महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८२
बात तो दर-असल पुरानी हो चुकी है, फिर भी अगर ऐसा मुद्दा हो, ऐसी घटना हो जिससे खुशी मिले तो फिर क्यों न दोस्तों के बीच उसका ज़िक्र किया जाए। है ना? तो हुआ यह है कि आज से कुछ ३३ दिन पहले यानि कि २ अप्रैल के दिन महफ़िल-ए-गज़ल की सालगिरह थी। अब हमारी महफ़िल कोई माशूका या फिर कोई छोटा बच्चा तो नहीं कि जो शिकायतें करें ,इसलिए हमें इस दिन का इल्म हीं न हुआ। हाँ, गलती हमारी है और हम अपनी इस खता से मुकरते भी नहीं, लेकिन आप लोग किधर थे... आप तमाम चाहने वालों का तो यह फ़र्ज़ बनता था कि हमें समय पर याद दिला दें। अब भले हीं हमारी यह महफ़िल नाज़ न करे या फिर तेवर न दिखाए, लेकिन इसकी आँखों से यह ज़ाहिर है कि इसे हल्का हीं सही, लेकिन बुरा तो ज़रूर हीं लगा है। क्या?..... क्या कहा? नहीं लगा... ऐसा क्यों... ऐसा कैसे.... ओहो... यह वज़ह है.. सही है भाई.. जब महफ़िल में चचा ग़ालिब विराजमान हों और वो भी पूरे के पूरे ढाई महिने के लिए तो फिर कौन नाराज़ होगा.. नाराज़ होना तो दूर की बात है.. किसी को अपनी खबर हो तो ना वो कुछ और सोचे। यही हाल हमारी महफ़िल का भी था... यानि कि अनजाने में हीं हमने महफ़िल की नाराज़गी दूर कर दी है। अगर फिर भी कुछ कसर बाकी रह गई हो, तो आज की महफ़िल में हम उसका निपटारा कर देंगे। अब चूँकि चचा ग़ालिब को हम वापस नहीं बुला सकते, लेकिन पिछली सदी (बीसवीं सदी) के ग़ालिब, जिन्हें ग़ालिब का एकमात्र उत्तराधिकारी (हमने इस बात का ज़िक्र पिछली कुछ महफ़िलों में भी किया था) कहा जाता है, को निमंत्रण देकर हम उस कमी को पूरा तो कर हीं सकते हैं। तो लीजिए आज की महफ़िल में हाज़िर हैं दो बार नोबल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किए जा चुके "फ़ैज़ अहमद फ़ैज़" साहब।
महफ़िल में फ़ैज़ का एहतराम करने की जिम्मेदारी हमने मशहूर लेखक "विश्वनाथ त्रिपाठी" जी को दी है। तो ये रहे त्रिपाठी जी के शब्द (साभार: डॉ. शशिकांत):
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ को पहली बार मैंने तब देखा था जब सज्ज़ाद जहीर की लंदन में मौत हो गई थी और वे उनकी लाश को लेकर हिंदुस्तान आए थे, लेकिन उनसे बाक़ायदा तब मिला था जब मैं प्रगतिशील लेखक संघ का सचिव था। यह इमरजेंसी के बाद की बात है। उन दिनों मैं ख़ूब भ्रमण करता था। बड़े-बड़े लेखकों से मिलना होता था। फ़ैज़ साहब से मैंने हाथ मिलाया। बड़ी नरम हथेलियां थीं उनकी। फिर एक मीटिंग में प्रगतिशील साहित्य को लोकप्रिय बनाने की बात चल रही थी। मैंने फ़ैज़ साहब से पूछा कि आप इतना घूमते हैं, लेकिन हर जगह अंग्रेजी में स्पीच देते हैं, ऐसे में हिंदुस्तान और पाकिस्तान में हिंदी-उर्दू के प्रगतिशील साहित्य का प्रचार कैसे होगा? फ़ैज़ साहब ने कहा, "इंटरनेशनल मंचों पर अंग्रेजी में बोलने की मज़बूरी होती है, लेकिन आपलोगों का कम से कम उतना काम तो कीजिए जितना हमने अपनी ज़ुबान के लिए किया है।" उसके बाद उनसे मेरा कई बार मिलना हुआ।
