कोई और है।
मैं किसी की दस्ते-तलब में हूँ तो किसी की हर्फ़े-दुआ में हूँ, मैं नसीब हूँ किसी और का, मुझे माँगता कोई और है।
अजब ऐतबार-ओ-बेऐतबारी के दरम्यान है ज़िंदगी, मैं क़रीब हूँ किसी और के, मुझे जानता कोई और है।
तेरी रोशनी मेरे खद्दो-खाल से मुख्तलिफ़ तो नहीं मगर, तू क़रीब आ तुझे देख लूँ, तू वही है या कोई और है।
तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं, तेरी दास्तां कोई और थी, मेरा वाक्या कोई और है।
वही मुंसिफ़ों की रवायतें, वहीं फैसलों की इबारतें, मेरा जुर्म तो कोई और था,पर मेरी सजा कोई और है।
कभी लौट आएँ तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से, जिन्हें रास्ते में खबर हुईं,कि ये रास्ता कोई और है।
जो मेरी रियाज़त-ए-नीम-शब को ’सलीम’ सुबह न मिल सकी, तो फिर इसके मानी तो ये हुए कि यहाँ खुदा कोई और है।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से, ये नए ___ का शहर है, ज़रा फासले से मिला कीजिये...
आपके विकल्प हैं - a) शौक, b) शऊर, c) सलीके, d) मिजाज़
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी - पिछली महफिल का सही शब्द था -"शोला" और शेर कुछ यूं था -
रूह बेचैन है एक दिल की अजीयत क्या है, दिल ही शोला है तो ये सोज़े मोहब्बत क्या है...
कैफी साहब के इस शेर को सही पहचाना सबसे पहले शरद जी ने...बधाई जनाब....आपका शेर कुछ यूं था -
शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो
कुलदीप अंजुम जी, रंजिश ही सही भी किसी दिन अवश्य सुनेंगें हम इस महफ़िल में रुना की आवाज़ में. आपने तो शेरों की झडी ही लगा दी...वाह कुछ शेर यहाँ पेश है -
ज़िन्दगी एक सुलगती सी चिता है "साहिल" शोला बनती हैं ना यह बुझ के धुंआ होती हैं
ऐ हुस्ने बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ फूलों में भी शोखी तो है किसको मगर तुझसा कहूँ
और ... कभी गुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह...
कतील शिफाई और इफ्तिखार आरिफ की खूब याद दिलाई आपने....शुक्रिया. मनु जी क्या खूब बात याद दिलाई आपने -
जंग रहमत है के लानत ये सवाल अब न उठा जो सर पे आ गयी है जंग तो रहमत होगी गौर से देखना जलते हुये शोलों का जलाल इसी दोज़ख के किसी कोने में जन्नत होगी..
और
देख के आहंगर की दुकां में तुंद हैं शोले, सुर्ख है आहन खुलने लगे कुफलों के दहाने फैला हर इक ज़ंजीर का दामन
वाह, दिशा जी, पूजा जी, सुमित जी, अदा जी आप सब ने भी महफिल में खूब हाजिरी दी और बढ़िया रंग जमाया. विदा लेने से पहले रचना जी का ये शेर मुलहाज़ा फरमायें -
भूख के शोले जब पेट जलाते हैं हम बच्चों को उम्मीद खिलाते हैं...
रचना जी सही कहा आपने, हम सब को मिलकर आने वाली पीढी के लिए इन हालातों को बदलना होगा...ऐसा हम कर पायेंगें इसी उम्मीद के साथ अगली महफिल तक के लिए दीजिये इजाज़त.
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
'मदन मोहन विशेष' की दूसरी कड़ी में आप सभी का हार्दिक स्वागत है। कल इसकी पहली कड़ी में मदन मोहन के संगीत में लताजी का गाया और राजेन्द्र कृष्ण का लिखा हुआ गीत आप ने सुना था। आज भी इसी तिकड़ी के स्वर गूँज रहे हैं इस महफ़िल में, लेकिन एक अलग ही अंदाज़ में। यूं तो आम तौर पर नायक ही नायिका के दिल को जीतने की कोशिश करता है, लेकिन हमारी फ़िल्मों में कभी कभी हालात ऐसे भी बने हैं कि यह काम नायक के बजाय नायिका के उपर आन पड़ी है। धर्मेन्द्र-मुमताज़ की फ़िल्म 'लोफ़र' में लताजी का ही एक गीत था "मैं तेरे इश्क़ में मर ना जाऊँ कहीं, तू मुझे आज़माने की कोशिश न कर", जो बहुत मक़बूल हुआ था। लेकिन आज जिस गीत की हम बात कर रहे हैं वह है १९५७ की फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' का "तू प्यार करे या ठुकराये हम तो हैं तेरे दीवानों में, चाहे तू हमें अपना न बना लेकिन न समझ बेगानों में"। है न वही बात इस गीत में भी! वैसे यह गीत शुरु होता है एक शेर से - "न गिला होगा न शिकायत होगी, अर्ज़ है छोटी सी सुन लो तो इनायत होगी"। राजेन्द्र कृष्ण साहब ने भी एक अंतरे में क्या ख़ूब लिखा है कि "मिटते हैं मगर हौले हौले, जलते हैं मगर एक बार नहीं, हम शम्मा का सीना रखते हैं, रहते हैं मगर परवानों में"। वाह भई, इससे बेहतर अंतरा इस गीत में और क्या हो सकता था भला! वैसे शायरी के अच्छे जानकार तो मदन मोहन साहब भी थे, इस बारे में बता रहीं हैं ख़ुद लता जी - "यह मेरी आँखों देखी बात है कि कभी कभी मदन भइया बस मिनटों में तर्ज़ बना देते थे। और तर्ज़ भी कैसी, वाह! शायरी पर वो बहुत ज़ोर देते थे। जब तक शब्दों में गहराई न हो, गीतकार को काग़ज़ लौटा देते थे। 'फिर कोशिश कीजिए, जब दिल से बात निकलेगी तब असर करेगी।'"
अमीय चक्रबर्ती के 'मार्स ऐंड मूवीज़' के बैनेर तले बनी इस कम बजट फ़िल्म 'देख कबीरा रोया' के मुख्य कलाकार थे अनीता गुहा, अमीता और अनूप कुमार। आज अगर यह फ़िल्म जीवित है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ इसके गीतों की वजह से। लता जी के गाये प्रस्तुत गीत के अलावा उनका गाया "मेरी वीणा तुम बिन रोये", मन्ना डे का गाया "कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झंकार लिए" तथा तलत महमूद का गाया "हम से आया न गया तुम से बुलाया न गया" आदि खासे लोकप्रिय हुए थे और आज भी बड़े चाव से सुने जाते हैं। "मदन भइया ज़िंदगी की इस महफ़िल से उठ कर कब के जा चुके हैं। उनके बाद आज जब उनके अफ़साने बयान कर रही हूँ, तो वो जहाँ भी हैं, मैं उन से यही कहूँगी कि 'मदन भइया, बहारें आप को क्यों ढ़ूंढे, चाहे हज़ारों मंज़िलें हों, चाहे हज़ारों कारवाँ, अपने गीतों के साथ आप हमेशा बहार बन कर छाते रहेंगे, आप के संगीत प्रेमियों की वफ़ा कम नहीं होंगी, बल्कि बढ़ती ही जा रही है।" लता जी के इन्ही अनमोल शब्दों के साथ आइये सुनते हैं आज का यह गोल्डन गीत।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. मदन मोहन साहब के श्रेष्ठतम कामों में से एक. 2. हिंदी फिल्मों में बहुत कम नज़्म सुनने को मिलती है, ये एक बेहद मशहूर नज़्म है. 3. आखिरी पंक्ति में शब्द है -"यहाँ".
