Friday, October 16, 2009

आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है...."सुरेश" की आवाज़ में पूछ रहे हैं "शहरयार"



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५४

की महफ़िल में हम हाज़िर हैं सीमा जी की पसंद की दूसरी गज़ल लेकर। आज की गज़ल जिस फ़िल्म से(हाँ, यह फ़िल्मी-गज़ल है) ली गई है, उस फ़िल्म की चर्चा महफ़िल-ए-गज़ल में न जाने कितनी बार हो चुकी है। चाहे छाया गांगुली की "आपकी याद आती रही रात भर" हो, हरिहरण का "अजीब सानेहा मुझपे गुजर गया" हो या फिर आज की ही गज़ल हो, हर बार किसी न किसी बहाने से यह फ़िल्म महफ़िल-ए-गज़ल का हिस्सा बनती आई है। १९७९ में "मुज़फ़्फ़र अली" साहब ने इस चलचित्र का निर्माण करके न सिर्फ़ हमें नए-नए फ़नकार (गायक और गायिका) दिये, बल्कि "नाना पाटेकर" जैसे संजीदा अभिनेता को भी दर्शकों के सामने पेश किया। यह फ़िल्म व्यावसायिक तौर पर कितनी सफ़ल हुई या फिर कितनी असफ़ल इसकी जानकारी हमें नहीं है, लेकिन इस फ़िल्म ने लोगों के दिलों में अपना स्थान ज़रूर पक्का कर लिया। तो चलिए हम बढते हैं आज की गज़ल की ओर। आज की गज़ल को संगीत से सजाया है "जयदेव" साहब ने जिनके बारे में ओल्ड इज़ गोल्ड और महफ़िल-ए-गज़ल में बहुत सारी बातें हो चुकी हैं। यही बात इस गज़ल के गायक यानि की सुरेश वाडेकर साहब पर भी लागू होती है। इसलिए आज की महफ़िल को हम इस गज़ल के गज़लगो "शहरयार" साहब के सुपूर्द करते हैं। "शहरयार" साहब के बारे में "आज के प्रसिद्ध शायर : शहरयार" पुस्तक में जानेमाने लेखक "कमलेश्वर" लिखते हैं: हिन्दुस्तानी अदब में शहरयार वो नाम है जिसने छठे दशक की शुरूआत में शायरी के साथ उर्दू अदब की दुनिया में अपना सफ़र शुरू किया। यह दौर वह था जब उर्दू शायरी में दो धाराएँ बह रही थीं और दोनों के अपने अलग-अलग रास्ते और अलग-अलग मंज़िलें थीं। एक शायरी वह थी जो परम्परा को नकार कर बगा़वत को सबकुछ मानते हुए नएपन पर ज़ोर दे रही थी और दूसरी अनुभूति, शैली और जदीदियत की अभिव्यक्ति के बिना पर नया होने का दावा कर रही थी और साथ ही अपनी परम्परा को भी सहेजे थी ! शहरयार ने अपनी शायरी के लिए इस दूसरी धारा के साथ एक नए निखरे और बिल्कुल अलग अन्दाज़ को चुना—और यह अन्दाज़ नतीजा था और उनके गहरे समाजी तजुर्बे का, जिसकी तहत उन्होंने यह तय कर लिया था कि बिना वस्तुपरक वैज्ञानिक सोच के दुनिया में कोई कारगर-रचनात्मक सपना नहीं देखा जा सकता। उसके बाद वे अपनी तनहाइयों और वीरानियों के साथ-साथ दुनिया की खुशहाली और अमन का सपना पूरा करने में लगे रहे!

