महफ़िल-ए-ग़ज़ल #०६
महफ़िल-ए-गज़ल में आज हम जिस फ़नकार को ले आए हैं, उन्हें अगर गज़ल-गायकी का बेताज बादशाह कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। कई जमाने बीत गए, लेकिन इनकी गायकी की मिठास अभी भी कायम है और कायम क्या यह कहिये कि उसमें और भी मिसरी घुलती जा रही है। इन्होंने लगभग सभी शायरों को अपनी आवाज़ दी है। तो चलिए फिर लगे हाथ हम उस गज़ल की भी बात कर लेते हैं जिसके लिए इस महफ़िल को सजाया गया है। १९९६ में "फ़ेस टू फ़ेस" नाम की गज़लों की एक एलबम आई थी, जिसमें ९ गज़लें थी। आप सभी श्रोताओं के लिए हम उन सभी नौ गज़लों को उनके गज़लगो के नाम के साथ पेश कर रहे हैं, फिर आप खुद अंदाजा लगाईये कि इसमें से वह कौन सी गज़ल है जो हमारे आज की महफ़िल की शान है और हाँ वह फ़नकार भी:
१) सच्ची बात: सबीर दत्त
२) दै्र-औ-हरम: ख़ामोश गाज़ीपुरी
३) बेसबब बात: शाहिद कबीर
४) ज़िंदगी तूने: राजेश रेड्डी
५) तुमने बदले हमसे: दाग़ दहलवी,अमीर मीनाइ
६) प्यार का पहला खत: हस्ती
७) ज़िंदगी ऎ ज़िंदगी : ज़क़ा सिद्दक़ी
८) शेख जी: सुदर्शन फ़ाकिर
९) कोई मौसम: अज़हर इनायती
उम्मीद है अब तक आपने अंदाजा लगा हीं लिया होगा और अगर नहीं भी लगाया तो हम किसलिए हैं। तो हज़ूर आज हम जिस गज़ल की बात कर रहे हैं वह है "प्यार का पहला ख़त" जिसे लिखा है हस्ती ने और जिसे अपनी साज़ और आवाज़ से सजाया है पद्म भूषण "गज़लजीत" जगजीत सिंह जी ने। गज़ल-गायकी में जगजीत सिंह का एक अपना मुकाम है। सत्तर के दशक में जब नूरजहां, मल्लिका पुखराज, बेग़म अख्तर, तलत महमूद और गुलाम अली जैसे नामी-गिरामी फ़नकारों की गज़लें क्लासिकल और सेमि-क्लासिकल भारतीय रागों पर आधारित हुआ करती थीं, तभी १९७६ में "द अनफौरगेटेबल्स" नाम के मेलोडी से सनी गज़लों की पहली एलबम के साथ हीं जगजीत सिंह ने इस क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्शा दी थी। गज़लें पहले बुद्धिजीवी वर्ग को हीं समझ आती थीं, लेकिन जगजीत सिंह ने यह ढर्रा हीं बदल दिया। और उस पर आश्चर्य यह कि जगजीत सिंह भारतीय वाद्ययंत्रों के साथ पाश्चात्य वाद्ययंत्रों का भी बखूबी इस्तेमाल करते हैं, तब भी उनकी गज़लों में वही पुराना हिन्दुस्तानी अंदाज दिखता है।
सदियों पहले कबीर ने कहा था:
कारज धीरे होत है काहे होत अधीर,
समय पाये तरूवर फले केतक सींचो नीर।
और कुछ ऎसे विचार थे रहीम के:
रहीमन धागा प्रेम का मत तोड़ो चटकाए,
टूटे तो फिर ना जुड़े, जुड़े गांठ पड़ जाए।
"प्यार का पहला खत लिखने में वक्त तो लगता है" इस गज़ल में इन्हीं दो भावनाओं को पिरोया गया है। प्यार ऎसी कोमल भावना है जिसे पनपने में अच्छा खासा वक्त लगता है,इसलिए जल्दबाजी जायज नहीं। वहीं दूसरी ओर प्यार ऎसी कोमल डोर है जो अगर टूट जाए तो जुड़ने में भी वक्त लगता है और यह भी मुमकिन है कि गांठ पड़ी डोर में वेसी पकड़ न हो और आलम यह भी है कि अगर खोलना चाहें तो इस गांठ को खुलने में भी वक्त लगता है। कुल मिलाकर यह कह सकते हैं कि प्यार एक ऎसी शय है जो न आसानी से मिलती है, न आसानी से भुलाई जाती है और खोने के बाद आसानी से लौटती भी नहीं है।मैने कभी इन्हीं भावों को अपने शब्दों में उकेरने की कोशिश की थी। मुलाहजा फरमाईयेगा:
मोहब्बत की जरूरत हो तो फुर्सत से कभी आना,
यह ऎसी प्यास है जिसको मिले मुद्दत से मयखाना।
आईये हम सब प्यार के इन्हीं इशारों को समझते हुए पहले ख़त के अनुभव को महसूस करते हैं और हस्ती के बोल और जगजीत सिंह के धुनों में खो जाते हैं:
प्यार का पहला ख़त लिखने में वक्त तो लगता है,
नए परिंदों को उड़ने में वक्त तो लगता है।
जिस्म की बात नहीं थी उनके दिल तक जाना था,
लंबी दूरी तय करने में वक्त तो लगता है।
गांठ अगर लग जाए तो फिर रिश्ते हो या डोरी,
लाख करें कोशिश खुलने में वक्त तो लगता है।
हमने इलाज-ए-जख़्म-ए-दिल तो ढूँढ लिया लेकिन,
गहरे जख़्मों को भरने में वक्त तो लगता है।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक ख़ास शब्द होगा जो मोटे अक्षर में छपा होगा. वही शब्द आपका सूत्र है. आपने याद करके बताना है हमें वो सभी शेर जो आपको याद आते हैं जिसके दो मिसरों में कहीं न कहीं वही शब्द आता हो. आप अपना खुद का लिखा हुआ कोई शेर भी पेश कर सकते हैं जिसमें आपने उस ख़ास शब्द का प्रयोग क्या हो. तो खंगालिए अपने जेहन को और अपने संग्रह में रखी शायरी की किताबों को. आज के लिए आपका शेर है - गौर से पढिये -
उस दरीचे में भी अब कोई नहीं और हम भी,
सर झुकाए हुए चुप चाप गुजर जाते हैं ..