पिछली पहेली का परिणाम - जिस दिन हमारे धुरंधर सोच में पड़ जाते हैं उस दिन हमें मज़ा आता है. स्वप्न मंजूषा जी के दोनों अंदाजे गलत निकले. पराग जी भी सोच में पड़ गए पर मान गए भाई शरद जी को. एक दम सही जवाब. ४० का आंकडा छू लिया आपने..बहुत बहुत बधाई...मनु जी आप आजकल उलझे उलझे ही मिलते हैं और मीत जी आपका भी महफिल में आने का आभार, आप तो धुरंधर संगीत प्रेमी हैं पहेली में भी हिस्सा लिया कीजिये.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
गीतकास्ट प्रतियोगिता के दो अंकों का सफल आयोजन हो चुका है। जहाँ जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को 12 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं, वहीं सुमित्रानंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' के लिए 19 स्वरबद्ध/सुरबद्ध प्रविष्टियाँ मिलीं। आलम यह रहा कि 'प्रथम रश्मि'' की 8 संगीतमय प्रस्तुतियाँ प्रसारित करनी पड़ीं।
जब पहली बार इस प्रतियोगिता के आयोजन की उद्घोषणा हुई थी, तब तय किया गया था कि कुल रु 2000 का नग़द पुरस्कार दिया जायेगा, लेकिन इसे पहली बार ही बढ़ाकर रु 2500 करना पड़ा। 'प्रथम रश्मि' को संगीतबद्ध करने की उद्घोषणा के समय यह राशी बढ़ाकर रु 3000 की गई, लेकिन परिणाम प्रकाशित करते वक़्त प्रायोजक इतने खुश थे कि राशि बढ़कर रु 4000 हो गई। अब से यह राशि हमेशा के लिए रु 4000 की जा रही है।
आज छायावादी कविताओं को स्वरबद्ध/सुरबद्ध की कड़ी में बारी है महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की कविता की। निराला की कौन सी कविता स्वरबद्ध करायी जाये, इस संदर्भ में हमने अपने श्रोताओं से भी राय ली थी। 'राम की शक्तिपूजा' को स्वरबद्ध करने का सुझाव अधिकाधिक श्रोताओं ने दिया, लेकिन हमारी टीम मानती है कि वह कविता स्वरबद्ध करना बहुत आसान है नहीं है, शुरूआत किसी सरल कविता से हो। इसलिए हम निराला के एक नवगीत से इसकी शुरूआत कर रहे हैं। इस गीत की अनुशंसा भी बहुत से श्रोताओं ने की है।
इस कड़ी के प्रायोजक हैं डॉ॰ ज्ञान प्रकाश सिंह, जो पिछले 30 वर्षों से मानचेस्टर, यूके में प्रवास कर रहे हैं। कवि हृदयी, कविता-मर्मज्ञ और साहित्यिक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने वाले- ये सभी इनके विशेषण हैं।
गीत को केवल पढ़ना नहीं बल्कि गाकर भेजना होगा। हर प्रतिभागी इस गीत को अलग-अलग धुन में गाकर भेजे (कौन सी धुन हो, यह आपको खुद सोचना है)।
1) गीत को रिकॉर्ड करके भेजने की आखिरी तिथि 31 जुलाई 2009 है। अपनी प्रविष्टि podcast.hindyugm@gmail.com पर ईमेल करें। 2) इसे समूह में भी गाया जा सकता है। यह प्रविष्टि उस समूह के नाम से स्वीकार की जायेगी। 3) इसे संगीतबद्ध करके भी भेजा जा सकता है। 4) श्रेष्ठ तीन प्रविष्टियों को डॉ॰ ज्ञान प्रकाश सिंह की ओर से क्रमशः रु 2000, रु 1000 और रु 1000 के नग़द पुरस्कार दिये जायेंगे। 5) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को डलास, अमेरिका के एफ॰एम॰ रेडियो स्टेशन रेडियो सलाम नमस्ते के कार्यक्रम 'कवितांजलि' में बजाया जायेगा। इस प्रविष्टि के गायक/गायिका से आदित्य प्रकाश (कार्यक्रम के संचालक) कार्यक्रम में सीधे बातचीत करेंगे, जिसे दुनिया में हर जगह सुना जा सकेगा। 6) अन्य उल्लेखनीय प्रविष्टियों को भी कवितांजलि में बजाया जायेगा। 7) सर्वश्रेष्ठ प्रविष्टि को 'हिन्दी-भाषा की यात्रा-कथा' नामक वीडियो/डाक्यूमेंट्री में भी बेहतर रिकॉर्डिंग के साथ इस्तेमाल किया जा सकता है। 8) श्रेष्ठ प्रविष्टि के चयन का कार्य आवाज़-टीम द्वारा किया जायेगा। अंतिम निर्णयकर्ता में आदित्य प्रकाश का नाम भी शामिल है। 9) हिन्द-युग्म का निर्णय अंतिम होगा और इसमें विवाद की कोई भी संभावना नहीं होगी। 10) निर्णायकों को यदि अपेक्षित गुणवत्ता की प्रविष्टियाँ नहीं मिलती तो यह कोई ज़रूरी भी नहीं कि पुरस्कार दिये ही जायँ।
निराला की कविता 'स्नेह-निर्झर बह गया है'
स्नेह-निर्झर बह गया है। रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल जो सूखी दिखी, कह रही है- "अब यहाँ पिक या शिखी नहीं आते, पंक्ति मैं वह हूँ लिखी नहीं जिसका अर्थ- जीवन दह गया है।"
"दिये हैं मैंने जगत् को फूल-फल, किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल; पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल- ठाट जीवन का वही जो ढह गया है।"
अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा, श्याम तृण पर बैठने को, निरुपमा। बह रही है हृदय पर केवल अमा; मैं अलक्षित हूँ, यही कवि कह गया है।
जुलाई का महीना, यानी कि सावन का महीना। एक तरफ़ बरखा रानी अपने पूरे शबाब पर होती हैं और इस सूखी धरा को अपने प्रेम से हरा भरा करती है। लेकिन जुलाई के इसी महीने में एक और चीज़ है जो छम छम बरसती है, और वो है संगीतकार मदन मोहन की यादें। जी हाँ दोस्तों, करीब करीब ढाई दशक बीत चुके हैं, लेकिन अब भी दिल के किसी कोने में छुपी कोई आवाज़ अब भी इशारा करती है १४ जुलाई के उस दिन की तरफ़ जब वो महान संगीतकार हमें छोड़ गये थे। उनके जाने से फ़िल्म संगीत में जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भर पाना अब नामुमकिन सा जान पड़ता है। मदन मोहन साहब की सुरीली याद में आज से लेकर अगले सात दिनों तक, यानी कि ८ जुलाई से लेकर १४ जुलाई तक, 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में आप सुनने वाले हैं 'मदन मोहन विशेष'। मदन मोहन के स्वरबद्ध गीतों में सर्वश्रेष्ठ सात गानें चुनना संभव नही है, और ना ही हम इसकी कोई कोशिश कर रहे हैं। हम तो बस उनके संगीत के सात अलग अलग रंगों से आपका परिचय करवायेंगे अगले सात दिनों में। तो तैयार हो जाइये दोस्तों, फ़िल्म जगत के अनूठे संगीतकार मदन मोहन साहब की धुनों में ग़ोते लगाने के लिए। मदन मोहन पर केन्द्रित किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत लताजी के ही गाये गाने से होनी चाहिये ऐसा हमारा विचार है। कारण शायद बताने की ज़रूरत नहीं। तो लीजिये, आज भी हम इसी रवायत को जारी रखते हुए आप को सुनवाते हैं लता जी की आवाज़ में सन् १९५९ की फ़िल्म 'चाचा ज़िंदाबाद' से "बैरन नींद न आये"। जे. ओम प्रकाश निर्मित एवं निर्देशित इस हास्य फ़िल्म के मुख्य कलाकार थे किशोर कुमार, अनीता गुहा, भगवान, अनूप कुमार, ओम प्रकाश और टुनटुन। गानें लिखे राजेन्द्र कृष्ण ने। फ़िल्म में कुल ८ गानें थे जिनमें से दो किशोर के एकल, दो आशा के एकल, दो किशोर-लता के युगल, एक लता-मन्ना डे के युगल, तथा एक लता जी की एकल आवाज़ में थे। इनमें से ज़्यादातर गीत हास्य और हल्के-फुल्के अंदाज़ वाले थे सिवाय लताजी के एकल गीत के, जिसमें मुख्यता विरह की वेदना का सुर था। और ख़ास बात यह कि इसी गीत ने सब से ज़्यादा वाह-वाही बटोरी। शास्त्रीय संगीत पर आधारित इस गीत के इंटर्ल्युड संगीत में सितार का अच्छा प्रयोग सुनने को मिलता है। यूं तो जब मदन मोहन और लता मंगेशकर की एक साथ बात चलती है तो लोग अपनी बातचीत का रुख़ ग़ज़लों की तरफ़ ले जाते हैं, लेकिन प्रस्तुत गीत प्रमाण है इस बात का कि सिर्फ़ ग़ज़लें ही नहीं, बल्कि गीतों को भी इन दोनों ने वही अंजाम दिया है।
क्योंकि आज का यह गीत शास्त्रीय संगीत पर आधारित है, तो इससे पहले कि आप यह गीत सुनें, क्यों न लता जी के उन शब्दों पर एक नज़र डालते चलें जो उन्होने अपने मदन भइया के शास्त्रीय संगीत के ज्ञान के बारे में कहा था - "मदन भइया ने शास्त्रीय संगीत सीखा भी था और महान गायकों को बहुत सुना भी था। संगीत की मज़बूत दुनिया इसी तरह बसती है। वो गाते थे और बड़े तैयार गले से। उनकी संगीत साधना और प्रतिभा से निखरे और स्वरों से सजे गीत, ग़ज़ल, भजन इसीलिए इतने पुर-असर होते थे। मदन भइया सही माईनों में आर्टिस्ट थे और बड़े ही सुरीले थे।" तो लीजिए दोस्तों, पेश है 'मदन मोहन विशेष' की पहली कड़ी में उनके साथ साथ लता जी और राजेन्द्र कृष्ण का यह नायाब तोहफ़ा।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. संगीतकार मदन मोहन का रचा एक और उत्कृष्ट गीत. 2. लता की आवाज़ में है ये गीत. 3. गीत से पहले एक शेर है जिसमें "शिकायत" और "इनायत" का काफिया इस्तेमाल हुआ है.