फ़ैज़ साहब के बारे में ये एक बात बहुत कम लोग जानते हैं। उसे प्रचारित नहीं किया गया। जब गांधीजी की हत्या हुई थी तब फ़ैज़ साहब "पाकिस्तान टाइम्स" के संपादक थे। गांधीजी की शवयात्रा में शरीक होने वे वहां से आए थे चार्टर्ड प्लेन से। और जो संपादकीय उन्होंने लिखा था मेरी चले तो में उसकी लाखों-करोड़ों प्रतियां लोगों में बांटूं। गांधीजी के व्यक्तित्व का बहुत उचित एतिहासिक मूल्यांकन करते हुए शायद ही कोई दूसरा संपादकीय लिखा गया होगा। फ़ैज़ साहब ने लिखा था- "अपनी मिल्लत और अपनी कौम के लिए शहीद होनेवाले हीरो तो इतिहास में बहुत हुए हैं लेकिन जिस मिललत से अपनी मिल्लत का झगड़ा हो रहा है और जिस मुल्क़ से अपने मुल्क़ की लड़ाई हो रही है, उस पर शहीद होनेवाले गांधीजी अकेले थे।" पाकिस्तान बनने के बाद फ़ैज़ साहब जब भी हिंदुस्तान आते थे तो नेहरू जी उन्हें अपने यहां बुलाते थे और उनकी कविताएं सुनते थे। विजय लक्ष्मी पंडित और इंदिरा जी भी सुनती थीं। दरअसल नेहरूजी कवियों और शायरों की क़द्र करते थे। नेहरू जी ने लिखा था- "ज़िन्दगी उतनी ही ख़ूबसूरत होनी चाहिए जितनी कविता।"
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उर्दू में प्रगतिशील कवियों में सबसे प्रसिद्ध कवि हैं। जोश, जिगर और फ़िराक के बाद की पीढ़ी के कवियों में वे सबसे लोकप्रिय थे। उन्हें नोबेल प्राइज को छोड़कर साहित्य जगत का बड़े से बड़ा सम्मान और पुरस्कार मिला। फ़ैज़ साहब मूलत: अंगेजी के अध्यापक थे। पंजाबी थे। लेकिन उन कवियों में थे जिन्होंने अपने विचारों के लिए अग्नि-परीक्षा भी दी। उनके एक काव्य संकलन का नाम है- ‘ज़िन्दांनामा’ इसका मतलब होता है कारागार। अयूब शाही के ज़माने में उन्होंने सीधी विद्रोहात्मक कविताएं लिखीं। उन्होंने मजदूरों के जुलूसों में गाए जानेवाले कई गीत लिखे जो आज भी प्रसिद्ध हैं। मसलन- "एक मुल्क नहीं, दो मुल्क नहीं हम सारी दुनिया मांगेंगे।"
फ़ैज़ एक अच्छे अर्थों में प्रेम और जागरण के कवि हैं। उर्दू-फारसी की काव्य परंपरा के प्रतीकों का वे ऐसा उपभोग करते हैं जिससे उनकी प्रगतिशील कविता एक पारंपरिक ढांचे में ढल जाती है और जो नई बातें हैं वे भी लय में समन्वित हो जाती हैं। फ़ैज़ साहब ने कई प्रतीकों के अर्थ बदले हैं जैसे उनकी एक प्ररंभिक कविता "रकीब से" है। रकीब प्रेम में प्रतिद्वंद्वी को कहा जाता है। उन्होंने लिखा कि अपनी प्रमिका के रूप से मैं कितना प्रभावित हूँ ये मेरा रकीब जानता है। लेखकों के लिए उन्होंने लिखा- "माता-ए-लौह कलम छिन गई तो क्या ग़म है कि खून -ए-दिल में डुबो ली हैं उंगलियां मैंनें।" दरअसल फ़ैज़ में जो क्रांति है उसे उन्होंने एक इश्किया जामा पहना दिया है। उनकी कविताएं क्रांति की भी कविताएं हैं और सरस कविताएं हैं। सबसे बड़ा कमाल यह है कि उनकी कविताओं में सामाजिक-आर्थिक पराधीनता की यातना और स्वातंत्र्य की कल्पना का जो उल्लास होता है, वो सब मौजूद हैं।