इरशाद ....
पिछली महफ़िल के साथी-
पिछली महफिल का शब्द था "समुन्दर" शरद तैलंग जी ने स्वरचित कुछ शानदार शेर सुनाये, मुलाहजा फरमायें -
यारी जो समुन्दर को निभानी नहीं आती
ये तय था कश्तियों में रवानी नहीं आती ।
समेटे सब को अपने में समुन्दर की निशानी है
हमें ये खासियत उसकी सभी के दिल में लानी है ।
समुन्दर की अगर जो प्यास यूं बढ़ती गई दिन दिन
तो इक दिन देखना नदिया भी अपनी धार बदलेगी।
वाह वाह शरद जी मज़ा आ गया. और मनु ने एक बार फिर रंग जमाया अपने ख़ास अंदाज़ में -
समुंदर आज भी लज्जत को उसकी याद करता है,
कभी इक बूँद छूट कर आ गिरी थी दोशे बादल से
वाह... शन्नो जी आचार्य जी और पूजा अनिल जी आप सब का भी यह आयोजन अच्छा लगा..जानकर ख़ुशी हुई.
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर सोमवार और गुरूवार दो अनमोल रचनाओं के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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8 श्रोताओं का कहना है :
सर को कलम कर लें भले, सरकश रहें हम.
सजदा वहीं करेंगे, जहाँ आँख भी हो नम.
उलझे रहो तुम घुंघरुओं, में सुनते रहो छम.
हमको है ये मालूम,'सलिल'कम नहीं हैं गम.
-divyanarmada.blogspot.com
-sanjivsalil.blogspot.com
तन्हा जी,
हमारी मन पसंद ग़ज़लों में से एक है यह ग़ज़ल , और जगजीत सिंह के बारे में कुछ कहना सूरज को दिया दिखाने के जैसा होगा, हम आपके और सजीव जी के तहे दिल से आभारी हैं .
मोहब्बत की जरूरत हो तो फुर्सत से कभी आना,
यह ऎसी प्यास है जिसको मिले मुद्दत से मयखाना।
अच्छा शेर कहा है आपने. आगे भी हम ऐसी ही प्यारी गज़लें यहाँ, "आवाज़" पर सुनते रहेंगे, आप ऐसे ही दस्तक देते रहा कीजिये.
पूजा अनिल
उंगलियाँ घी में सभी और सर कढाई में ,
इतना सब खाके भी वो देख मुकर जाते हैं
ये वाला चलेगा क्या तनहा जी,,,,
::::)
sastaa sher,,,,
:::)))
मुझे तो जगजीत सिंह जी के सभी गीत व गजलें पसंद हैं....सबसे अधिक तो यह वाला गीत जो मैं, अकसर जब इधर-उधर कोई नहीं होता तो, अपने ही लिये काम करते हुए खुद गुनगुना लेती हूँ: 'ओंठों पर झूलो तुम मेरे गीत अमर कर दो....'
और हाँ, देख रही हूँ कि मनु जी बहुत मंज गये हैं शायरी करने में. वाह! क्या शेर लिखा है ' पाँचों उंगलियाँ कढ़ाई में और सर घी में..'
अरे ये क्या ,,
सस्ते शेर से तो गड बड हो गयी,,,!!!
चचा गालिब ही खैर करें,,
हुआ जब गम से यूं बेहिस तो गम क्या सर के काटने का
न होता गर जुदा तन से तो जानू पर धरा होता.....
बदले से आसार हैं मन लगता नहीं है उनका अब लोगों के दरमियाँ
रंगे-महफ़िल जमी हो जहाँ गानों की वहीँ सर खपाके के सुकूं पाते हैं.
~ शन्नो
One more try, agar इजाज़त हो. Sorry for any inconvenience. Eh sher maine hee likha hai.
'बदले-बदले से हैं हुजूर मन लगता नहीं लोगों के दरमियाँ
रंगे-महफ़िल में जाकर गानों की सर छुपा के सुकूं पाते हैं'.
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