पिछली पहेली का परिणाम - पराग जी आपने सही कहा, पहेली के सूत्र के मुताबिक दोनों ही गीत सही बैठते हैं. पर सही जवाब तो एक ही हो सकता है. अंत शरद जी के खाते में २ अंक और देने पडेंगें हमें,शरद के कुल अंक हुए ३८. पराग जी, आपको अंक न दे पाने का दुःख है पर हमें विशवास है कि आप बुरा नहीं मानेंगें. अब इतने सारे गीत हैं तो कभी कभी हमसे भी ऐसी भूल हो ही जाती है :)
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
सुमित्रा नंदन पंत की कविता 'प्रथम रश्मि' को गीतकास्त प्रतियोगिता की दूसरी कड़ी के लिए जब हमने चुना तो यह डर मन में ज़रूर था कि इस कविता के संस्कृतनिष्ठ-शब्द गायन में कहीं बहुत मुश्किल न खड़ी करें। लेकिन अंतिम तिथि यानी 30 जून 2009 तक जब हमें 19 प्रविष्टियाँ प्राप्त हुईं तो हमें यह अहसास हुआ कि कविताओं के प्रति कविता प्रेमियों, गायकों और संगीतकारों का अतिरिक्त प्रेम के सामने यह बाधा क्षणिक ही है, जो दृढ़ इच्छाशक्ति से पार की जा सकती है।
19 में से 11 प्रविष्टियाँ तो संगीत के साथ सजी-धजी हुई थीं। इनमें से दो प्रविष्टियों में फिल्म सरस्वती चंद के मशहूर गीत 'फूल तुम्हें भेजा है खत में॰॰॰" की धुन थी, जिसपर बहुत ही मनोरंजक तरीके से पिता-पुत्र (अम्बरीष श्रीवास्तव व नील श्रीवास्तव) ने 'प्रथम रश्मि' के शब्दों को बिठाया था। इनमें से कक्षा 8 के छात्र नील श्रीवास्तव का हम विशेष उल्लेख करना चाहेंगे जिन्होंने फिल्मी धुन पर ही सही, यह प्रयास किया।
शेष प्रविष्टियों के मध्य बहुत काँटे की टक्कर थी। हमने विविध भारती के प्रसिद्ध रेडियो जॉकी यूनुस खान, रेडियो सलाम नमस्ते के उद्घोषक और गीतकास्ट प्रतियोगिता के संकल्पनाकर्ता आदित्य प्रकाश, आवाज़ के नियंत्रक सजीव सारथी तथा आवाज़ के तकनीक-प्रमुख और प्रसिद्ध कथावाचक अनुराग शर्मा को इन प्रविष्टियों में श्रेष्ठ प्रविष्टि चुनने का कार्य सौंपा गया।
बहुत से जजों का मानना था कि इस बार गायकों ने उच्चारण में बहुत सी गलतियाँ की हैं, लेकिन कविता को कम्पोज करना, वो भी प्रसाद-पंत शैली की कविताओं को कम्पोज करना खासा मुश्किल, ऐसे में यह ही एक बड़ी बात है कि इन्हें संगीतबद्ध किया जा रहा है। किसी-किसी कम्पोजिशन में गायकी की तारीफ हुई, तो किसी में संगीत संयोजन की। आदित्य पाठक के संगीत को भावों में जान डालने वाला कहा गया, वहीं स्वप्न मंजूषा शैल की आवाज़ की मधुरता की सराहना हमारे जजों ने की। कुमार आदित्य विक्रम के संगीत संयोजन की तारीफ हुई। लेकिन औसत राय यह बनी कि धर्मेन्द्र कुमार सिंह की प्रविष्टि में इन सभी पहलुओं की औसत गुणवत्ता विद्यमान है।
अतः 'प्रथम रश्मि' के लिए आयोजित 'गीतकास्ट प्रतियोगिता' के विजेता हैं धर्मेन्द्र कुमार सिंह। धर्मेन्द्र कुमार सिंह ने पिछली बार भी तीसरा स्थान बनाया था, जबकि इन्होंने बिना किसी संगीत के जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' को अपनी आवाज़ दी थी। बहुत से श्रोताओं ने हमें लिखा कि धर्मेन्द्र यदि संगीत के साथ कोशिश करें तो बहुतों को मात दे सकते हैं, शायद श्रोताओं के इसी प्रोत्साहन ने इन्हें विजयी बनने का रास्ता दिखाया, ऊर्जा दी।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
धर्मेन्द्र कुमार सिंह हिंदी-भोजपुरी के युवा गायक हैं। स्टेज, रेडियो, दूरदर्शन और विभिन्न चैनलों पर कार्यक्रम पेश कर चुके हैं और वर्तमान में हमार टीवी में एसोसिएट प्रोड्यूसर है। चैनल के बाद फुर्सत के क्षणों में भोजपुरी के स्तरीय गीतों और गज़लों को आवाज देने में लगे रहते हैं। ईमेल- singerdharmendrasingh@gmail.com
पुरस्कार- प्रथम पुरस्कार, रु 2000 का नग़द पुरस्कार
विशेष- भारतीय समयानुसार 13 जुलाई 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात। गीत सुनें- 64kbps
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संगीत-संयोजन- अखिलेश कुमार
जयशंकर प्रसाद की कविता 'अरुण यह मधुमय देश हमारा' की संगीतबद्ध प्रविष्टियों में से श्रेष्ठतम चुनना जिस प्रकार जजों के लिए मुश्किल रहा था, इसी प्रकार इस बार भी दूसरे स्थान के लिए प्रविष्टि चुनना जजों के लिए काफी मुश्किल रहा। गिरिजेश कुमार द्वारा प्रेषित प्रविष्टि जबकि केवल तानपुरा पर स्वरबद्ध थी, ऑडेसिटी की कच्ची रिकॉर्डिंग थी, फिर भी तीन निर्णायकों ने गिरिजेश के उच्चारण, गायन-क्षमता, मेलोडि और भाव-संप्रेषणियता की बहुत प्रसंशा की। वहीं कृष्ण राज कुमार के गायन में नयापन और संगीत में ताज़ापन की तारीफ सबने खुलकर की। अतः हमने निर्णय लिया कि हम इन दोनों प्रविष्टियों को द्वितीय पुरस्कार देंगे और रु 1000 की जगह रु 2000 की पुरस्कार राशि दोनों में बराबर-बराबर बाँटी जायेगी।
कृष्ण राज कुमार
एक नौजवान संगीतकार और गायक हैं। कृष्ण राज कुमार जो मात्र २२ वर्ष के हैं, और जिन्होंने अभी-अभी अपने B.Tech की पढ़ाई पूरी की है, पिछले १४ सालों से कर्नाटक गायन की दीक्षा ले रहे हैं। इन्होंने हिन्द-युग्म के दूसरे सत्र के संगीतबद्धों गीतों में से एक गीत 'राहतें सारी' को संगीतबद्ध भी किया है। ये कोच्चि (केरल) के रहने वाले हैं। जब ये दसवीं में पढ़ रहे थे तभी से इनमें संगीतबद्ध करने का शौक जगा। पिछली बार इन्होंने गीतकास्ट प्रतियोगिता में प्रथम स्थान बनाया था।
पुरस्कार- द्वितीय पुरस्कार, रु 1000 का नग़द पुरस्कार
विशेष- भारतीय समयानुसार 20 जुलाई 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात। गीत सुनें-
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गिरिजेश कुमार