कुँवर अख़लाक मोहम्मद खाँ उर्फ शहरयार का जन्म ६ जून १९३६ को आंवला, जिला बरेली में हुआ। वैसे क़दीमी रहने वाले वह चौढ़ेरा बन्नेशरीफ़, जिला बुलंदशहर के हैं। वालिद पुलिस अफसर थे और जगह-जगह तबादलों पर रहते थे इसलिए आरम्भिक पढ़ाई हरदोई में पूरी करने के बाद इन्हें १९४८ में अलीगढ़ भेज दिया गया। वह कद-काठी से मज़बूत और सजीले थे। अच्छे खिलाड़ी और एथलीट भी थे और वालिद की यह इच्छा थी कि ये उन्हीं के क़दमों पर चलते हुए पुलिस अफसर बन जाएँ। लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद ऐसा हो न सका। आगे चलकर सन् १९६१ में उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से उर्दू में एम.ए. किया। विद्यार्थी जीवन में ही अंजुमन-ए-उर्दू-मुअल्ला के सैक्रेटरी और ‘अलीगढ़ मैगज़ीन’ के सम्पादक बना दिए गए और तभी से इनके इरादों ने पकना शुरू कर दिया। अपने इलाके की सांझी तहजीब ने इनके लिए मज़हब का रूप अख्तियार कर लिया! उर्दू और हिन्दी भाषा के बीच दीवार बनावटी नज़र आने लगी। सन् १९६६ में ही शहरयार विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में प्रवक्ता नियुक्त हुए जबकि सन् १९६५ में ही इनका पहला काव्य संग्रह ‘इस्मे-आज़म’ प्रकाशित हो चुका था! इसके बाद १९८३ में रीडर और १९८७ में वहीं प्रोफ़ेसर हो गए! सन् १९६९ में इसका दूसरी काव्य-संग्रह ‘सातवाँ दर’ छपा। फिर ‘हिज़्र के मौसम’ १९७८ में, फिर १९८५ में ‘ख्याल का दर बन्द है’ प्रकाशित हुआ और इसे साहित्य अकादमी अवार्ड से नवाज़ा गया ! इसके बाद १९९५ में ‘नींद की किरचें’ प्रकाशित हुआ। सिलसिला अब भी ज़ारी है और शहरयार बदस्तूर शे’र कह रहे हैं। और अब तो इनका समूचा काव्य लेखन नागरी लिपि में भी आ गया है और हिन्दीभाषी लोगों ने भी भरपूर स्वागत किया।
तो ये थे उस पुस्तक के कुछ अंश। इन पंक्तियों के माध्यम से शहरयार साहब के बारे में बहुत कुछ जानने को मिला। फिर भी हम चाहते हैं कि उनकी आपबीती उन्हीं के शब्दों में सुनें। तो ये रहे हमारे "शहरयार" साहब:

मेरे घर में दूर-दूर तक शायरी का कोई सिलसिला नहीं था। सब लोग पुलिस फोर्स में थे। बस इत्तेफ़ाक है कि मेरी मुलाकात सन्‌ १९५५ में खलीलुर्रहमान आजमी साहब से हुई जो उर्दू के बड़े शायर और नक्काद (आलोचक) थे। उन्हीं की सोहबत में मैंने शेर कहना शुरू किया। सन्‌ १९५७-५८ में बाकायदा संजीदगी से शायरी करने लगा। मेरे एक मित्र थे, हैदराबाद के, जो अच्छे शायर भी थे उन्होंने मुझे लिखा कि मेरा नाम (कुँवर अखलाक मुहम्मद खान) बहुत अजीब-सा नाम है, कहीं से शायराना नाम नहीं लगता है। मैं ग़जल में कुँवर का तखल्लुस करता था। कुँवर के मानी प्रिन्स के होते हैं। खलीलुर्रहमान आजमी ने कहा कि तुम शहरयार रख लो, तो इस तरह मैंने अपना नाम शहरयार रख लिया।

मेरी सोच यह है कि साहित्य को अपने दौर से अपने समाज से जुड़ा होना चाहिए, मैं साहित्य को मात्र मन की मौज नहीं मानता, मैं समझता हूँ जब तक दूसरे आदमी का दुख दर्द शामिल न हो तो वह आदमी क्यों पढ़ेगा आपकी रचना को। जाहिर है दुख दर्द ऐसे हैं कि वो कॉमन होते हैं। जैसे बेईमानी है, झूठ है, नाइंसाफी है, ये सब चीजें ऐसी हैं कि इनसे हर आदमी प्रभावित होता है। इसका कारण यह है कि हर हिन्दुस्तानी का दिल आज भी वही है, जो पहले था। मुद्दा हिंदुस्तानी संस्कृति/तहजीब या सांप्रदायिक सौहार्द्र की भावनाओं को सहेजने वाले दिल का हो या आम हिंदुस्तानी के जजबातों का; दिल अब भी वही है; जहां पहले था। इसकी धड़कनें हिंदुस्तान की पुरानी वैल्यूज के साथ आज भी जिंदा हैं। यह जरूर है कि बहुत से लोग उसकी धड़कनों को अनसुना करने की असफल कोशिशें करते रहते हैं। फिलहाल, हम आज हिंदुस्तान में जो भी बुरा बदलाव देख रहे हैं-चाहे वो सामाजिक हो राजनीतिक या सांप्रदायिक; वह ताउम्र यथावत नहीं रहने वाला। राजनीति की बात करें, तो चुनावों के दौरान हिंदुस्तानी जिस गुस्से/भावना का इजहार करते हैं, वह यह दर्शाता है कि ज्यादातर लोग हिंदुस्तान को उसी शक्ल में देखना चाहते हैं, जैसा पहले था, पवित्र और सौहार्द्रपूर्ण।


