रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत के नए अंक में आपका स्वागत है. आज जो गीत मैं आपके लिए लेकर आया हूँ वो बहाना है अपने एक पसंदीदा संगीतकार के बारे आपसे कुछ गुफ्तगू करने का. "फिर छिडी रात बात फूलों की..." जी हाँ इस संगीतकार की धुनों में हम सब ने हमेशा ही पायी है ताजे फूलों सी ताजगी और खुशबू भी.
१९५२-५३ के आस पास आया एक गीत -"शामे गम की कसम...". इस गीत में तबला और ढोलक आदि वाध्य यंत्रों के स्थान पर स्पेनिश गिटार और इबल बेस से रिदम लेना का पहली बार प्रयास किया गया था. और ये सफल प्रयोग किया था संगीतकार खय्याम ने. खय्याम साहब फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद संगीतकारों में से हैं जिन्होंने गीतों में शब्दों को हमेशा अहमियत दी. उन्होंने ऐसे गीतकारों के साथ ही काम किया जिनका साहित्यिक पक्ष अधिक मजबूत रहा हो. आप खय्याम के संगीत कोष में शायद ही कोई ऐसा गीत पायेंगें जो किसी भी मायने में हल्का हो. फिल्म "शोला और शबनम" के दो गीत मुझे विशेष पसंद हैं - "जाने क्या ढूंढती रहती है ये ऑंखें मुझे में..." और "जीत ही लेंगें बाज़ी हम तुम...". राज कपूर और माला सिन्हा अभिनीत फिल्म "फिर सुबह होगी" के उन यादगार गीतों को भला कौन भूल सकता है -"चीनो अरब हमारा...", "आसमान पे है खुदा..." और इस फिल्म का शीर्षक गीत साहिर और खय्याम को जोड़ी के अनमोल मोती हैं. वो रफी साहब का गाया "है कली कली के लब पर..." हो या लता के जादूई स्वरों में वो खनकती सदा "बहारों मेरा जीवन भी संवारों..." खय्याम साहब के संगीत में सचमुच इतनी मधुरता इतना नयापन था कि शायद इन गीतों को लोग आज से सौ सालों बाद भी सुनेंगें तो भी इतना ही मधुर और नया ही पायेंगें.
खय्याम का मूल नाम सआदत हुसैन था. उन्होंने संगीत की तालीम पंडित अमरनाथ जी से हासिल की. ७० के दशक में व्यावसायिक रूप से उन्हें एक बड़ी सफलता मिली यश चोपडा की फिल्म "कभी कभी" से. इस फिल्म के गीतकार भी साहिर ही थे. यश जी के अलावा उनकी प्रतिभा का सही इस्तेमाल किया निर्देशक कमाल अमरोही साहब ने. "शंकर हुसैन" नाम की फिल्म के वो यादगार गीत भला कौन भूल सकता है , -"कहीं एक नाज़ुक...", "आप यूँ फासलों से..." और "आपने आप रातों में...". क्या लाजवाब गीत हैं ये. नूरी, बाज़ार, त्रिशूल , थोडी सी बेवफाई, और उमराव जान जैसी फिल्मों में उनका संगीत बेमिसाल है. "ये क्या जगह है दोस्तों...." "इन आँखों की मस्ती के..." जैसी ग़ज़लें फिल्म संगीत के खजाने की अनमोल धरोहर हैं. ग़ज़लों के बारे में खुद खय्याम साहब ने एक बार फ़रमाया था -"ग़ज़ल बड़ी हसीं और नाज़ुक चीज़ है. यहाँ भी मैंने ट्रडिशनल ग़ज़ल से हटकर कुछ कहने की कोशिश की. शायर ने क्या कहा है शेर के किस लफ्ज़ पर स्ट्र्स देना है. छोटी छोटी तान मुरकी हो लेकिन शेर खराब न हो आदि ख़ास मुद्दों पर ध्यान दिया.ग़ज़ल जैसी हसीं चीज़ में "क्रूड" ओर्केस्ट्रा का इस्तेमाल ज़रूरी नहीं इसलिए मैंने सितार, सारंगी, बांसुरी, तानपुरा स्वरमंडल के साथ धुनें बांधी.".
