इस सप्ताह की ही नही इस माह की सबसे बड़ी संगीत ख़बर है ऐ आर रहमान का गोल्डन ग्लोब जीतना. आज का ये एपिसोड हम इसी बड़ी ख़बर को समर्पित कर रहे हैं. जिस फ़िल्म के लिए ऐ आर को ये सम्मान मिला है उसका नाम है स्लम डॉग मिलेनिअर. मुंबई के एक झोंपड़ बस्ती में रहने वाले एक साधारण से लड़के की असाधारण सी कहानी है ये फ़िल्म, जो की आधारित है विकास स्वरुप के बहुचर्चित उपन्यास "कोश्चन एंड आंसर्स" पर. फ़िल्म का अधिकतर हिस्सा मुंबई के जुहू और वर्सोवा की झुग्गी बस्तियों में शूट हुआ है. और कुछ कलाकार भी यहीं से लिए गए हैं. नवम्बर २००८ में अमेरिका में प्रर्दशित होने के बाद फ़िल्म अब तक ६४ सम्मान हासिल कर चुकी है जिसमें चार गोल्डन ग्लोब भी शामिल हैं. फ़िल्म दुनिया भर में धूम मचा रही है,और मुंबई के माध्यम से बदलते हिंदुस्तान को और अधिक जानने समझने की विदेशियों की ललक भी अपने चरम पर दिख रही है. पर कुछ लोग हिंदुस्तान को इस तरह "थर्ड वर्ल्ड" बनाकर दुनिया के सामने प्रस्तुत करने को सही भी नही मानते. अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि फ़िल्म इसलिए पसंद की जा रही है क्योंकि विकसित देश भारत का यही रूप देखना चाहते हैं. पर लेखक विकास स्वरुप ऐसा नही मानते. उनका कहना है कि फ़िल्म में स्लम में रहने वालों को दुखी या निराश नही दिखाया गया बल्कि उन्हें ख़ुद को बेहतर बनाने और अपने सपनों को सच करने की कोशिश करते हुए दिखाया गया है, यही उभरते हुए भारत की सच्चाई है. फ़िल्म में एक दृश्य है जहाँ नायक का बड़ा भाई उसे वो इलाका दिखाता हुए कहता है जहाँ कभी उनकी झुग्गी बस्ती हुआ करती थी और जहाँ अब गगनचुम्भी इमारतें खड़ी है,कि -"भाई आज इंडिया दुनिया के मध्य में है और मैं (यानी कि एक आम भारतीय) उस मध्य के मध्य में..." यकीनन ये संवाद अपने आप में बहुत कुछ कह जाता है. बहरहाल हम समझते हैं कि ये वक्त बहस का नही जश्न का है. जब "जय हो" और "रिंगा रिंगा" जैसे गीत अंतर्राष्ट्रीय चार्ट्स पर धूम मचा रहे हों, तो शिकायत किसे हो. अमूमन देखने में आता है कि गोल्डन ग्लोब जीतने वाली फिल्में ऑस्कर में भी अच्छा करती हैं, तो यदि अब हम आपके लिए रहमान के ऑस्कर जीतने की ख़बर भी लेकर आयें तो आश्चर्य मत कीजियेगा
जिक्र उनका जो गुमनाम ही रहे
बात करते हैं इस फ़िल्म से जुड़े कुछ अनजाने हीरोस की. रहमान ने अपने इस सम्मान को जिस शख्स को समर्पित किया है वो हैं उनके साउंड इंजिनीअर श्रीधर. ४ बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित श्रीधर, रहमान के साथ काम कर रहे थे उनकी पहली फ़िल्म "रोजा" से, जब स्लम डॉग बन कर तैयार हुई श्रीधर ने रहमान का धन्येवाद किया कि उन्होंने उनका नाम एक अंतर्राष्ट्रीय एल्बम में दर्ज किया, दिसम्बर २००८ में श्रीधर मात्र ४८ वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कह गए और उस अद्भुत लम्हें को देखने से वंचित रह गए जब रहमान ने गोल्डन ग्लोब जीता. पर रहमान ने अपने इस साथी के नाम इस सम्मान को कर इस अनजाने हीरो को अपनी श्रद्धाजन्ली दी. इसी तरह के एक और गुमनाम हीरो है मुंबई के राज. जब निर्देशक डैनी बोयल से पूछा गया कि यदि उन्हें २ करोड़ रूपया मिल जायें तो वो क्या करेंगे, तो उनका जवाब था कि वो अपने पहले सह निर्देशक (फ़िल्म के)जो कि राज हैं को दे देंगें, दरअसल राज पिछले कई सालों से मुंबई के गरीब और अनाथ बच्चों के लिए सड़कों पर ही चलते फिरते स्कूल चलाते हैं और उनकी निस्वार्थ सेवा भाव ने ही डैनी को इस फ़िल्म के लिए प्रेरित किया, चूँकि उनका इन बच्चों के संग उठाना बैठना रहता है फ़िल्म के बेहतर बनाने में उनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही है. राज जैसे लोग आज के इस नए हिंदुस्तान की ताक़त है. जिनका जज्बा आज दुनिया देख रही है. तन्वी शाह की खुशी का कोई ठिकाना नही