यह पूछने पर कि उन्होंने फिल्मों तक का रास्ता कैसे तय किया, उनका जवाब कुछ यूँ था(साभार: अमर उजाला): मुजफ्फर अली पेंटर थे और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मेरे जूनियर भी। वे शायरी पसंद करते थे। उन दिनों (वर्ष १९६५ में) मेरा पहला गजल संग्रह `इस्मे आजम´ छपा, जो उनके पास था। उससे वे प्रभावित थे। पांच-छह साल बाद उनका एक खत मिला कि वे `गमन´ फिल्म में मेरी दो गजलें रखना चाहते हैं। इस तरह मेरी दो गज़लें इस फिल्म में शामिल हो गईं। इन गजलों के कैसेट रिलीज के मौके पर मुजफ्फर ने मुझे मुंबई बुलाया और लखनवी अदब पर फिल्म बनाने की बात कही। मैं फिक्शन पढ़ाता था और उमराव जान उपन्यास उस समय बन रहा था। मैंने इस किताब की बुनियाद पर फिल्म बनाने का सुझाव दिया। इस फिल्म में मेरी पांच गजलें हैं। इस तरह शहरयार साहब के बारे में आज हमने बहुत कुछ जाना। तो चलिए इस आलेख को खत्म करने से पहले उनका एक शेर देख लेते हैं:

हमराह कोई और न आया तो क्या गिला
परछाई भी जब मेरी मेरे साथ न आयी।


अब पेश है वह गज़ल जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये:

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूँढे
पत्थर की तरह बेहिस-ओ-बेजान सा क्यूँ है

तन्हाई की ये कौन सी मन्ज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यूँ है

हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-ए-पशेमान पशेमान सा क्यूँ है

क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यूँ है




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -

यहाँ ___ की कीमत है आदमी की नहीं,
मुझे गिलास बड़ा दे, शराब कम दे...


आपके विकल्प हैं -
a) गिलास, b) लिबास, c) शराब, d) गिलाफ

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "खामोश" और शेर कुछ यूं था -

भड़का रहे हैं आग लब-ए-नगमागर से हम,
खामोश क्या रहेंगे जमाने के डर से हम..

यूँ तो महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुए सुमित जी, लेकिन सही मायने में साहिर लुधियानवी के लिखे इस शेर को सबसे पहले सही पहचाना "शरद" जी ने। सुमित जी "चुप" और "खामोश" में कन्फ़्युज्ड से दिखे और इस कारण उन्होंने दोनों शब्दों पर शेर कह दिया। हम यहाँ पर "खामोश" शब्द पर कहा गया शेर पेश कर रहे हैं:

हर तरफ एक पुरसरार सी खामोशी है,
अपने साये से कोई बात करे, कुछ बोले.
तल्खिये मय में जरा तल्खिये दिल भी घोले.. (पुरसरार= full of secrets, तल्खी= कड़वाहट)

और यह रहा शरद जी का स्वरचित शेर:

खामोश रह के तुमने बहुत कह दिया सनम
हम बोल के भी तुमसे कभी कुछ न कह सके। (वाह...माशा-अल्लाह, दिल जीत लिया आपने..)

शरद जी के बाद महफ़िल में नज़र आईं सीमा जी। यह रही आपकी पेशकश:

रास्ते ख़ामोश हैं और मंज़िलें चुपचाप हैं
ज़िन्दगी मेरी का मकसद, सच कहूं तो आप हैं। (तेजेन्द्र शर्मा)

ठीक है - जो बिक गया, खामोश है
क्यों मगर सारी सभा खामोश है

यह बड़े तूफान की चेतावनी
जो उमस में हर दिशा खामोश है (ऋषभ देव शर्मा)

महफ़िल की शमा बुझते-बुझते मंजु जी भी दिख हीं गईं। यह रहा आपका स्वरचित शेर:

गुनहगार हो तुम मेरी जिन्दगी के ,
खामोश जुबान का दिया उपहार तुमने .