खय्याम साहब ने बहुत कम फिल्मों में काम किया है पर जितना भी किया गजब का किया. गैर फ़िल्मी संगीत का भी एक बड़ा खजाना है खय्याम के सुर संसार में. इन पर हम महफिले-ग़ज़ल में हम विस्तार से चर्चा करते रहेंगें. आज तो हम आपके लिए कुछ और लेकर आये हैं. उपर दी गयी सूची में यदि आप गौर से देखें तो एक नाम "मिस्सिंग" है. वैसे तो जानकार उमराव जान को उनका सबसे बेहतर काम मानते हैं पर व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनके "रजिया सुलतान" के गाने सबसे अधिक पसंद हैं. कोई ख़ास कारण नहीं है, क्योंकि खय्याम साहब के लगभग सभी गीत मेरे प्रियकर हैं, पर पता नहीं क्यों रजिया सुलतान के गीतों में एक अलग सा ही नशा मिलता है, हर बार जब भी इन्हें सुनता हूँ. लता जी की दिव्य आवाज़ के अलावा एक "चमकती हुई तलवार" सी आवाज़ भी है इन गीतों में, जी हाँ आपने सही पहचाना- ये हैं कब्बन मिर्जा साहब.
कब्बन मिर्जा साहब मुंबई ऑल इंडिया रेडियो से जुड़े हुए थे, जब कमाल अमरोही साहब ने उन्हें रजिया सुलतान में गायक चुना. पर जाने क्या वजह रही कि कब्बन के बहुत अधिक गीत उसके बाद नहीं सुनने को मिले. बहरहाल रजिया सुलतान में उनके गाये दोनों ही गीत संगीत प्रेमियों के जेहन में हमेशा ताजे रहेंगे. रजिया सुलतान के "ए दिले नादान" और "जलता है बदन" तो आप अक्सर सुनते ही रहते हैं. आज सुनिए कब्बन मिर्जा की आवाज़ में वो दो गीत जो कहीं रेडियो आदि पर भी बहुत कम सुनने को मिलता है. "आई जंजीर की झंकार..." और "तेरा हिज्र मेरा नसीब है...." दो ऐसे गीत हैं, जो कलेजे को चीर कर गुजर जाते हैं. उस पर कब्बन की आवाज़ जैसे दूर सहराओं से कोई दिल निकालकर सदा दे रहा हो. एक और गीत है इसी फिल्म में लता की आवाज़ में "ख्वाब बन कर कोई आएगा तो नीद आयेगी...." वाह...क्या नाज़ुक मिजाज़ है....बिलकुल वैसे ही है इस गीत का संयोजन जैसा कि "कहीं एक नाज़ुक सी लड़की..." का है. कोई भी वाध्य अतिरिक्त नहीं. सब कुछ नापा तुला....और भी दो गीत हैं इस फिल्म में जो यकीनन आपने बहुत दिनों से नहीं सुना होगा. दोनों ही उत्तर भारत के लोक धुनों पर आधारित विवाह के गीत हैं -"हरियाला बन्ना आया रे..." और "ए खुदा शुक्र तेरा...शुक्र तेरा..".
तो चलिए दोस्तों इस रविवार सुबह की कॉफी का आनंद खय्याम साहब और कब्बन मिर्जा के साथ लें, फिल्म रजिया सुलतान के इन गीतों को सुनकर -
आई ज़ंजीर की झंकार....(कब्बन मिर्जा)
तेरा हिज्र मेरा नसीब है...(कब्बन मिर्जा)
ख्वाब बन कर कोई आएगा... (लता)
ए खुदा शुक्र तेरा...
हरियाला बन्ना आया रे...
