Wednesday, August 31, 2011

हरकीरत हीर के मजमुआ-ए-नज़्म 'दर्द की महक' का विमोचन



कविताप्रेमियो,

आप सभी को ईद की बधाइयाँ!

आज कविता की दुनिया की रुहानी-क़लम अमृता प्रीतम की जयंती है। अमृता अपनी रचनाओं में एक ख़ास तरह की रुमानियत और कोर-संवेदनशीलता के लिए पहचानी जाती हैं। कुछ इसी तरह की रचनाधर्मिता युवा कवयित्री हरकीरत हीर की कविताओं में दृष्टिगोचर होती है। और कितना सुखद संयोग है कि आज ही हरकीरत का भी जन्मदिन है। हरकीरत खुद के अमृता से इस संयोग को चित्रित करते हुए कहती हैं- "...वह अमृता जिसकी आत्मा का इक-इक अक्षर हीर के ज़िस्म में मुस्कुराता है ...जिसकी इक-इक सतर हीर की तन्हा रातों में संग रही है..."

नज़्मों से निर्मित उसी हरकीरत की नज़्मों का एक संग्रह 'दर्द की महक' का प्रकाशन हिन्द-युग्म ने किया है। और अमृता की जयंती, हरकीरत के जन्मदिन और ईद के इस महान संयोग पर 'दर्द की महक' का ऑनलाइन विमोचन कर रहा है।


(यहाँ से फीटा काटकर विधिवत लोकार्पण करें)

'दर्द की महक' से अमृता के जन्मदिन को समर्पित एक नज़्म

उसने कहा है अगले जन्म में तू फ़िर आएगी मोहब्बत का फूल लिए

रात ....
बहुत गहरी बीत चुकी है
मैं हाथों में कलम लिए
मग्मूम सी बैठी हूँ ....
जाने क्यूँ ....
हर साल ...
यह तारीख़
यूँ ही ...
सालती है मुझे.....


पर तू तो ...
खुदा की इक इबारत थी
जिसे पढ़ना ...
अपने आपको
एक सुकून देना है ...


अँधेरे मन में ...
बहुत कुछ तिड़कता है
मन की दीवारें
नाखून कुरेदती हैं तो...
बहुत सा गर्म लावा
रिसने लगता है ...

सामने देखती हूँ
तेरे दर्द की ...
बहुत सी कब्रें...
खुली पड़ी हैं...
मैं हाथ में शमा लिए
हर कब्र की ...
परिक्रमा करने लगती हूँ ....

अचानक
सारा के खतों पर
निगाह पड़ती है....
वही सारा ....
जो कैद की कड़ियाँ खोलते-खोलते
कई बार मरी थी .....
जिसकी झाँझरें कई बार
तेरी गोद में टूटी थीं ......
और हर बार तू
उन्हें जोड़ने की...
नाकाम कोशिश करती.....
पर एक दिन
टूट कर...
बिखर गयी वो ....

मैं एक ख़त उठा लेती हूँ
और पढने लगती हूँ .......
"मेरे बदन पे कभी परिंदे नहीं चहचहाये
मेरी सांसों का सूरज डूब रहा है
मैं आँखों में चिन दी गई हूँ ...."

आह.....!!
कैसे जंजीरों ने चिरागों तले
मुजरा किया होगा भला ....??
एक ठहरी हुई
गर्द आलूदा साँस से तो
अच्छा था .....
वो टूट गयी .......

पर उसके टूटने से
किस्से यहीं
खत्म नहीं हो जाते अमृता ...
जाने और कितनी सारायें हैं
जिनके खिलौने टूट कर
उनके ही पैरों में चुभते रहे हैं ...

मन भारी सा हो गया है
मैं उठ कर खिड़की पर जा खड़ी हुई हूँ
कुछ फांसले पर कोई खड़ा है ....
शायद साहिर है .. .....
नहीं ... नहीं ...... .
यह तो इमरोज़ है .....
हाँ इमरोज़ ही तो है .....
कितने रंग लिए बैठा है . ...
स्याह रात को ...
मोहब्बत के रंग में रंगता
आज तेरे जन्मदिन पर
एक कतरन सुख की
तेरी झोली डाल रहा है .....

कुछ कतरने और भी हैं
जिन्हें सी कर तू
अपनी नज्मों में पिरो लेती है
अपने तमाम दर्द .... ...

जब मरघट की राख़
प्रेम की गवाही मांगती है
तो तू...
रख देती है
अपने तमाम दर्द
उसके कंधे पर ...
हमेशा-हमेशा के लिए ....
कई जन्मों के लिए .....

तभी तो इमरोज़ कहते हैं ....
तू मरी ही कहाँ है ....
तू तो जिंदा है .....
उसके सीने में....
उसकी यादों में .....
उसकी साँसों में .....
और अब तो ....
उसकी नज्मों में भी...
तू आने लगी है ....

उसने कहा है ....
अगले जन्म में
तू फ़िर आएगी ....
मोहब्बत का फूल लिए ....
जरुर आना अमृता
इमरोज़ जैसा दीवाना
कोई हुआ है भला ......!!

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7 श्रोताओं का कहना है :

भारतीय नागरिक - Indian Citizen का कहना है कि -

बहुत बहुत मुबारक हो..

Anonymous का कहना है कि -

bahut badhaayi aur sunder nazm - sajeev sarathie

Archana Chaoji का कहना है कि -

बहुत बहुत बधाई....

सदा का कहना है कि -

बहुत-बहुत बधाई के साथ शुभकामनाएं ।

दर्शन कौर धनोय का कहना है कि -

badhai !!!!

Rachana का कहना है कि -

bahut bahut shubhkamnayen
rachana

इन्दु पुरी का कहना है कि -

३१ अगस्त २०११ ....आज पढ़ रही हूँ मैं .बस एक नज़्म पढ़ी है.अमृता नज्म में ढली है यहाँ या हीरिये तुम खुद? तुम्हे बधाई.इस पुस्तक के लिए भी और नज्म के लिए भी और..उसके लिए भी जो तुम में जीने लगी है.उसे नकार देंगे तुम्हारे अपने.फिर बहुत तकलीफ होगी तुम्हे.चिनाब की लहरे 'हीरों'को निगलना नही भूली है.हीर की तडप वारिदशाह की कराह वादियों में गूंजती है आज भी.बस तुम तक तुम्हारे शब्दों तक हो कर गुजरती है अब.प्यार.
बधाई

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