फ़ैज़ की कविताओं में संगीतात्मकता, गेयता बहुत है। मैं समझता हूं कि जिगर मुरादाबादी, जो मूलत: रीतिकालीन भावबोध के कवि थे, में आशिकी का जितना तत्व है, बहुत कुछ वैसा ही तत्व अगर किसी प्रगतिशील कवि में है तो फ़ैज़ में है। फ़ैज़ की दो और ख़ासियतें हैं- एक, व्यंग्य वे कम करते हैं लेकिन जब करते हैं तो उसे बहुत गहरा कर देते हैं। जैसे- "शेख साहब से रस्मोराह न की, शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की।" और दूसरी बात, फ़ैज़ रूमान के कवि हैं। अपने भावबोध को सकर्मक रूप प्रदान करनेवाले कवि हैं लकिन क्रांति तो सफल नहीं हुई। ऐसे में जो क्रांतिकारी कवि हैं वे निराश होकर बैठ जाते हैं। कई तो आत्महत्या कर लेते हैं और कई ज़माने को गालियाँ देते हैं। फ़ैज़ वैसे नहीं हैं। फ़ैज़ में राजनीतिक असफलता से भी कहीं ज़्यादा अपनी कविता को मार्मिकता प्रदान की है। उनका एक शेर है- "करो कुज जबी पे सर-ए-कफ़न, मेरे क़ातिलों को गुमां न हो। कि गुरूर इश्क का बांकपन, पसेमर्ग हमने भुला दिया।" अर्थात कफ़न में लिपटे हुए मेरे शरीर के माथे पर टोपी थोड़ी तिरछी कर दो, इसलिए कि मेरी हत्या करनेवालों का यह भरम नहीं होना चाहिए कि मरने के बाद मुझ में प्रेम के स्वाभिमान का बांकपन नहीं रह गया है।
सो, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ केवल रूप, सौदर्य और प्रेरणा के ही कवि नहीं हैं बल्कि असफलताओ और वेदना के क्षणों में भी साथ खड़े रहनेवाले पंक्तियों के कवि हैं।
फ़ैज़ साहब महफ़िल में आसन ले चुके हैं, तो क्यों ना उनसे उनकी यह बेहद मक़बूल नज़्म सुन ली जाए:
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
बोल ज़बाँ अब तक तेरी है
तेरा सुतवाँ जिस्म है तेरा
बोल कि जाँ अब तक् तेरी है
देख के आहंगर की दुकाँ में
तुंद हैं शोले सुर्ख़ है आहन
खुलने लगे क़ुफ़्फ़लों के दहाने
फैला हर एक ज़न्जीर का दामन
बोल ये थोड़ा वक़्त बहोत है
जिस्म-ओ-ज़बाँ की मौत से पहले
बोल कि सच ज़िंदा है अब तक
बोल जो कुछ कहने है कह ले
शायद आपको(फ़ैज़ साहब को भी.. हो सकता है कि वो भूल गए हों..आखिर इनकी उम्र भी तो हो चली है)पता न हो कि फ़ैज़ साहब की महत्ता बस हिन्दुस्तान और पाकिस्तान तक हीं सीमित न थी, बल्कि इनकी रचनाओं का विश्व की दूसरी भाषाओं में भी अनुवाद किया गया था। रूस में हिंदुस्तानी प्रायद्वीप के देशों के साहित्य और संस्कृति की रूसी प्रसारक और प्रचारक सुश्री मरियम सलगानिक, जिन्हें हाल में हीं "पद्म-श्री" से सम्मानित किया गया है, ने फ़ैज़ की कई रचनाओं का रूसी में अनुवाद किया है। रूस में फ़ैज़ की जितनी भी किताबें छपीं है, सभी में उनका बड़ा सहयोग रहा है। सोवियत लेखक संघ में काम करते हुए मरियम सलगानिक ने बरीस स्लूत्स्की ओर मिखायल इसाकोव्स्की जैसे बड़े रूसी कवियों को फ़ैज़ की रचनाओं के अनुवाद के काम की ओर आकर्षित भी किया है।