इलाहाबाद में पले-बढ़े और इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक गिरिजेश कुमार को संगीत का शौक है। प्रयास संगीत समिति, इलाहाबाद में संगीत प्रवीण हैं। इग्नू से पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद पत्रकारिता से ही रोज़ी-रोटी का प्रबन्ध किये हैं और फिलहाल सीएनबीसी-आवाज़ में कार्यरत हैं। गाज़ियाबाद (उ॰प्र॰) में निवास कर रहे हैं।
पुरस्कार- द्वितीय पुरस्कार, रु 1000 का नग़द पुरस्कार
विशेष- भारतीय समयानुसार 13 जुलाई 2009 की सुबह 7:30 बजे डैलास, अमेरिका के एफएम चैनल रेडियो सलाम नमस्ते के 'कवितांजलि' कार्यक्रम में आदित्य प्रकाश से इस गीत पर सीधी बात। गीत सुनें-
64kbps
128kbps
जैसाकि हमने पहले कहा कि इस बार टक्कर बहुत काँटे की थी। हम पाँच अन्य प्रविष्टियों को भी अपने श्रोताओं के समक्ष रख रहे हैं। इनमें से हर प्रविष्टि खास है। हमारे लिए भी विजेता चुनना मुश्किल था, और हमें उम्मीद है कि जब आप इन आठों प्रविष्टियों को सुनेंगे तो आपके लिए भी विजेता चुनना बहुत मुश्किल होगा।
कुमार आदित्य विक्रम
आदित्य पाठक
स्वप्न मंजूषा 'शैल'
संगीत- संतोष 'शैल'
सुनीता यादव
संगीत-संयोजन- रविन्दर प्रधान
मनोहर लेले
विशेष- उपर्युक्त सभी प्रतिभागियों के साक्षात्कार का सीधा प्रसारण आने वाले कवितांजलि कार्यक्रम में किया जायेगा।
इनके अतिरिक्त हम अपराजिता कल्याणी, अम्बरीष श्रीवास्तव, नील श्रीवास्तव, डॉ॰ रमा द्विवेदी, कमल किशोर सिंह, रमेश धुस्सा, पूजा अनिल, कमलप्रीत सिंह, सुनीता चोटिया, दीपाली पंत तीवारी और सुषमा श्रीवास्तव के भी आभारी है, जिन्होंने इसमें भाग लेकर हमारा प्रोत्साहन किया और इस प्रतियोगिता को सफल बनाया। हमारा मानना है कि यदि आप इन महाकवियों की कविताओं को यथाशक्ति गाते हैं, पढ़ते हैं या संगीतबद्ध करते हैं तो आपका यह छोटा प्रयास एक सच्ची श्रद्धाँजलि बन जाता है और एक महाप्रयास के द्वार खोलता है। हम निवेदन करेंगे कि आप इसी ऊर्जा के साथ गीतकास्ट के अन्य अंक में भी भाग लेते रहें।
इस कड़ी के प्रायोजक अमेरिका की अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति के वरिष्ठ सदस्य तथा इसके न्यू यार्क चैप्टर के अध्यक्ष शेर बहादुर सिंह हैं। यदि आप भी इस आयोजन को स्पॉनसर करता चाहते हैं तो hindyugm@gmail.com पर सम्पर्क करें।
आज का 'ओल्ड इज़ गोल्ड' बहुत बहुत ख़ास है दोस्तों। आज मैं आप के लिए एक ऐसा गीत खोज लाया हूँ जिसे आप में से अधिकतर श्रोता आज पहली बार सुन रहे होंगे, क्यूंकि यह गीत न किसी रेडियो चैनल पर आज सुनाई देता है और ना ही टी.वी के परदे पर। आप ने गायक सुबीर सेन का तो नाम सुना ही होगा, जी हाँ, वही सुबीर सेन जिन्होने 'कठपुतली' में "मंज़िल वही है प्यार की राही बदल गये", और फिर 'आस का पंछी' में "दिल मेरा एक आस का पंछी", और 'छोटी बहन' में लता जी के साथ "मैं रंगीला प्यार का राही दूर मेरी मंज़िल" जैसे हिट गीत गाये थे। उनकी आवाज़ हेमन्त कुमार से बहुत मिलती जुलती थी और उनका रेंज कम होने की वजह से उन्हे बहुत ज़्यादा तरह के गीत गाने को नहीं मिले, लेकिन जितने भी गानें उन्होने गाये वो सभी बहुत पसंद किये गये। तो दोस्तों, जो मैं कह रहा था कि गायक सुबीर सेन का नाम तो आप ने सुना ही है, लेकिन क्या आप को यह भी पता है कि उन्होने एक फ़िल्म में संगीत भी दिया था! जी हाँ, १९७२ में इंगलैंड में एक हिंदी फ़िल्म बनी थी 'मिडनाइट', जिसमें उनका संगीत था। इस फ़िल्म का प्रदर्शन भी वहीं पर हुआ था। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' के लिए इसी दुर्लभ फ़िल्म का एक दुर्लभ दोगाना लेकर हम हाज़िर हुए हैं। गीता दत्त और तलत महमूद के गाये इस गीत को सुनकर आप ख़ुशी से झूम उठेंगे, इसमे कोई शक़ नहीं है।
सुबीर सेन ने 'मिडनाइट' फ़िल्म में तलत महमूद और गीता दत्त के अलावा मोहम्मद रफ़ी और आशा भोंसले से भी गानें लिए और इनके साथ साथ ख़ुद भी अपनी आवाज़ मिलायी थी। प्रस्तुत युगल गीत इस वजह से बहुत ख़ास हो जाता है कि यह तलत महमूद और गीता दत्त, दोनो के कैरीयर के अंतिम गीतों में से हैं। हालाँकि तलत साहब ने इसके बाद ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों का सिलसिला जारी रखा, लेकिन फ़िल्मों में उनके गानें आने कम हो गये थे। और जहाँ तक गीता जी का सवाल है, 'मिडनाइट' उनके अंतिम फ़िल्मों में से एक है; इसी साल, यानी कि १९७२ में २० जुलाई के दिन वो इस दुनिया-ए-फ़ानी को हमेशा के लिए छोड़ गयीं थीं। इस गीत का रंग बड़ा ही निराला है। है तो यह गीत बड़ा ही मधुर और सुरीला, लेकिन गाने के संगीत संयोजन में पाश्चात्य प्रभाव साफ़ झलकता है। ७० के दशक के गीतों की शैली में ही बनाया गया है इस गीत को, लेकिन क्यूंकि तलत साहब और गीता जी, दोनों ही ५० और ६० के दशक के गायक रहे हैं, तो उनकी आवाज़ों में इस तरह का संगीत संयोजन बड़ा ही अनोखा बन पड़ा है। गीता दत्त की आवाज़ तो बहुत ही अलग सी जान पड़ती है इस गाने में। प्यार और मिलन के रंगों में डूबे इस गीत को सुनकर कौन कह सकता है कि वो अपने जीवन की किन दुखद पलों से उस वक़्त गुज़र रही थीं! "तुम सा मीत मिला, दिल का फूल खिला, चलता रहे युंही सनम ख़ुशियों का कारवाँ", अपने गीतों के ज़रिये दूसरों को ख़ुशियाँ देनेवाले इन कलाकारों को अपनी निजी ज़िंदगी में कितने दुख झेलने पड़े हैं, यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। लीजिये, सुबीर सेन, तलत महमूद और गीता दत्त की याद में आज का यह गीत सुनिये। अगर आप को इस फ़िल्म से संबंधित और भी कोई जानकारी मालूम हो तो हमारे साथ ज़रूर बाँटियेगा, जैसे कि फ़िल्म के मुख्य कलाकार, निर्देशक, गीतकार, वगैरह।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. कल से मदन मोहन विशेष शुरू हो रहा है तो पहला सूत्र तो मदन साहब ही हैं. 2. राजेंद्र कृष्ण हैं गीतकार यहाँ. 3. मुखड़े में शब्द है -"नींद".
