ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 109
"ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है!" ज़िंदगी कब क्या इरादा करती है यह तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन हर किसी के दिल मे हसरत ज़रूर होती है ज़िंदगी को खूबसूरत बनाने की। फ़िल्म जगत मे कुछ बड़ा कर दिखाने की हसरत लिए बम्बई पधारे थे संगीतकार बृज भूषण। लेकिन उनकी ज़िंदगी और क़िस्मत का इरादा कुछ और ही था। भले ही उन्होने कुछ फ़िल्मों में संगीत दिया और उनके कुछ गानें बहुत चले भी, लेकिन बदक़िस्मती उनकी कि वो कभी अपने ज़माने के तमाम चर्चित संगीतकारों की तरह शोहरत की बुलंदियों को नहीं छू सके। बृज भूषण का जन्म श्रीनगर मे हुआ और उनकी पढ़ाई दिल्ली मे हुई। बचपन से ही आकाशवाणी पर वे कार्यक्रम प्रस्तुत किया करते थे। अभिनय और संगीत का शौक उन्हे बम्बई खींच लाया। फ़िल्म 'बिरहन' मे उन्होने बतौर नायक मधुबाला के साथ अभिनय किया। १९६० में फ़िल्म 'पठान' में उन्होने संगीत दिया था पहली बार। उनकी कुछ और संगीत से सजी फ़िल्में हैं 'मिलाप', 'ज़रूरत', 'एक नदी किनारे दो', 'कामशास्त्र' और 'ज़िंदगी और तूफ़ान'। और ऐसे ही एक कमचर्चित गीतकार थे राम अवतार त्यागी जिनका नाम बहुत कम लोगों ने सुना होगा। इस गीतकार - संगीतकार जोड़ी ने १९७५ की फ़िल्म 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में एक साथ काम किया था और इसी फ़िल्म से मुकेश का गाया हुआ एक गीत लेकर आज हम हाज़िर हुए हैं 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में।
"एक हसरत थी कि आँचल का मुझे प्यार मिले, मैने मंज़िल को तलाशा मुझे बाज़ार मिले, ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है"। गीत के ये बोल सुनकर ऐसा लगता है कि जैसे ये इस गीतकार और संगीतकार के लिए ही लिखा गया है। "जो भी तस्वीर बनाता हूँ बिगड़ जाती है, देखते देखते दुनिया ही उजड़ जाती है" जैसे निराशावादी स्वर इस गाने में गूंजते है। हालांकि गीत का अंत एक आशावादी लहर के साथ होता है जब त्यागी साहब लिखते हैं कि "आदमी चाहे तो तक़दीर बदल सकता है, पूरी दुनिया की वो तस्वीर बदल सकता है, आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है", लेकिन यह बेहद अफ़्सोस की बात है कि इस गीत को लिखने वाले गीतकार और स्वरबद्ध करने वाले संगीतकार के तक़दीरों ने इस क्षेत्र में उनका बहुत ज़्यादा साथ नहीं दिया। गीत का अंत बहुत ही सुंदर बन पड़ता है जब "ज़िंदगी और बता तेरा इरादा क्या है" बन जाता है "आदमी सोच तो ले उसका इरादा क्या है", यानी भाव यह है कि तक़दीर पर भरोसा करने वालों को निराशावादी और मेहनत पर भरोसा करने वालों को आशावादी का पर्याय दिया गया है। उमेश माथुर द्वारा निर्देशित 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में मुख्य कलाकार थे साजिद ख़ान, संजय ख़ान, रेहाना और सुलभा देशपांडे, और प्रस्तुत गीत साजिद ख़ान पर ही फ़िल्माया गया था। दोस्तों, आपको शायद याद हो, कुछ दिन पहले 'सन औफ़ इंडिया' फ़िल्म से शांति माथुर का गाया गीत सुनवाया था हमने आपको जो बाल कलाकार साजिद ख़ान पर फ़िल्माया गया था। 'ज़िंदगी और तूफ़ान' में बतौर नायक यह वही "नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही हूँ" वाले साजिद ख़ान हैं जो मशहूर फ़िल्मकार महबूब ख़ान के बेटे हैं। साजिद ख़ान भी बहुत ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाये। तो लीजिए सुनिए आज का सुनहरा गीत और याद कीजिये इस फ़िल्म से जुड़े सभी कमचर्चित कलाकारों को।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें २ अंक और २५ सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के ५ गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा पहला "गेस्ट होस्ट". अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं -
१. इस संगीतकार जोड़ी ने इस कामियाब फिल्म के बाद कभी पीछे मुड कर नहीं देखा.
२. इस फिल्म के सभी गीत एकल स्वरों में है, प्रस्तुत गीत है रफी साहब का गाया, लिखा है मजरूह ने.
३. मुखड़े में शब्द है -"सांझ".
कुछ याद आया...?
पिछली पहेली का परिणाम -
एक और सही जवाब के साथ १२ से १४ अंकों पर पहुँच गए हैं शरद जी, मंजू जी आप काफी करीब थी इस बार. दिलीप जी ने जो कहा वो हमारे भी दिल की आवाज़ है, आशा है हमारे सभी श्रोता उनकी बात पर गौर करेंगे.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम ६-७ के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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6 श्रोताओं का कहना है :
फ़िल्म : दोस्ती
चाहूंगा मैं तुझे सांझ सबेरे फिर भी कभी अब नाम को तेरे आवाज़ मैं न दूंगा
संगीतकार : लक्ष्मीकांत प्यारेलाल
बेहद दर्द में डूब कर गाया गीत है,,,
खासकर वो तान,,,,,,,,,,,,
मितवा,,,,,,,,,,,,,,,,,
मेरे यार,,,,
तुझको,,बार,,बार
आवाज़ मैं न दूंगा,,,,
रफी साहिब को नमन
jawab hai - "chahunga main tujhe sanjh savere,fir bhi kabhi ab naam ko tere aawaj main na dunga....."
film - dosti
Manju Gupta
मेरे पसंदीदा गानों में से एक...
मैं तो भुला ही बैठा था.. :-(
धन्यवाद
मुझे सिर्फ गीत पता था लें संगीतकार का नाम नहीं मालूम था.
बहुत ही प्यारा गाना, ये रेडियो पर कम ही सुनने को मिला, वैसे आजकल मै रेडियो पर सिर्फ गजले ही सुनता हूँ
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