यह तो थी फ़ैज़ के बारे में थोड़ी-सी जानकारी। अब हम आज की नज़्म की ओर रुख करते हैं। फ़ैज़ साहब के सामने उनकी किसी नज़्म को गाना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है और आज यह काम
दश्त-ए-तन्हाई में ऐ जान-ए-जहाँ लरज़ा हैं
तेरी आवाज़ के साये तेरे होंठों के सराब
दश्त-ए-तन्हाई में दूरी के ख़स-ओ-ख़ाक तले
खिल रहे हैं तेरे पहलू के समन और गुलाब
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तेरी साँस की आँच
अपनी ख़ुश्ब में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
दूर् ____ पर् चमकती हुई क़तरा क़तरा
गिर रही है तेरी दिलदार नज़र की शबनम
उस क़दर प्यार से ऐ जान-ए जहाँ रक्खा है
दिल के रुख़सार पे इस वक़्त तेरी याद् ने हाथ
यूँ गुमाँ होता है गर्चे है अभी सुबह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "शगूफ़े" और शेर कुछ यूँ था-
फूल क्या, शगूफ़े क्या, चाँद क्या, सितारे क्या,
सब रक़ीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं।
बहुत दिनों के बाद सीमा जी महफ़िल में सबसे पहले हाज़िर हुईं। आपको आपके मामूल (रूटीन) पर वापस देखकर बहुत खुशी हुई। ये रहे आपके शेर:
वो सर-ओ-कद है मगर बे-गुल-ए-मुराद नहीं
के उस शजर पे शगूफ़े समर के देखते हैं (फ़राज़)
हँसते हैं मेरी सूरत-ए-मफ़्तूँ पे शगूफ़े
मेरे दिल-ए-नादान से कुछ भूल हुई है (साग़र सिद्दीकी)
शरद जी, आपने तो हरेक आशिक के दिल की बात कह दी। किसी सुंदर मुखरे को देखने को बाद आशिक का यही हाल होता है:
शगूफ़ों को अभी से देख कर अन्दाज़ होता है
जवानी इन पे आयेगी तो आशिक हर कोई होगा।
शन्नो जी, मौसम और शगूफ़ों के बीच ऐसी खींचातानी। वाह! क्या ख्यालात हैं:
शगूफों की तो भरमार थी गुलशन में
पर मौसम के नखरों से न खिल पाए.
मंजु जी, सेहरा और चेहरा से तो हम बखूबी वाकिफ़ थे, लेकिन इनका एक-साथ इस तरह इस्तेमाल कभी देखा न था। मज़ा आ गया:
दिल ने शगूफों से बनाया अनमोल सेहरा ,
अरे !किस खुशनसीब का सजेगा चेहरा .
नीलम जी, अंतर्जाल (इंटरनेट) पर हर शब्द का अर्थ मौजूद है। वैसे भी पहले के शेरों को देखकर आप मतलब जान सकती थीं। फिर भी मैं बताए देता हूँ। शगूफ़े = कलियाँ ... आपसे शेर की उम्मीद थी... खैर अगली बार....
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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18 श्रोताओं का कहना है :
लगता है गलती से इकबाल बानो वाले गीत का ही लिंक लग गया है। खैर, फ़ैज साहब के बारे में पढवाने और इस नज्म को सुनवाने के लिये बेहद शुक्रिया...
