Friday, July 10, 2009

मैं ख्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है....... "बेग़म" की महफ़िल में "सलीम" को तस्लीम



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #२८

रात कुछ ऐसा हुआ जैसा होता तो नहीं, थाम कर रखा मुझे मैं भी खोता तो नहीं - आने वाली फिल्म "कमीने" में लिखे "गुलज़ार" साहब के ये शब्द हमारी आज की महफ़िल पर बखूबी फिट हो रहे हैं। अहा! आज की महफ़िल नहीं, दर-असल पिछली महफ़िल के जवाबों के साथ ऐसा हीं कुछ हुआ है, जो अमूमन होता नहीं है। हमारे "शरद" साहब, जिनका बाकी सभी लोहा मानते हैं और एक तरह से हमारी मुहिम को उन्होंने हीं थाम कर रखा है, वही भटकते हुए दिखे। पहले प्रयास में बस एक सही जवाब, क्या जनाब! आपसे ऐसी तो उम्मीद नहीं थी हमारी। और यह देखिए आपने गलत रास्ता दिखाया तो कुलदीप भाई भी उसी रास्ते पर चल निकले। यह अलग बात है कि आप दोनों ने "दिशा" जी का सही जवाब आने के बाद अपनी टिप्पणियाँ हटा दी,लेकिन हमारी पैनी निगाहों से आप दोनों बच न सके। हमने आपकी कारस्तानी पकड़ हीं ली और भाईयों "ऐसा भी तो नहीं होता" कि आप अपने जवाब हटा लें। अब चूँकि पहला सही जवाब "दिशा" जी ने दिया, इसलिए एक बार फिर से ४ अंक उन्हीं के हिस्से में जाते हैं। दूसरा सही जवाब देने के लिए "शरद" जी को पुनश्च ३ अंकों से नवाज़ा जाता है। कुलदीप जी आप दुबारा आए और इस बार सही जवाब के साथ आए, लेकिन चूँकि आपने एपिसोड नंबर्स नहीं दिए, इसलिए कायदे से तो आपको कुछ भी नहीं मिलना चाहिए था, लेकिन आपके परिश्रम से खुश होकर हम आपको १ अंक देते हैं। इन तीनों महारथियों के अलावा किसी ने भी सवालों का जवाब देना सही नहीं समझा। कोई बात नहीं, "वो सारे चुप जो बैठे हैं कभी तो नींद तोड़ेंगे, हमारे दिल की दस्तक को, भला कैसे वो मोड़ेंगे।" हाँ तो तीन कड़ियों के बाद अंकों का गणित कुछ इस तरह है: शरद जी: १० अंक, दिशा जी: ८ अंक और कुलदीप जी: १ अंक। अब आज के सवालों की ओर रूख करते हैं। २९ वें अंक तक हम हर बार आपसे दो सवाल पूछेंगे जिसके जवाब उस दिन के या फिर पिछली कड़ियों के आलेख में छुपे होंगे। हर बार पहला सही जवाब देने वाले को ४ अंक, उसके बाद ३ अंक और उसके बाद हर किसी को २ अंक मिलेंगे। जवाब देने वाले को यह भी बताना होगा कि "अमुक" सवाल किस कड़ी से जुड़ा है,मतलब कि उससे जुड़ी बातें किस अंक में की गई थी। इन ५ कड़ियों में जो भी सबसे ज्यादा अंक हासिल करेगा, वह महफ़िल-ए-गज़ल में अपनी पसंद की तीन गज़लों की फरमाईश कर सकता है, जिसे हम ३०वीं से ३५वीं कड़ी के बीच में पेश करेंगे। तो ये रहे आज के सवाल: -

१) "मेरी दादी अनवरी बेगम पारो, दादा रफ़ीक़ गज़नवी, अम्मी ज़रिना और खुद मेरा फ़िल्मों से गहरा नाता रहा है और मेरे लिए खुशी की बात है कि मेरी बेटी ज़रीना भी इसी क्षेत्र में अपना भविष्य आजमाने जा रही है।" -ये बोल जिन फ़नकारा के हैं उन्होंने अपनी संगीत यात्रा की शुरूआत "ए बी ए" ज़ौनर के गानों से की थी।
२) १९७८ में मुजफ़्फ़र अली की एक फ़िल्म के लिए जयदेव के संगीत निर्देशन में इन्होंने अपना पहला गाना गाया। लेकिन इन्हें सही प्रसिद्धि १८ साल बाद मिली, जब मुंबई के एक फ़नकार के साथ इनके फ़्युजन एलबम को लोगों ने काफ़ी पसंद किया।