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

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22 श्रोताओं का कहना है :

seema gupta का कहना है कि -

सँवार नोक पलक अबरूओं में ख़म कर दे
गिरे पड़े हुए लफ़ज़ों को मोहतरम कर दे



ग़ुरूर उस पे बहुत सजता है मगर कह दो
इसी में उसका भला है ग़ुरूर कम कर दे



यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे



चमकने वाली है तहरीर मेरी क़िस्मत की
कोई चिराग़ की लौ को ज़रा सा कम कर दे



किसी ने चूम के आँखों को ये दुआ दी थी
ज़मीन तेरी ख़ुदा मोतियों से नम कर दे

बशीर बद्र
regards

Udgaar का कहना है कि -

सही शब्द है लिबास
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़ा दे शराब कम दे

seema gupta का कहना है कि -

कोई किसी से खुश हो और वो भी बारहा हो
यह बात तो गलत है
रिश्ता लिबास बन कर मैला नहीं हुआ हो
यह बात तो गलत है
(निदा फ़ाज़ली )
ढाँपा कफ़न ने दाग़-ए-`उयूब-ए-बरहनगी
मैं वरना हर लिबास में नंग-ए-वुजूद था
(ग़ालिब )
ये हमीं थे जिन के लिबास पर सर-ए-राह सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सर-ए-बज़्म-ए-यार चले गये
regards
(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )

Disha का कहना है कि -

सही शब्द है लिबास
यहाँ लिबास की कीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़ा दे शराब कम दे

seema gupta का कहना है कि -

झिलमिलाते दीपो की आभा से प्रकाशित , ये दीपावली आप सभी के घर में धन धान्य सुख समृद्धि और इश्वर के अनंत आर्शीवाद लेकर आये. इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
झिलमिलाते दीपो की आभा से प्रकाशित , ये दीपावली आप सभी के घर में धन धान्य सुख समृद्धि और इश्वर के अनंत आर्शीवाद लेकर आये. इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए.."
regards

seema gupta का कहना है कि -

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यूँ है

" मेरी बेहद पसंदीदा ग़ज़ल है ये, इसे यहाँ सुनवाने का आभार "
और शहरयार जी के बारे में इतना विस्तार से पढा बहुत कुछ जानने का मौका मिला आपकी इस महफिल में इस बेहतरीन प्रस्तुति पर बधाई "

regards

शरद तैलंग का कहना है कि -

शे’र अर्ज़ है :

कौन कहता है कि दुनिया से जा रहा है ’शरद’
वो है मौज़ूद यहाँ , बस लिबास बदला है ।

Disha का कहना है कि -

कोइ कैसे पहचान पायेगा असलियत उनकी
लिबास की तरह बदलना है फितरत जिनकी

Disha का कहना है कि -

शरद जी बहुत सुन्दर शेर

Dr. Zakir Ali Rajnish का कहना है कि -

सुंदर प्रस्तुतिकरण।
दीपपर्व की अशेष शुभकामनाएँ।
-------------------------
आइए हम पर्यावरण और ब्लॉगिंग को भी सुरक्षित बनाएं।

Unknown का कहना है कि -

तन्हा जी शब्दों का अर्थ बताने के लिए धन्यवाद

आज का सही शब्द है लिबास hai पर शेर अभी याद नहीं aa raha जैसे he याद आएगा महफिल में फिर आयेंगे

Unknown का कहना है कि -

तन्हा जी शब्दों का अर्थ बताने के लिए धन्यवाद

आज का सही शब्द है लिबास पर शेर अभी याद नहीं जैसे he याद आएगा महफिल में फिर आयेंगे

Manju Gupta का कहना है कि -

जवाब -लिबास
स्वरचित पंक्तियाँ
लिबास उनका पहन कर आईना हैरान हुआ ,
उनकी जुदाई का लम्हा करीब आ गया .

Shamikh Faraz का कहना है कि -

सबसे पहले आप सब लोगों को दीवाली की मुबारकबाद.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

सीमा जी ग़ज़लों के मामले में आपकी पसंद वाकई बहुत अच्छी है. बहुत ही खुबसूरत गज़ल.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

सही लफ्ज़ लिबास

यहाँ लिबास, की क़मीत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे

बशीर बद्र

Shamikh Faraz का कहना है कि -

वरक पे रोशनी जो मैं गिरता हूँ
लिबास अल्फाज़ को सोचों के उढाता हूँ. (स्वरचित)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़िर नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
के हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में

iqbal

Shamikh Faraz का कहना है कि -

कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो जरा आशिकाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूं मेरे साथ तुम भी चला करो

Shamikh Faraz का कहना है कि -

ख़ूब भाते हैं इसे जनतंत्र के ढीले लिबास
फैल सकती है कि जिसमें उम्र भर तिरछी हँसी।

Shamikh Faraz का कहना है कि -

तन्हा जी क्या आपको मेरी भेजी हुई सभी नगमों और नज्मों की फेहरिस्त मिल गई.

Shamikh Faraz का कहना है कि -

अब आग के लिबास को ज्यादा न दाबिए।

सुलगी हुई कपास को ज्यादा न दाविए।

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