सही शब्द है : उफ़ुक = क्षितिज
शेर पेश है :
उफ़ुक का ज़िक्र ज़माने में जब भी होता है
ज़मीं को देख देख आसमान रोता है ।
(स्वरचित)
नीरज जी,
हमें जहाँ से यह नज़्म मिली थी, वहाँ फ़हद हुसैन जी का हीं नाम था, इसलिए हमने यह आलेख इनके नाम से तैयार कर दिया। लेकिन हाँ, आपकी टिप्पणी के बाद हमें अपनी गलती का पता चल गया है। अब चूँकि फ़हद जी की कोई नज़्म कहीं मिल नहीं रही, इसलिए हम आलेख में हीं आवश्यक परिवर्त्तन किए दे रहे हैं।
आगे से ऐसी गलती नहीं होगी, इस आश्वासन के साथ:
-विश्व दीपक
ग़ज़ल सुनी...बढ़िया है... फिर मैंने अपनी कलम आजमाने की सोची की लाओ शेर लिखा जाये...लेकिन अचानक ब्रेक लग गया...सोचा की हे भगवान..मेरी उर्दू क्यों इतनी कच्ची है..मुझे तो उफुक का मतलब ही नहीं पता..अब पहले तो उसका अर्थ ढूंढ कर लाऊँ फिर शेर लिखने में अपनी अकल आजमाऊँ..लेकिन जब नज़र दौड़ाई तो शरद जी का शेर दिखा जिसमे उफुक का मतलब लिखा था...और मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा....की चलो इसका मतलब ढूँढने की तकलीफ से बच गये..शरद जी हम आपके बहुत शुक्रगुजार हैं..अगर ऐसे ही मेहरबानी होती रहे आपकी तरफ से तो हम जैसे नामकूल लोगों का भला होता रहे...जैसे की हमारे साथ नीलम जी और सुमीत :)....हा हा हा हा...सही कहा न ? चलो सरदर्द बचा....बहुत शुक्रिया...अब अगर चाहें तो नीलम जी भी नक़ल टीप सकती हैं...उनकी मर्जी है...चाहें चोरी करें या...खैर...हमारी तो तबियत खुश हो गयी की बिना किसी दिक्कत के अपना काम बन गया..वर्ना इसी आलेख में कई सारे शब्द पढ़कर पसीना छूटता रहा...लेकिन शिकायत करने से क्या फायदा...लीजिये अब हमारा शेर भी देखिये...
उफ़ुक के पार एक और जहाँ होता है
जहाँ न कोई जमी न आसमां होता है.
-शन्नो
एक बात भूल गये जो तन्हा जी को सुनानी है वो ये कि उन्हें शिकायत करने वालों की बड़ी हसरत हो रही है इस आलेख में...कि किसी ने महफिल-ए-ग़ज़ल की सालगिरह के बारे में याद क्यों नहीं दिलाया..खुद तो संचालक हैं फिर भी याद नहीं रहा और खता हम सबके मत्थे मढ़ रहे हैं कि हम लोगों ने याद क्यों नहीं दिलाया..अब ये याद रखना तो आपका काम है तन्हा जी. अब चूँकि आपको अधिक इल्म है इन बातों का तो हम लोग कैसे जान पाते कि कब क्या है...हम शिकायत करना तो नहीं चाहते थे....पर आपकी तमन्ना अब पूरी हो गयी सबकी तरफ से शिकायत के बारे में...वो ऐसे कि आज हम हिम्मत करके मुंहफट बन गये...कि पता नहीं कोई और शिकायत ना कर पाये..तो ये नेक काम हम ही करते चलें....है न ? :) अब मुंहफट बनने का अंजाम क्या होगा...( जो होगा वो देखा जायेगा )....
आदरणीय विश्व जी ,
चेहरा - सेहरा युग्म पसंद आने के लिए धन्यवाद .
जवाब -उफ़ुक
जमाना वरदान कहे या शाप ,
उफ़ुक-सा हम दोनों का साथ .
विश्व दीपक जी,
अरे ऐसी गलतियाँ तो होती ही रहती हैं। हिन्द युग्म के प्रयासों की जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। और हम तो आपके रोज के बंधे पाठक हैं, बस टिप्पणी हर बार नहीं कर पाते हैं :)
आभार,
उड़ते-उड़ते आस का पंछी दूर उफ़क़ में डूब गया
रोते-रोते बैठ गई आवाज़ किसी सौदाई की
(क़तील शिफ़ाई )
चांद जब दूर उफ़क़ पर डूबा,
तेरे लहजे की थकन याद आई|
(अहमद नदीम क़ासमी )
सुबह की तरह झमकता है शब-ए-ग़म का उफ़क़
"फ़ैज़" ताबिंदगी-ए-दीदा-ए-तर तो देखो
( अहमद फ़ैज़ )
हद-ए-उफ़क़ पे शाम थी ख़ेमे में मुंतज़र
आँसू का इक पहाड़-सा हाइल नज़र में था
(वज़ीर आग़ा )
regards
कल कंप्यूटर खराब था इसलिए नहीं आ सके.....