पिछली पहेली का परिणाम - स्वप्न जी, पहेली मुश्किल थी पर भी कहाँ कम थी...एकदम सही जवाब. आप ३० अंकों के साथ शरद को कडा मुकाबला दे रही हैं अब. बधाई. दिशा जी थोडा चूक गयी, कोई बात नहीं....मनु जी आपने सही कहा, पराग जी ठहरे गीता दत्त विशेषज्ञ. शरद जी हो सकता है कि आपने ये गाना न सुना हो अब से पहले, आज सुनिए और बताईये कैसा लगा.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
धीरे-धीरे महफ़िल में निखार आने लगा है। भले हीं पिछली कड़ी में टिप्पणियाँ कम थीं,लेकिन इस बात की खुशी है कि इस बार बस "शरद" जी ने हीं भाग नहीं लिया, बल्कि "दिशा" जी ने भी इस मुहिम में हिस्सा लेकर हमारे इस प्रयास को एक नई दिशा देने की कोशिश की। "दिशा" जी ने न केवल अपनी सहभागिता दिखाई, बल्कि "शरद" जी से भी पहले उन्होंने दोनों सवालों का जवाब दिया और सटीक जवाब दिया, यानी कि वे ४ अंकों की हक़दार हो गईं। "शरद" जी को उनके सही जवाबों के लिए ३ अंक मिलते हैं। इस तरह "शरद" जी के हुए ७ अंक और दिशा जी के ४ अंक। "शरद" जी, आपने "इक़बाल बानो" की जिस गज़ल की बात की है, अगर संभव हुआ तो आने वाले दिनों में वह गज़ल हम आपको जरूर सुनवाएँगे। चूँकि किसी तीसरे इंसान ने अपने दिमागी नसों पर जोर नहीं दिया, इसलिए २ अंकों वाले स्थान खाली हीं रह गए। चलिए कोई बात नहीं, एक एपिसोड में हम ४ अंक से ३ अंक तक पहुँच गए तो अगले एपिसोड यानी कि आज के एपिसोड में हमें २ अंक पाने वाले लोग भी मिल हीं जाएंगे। वैसे "मज़रूह सुल्तानपुरी" साहब का एक शेर भी हैं कि "मैं अकेला हीं चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया।" अब जब इस मुहिम की शुरूआत हो गई है तो एक न एक दिन सफ़लता मिलेगी हीं। इसी दृढ विश्वास के साथ आज की पहेलियों का दौर आरंभ करते हैं। उससे पहले- हमेशा की तरह इस अनोखी प्रतियोगिता का परिचय : २५ वें से २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है,मतलब कि उससे जुड़ी बातें किस अंक में की गई थी। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। तो ये रहे आज के सवाल: -
१) महज़ "नौ" साल की उम्र में "महाराज हरि सिंह" के दरबार की शोभा बनने वाली एक फ़नकारा जो "अठारह" साल की उम्र में चुपके से महल से इस कारण भाग आई ताकि वह महाराज के "हरम" का एक हिस्सा न बन जाए। २) एक फ़नकार जिन्हें जनरल "अयूब खान" ने "तमगा-ए-इम्तियाज", जनरल "ज़िया-उल-हक़" ने "प्राइड औफ़ परफारमेंश" और जनरल "परवेज मु्शर्रफ़" ने "हिलाल-ए-इम्तियाज" से नवाजा। इस फ़नकार की नेपाल के राजदरबार से जुड़ी एक बड़ी हीं रोचक कहानी हमने आपको सुनाई थी।
सवालों का पुलिंदा पेश करने के बाद महफ़िल की और लौटने में जो मज़ा है, उसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। वैसे आज की महफ़िल की बात हीं कुछ अलग है। न जाने क्यों कई दिनों से ये शायर साहब मेरे अचेतन मस्तिष्क में जड़ जमाए बैठे थे। यहाँ तक कि पिछली महफ़िल में हमने जो शेर डाला था, वो भी इनका हीं था। शायद यह एक संयोग है कि शेर डालने के अगले हीं दिन हमें उनकी पूरी की पूरी नज़्म सुनने को नसीब हो रही है। दुनिया में कई तरह के तखल्लुस देखे गए हैं, और उनमें से ज्यादातर तखल्लुस औरों पर अपना वर्चस्व साबित करने के लिए गढे गए मालूम होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी शायर हुए हैं, जो अपने तखल्लुस के बहाने अपने अंदर बसे दर्द की पेशगी करते हैं। ऐसे हीं शायरों में से एक शायर हैं जनाब "क़तील शिफ़ाई"। क़तील का अर्थ होता है,वह इंसान जिसका क़त्ल हुआ हो। अब इस नाम से हीं इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि शायर साहब अपनी ज़िंदगी का कौन-सा हिस्सा दुनिया के सामने प्रस्तुत करना चाहते हैं।२४ दिसम्बर १९१९ को पाकिस्तान के "हरिपुर" में जन्मे "औरंगजेब खान" क़तील हुए अपनी शायरी के कारण तो "शिफ़ाई" हुए अपने गुरू "हक़ीम मोहम्मद शिफ़ा" के बदौलत। बचपन में पिता की मौत के कारण इन्हें असमय हीं अपनी शिक्षा का त्याग करना पड़ा। रावलपिंडी आ गए ताकि किसी तरह अपना और अपने परिवार का पेट पाल सकें। ६० रूपये के मेहनताने पर एक ट्रांसपोर्ट कंपनी में नौकरी कर ली। १९४६ में लाहौर के "अदब-ए-लतिफ़" से जब असिसटेंट एडिटर के पद के लिए न्यौता आया तो खुद को रोक न सके , आखिर बचपन से हीं साहित्य और शायरी में रूचि जो थी। इनकी पहली गज़ल "क़मर जलालाबादी" द्वारा संपादित साप्ताहिक पत्रिका "स्टार" में छपी। इसके बाद तो इनका फिल्मों के लिए रास्ता खुल गया। इन्होंने अपना सबसे पहला गाना जनवरी १९४७ में रीलिज हुई फिल्म "तेरी याद" के लिए लिखा। १९९९ में रीलिज हुई "बड़े दिलवाला" और "ये है मुंबई मेरी जान" तक इनके गानों का दौर चलता रहा। "क़तील" साहब की कई सारी नज़्में और गज़लें आज भी मुशायरों में गुनगुनाई जाती हैं , मसलन "अपने हाथों की लकीरों में बसा ले मुझको", "उल्फ़त की नई मंज़िल को चला तू", "जब भी चाहे एक नई सूरत बना लेते हैं लोग", "तुम पूछो और मैं न बताऊँ ऐसे तो हालात नहीं" और "वो दिल हीं क्या तेरे मिलने की जो दुआ न करे"। क़तील साहब से जुड़ी और भी बातें हैं,लेकिन सब कुछ एकबारगी खत्म कर देना अच्छा न होगा, इसलिए बाकी बातें कभी बाद में करेंगे, अभी आज की फ़नकारा की ओर रूख करते हैं।
