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चलो झूमते सर पे बाँधे कफ़न...जब मजरूह साहब ने जगाई खून में गर्मी - Sajeev

"बैयाँ ना धरो.." श्रृंगार का ऐसा रूप जिसमें बाँह पकड़ने की मनाही भी है और आग्रह भी - Sajeev

"नज़र लागी राजा तोरे बंगले पर.." - ठुमरी जब लोक-रंग में रँगी हो - Sajeev

कुछ दिन पहले एक ताल में....क्लास्सिक कहानी कहने के अंदाज़ में लिखा मजरूह ने इस गीत को - Sajeev

रूठ के हमसे कभी जब चले जाओगे तुम....हर किसी के जीवन को कभी न कभी छुआ होगा मजरूह के इस गीत ने - Sajeev

आओ मनाये जश्ने मोहब्बत, जाम उठाये गीतकार मजरूह साहब के नाम - Sajeev

तेरी बिंदिया रे....शब्द और सुरों का सुन्दर मिलन है ये गीत - Sajeev

क्या जानूँ सजन होती है क्या गम की शाम....जब जल उठे हों मजरूह के गीतों के दिए तो गम कैसा - Sajeev

मुझे दर्दे दिल क पता न था....मजरूह साहब की शिकायत रफ़ी साहब की आवाज़ में - Sajeev

मेरा तो जो भी कदम है.....इतना भावपूर्ण है ये गीत कि सुनकर किसी की भी ऑंखें नम हो जाए - Sajeev

जा जा जा रे बेवफा...मजरूह साहब ने इस गीत के जरिये दर्शाये जीवन के मुक्तलिफ़ रूप - Sajeev

हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़साने बयाँ होंगे....संगीत प्रेमी ढूँढेगें मजरूह साहब को वो जहाँ भी होंगें - Sajeev

छेड़ी मौत नें शहनाई, आजा आनेवाले....लिखा मजरूह साहब ने ये गीत अनिल दा के लिए - Sajeev

जब उसने गेसु बिखराये...एक अदबी शायर जो दशक दर दशक रचता गया फ़िल्मी गीतों का कारवाँ भी - Sajeev

हटो काहे को झूठी बनाओ बतियाँ...मेलोडी और हास्य के मिश्रण वाले ऐसे गीत अब लगभग लुप्त हो चुके हैं - Sajeev

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