चूँकि आजकल बराबरी का दौर है, इसलिए हमने भी सोचा कि क्यों ना संगीत में भी बराबरी को प्रोत्साहन दें और इसलिए ताबड़तोड़ गायिकाओं पर आधारित अंक पेश करने लगें। यह लगातार चौथा अंक है, जिसमें किसी फ़नकारा की बात की जा रही है। इससे पहले "मल्लिका पुखराज","फ़रीदा खानुम" और "रूना लैला" की गलाकारी का हमने आनंद लिया है। अरे नहीं, हम मज़ाक कर रहे थे। दर-असल इन सारी हस्तियों की बात हीं कुछ ऐसी है, कि बिना किसी तैयारी या बिना किसी पक्षपात के हम हर बार किसी न किसी फ़नकारा की गज़ल या नज़्म को हीं चुने जा रहे हैं। अब अगर आज की फ़नकारा की बात करें तो यकीनन ये भी बाकी सब जितना हीं रूतबा और इल्म रखती हैं, लेकिन न जाने कैसे इनका इतना नाम न हुआ, जितना बाकियों का है। लोग बस "रिफ़्युजी कैम्प्स" की बातें करते हैं या फिर अपने को औरों से अलहदा साबित करने के लिए दर्शाते हैं कि वो भी कभी "रिफ़्युजी कैम्प" में रहे हैं,लेकिन इन फ़नकारा की किस्मत देखिए कि इनकी संगीत-यात्रा को आकाश उन्हीं कैम्प्स में मिला। उन कैम्प्स में ना तो बिजली थी और ना हीं पानी, लेकिन इनके परिवार वालों के पास इनकी आवाज़ थी, जिसके बदौलत ये लोग अपनी ज़िंदगी को जीने का बहाना दिए जा रहे थे। यह बात तब की है, जब पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश में तब्दील हो रहा था और कई लोगों को खुद को बचाने के लिए पाकिस्तान की ओर जाना पड़ा था। यह बात १९७१ की है। वैसे इनके साथ यह पहली मर्तबा नहीं हो रहा था। इससे पहले हिन्दुस्तान के बँटवारे के वक्त इन्हें पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद से पूर्वी पाकिस्तान की ओर रूख करना पड़ा था। तो इस तरह इन्हें बँटवारे का दर्द दो बार सहना पड़ा। तो हाँ, बांग्लादेश से पाकिस्तान आई "नादिरा" को उर्दू की तनिक भी जानकारी नहीं थी, लेकिन गाने का शौक़ था(अजी शौक क्या, इन्होंने ख़्वाजा गुलाम मुस्तफ़ा वरसी से बाक़ायदा मौशिकी की तालीम ली है) इसलिए नई जुबां तो सीखनी हीं थी। नई जुबां सीखने के दरम्यान इन्होंने महसूस किया कि अगर उर्दू के आसान अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए जाएँ और वैसे हीं गज़ल गाए जाएँ,जिन्हें समझना आसान हो तो सुनने वालों के दिलों में पैठ बनाने में वक्त नहीं लगेगा.... और यही हुआ। १९७६ में इनका जब पहला गज़लों का एलबम रीलिज़ हुआ तो सारे रिकार्ड़्स हाथों-हाथ बिक गए। अपनी रोयाल्टी लेने ये जब रिकार्ड कंपनी के आफ़िस गईं तो "चेक़" पर लिखी रक़म ने इन्हें सकते में डाल दिया। ७००० रूपये की रकम देख इन्हें खुद पर यकीन नहीं हुआ। लेकिन जब इन्हें कहा गया कि यह ७००० नहीं बल्कि सत्तर हज़ार है तो इनके तो होश हीं उड़ गए। उस दौर में जिन्हें सत्तर हज़ार की रोयाल्टी मिले ,उनके स्तर को उनकी काबिलियत को आसानी से समझा और जाना जा सकता है। वैसे अपने चाहने वालों के बीच ये "नादिरा" नाम से नहीं जानी जाती, बल्कि इन्हें "मुन्नी बेग़म" कहलाना ज्यादा पसंद है। यह नाम सुनकर तो आप इन्हें पहचान हीं गए होंगे। २३ मार्च २००८ को पाकिस्तान सरकार ने इन्हें "प्राईड आफ़ परफ़ार्मेंश" से नवाज़ा थां। १९७६ से आज तक ४२ एलबम रीलिज कर चुकीं इन फ़नकारा को आवाज़ परिवार का सलाम!