स्लम डॉग के लिए "जय हो" गीत गाने वाली चेन्नई की तन्वी शाह आजकल हवाओं से बात कर रही है. मात्र एक गाने ने उन्हें अन्तराष्ट्रीय स्टार बना दिया है. उनके फ़ोन की घंटी निरंतर बज रही है, और इस युवा गायिका के कदम जमीं पर नही पड़ रहे हैं...क्यों न हो. आखिर जय हो ने वो कर दिखाया है जिसका सपना हर संगीतकर्मी देखता है. तन्वी ने कभी अपनी आवाज़ कराउके रिकॉर्डिंग कर अपने एक दोस्त को दी थी, जिसकी सी डी किसी तरह रहमान तक पहुँच गई. और वो इस तरह "होने दो दिल को फ़ना..."(फ़िल्म-फ़ना) की गायिका बन गई. स्लम डॉग से पहले उन्होंने अपनी आवाज़ का जादू "जाने तू...", "गुरु" और "शिवाजी" जैसी फिल्मों के लिए भी ऐ आर के साथ गा चुकी है....पर कुछ भी कहें "जय हो" को बात ही अलग है. मिलिए दिल्ली ६ की इस मसकली से
देसी पुरस्कारों में भी रहमान की ही धूम है हाल ही में संपन्न स्क्रीन अवार्ड में रहमान को जोधा अकबर के लिए सर्वश्रेष्ठ संगीतकार चुना गया. वहीँ फ़िल्म "बचना ऐ हसीनों" के गीत "खुदा जाने..." के लिए इस गीत के गायक (के के), गायिका (शिल्पा राव) और गीतकार अन्विता दास गुप्तन को भी पुरस्कृत किया गया है. इस सप्ताह से हम आपको साप्ताहिक सुर्खियों के साथ साथ एक चुना हुआ सप्ताह का गीत भी सुनवायेंगे. इस सप्ताह का गीत है आजकल सब की जुबां पर चढा हुआ फ़िल्म दिल्ली ६ का - "मसकली....". क्या आप जानते हैं कि कौन है ये "मसकली", मसकली नाम है दिल्ली ६ के एक कबूतर का, जिसके लिए ये पूरा गीत रचा गया है...फ़िल्म के प्रोमोस देख कर लगता है कि राकेश ने "रंग दे बसंती" के बाद एक और शानदार प्रस्तुति दी है...पर फिलहाल तो आप आनंद लें मोहित चौहान (डूबा डूबा फेम) के गाये और प्रसून जोशी के अनोखे मगर खूबसूरत शब्दों से सजे इस लाजवाब गीत का -
कैसी भेड़चाल है...गोल्डन ग्लोब क्या मिला...इस फ़िल्म के संगीत की शान में क़सीदे पढ़ने वाले हर तरफ़ उग आए (मेरा आशय आपके ब्लॉग से नहीं है)... जबकि रहमान का संगीत उनकी दूसरी कई फिल्मों में , इस फ़िल्म से कहीं बेहतर है...स्लमडॉग का संगीत एकदम साधारण है, ऐसा फ़िल्म देखने बाद कह पा रहा हूँ ...
काजल कुमार जी, मुझे आश्चर्य न होता जब रहमान को "रोज़ा" के लिए गोल्डन ग्लोब मिलता और आप यही कहते कि इससे अच्छा तो दूसरे फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया है। हमारे देश में आप जैसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें कमी निकालने के अलावा कुछ नहीं आता।
और हाँ "मेरा आशय आपके ब्लॉग से नहीं है" यह लिखने की क्या जरूरत थी,कसीदे तो हमने भी कसे हैं,फिर आप हमारे लिए अच्छे बना रहना चाहते हैं क्या। रही बात रहमान की तो हर कोई जानता है कि किसकी औकात कसीदे कसे जाने लायक है।
भारत में तो फिल्म रीलिज हीं नहीं हुई, फिर आपने देख भी लिया, पाईरेसी :)
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संगीत का तीसरा सत्र
हिन्द-युग्म पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रयास है जिसने संगीतबद्ध गीत-निर्माण को योजनाबद्ध तरीके से इंटरनेट के माध्यम से अंजाम दिया। अक्टूबर 2007 में शुरू हुआ यह सिलसिला लगातार चल रहा है। इस प्रक्रिया में हिन्द-युग्म ने सैकड़ों नवप्रतिभाओं को मौका दिया। 2 अप्रैल 2010 से आवाज़ संगीत का तीसरा सीजन शुरू कर रहा है। अब हर शुक्रवार मज़ा लीजिए, एक नये गीत का॰॰॰॰
ओल्ड इज़ गोल्ड
यह आवाज़ का दैनिक स्तम्भ है, जिसके माध्यम से हम पुरानी सुनहरे गीतों की यादें ताज़ी करते हैं। प्रतिदिन शाम 6:30 बजे हमारे होस्ट सुजॉय चटर्जी लेकर आते हैं एक गीत और उससे जुड़ी बातें। इसमें हम श्रोताओं से पहेलियाँ भी पूछते हैं और 25 सही जवाब देने वाले को बनाते हैं 'अतिथि होस्ट'।
महफिल-ए-ग़ज़ल
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा-दबा सा ही रहता है। "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" शृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की। हम हाज़िर होते हैं हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपसे मुखातिब होते हैं कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा"। साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा...