"मल्लिका पुखराज" और "फ़रीदा खानुम" के बाद आज हम जिन फ़नकारा को लेकर आज हाज़िर हुए हैं, गज़ल और नज़्म-गायकी में उनका भी अपना एक अलग रूतबा है। यूँ तो हैं वे बांग्लादेश की, लेकिन पाकिस्तान और हिंदुस्तान में भी उनके उतने हीं अनुपात में प्रशंसक हैं,जितने अनुपात में बांग्लादेश में हैं। अनुपात की बात इसलिए कर रहा हूँ क्योंकि हिंदुस्तान की जनसंख्या पाकिस्तान और बांग्लादेश से कहीं ज्यादा है, इसलिए प्रशंसकों की संख्या की तुलना बेमानी होगी। ७० के दशक में जब उन्होंने "दमादम मस्त कलंदर" गाया तो हिंदुस्तानी फिल्मी संगीत के चाहने वालों के दिलों में एक हलचल-सी मच गई। १९७४ में रीलिज हुई "एक से बढकर एक" के टाईटल ट्रैक को गाकर तो वे रातों-रात स्टार बन गईं। कई लोगों को यह भी लगने लगा था कि अगर वे बालीवुड में रूक गई तो मंगेशकर बहनों (लता मंगेशकर और आशा भोंसले) के एकाधिकार पर कहीं ग्रहण न लग जाए। लेकिन ऐसा न हुआ, कुछ हीं फ़िल्मों में गाने के बाद उन्होंने बंबई को छोड़ दिया और पाकिस्तान जा बसीं। वैसे बप्पी दा के साथ उनकी जोड़ी खासी चर्चित रही। "ई एम आई म्युजिक" के लिए इन दोनों ने "सुपर-रूना" नाम की एक एलबम तैयार की, जिसे गोल्ड और प्लैटिनम डिस्कों से नवाज़ा गया। पाकिस्तान के जानेमाने संगीत निर्देशक "नैयर" के साथ उनकी एलबम "लव्स आफ़ रूना लैला" को एक साथ दो-दो प्लैटिनम डिस्क मिले। अब तक तो आप समझ हीं गए होंगे कि हम किन फ़नकारा की बात कर रहे हैं। जी हाँ, हम "रूना लैला" की हीं बात कर रहे हैं, जिन्होंने आज तक लगभग सत्रह भाषाओं में गाने गाए हैं और जिन्हें १५० से भी ज्यादा पुरस्कारों और सम्मानों से नवाज़ा जा चुका है। "रूना लैला" संगीत के क्षेत्र में कैसे उतरीं, इसकी बड़ी हीं मज़ेदार दास्तां है। "रूना" के लिए संगीत बस इनकी बड़ी बहन "दिना" की गायकी तक हीं सीमित था। हुआ यूँ कि जिस दिन "दिना" का परफ़ार्मेंस था,उसी दिन उनकी आवाज़ बैठ गई। आयोजन विफ़ल न हो जाए, इससे बचने के लिए "रूना" को उनकी जगह उतार दिया गया। उस समय "रूना" इतनी छोटी थीं कि सही से "तानपुरा" पकड़ा भी नही जा रहा था। किसी तरह जमीन का सहारा देकर उन्होंने "तानपुरा" पर राग छेड़ा और एक "ख्याल" पेश किया। एक छोटी बच्ची को "ख्याल" पेश करते देख "दर्शक" मंत्रमुग्ध रह गए। बस एक शुरूआत की देर थी ,फिर उन्होंने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। आज वैसा हीं कुछ मनमोहक अंदाज लेकर हमारे सामने आ रही हैं "रूना लैला"। उस नज़्म को सुनने से पहले क्यों न हम आज के शायर "क़तील शिफ़ाई" का एक प्यारा-सा शेर देख लें: तूने ये फूल जो ज़ुल्फ़ों में लगा रखा है इक दिया है जो अँधेरों में जला रखा है
चलिए अब थोड़ा भी देर किए बिना आज की नज़्म से रूबरू होते हैं। इस नज़्म को संगीत से सजाया है "साबरी ब्रदर्स" नाम से प्रसिद्ध भाईयों की जोड़ी में से एक "मक़बूल साबरी" ने। "मक़बूल" साहब और "साबरी ब्रदर्स" की बातें किसी अगली कड़ी में। अभी तो बस ऐसा रक्श कि घुंघरू टूट पड़े: वाइज़ के टोकने पे मैं क्यों रक्श रोक दूँ, उनका ये हुक्म है कि अभी नाचती रहूँ।
मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी जोर से नाची आज, कि घुंघरू टूट गए।
कुछ मुझपे नया जोबन भी था, कुछ प्यार का पागलपन भी था, एक पलक पलक बनी तीर मेरी, एक जुल्फ़ बनी जंजीर मेरी, लिया दिल साजन का जीत, वो छेडे पायलिया ने गीत कि घुंघरू टूट गए।
मैं बसी थी जिसके सपनों में, वो गिनेगा मुझको अपनों में, कहती है मेरी हर अंगड़ाई, मैं पिया की नींद चुरा लाई, मैं बनके गई थी चोर, कि मेरी पायल थी कमजोर कि घुंघरू टूट गए।
धरती पर न मेरे पैर लगे, बिन पिया मुझे सब गैर लगे, मुझे अंग मिले परवानों के, मुझे पंख मिले अरमानों के, जब मिला पिया का गाँव, तो ऐसा लचका मेरा पाँव कि घुंघरू टूट गए।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
रूह बेचैन है एक दिल की अजीयत क्या है, दिल ही __ है तो ये सोज़े मोहब्बत क्या है...
आपके विकल्प हैं - a) शोला, b) दरिया, c) शबनम, d) पत्थर
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी - पिछली महफिल का सही शब्द था -"समुन्दर" और शेर कुछ यूं था-
मैं समुन्दर भी हूँ मोती भी हूँ ग़ोताज़न भी कोई भी नाम मेरा लेके बुला ले मुझको...
दिशा जी ने यहाँ भी बाज़ी मारी. बहुत बहुत बधाई सही जवाब के लिए, आपका शेर भी खूब रहा -
इश्क का समंदर इतना गहरा है जो डूबा इसमे समझो तैरा है...
वाह....
शरद जी ने भी अपने शेर से खूब रंग जमाया -
अपनी बातों में असर पैदा कर तू समन्दर सा जिगर पैदा कर बात इक तरफा न बनती है कभी जो इधर है वो उधर पैदा कर ।
रचना जी ने फरमाया -
समंदर न सही समंदर सा हौसला तो दे ज़िन्दगी से रिश्ता हम को निभाना तो है
तू लिखता चल किनारे पर नाम उनका समंदर की मौजों को उनसे टकराना तो है
तो सुमित जी ने कुछ त्रुटी के साथ ही सही एक बढ़िया शेर याद दिलाया -
मैं एक कतरा हूँ मेरा अलग वजूद तो है, हुआ करे, जो समंदर मेरी तलाश में है....
मनु जी पधारे इस शेर के साथ -
समंदर आज भी लज्ज़त को उसके याद करता है कभी इक बूँद छूट कर आ गिरी थी, दोशे -बादल से...
वाह...कुलदीप अंजुम जी ने तो समां ही बांध दिया ऐसे नायाब शेर सुनकर -
अपनी आँखों के समंदर में उतर जाने दे तेरा मुजरिम हूँ मैं मूझे डूब कर मार जाने दो
गुडियों से खेलती हुयी बच्ची की आंख में आंसू भी आ गया तो समंदर लगा हमें
और
बड़े लोगो से मिलने में हमेशा फासला रखना मिले दरिया समंदर में कभी दरिया नहीं रहता....
पर दोस्तों आप हमसे मिलने में कभी कोई फासला मत रखियेगा.....जो भी दिल में हो खुलकर कहियेगा....इसी इल्तिजा के साथ अगली महफिल तक अलविदा....