चलिए अब फ़नकारा से आगे बढते हैं और आज के शायर की ओर रुख करते हैं। आज की गज़ल उस शायर की मक़बूलियत का सबूत भी है और सबब भी। हमने पिछली किसी कड़ी में यह कहा था कि "कुछ शायर ऐसे होते हैं, जो अपनी किसी खास गज़ल के कारण अमर हो जाते हैं, फिर वह गज़ल उनकी परछाई बन जाती है और वो उस गज़ल की।" ऐसा हीं कुछ मुद्दा यहाँ भी है। "मन आँगन में शहर बसा है", "चलो उन मंज़रों के साथ चलते हैं", "उसे कहना कभी मिलने चला आए", "तुम हीं अच्छे थे", "पहले पहल तो ख़्वाबों का दम भरने लगती हैं", "इस बार दिल ने तुझसे ना मिलने की ठानी है", "तुम ने सच बोलने की जुर्रत की", "ये लोग अब जि़स से इनकार करना चाहते हैं", "ये और बात कि खुद को बहुत तबाह किया", "कहीं तुम अपनी किस्मत का लिखा तब्दील कर लेते" - ये सारी कुछ गज़लें हैं, जो उनके नाम पर दर्ज हैं, लेकिन जिस गज़ल ने उन्हें अर्श तक पहुँचाया वो थी- "मैं ख़्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है।" आप हैरत में पड़ गए ना, पहले पहल मैं भी हैरत में पड़ गया था क्योकि इन्हीं अल्फ़ाज़ों से सजा एक नज़्म "तू प्यार है किसी और की, तुझे चाहता कोई और है", हमारे यहाँ गूँजा करता है। क्या कीजिएगा....हमारी नकल करने की आदत गई नहीं है। दिन में दस बार क्यों न हम पाकिस्तान को भला-बुरा कहें,लेकिन गाने चुराने के लिए उसी की ओर हाथ पसारकर खड़े हो जाते हैं। हाँ तो जहाँ तक इस गज़ल की बात है, इसे न सिर्फ़ "मुन्नी बेग़म" ने गाया है, बल्कि कई सारे फ़नकारों ने इस पर अपना गला साफ़ किया है, यहाँ तक कि उस्ताद नुसरत फ़तेह अली खान साहब की भी आवाज़ इस गज़ल को नसीब हुई है। लीजिए इतनी बात हो गई,लेकिन अब तक हमने उस शायर की शिनाख्त नहीं की। तो भाईयो, जनाब "सलीम कौसर" साहब हीं वो खुशकिस्मत शायर है। इससे पहले कि हम आज की गज़ल का लुत्फ़ उठायें,क्यों न इन साहब का हीं लिखा एक शेर देख लिया जाए:

जाने तब क्यों सूरज की ख्वाहिश करते हैं लोग,
जब बारिश में सब दीवारें गिरने लगती हैं।


लगे हाथों पेश है,आज की गज़ल। जहां-भर का दु:ख-दर्द भुलाकर इस गज़ल की रूमानियत और रूहानियत का आनंद लें:

मैं ख़्याल हूँ किसी और का, मुझे सोचता कोई और है,
सरे-आईना मेरा अक्स है, पशे-आईना कोई और है।

मैं किसी की दस्ते-तलब में हूँ तो किसी की हर्फ़े-दुआ में हूँ,
मैं नसीब हूँ किसी और का, मुझे माँगता कोई और है।

अजब ऐतबार-ओ-बेऐतबारी के दरम्यान है ज़िंदगी,
मैं क़रीब हूँ किसी और के, मुझे जानता कोई और है।

तेरी रोशनी मेरे खद्दो-खाल से मुख्तलिफ़ तो नहीं मगर,
तू क़रीब आ तुझे देख लूँ, तू वही है या कोई और है।