"रविवार सुबह की कॉफी और कुछ दुर्लभ गीत" एक शृंखला है कुछ बेहद दुर्लभ गीतों के संकलन की. कुछ ऐसे गीत जो अमूमन कहीं सुनने को नहीं मिलते, या फिर ऐसे गीत जिन्हें पर्याप्त प्रचार नहीं मिल पाया और अच्छे होने के बावजूद एक बड़े श्रोता वर्ग तक वो नहीं पहुँच पाया. ये गीत नए भी हो सकते हैं और पुराने भी. आवाज़ के बहुत से ऐसे नियमित श्रोता हैं जो न सिर्फ संगीत प्रेमी हैं बल्कि उनके पास अपने पसंदीदा संगीत का एक विशाल खजाना भी उपलब्ध है. इस स्तम्भ के माध्यम से हम उनका परिचय आप सब से करवाते रहेंगें. और सुनवाते रहेंगें उनके संकलन के वो अनूठे गीत. यदि आपके पास भी हैं कुछ ऐसे अनमोल गीत और उन्हें आप अपने जैसे अन्य संगीत प्रेमियों के साथ बाँटना चाहते हैं, तो हमें लिखिए. यदि कोई ख़ास गीत ऐसा है जिसे आप ढूंढ रहे हैं तो उनकी फरमाईश भी यहाँ रख सकते हैं. हो सकता है किसी रसिक के पास वो गीत हो जिसे आप खोज रहे हों.
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8 श्रोताओं का कहना है :
सभी गीत विशिष्ट और मधुर हैं। कृपया बताएँ कि क्या इन्हें सेव भी किया जा सकता है?
"रजिया सुलतान" का संगीत सचमुच बेमिसाल है. अफ़सोस की बात है कि उन दिनों इसकी कैसेट ढूँढने के लिए मुझे कई राज्यों की ख़ाक छाननी पडी थी. याकूत के व्यक्तित्व के लिए खय्याम साहब ने कब्बन मिर्जा के रूप में बहुत ही माकूल आवाज़ चुनी थी. दुःख है कि वह आवाज़ दोबारा सुनने को नहीं मिली. आज जब हर बेसुरा किसी न किसी बहाने से प्रसिद्ध हो जाता है, ऐसे गायकों का न चल पाना अखरता है.
बहुत ही उम्दा ब्लॉग. यहाँ फेरा लगता रहेगा.
गिरिजेश
http://girijeshrao.blogspot.com
आवाज पर आज शाम की चाय के साथ आये हम ,सुबह से कुछ मसरूफियत थी ,घर में एक पूजा थी ,इसलिए ,पर तबियत खुश हो गयी ,जितना भी शुक्रिया कहे कम ही होगा ,
नायाब पेशकश ,चाय का मजा दुगना हो गया ,|
पर कब्बन मिर्जा जी के बारे में अफ़सोस भी है ,और गुरूर भी है ,कि लाखों गीत गाये जाने पर भी लोगों को वो मुकाम हासिल नहीं हो पाता जो कब्बन जी को कुछ चुनिन्दा
गानों को गाकर मिला है |
शुक्रिया इन गानों को हम सब की नज़र करने का
माफ़ करें, कब्बन मिर्ज़ा नें पहला गाना जितनी सुमधुर धुन है, उस हिसाब से गाया नहीं, बल्कि दूसरे गाने में अछा गाया है.
गने सुनवाने का शुक्रिया!!!
bahut bahut achchha lagaa padhkar
कब्बन मिर्जा जी की आवाज़ आज पहली बार सुनी क्या गजब की पीडा है कशिश है शब्दों मे काश मैंने पेल्हे सुना होता चिकागो में रत की १२ २३ का समय है न चाहते
हुए भी चाय पीने का आनन्द ही कुछ और
कहते है की ग़ालिब का अंदाजे बयाँ और
आवाज़ के दुनिया के दोस्तों
नमस्कार
आपके दुवारा गीत भूले बिसरे गीत सुन कर अमिन सयानी जी याद आ गये हर इतवार की रात या हर सुबह जवाँ गीत के गीत प्रस्तुत करते थे मल्लिका पुखराज जी गाई गजल.अभी तो मै जवान हूँ और सहगल जी की लोरीसोजा राज कुमारी सोजा
आप एक गीत १९४४ की जवार भाटा जो की दिलीप साहिब की चित्र है और गीत के बोल है साँझ की बेला पंछी अकेला अरुण जी की मधुर आवाज़ में है पॉडकास्ट में सुनवा दीजीये मेरे पास था कहीं खो गया है
आभार
चिकागो से
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