Wednesday, September 17, 2008

गए दिनों का सुराग लेकर...आशा जी और गुलाम अली



पूरे कायनात की मौसिकी यहां इस परिवार में बसती है...

चूँकि इस पूरे माह हम बात कर रहे हैं मंगेशकर बहनों की, जिनकी दिव्य आवाजों ने हिन्दी फ़िल्म संगीत का आकाश सजाया है. इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज आवाज़ पर, दिलीप कवठेकर आयें हैं, आशा जी के गुलाम अली साहब के साथ बनी एल्बम "मेराज़-ए-ग़ज़ल" की रिकॉर्डिंग के समय का एक संस्मरण लेकर, पढ़ें और आनंद लें इस बेमिसाल सी ग़ज़ल का.

मेरा बचपन का मित्र है, दीपक भोरपकर.इन्दौर में बचपन में साथ साथ गाना बजाना करते थे. वह तबला बजाता था, मै गाना.

बडे दिनों बाद लगभग २५ वर्षों बाद पुनर्मिलन हुआ तो पता चला की जनाब मुंबई में है, और हृदयनाथ मंगेशकर के साथ कार्यक्रम में बजाते भी है. यह भी पता चला की वो लताजी और आशा जी को तबले पर रियाज़ भी करवाता है.वे दोनो लगभग रोज़ रियाज़ करती थी उन दिनों में भी.

उन दिनों आशा जी का गुलाम अली साहब के साथ जो एलबम निकल रहा था उस के लिए रियाज़ चल रहा था. दीपक उसी में बहुत व्यस्त था. दुर्भाग्यवश ,संभव होते हुए भी मेरा वहां जाने का संयोग नही बन पाया. लेकिन बातों बातों में उन दिनों का यह ताज़ा संस्मरण उसने सुनाया जो आप के लिये प्रस्तुत है.

"गये दिनों का सुराग लेकर, किधर से आया, किधर गया वो..."

इस गज़ल की बंदिश गुलाम अली जी नें आशा जी को पहली बार सुनाई. इसमें सुर संयोजन बडा ही क्लिष्ट है, हरकतें और मुरकीयां भी काफ़ी उतार चढाव में. गुलाम अली जी नें पहले थोडी सादी ही धुन दी यह सोच कि आशाजी को कठिनाई होगी गाने में. बाद में जमा तो थोडी हरकतें बढा देंगे. तो आशाजी नें बडे विनय से कहा कि आपकी जो भी बंदिश होगी मुझे गाने में कोई तकलीफ़ नही होगी. वैसे भी मेरे भाई भी इस तरह की ही धुनें बनाया करते है. मै मेहनत करूंगी ,आप मुझे एक दिन दें बस.


दूसरे दिन जब गुलाम अली वापिस आये तो पाया की आशाजी नें उनकी धुन में ना सिर्फ़ प्रवीणता हासिल कर ली थी, मगर अपनी तरफ़ से कुछ और खास 'चीज़ें' डाल दी, जिससे ग़ज़ल में और जान आ गयी थी. गुलाम अली साहब बेहद खुश हुए. वो भी इस महान गायिका की गायन प्रतिभा के कायल हुए बिना नही रह सके.

उसके बाद जब गुलाम अली जी नें हृदयनाथ मंगेशकर से मिल कर उनसे उनकी कुछ खास धुनें सुनी तो वे उनके भी कायल हो गये.कहने लगे, कि पूरे कायनात की मौसिकी यहां इस परिवार में बसती है!!

गुलाम अली साहब ग़लत नही थे, इस बात की एक बार फ़िर पुष्टि करती है ये ग़ज़ल आशा जी की सुरीली आवाज़ में. आप भी सुनें -



प्रस्तुति- दिलीप कवठेकर

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9 श्रोताओं का कहना है :

manvinder bhimber का कहना है कि -

kya kahain.....lajwaab hai
mood ek dam taaja ho gay ahai

Dr Prabhat Tandon का कहना है कि -

सुमधुर!!

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

नासिर काज़मी की इस ग़ज़ल में इतनी ताज़गी है कि चाहे इसे जितनी बार भी सुनो, जी नहीं भरता। मैं इसे कई बार सुन चुका हूँ।

दिलीप भाई,
इस नायाब प्रस्तुति का शुक्रिया।

राज भाटिय़ा का कहना है कि -

बहुत ही सुन्दर गजल , मजा आ गया
धन्यवाद

Smart Indian का कहना है कि -

अरे वाह दिलीप, हमें पता नहीं था कि तुम्हारी पहुँच ऐसे दैवी सुरों तक है. पढ़कर बहुत अच्छा लगा. ग़ज़ल भी बहुत सुंदर है.

Sajeev का कहना है कि -

क्या ग़ज़ल है भाई, मज़ा आ गया...दिलीप भाई एक बार फ़िर बधाई

Harshad Jangla का कहना है कि -

दिलीपभाई को बहुत बधाई देनी चाहिए |
दिलसे धन्यवाद |

-हर्षद जांगला
एटलांटा , युएसए

सुशील छौक्कर का कहना है कि -

अरे वाह दिल खुश कर दिया।

शोभा का कहना है कि -

बहुत सुंदर ग़ज़ल है. सुनकर बहुत आनंद आया. ऐसी आवाज और ऐसी ग़ज़ल दुर्लभ संयोग है. वाह.

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