ताजा सुर ताल
अक्सर हम लोगों को कहते हुए सुनते हैं कि आजकल के गीतों में वो बात नहीं। "ताजा सुर ताल" शृंखला का उद्देश्य इसी भ्रम को तोड़ना है। आज भी बहुत बढ़िया और सार्थक संगीत बन रहा है, और ढेरों युवा संगीत योद्धा तमाम दबाबों में रहकर भी अच्छा संगीत रच रहे हैं, बस ज़रूरत है उन्हें ज़रा खंगालने की। हमारा दावा है कि हमारी इस शृंखला में प्रस्तुत गीतों को सुनकर पुराने संगीत के दीवाने श्रोता भी हमसे सहमत अवश्य होंगें, क्योंकि पुराना अगर "गोल्ड" है तो नए भी किसी कोहिनूर से कम नहीं।
सुनो कहानी
इस साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम कोशिश कर रहे हैं हिन्दी की कालजयी कहानियों को आवाज़ देने की है। इस स्तम्भ के संचालक अनुराग शर्मा वरिष्ठ कथावाचक हैं। इन्होंने प्रेमचंद, मंटो, भीष्म साहनी आदि साहित्यकारों की कई कहानियों को तो अपनी आवाज़ दी है। इनका साथ देने वालों में शन्नो अग्रवाल, पारुल, नीलम मिश्रा, अमिताभ मीत का नाम प्रमुख है। हर शनिवार को हम एक कहानी का पॉडकास्ट प्रसारित करते हैं।
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यह एक मासिक स्तम्भ है, जिसमें तकनीक की मदद से कवियों की कविताओं की रिकॉर्डिंग को पिरोया जाता है और उसे एक कवि सम्मेलन का रूप दिया जाता है। प्रत्येक महीने के आखिरी रविवार को इस विशेष कवि सम्मेलन की संचालिका रश्मि प्रभा बहुत खूबसूरत अंदाज़ में इसे लेकर आती हैं। यदि आप भी इसमें भाग लेना चाहें तो यहाँ देखें।
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"डंडे के ज़ोर पर उसके पिता उसे अपने साथ तीर्थ यात्रा पर भी ले जाते थे और झाड़ू के ज़ोर पर माँ की छठ पूजा की तैयारियाँ भी वही करता था।" (अनुराग शर्मा की "बी. एल. नास्तिक" से एक अंश) सुनिए यहाँ
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7 श्रोताओं का कहना है :
कैसी भेड़चाल है...गोल्डन ग्लोब क्या मिला...इस फ़िल्म के संगीत की शान में क़सीदे पढ़ने वाले हर तरफ़ उग आए (मेरा आशय आपके ब्लॉग से नहीं है)... जबकि रहमान का संगीत उनकी दूसरी कई फिल्मों में , इस फ़िल्म से कहीं बेहतर है...स्लमडॉग का संगीत एकदम साधारण है, ऐसा फ़िल्म देखने बाद कह पा रहा हूँ ...
बहुत जानकारी दी आपने इस आलेख में....धन्यवाद।
अच्ची जानकारी के साथ एक मीठा गाना। वाह क्या बात है।
काजल कुमार जी,
मुझे आश्चर्य न होता जब रहमान को "रोज़ा" के लिए गोल्डन ग्लोब मिलता और आप यही कहते कि इससे अच्छा तो दूसरे फिल्मों में उन्होंने संगीत दिया है। हमारे देश में आप जैसे लोगों की कमी नहीं है जिन्हें कमी निकालने के अलावा कुछ नहीं आता।
और हाँ "मेरा आशय आपके ब्लॉग से नहीं है" यह लिखने की क्या जरूरत थी,कसीदे तो हमने भी कसे हैं,फिर आप हमारे लिए अच्छे बना रहना चाहते हैं क्या। रही बात रहमान की तो हर कोई जानता है कि किसकी औकात कसीदे कसे जाने लायक है।
भारत में तो फिल्म रीलिज हीं नहीं हुई, फिर आपने देख भी लिया, पाईरेसी :)
-विश्व दीपक ’तन्हा’
गीत सुनकर मजा आ गया ।
dekhiye rahmaan ji ke sabhi geet ek se badhkar ek hain ..sarv shreshth..unke shabdon ki karigari par abhimaan hotaa hai
गीत सुना अच्छा लगा.
धन्यवाद
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