अहा! आपसे विदा लेने से पहले पूजा जी की टिप्पणी पर टिप्पणी करना भी तो लाज़िमी है। पिछली बार की उलाहनाओं के बाद पूजा जी ने शेर तो फरमाया, लेकिन यह क्या शब्द हीं गलत चुन लिया । सही शब्द पूजा जी अब तक जान हीं चुकी होंगी।
यह देखिए, पूजा जी ने मनु जी की खबर ली तो मनु जी एक नए शेर के साथ फिर से हाज़िर हो गए, शायद इसी को लाईन हाज़िर होना कहते हैं :) । वैसे मुझे लगता है कि मनु जी को भूलने की बीमारी लग गई है, हर बार अगला शेर डालने समय वे पिछले शेर को भूल चुके होते हैं और हर बार हीं उनका कहना होता है कि "ये भी नहीं के ये शे'र मैंने कब सुनाये हैं"...मनु जी सुधर जाईये........या फिर पता कीजिए कि आपके नाम से शेर कौन डाल जाता है।
चलिए अब बहुत बातें हो गईं। अगली कड़ी तक के लिए "खुदा हाफ़िज़".. प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में एक बहुत ही कमचर्चित गीतकार का ज़िक्र। फ़िल्म 'किनारे किनारे' का ज़िक्र छिड़ते ही जिनका नाम झट से ज़हन में आता है वो हैं संगीतकार जयदेव और गीतकार न्याय शर्मा। जी हाँ, न्याय शर्मा एक ऐसे गीतकार हुए हैं जिन्होने बहुत ही गिनी चुनी फ़िल्मों के लिए गानें लिखे हैं। जिन तीन फ़िल्मों में उन्होने गानें लिखे उनके नाम हैं - 'अंजली', 'किनारे किनारे' और 'हमारे ग़म से मत खेलो'। वैसे उनके लिखे बहुत सारे ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लें मौजूद हैं। उनका लिखा और रफ़ी साहब का गाया सब से मशहूर ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़ल है "काश ख़्वाबों में आ जाओ"। सी. एच. आत्मा और आशा भोंसले ने भी न्याय शर्मा के कई ग़ज़लों को स्वर दिया है। वापस आते हैं फ़िल्म 'किनारे किनारे' पर। "कोई दावा नहीं, फ़रियाद नहीं, तन्ज़ नहीं, रहम जब अपने पे आता है तो हँस लेता हूँ, जब ग़म-ए-इश्क़ सताता है तो हँस लेता हूँ", फ़िल्म 'किनारे किनारे' की यह ग़ज़ल एक फ़िल्मी ग़ज़ल होते हुए भी भीड़ से बहुत अलग है, जुदा है। जयदेव की धुन और संगीत संयोजन उत्तम है, मुकेश के दर्द भरे अंदाज़ के तो क्या कहने, लेकिन उससे भी ज़्यादा असरदार हैं शायर न्याय शर्मा के लिखे बोल जो ज़हन में देर तक रह जाते हैं। ऐसे और न जाने कितने फ़िल्मी और ग़ैर फ़िल्मी गीतों और ग़ज़लों को अपने ख़यालों की वादियों से सुननेवालों के दिलों तक पहुँचाने का नेक काम किया है न्याय शर्मा ने। आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में मुकेश की गायी इसी ग़ज़ल की बारी।
न्याय शर्मा फ़िल्मों के क्षेत्र में उतरे थे सन् १९५७ में जब उन पर कला कुंज के बैनर तले निर्मित और चेतन आनंद निर्देशित फ़िल्म 'अंजली' में संगीतकार जयदेव की धुनों पर गानें लिखने का ज़िम्मा आन पड़ा था। चेतन आनंद, निम्मी, सितारा और शीला रमणी अभिनीत गौतम बुद्ध पर केंद्रित यह फ़िल्म उतनी तो नहीं चली लेकिन न्याय शर्मा का फ़िल्म जगत में पदार्पण ज़रूर हो गया। इसके ६ साल बाद न्याय शर्मा ख़ुद फ़िल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरे और निर्माण किया फ़िल्म 'किनारे किनारे' का। इस फ़िल्म की टीम लगभग वही थी जो 'अंजली' में थी। यानी कि निर्देशक और नायक बने चेतन आनंद, और साथ में थे देव आनंद और मीना कुमारी, तथा संगीतकार जयदेव भी। इस फ़िल्म को बहुत सराहना मिली और फ़िल्म के गीत संगीत को उससे भी ज़्यादा प्यार और सम्मान मिला। मुकेश के गाये प्रस्तुत ग़ज़ल के अलावा मन्ना डे का गाया फ़िल्म का शीर्षक गीत "चले जा रहे हैं किनारे किनारे" और तलत महमूद का गाया "देख ली तेरी ख़ुदाई बस मेरा दिल भर गया" भी बेहद कामयाब रहे। अपनी उत्कृष्ट संगीत के लिए आज भी यह फ़िल्म अच्छे संगीत के क़द्रदानों के दिलों में जीवित है और हमेशा रहेंगे। भले ही आज इस फ़िल्म के गीत ज़्यादा सुनाई नहीं देते कहीं से, लेकिन हमारी दिल की वादियों में ये अक्सर गूँजा करते हैं। १९६३ में दूसरे बड़े बजट के फ़िल्मों की भरमार रही, जैसे कि 'ताज महल', 'दिल एक मंदिर', 'गुमराह', 'प्रोफ़ेसर', 'बंदिनी', 'पारसमणी', 'दिल ही तो है', 'तेरे घर के सामने', 'हमराही', और भी न जाने कितनी ऐसी 'हिट' फ़िल्में थीं उस साल। इन सब चमक धमक वाली फ़िल्मों और उनके हंगामाख़ेज़ गीत संगीत की वजह से फ़िल्म 'किनारे किनारे' थोड़ी सी पीछे ही रह गयी। इस फ़िल्म को कोई भी फ़िल्म-फ़ेयर पुरस्कार तो नहीं मिल पाया, लेकिन जो पुरस्कार सब से कीमती है, वह है श्रोताओं और दर्शकों का प्यार, जो इस फ़िल्म को और इसके गीतों को बेतहाशा मिली। पेश-ए-ख़िदमत है मुकेश की पुर-असर आवाज़ में 'किनारे किनारे' फ़िल्म की यह ग़ज़ल।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. गायक सुबीर सेन हैं इस गीत के संगीतकार. 2. गीता दत्त और तलत महमूद की युगल आवाजों में है ये दुर्लभ गीत. 3. गीत शुरू होता है इस शब्द से -"तुम".
पिछली पहेली का परिणाम - स्वप्न मंजूषा जी बधाई, आपके हुए २८ अंक. ३६ अंक है शरद जी के बढ़िया मुकाबला है आप दोनों में. मनु जी चुप्पी का क्या मतलब हुआ भला, कुछ बोला कीजिये....दिलीप राज नागपाल जी शायद पहली बार पधारे कल...आपका स्वागत है.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
दशकों पहले हेमंत दा ने जब फिल्म "नागिन" के लिए बीन का इस्तेमाल किया था, तब उस धुन ने पूरे देश को जैसे उस लहरा में झूमने को मजबूर कर दिया था. "तन डोले मेरा मन डोले" गीत महीनों तक टॉप चार्ट्स पे काबिज रहा. अब सोचिये आज की तारीख़ में यदि कोई गीत उसी धुन से शुरू हो तो क्यों न आपका मन फिर एक बार झूम उठे, लहरा उठे. कुछ यही तजुर्बा किया है संगीतकार प्रीतम ने नयी फिल्म "लव आजकल" के गीत 'ट्विस्ट' के साथ. यहाँ जो शब्द "ट्विस्ट" है ये भी एक 'रेट्रो फील' देता है. याद कीजिये आर डी बर्मन का क्लासिक सोंग "आओ ट्विस्ट करें..." और उस गीत की मस्ती को. दरअसल ट्विस्ट 60-70 के दशक का मशहूर डांस हुआ करता था जिसमें कमर और पैरों को ख़ास अंदाज़ से हिला कर नाचना पड़ता था. आजकल ये गीत चैनलों पर खूब देखा जा सकता है और यदि अच्छा नृत्य संयोजन और फिल्मांकन किसी गीत को कमियाबी देने में जिम्मेदार होते हैं तो निश्चित ही ये गाना आने वाले दिनों में टॉप चार्ट्स पे होगा इसमें कोई शक नहीं.
नए सुर ताल की इस शृंखला में आज हम आपके लिए यही मचलता हुआ गीत लेकर आये हैं, जिसे सुनकर आप भी झूम उठेंगें. "जब वी मेट" के शानदार गीत आज भी आपको याद होंगें. जाहिर है जब वही टीम फिर एक साथ आये तो उम्मीदें बढ़ ही जायेंगीं. निर्देशक इम्तिआज़ अली, संगीतकार प्रीतम और गीतकार इरशाद कामिल फिर जुड़े हैं एक साथ और बहुत हद तक इस टीम ने उम्मीदों पर खरा काम किया है इस बार भी. नीरज श्रीधर आजकल के सबसे सफल गायक बनते जा रहे हैं, हालाँकि उनकी इस सफलता में संगीतकार प्रीतम का योगदान सबसे अधिक है. ये भी सच है की नीरज और प्रीतम जब भी साथ आये हैं हमेशा हिट साबित हुए हैं. इसी परंपरा में एक नयी कड़ी बन कर जुड़ रहा है "ट्विस्ट" भी. बार बार बजती बीन की धुन मस्ती को और बढा देती है, अफ्रीकन अंदाज़ का रैप तडके का काम करता है.
कोलकत्ता में जन्में प्रीतम को संगीत विरासत में मिला. उनके पिता भी संगीत शिक्षक हैं. मुंबई आने के बाद प्रीतम ने कुछ विज्ञापनों में संगीत दिया. मित्र संगीतकार जीत के साथ मिलकर उन्होंने टीम बनायीं जीत प्रीतम की. इस जोड़ी की पहली फिल्म "तेरे लिए" रही फ्लॉप पर अगली ही फिल्म जो की यशराज बैनर की एक छोटे बजट की फिल्म "मेरे यार की शादी है" कामियाब रही. फिल्म से भी ज्यादा फिल्म का गीत 'शरारा शरारा' हिट हुआ. पर ये जोड़ी जल्दी ही टूट गयी. स्वतंत्र संगीतकार के रूप में भी प्रीतम की कुछ शुरूआती फिल्में नहीं चली, पर धूम की सफलता के बाद उनका सिक्का चल निकला. गैंगस्टर, मेट्रो, धूम-2, सिंग इस किंग, जब वी मेट, किस्मत कनक्शन और हालिया प्रर्दशित न्यू यार्क के संगीत की सफलता के बाद प्रीतम लव आजकल के साथ एक बार फिर सुपर हिट संगीत लेकर हाज़िर हैं.