तुझे दुश्मनों की खबर न थी, मुझे दोस्तों का पता नहीं,
तेरी दास्तां कोई और थी, मेरा वाक्या कोई और है।

वही मुंसिफ़ों की रवायतें, वहीं फैसलों की इबारतें,
मेरा जुर्म तो कोई और था,पर मेरी सजा कोई और है।

कभी लौट आएँ तो पूछना नहीं, देखना उन्हें गौर से,
जिन्हें रास्ते में खबर हुईं,कि ये रास्ता कोई और है।

जो मेरी रियाज़त-ए-नीम-शब को ’सलीम’ सुबह न मिल सकी,
तो फिर इसके मानी तो ये हुए कि यहाँ खुदा कोई और है।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए ___ का शहर है, ज़रा फासले से मिला कीजिये...

आपके विकल्प हैं -
a) शौक, b) शऊर, c) सलीके, d) मिजाज़

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था -"शोला" और शेर कुछ यूं था -

रूह बेचैन है एक दिल की अजीयत क्या है,
दिल ही शोला है तो ये सोज़े मोहब्बत क्या है...

कैफी साहब के इस शेर को सही पहचाना सबसे पहले शरद जी ने...बधाई जनाब....आपका शेर कुछ यूं था -

शोला था जल बुझा हूँ हवाएं मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएं मुझे न दो

कुलदीप अंजुम जी, रंजिश ही सही भी किसी दिन अवश्य सुनेंगें हम इस महफ़िल में रुना की आवाज़ में. आपने तो शेरों की झडी ही लगा दी...वाह कुछ शेर यहाँ पेश है -

ज़िन्दगी एक सुलगती सी चिता है "साहिल"
शोला बनती हैं ना यह बुझ के धुंआ होती हैं

ऐ हुस्ने बेपरवाह तुझे शबनम कहूँ शोला कहूँ
फूलों में भी शोखी तो है किसको मगर तुझसा कहूँ

और ...
कभी गुंचा कभी शोला कभी शबनम की तरह
लोग मिलते हैं बदलते हुए मौसम की तरह...

कतील शिफाई और इफ्तिखार आरिफ की खूब याद दिलाई आपने....शुक्रिया. मनु जी क्या खूब बात याद दिलाई आपने -

जंग रहमत है के लानत ये सवाल अब न उठा
जो सर पे आ गयी है जंग तो रहमत होगी
गौर से देखना जलते हुये शोलों का जलाल
इसी दोज़ख के किसी कोने में जन्नत होगी..

और

देख के आहंगर की दुकां में
तुंद हैं शोले, सुर्ख है आहन
खुलने लगे कुफलों के दहाने
फैला हर इक ज़ंजीर का दामन

वाह, दिशा जी, पूजा जी, सुमित जी, अदा जी आप सब ने भी महफिल में खूब हाजिरी दी और बढ़िया रंग जमाया. विदा लेने से पहले रचना जी का ये शेर मुलहाज़ा फरमायें -

भूख के शोले जब पेट जलाते हैं
हम बच्चों को उम्मीद खिलाते हैं...

रचना जी सही कहा आपने, हम सब को मिलकर आने वाली पीढी के लिए इन हालातों को बदलना होगा...ऐसा हम कर पायेंगें इसी उम्मीद के साथ अगली महफिल तक के लिए दीजिये इजाज़त.

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा



ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.


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21 श्रोताओं का कहना है :

स्वप्न मञ्जूषा का कहना है कि -

कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नए ___ का शहर है, ज़रा फासले से मिला कीजिये...

d) मिजाज़

स्वप्न मञ्जूषा का कहना है कि -

मिज़ाज-ए-गरामी,दुआ है आपकी
बड़ी ख़ूबसूरत अदा है आपकी

Disha का कहना है कि -

१) सलमा आगा कडी-२१
२) हरिहरण कडी-१६

शरद तैलंग का कहना है कि -

शे’र का सही शब्द मिजाज़ ही है तथा प्रश्नों का जवाब
१. सलमा आगा एपीसोड २१
२. हरिहरण एपीसोड १६ है

शरद तैलंग का कहना है कि -

आजकल हमारे शहर में ११ बजे तक पॊवर कट चल रहा है इसलिए जवाब देने में कुछ देरी हो रही है ।
शेर अर्ज़ है :
कहिए जनाब आपका कैसा मिजाज़ है ?
पैमाना भर चुका है छलकने की देर है ।

Disha का कहना है कि -

सुना है मौसम ने अपना मिज़ाज बदला है
तभी तो कहीं पे बाढ़ और कहीं पे सूखा है

राज भाटिय़ा का कहना है कि -

जबाब नही आप की इस मह्फ़िल का अजी जाने को दिल नही करता...