regards
मजरत के साथ कहना चाहता हूँ की बहुत दिनों से मसरूफियत की वजह से आप लोगों से दूर रहा मुझे काफी बुरा लगा लीजिये पेश है उफक पे एक ताज़ा तरीन शेर
तराश ले अपनी रूह को उफक की मानिंद
अँधेरा जहाँ है सवेरा भी वहीँ है !! (स्वरचित )
अरे, ठाकुर साहब हम सभी को आपकी बड़ी फिकर होने लगी थी इस महफ़िल में की आप कहाँ एकदम से गायब हो गये..गालिब साहेब की विदाई भी मिस कर गये आप....और हमारी गब्बर साहिबा भी गायब हो गयीं थी...आप सही सलामत तो हैं न..? और ये मजरत और मसरूफियत कौन हैं..आपके दोस्त हैं या रिश्तेदार..? कुछ समझ में नहीं आया... आप कह रहे हैं की आप मजरत के साथ हैं..लेकिन हमें तो आप ही नजर आ रहे हैं..और फिर ये मसरूफियत कौन..?
उफ़क: पहले बच्चों का शीन काफ़ दुरुस्त करवाने के लिए सिखाया जाता था.
सूए फ़लक गुब्बारा.
सूए उफ़क तैय्यारा.(कई जगह नुक्ता सही नहीं लग पा रहा है.)
लेकिन उफक का नज़ारा देखिये - फिल्म 'आनंद' से पेश है यह:
मौत तू एक कविता है.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.
डूबती नब्जों में जब दर्द को नींद आने लगे.
ज़र्द सा चेहरा लिए जब चाँद उफक तक पहुंचे.
दिन अभी पानी में हो और रात किनारे के करीब.
न अभी अँधेरा हो और न उजाला.
न रात न दिन.
जिस्म जब खत्म हो और रूह को सांस आये.
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको.
शायद गुलज़ार की कलम से निकले हैं यह लफ्ज़ जो परदे पर दर्दभरी आवाज़ में और भी असर छोड़ते हैं.
अवध लाल
is shabd se to koi sher aata nahi..
kafi dino baad aana hua yaha... agli mehfil mei milte hai.....
tab tak k liye bbye
take care......
अवध जी ने बहुत प्यारी कविता की याद दिला दी शुक्रिया
शन्नो जी आप बहुत खराब हैं आपने हमें बिलकुल याद नहीं किया और ये भी लिखती हैं की आप परेशान थे अरे भला ठाकुर के लिए रामगढ मैं कभी कोई परेशां हुआ है चलिए इसी बात से दुखी होकर हमने एक शेर और लिख डाला उफक पे ये सब आप लोगो की बेरुखी की वजह से लिखा है
अपने ही ख्वाबों से लिपटा सोचता हूँ
आसमा पे कुछ नए गम खोजता हूँ
रोज़ शफक उठता हूँ एक आरज़ू लेकर
रोज़ शब् उफक पे मैं दम तोड़ता हूँ !!
अगली महफ़िल मैं मिलते हैं
अवनींद्र जी..उर्फ़ ठाकुर साहेब,
हा हा हा हा हा हा ......
बहुत अच्छा शेर लिख डाला आपने..तनहा जी तो कतई फ़िदा हो जायेंगे आपके शेर पर...अगर गम में इतना अच्छा लिखा है..तो ख़ुशी में क्या हाल होता आपके शेरो का..हा हा..वैसे आपको नीलम जी के बारे में कुछ पता है की उनके दर्शन क्यों नहीं हुए इस बार..सुमीत तो जरा सी झलकी दिखा कर चले गए...
bye..bye.
शब्द ~ उफ़क
मैं ने तो पुकारा है मोहब्बत के उफ़क़ से
रस्ते में तिरे संग-ए-हरम है तो मुझे क्या
क़तील शिफाई
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