नीरज श्रीधर ने जम कर गाया है पूरे गीत को. इरशाद कामिल को पंजाबी शब्दों का इस्तेमाल खूब आता है. पंजाबी लहजे में बोले बोले जाने वाले सामान सुनाई देते शब्दों के जुमले पूरे गीत में इस्तेमाल हुए हैं जैसे रिकड़-शिकड़, रौनक-शौनक आदि. कुल मिलकर गीत बार बार सुने जाने लायक और झूमने पर मजबूर करने वाला है. यानी 100 फीसदी हिट. तो सुनिए और ट्विस्ट कीजिये, शब्द कुछ ऐसे हैं -
चलो चलो जी लक लच्कालो, चलो चलो जी मौज मन लो, चलो चलो जी नाचलो गालो पकड़ किसी की रिस्ट, एंड वी ट्विस्ट, वी ट्विस्ट....
सोने मोने मल्ला मल्ली, कर गए टल्ली, आँख वांख सी लड़ गयी, हाँ लड़ गयी... बोतल वोतल खोले बिना, दारू शारू बिन पीते ही चढ़ गयी, हाँ चढ़ गयी.... देखो देखो सब घूम रहा है, देखो देखो जग झूम रहा है, यहाँ वहां दिल ढूंढ रहा है, अब खुशियों की लिस्ट.... एंड वी ट्विस्ट...वी ट्विस्ट...
आवाज़ की टीम ने दिए इस गीत 3.5 की रेटिंग 5 में से. अब आप बताएं आपको ये गीत कैसा लगा? यदि आप समीक्षक होते तो प्रस्तुत गीत को 5 में से कितने अंक देते. कृपया ज़रूर बताएं आपकी वोटिंग हमारे सालाना संगीत चार्ट के निर्माण में बेहद मददगार साबित होगी.
क्या आप जानते हैं ? आप नए संगीत को कितना समझते हैं चलिए इसे ज़रा यूं परखते हैं. प्रीतम का संगीतबद्ध एक गीत है जिसमें जॉन अब्राहिम और अक्षय कुमार एक साथ नज़र आये. कौन सा है वो गीत, क्या आप जानते हैं ?
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं. "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है. आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रुरत है उन्हें ज़रा खंगालने की. हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं. क्या आप को भी आजकल कोई ऐसा गीत भा रहा है, जो आपको लगता है इस आयोजन का हिस्सा बनना चाहिए तो हमें लिखे.
यूँतो आज महिलायें हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहीं हैं, लेकिन जहाँ तक फ़िल्मों में संगीत देने या गीत लिखने का सवाल है, उसमें आज भी पुरुषों का ही बोलबाला है। लेकिन फ़िल्म संगीत के इतिहास में कम से कम दो ऐसी महिला संगीतकारा हुईं हैं जिन्होने फ़िल्म संगीत में बहुत बड़ा योगदान दिया है, फ़िल्मी गीतों के ख़ज़ाने को समृद्ध किया है। एक तो थीं सरस्वती देवी जिन्होने बौम्बे टाकीज़ की बहुत सारी फ़िल्मों में बहुत ही कामयाब संगीत दिया,और दूसरी हैं उषा खन्ना, जिन्होने ६०, ७० और ८० के दशकों में बहुत सारी फ़िल्मों में बहुत ही उम्दा संगीत दिया है। आम तौर पर हम इन दो महिला संगीतकारों के नाम जानते हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि सरस्वती देवी से भी पहले जड्डन बाई (अभिनेत्री नरगिस की माँ) एक संगीतकारा रह चुकीं हैं, जिन्होने सन् १९३५ में 'तलाश-ए-हक़' नामक फ़िल्म में संगीत दिया था! बहरहाल, आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' में हम उषा खन्ना जी का स्वरबद्ध किया हुआ एक बेहद ख़ूबसूरत गीत आपको सुनवाने जा रहे हैं। १९६४ मे बनी फ़िल्म 'शबनम' का यह गीत है मोहम्मद रफ़ी साहब की आवाज़ में। गीतकार हैं जावेद अनवर और गीत है "मैने रखा है मोहब्बत अपने अफ़साने का नाम, तुम भी कुछ अच्छा सा रख लो अपने दीवाने का नाम"। उषा खन्ना, जावेद अनवर और रफ़ी साहब की तिकड़ी का एक और मशहूर गीत रहा है फ़िल्म 'निशान' का, "हाये तबस्सुम तेरा, धूप खिल गयी रात में, या बिजली गिरी बरसात में".
अस्पी इरानी निर्देशित फ़िल्म 'शबनम' के मुख्य कलाकार थे महमूद, विजयलक्ष्मी, शेख मुख्तार और हेलेन। यह एक अरबी 'फ़ैन्टसी फ़िल्म' थी जिसकी कहानी अख़्तर-उल-इमान ने लिखी थी। अगर आप ने 'अरबियन नाइट्स' में ज़ोरो की कहानी पढ़ी है तो बस यही समझ लीजिये कि इस फ़िल्म का अंदाज़ भी कुछ उसी तरह का था। महमूद, जिन्हे हम एक हास्य अभिनेता के रूप में ही ज़्यादा पहचानते हैं, उन्होने कई फ़िल्मों में बहुत संजीदे किरदार भी निभाये हैं। उनकी फ़िल्म 'कुंवारा बाप' तो आपको याद ही है न, जिसमें उन्होने हम सब को ख़ूब रुलाया भी था! 'शबनम' में उन्होने गम्भीर 'ज़िंगारो' का किरदार निभाया था। विजयलक्ष्मी और हेलेन ने भी अपनी अपनी नृत्यकला का बेहद सुंदर प्रदर्शन किया था इस फ़िल्म में। लेकिन सही मायने मे आज अगर यह फ़िल्म याद की जाती है, तो सिर्फ़ इसके गीत संगीत की वजह से। आज के इस प्रस्तुत गीत के अलावा इस फ़िल्म का एक दूसरा मशहूर गीत रहा हैं मुकेश का गाया "तेरी निगाहों पे मर मर गये हम"। इस गीत को हम आगे चलकर इस शृंखला में शामिल करने की कोशिश करेंगे, फ़िल्हाल सुनिये इस फ़िल्म का सबसे चहेता गीत रफ़ी साहब की आवाज़ में। आज का यह अंक समर्पित है फ़िल्म संगीत के महिला संगीतकारों के नाम! गीतकार जावेद अनवर के बारे में हम आपको फिर किसी रोज़ विस्तार में बतायेंगे, सुनिये आज का यह गीत।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
1. गीतकार न्याय शर्मा का कलाम. 2. जयदेव की धुन है इस दर्द भरे गीत में. 3. मुखड़े में शब्द है - "हादसा".
पिछली पहेली का परिणाम - आज भी शरद जी ही आगे रहे. बहुत बढ़िया साहब. ३६ अंक हो गए हैं आपके. पराग जी आपने जावेद साहब के बारे में बहुत बढ़िया जानकारी दी है. मनु जी, स्वप्न जी आप सब से ही तो महफिलें शाद है. अवध लाल जी ने अच्छी जानकारी दी, धन्येवाद.
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
डॉक्टर ए पी जे अब्दुल कलाम के आशीर्वाद का साथ "बीट ऑफ इंडियन यूथ" आरंभ कर रहा है अपना महा अभियान. इस महत्वकांक्षी अल्बम के माध्यम से सपना है एक नया इतिहास रचने का. थीम सोंग लॉन्च हो चुका है, सुनिए और अपना स्नेह और सहयोग देकर इस झुझारू युवा टीम की हौसला अफजाई कीजिये
इन्टरनेट पर वैश्विक कलाकारों को जोड़ कर नए संगीत को रचने की परंपरा यहाँ आवाज़ पर प्रारंभ हुई थी, करीब ५ दर्जन गीतों को विश्व पटल पर लॉन्च करने के बाद अब युग्म के चार वरिष्ठ कलाकारों ऋषि एस, कुहू गुप्ता, विश्व दीपक और सजीव सारथी ने मिलकर खोला है एक नया संगीत लेबल- _"सोनोरे यूनिसन म्यूजिक", जिसके माध्यम से नए संगीत को विभिन्न आयामों के माध्यम से बाजार में उतारा जायेगा. लेबल के आधिकारिक पृष्ठ पर जाने के लिए नीचे दिए गए लोगो पर क्लिक कीजिए.
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आवाज़ पर ताज़ातरीन
संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
पॉडकास्ट कवि सम्मलेन
यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रविवार से गुरूवार शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी होती है उस गीत से जुडी कुछ खास बातों की. यहाँ आपके होस्ट होते हैं आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों का लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
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