Manju Gupta का कहना है कि -

जावाब है - मिजाज
मोसम का मिजाज आशिकाना है .
मेघा सन्देश पिया को दे आना

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

जी सही शब्द मिजाज है
और ये बशीर बद्र साहब का बहुत ही मशहूर शेर है

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

लोग कहते है की शायराना मिजाज़ तो है
जरुर इश्क में दगा तुमने पाया होगा

वो ही मिजाज़ वो ही चाल है ज़माने की ,
हमें भी हो गयी आदत फरेब खाने की !

खबर ही नहीं हमें आशिकी में मिजाज़ कैसे होते है
जो छिप गयी है सीने में ,कही जवानी तो नहीं है

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

भाई अब हम क्या जबाब दें
हम फिर लेट हो गए
हमेशा देर से ही आ पाते हैं

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

तनहा जी अब आप कुछ भी कहें
बशीर साहब का जिक्र हो और ये शेर ना अर्ज़ हो

लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलने में
फाख्ता की मजबूरी की ये भी तो कह नहीं सकती
की कौन सांप रखता है उसके आशियाने में

कुलदीप "अंजुम" का कहना है कि -

मुन्नी बेग़म की आवाज मेंकुछ गजलें जो बहुत ही लोकप्रिय हैं

ऐ मेरे हमनशी चल कहीं औरचल
इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं

इसका म्यूजिक कुछ अलग सा है मूझे बहुत ही पसंद है

भूलने वालो से कह दो ...................
आवारगी में हद से गुजर जाना चाहिए..................
और एक बार मुस्कुरा दो .....................

वाह क्या कशिश है आवाज़ में

शरद तैलंग का कहना है कि -

मेरे एक मित्र प्रसिद्ध ग़ज़लकार चाँद ’शेरी’ की एक ग़ज़ल पेश है :
शहरे-वफ़ा का आज ये कैसा रिवाज है
मतलबपरस्त अपनों का ख़ालिस मिजा़ज है ।
फुटपाथ पर ग़रीबी ये कहती है चीख कर
क्यूँ भूख और प्यास का मुझ पर ही राज है ।
जलती रहेंगीं बेटियाँ यूँ ही दहेज पर
क़ानून में सुबूत का जब तक रिवाज है ।
शायद इसी का नाम तरक्की है दोस्तो,
नंगी सड़क पे हर बहू-बेटी की लाज है ।
उन रहबरों का हाल न ’शॆरी’ से पूछिए,
खालिस लुटेरों जैसा ही उनका मिज़ाज है ।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

मेरे ख्याल से सही लफ्ज़ मिजाज़ है.

"अर्श" का कहना है कि -

mijaaj........

Ambarish Srivastava का कहना है कि -

शामिख फ़राज़ जी शायद सही हैं |

Urban Monk का कहना है कि -
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Urban Monk का कहना है कि -

मिज़ाज

मैं समन्दरों का 'मिज़ाज' हूँ अभी उस नदी को पता नहीं
सभी मुझसे आ के लिपट गयीं मैं किसी से जा के मिला नहीं

Shayar Janaab Ashok 'Mizaaj'
(just a coincidence ki inka takhallus bhi Mizaaj hai !

अल्फ़ाज़ का कहना है कि -

Ham aaj hi is mahfeel se rubru hue...
Kuch arz kiya hai ki....

अल्फ़ाज़ों के सारे मंज़र खंडर नज़र आते है ,
ये कैसी जुस्तज़ू है बेसब्र नज़र आते है ।

अल्फ़ाज़ का कहना है कि -

Ham aaj hi is mahfeel se rubru hue...
Kuch arz kiya hai ki....

अल्फ़ाज़ों के सारे मंज़र खंडर नज़र आते है ,
ये कैसी जुस्तज़ू है बेसब्र नज़र आते है ।

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