ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 249
आज साहिर साहब और सचिन दा पर केन्द्रित शृंखला 'जिन पर नाज़ है हिंद को' में बजने वाले गीत का ज़िक्र शुरु करने से पहले आइए सचिन दा के बेटे पंचम के शब्दों में अपने पिता से संबंधित एक दिल को छू लेनेवाला क़िस्सा जानें। पंचम कहते हैं "वो कभी मेरी तारीफ़ नहीं करते थे। मैं कितना भी अच्छा धुन क्यों ना बनाऊँ, वो यही कहते थे कि इससे भी अच्छा बन सकता था, और कोशिश करो। एक बार वो मॊर्निंग् वाक्' से वापस आकर बेहद ख़ुशी के साथ बोले कि आज एक बड़े मज़े की बात हो गई है। वो बोले कि आज तक जब भी मैं वाक् पर निकलता था, लोग कहते थे कि देखो एस. डी. बर्मन जा रहे हैं, पर आज वो ही लोगों ने कहा कि देखो, आर. डी. बर्मन का बाप जा रहा है! यह सुनकर मैं हँस पड़ा, हम सब बहुत ख़ुश हुए।" दोस्तों, सच ही तो है, किसी पिता के लिए इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात क्या होगी कि दुनिया उसे उनके बेटे के परिचय से पहचाने। ख़ैर, ये तो थी पिता-पुत्र की बातें, आइए अब ज़िक्र छेड़ा जाए आज के गीत का। आज भी हम एक बहुत ही सुरीली रचना लेकर उपस्थित हुए हैं, जिसे सुनते ही आप के कानों में ही नहीं बल्कि आप के दिलों में भी मिशरी सी घुल जाएगी। लता जी की मधुरतम आवाज़ में यह गीत है फ़िल्म 'हाउस नंबर ४४' का "फैली हुई हैं सपनों की बाहें, आजा चल दें कहीं दूर"।
'हाउस नंबर ४४' १९५५ की फ़िल्म थी, और एक बार फिर से नवकेतन, देव आनंद, सचिन देव बर्मन और साहिर लुधियानवी आए एक साथ। और एक बार फिर से बनें कुछ सुमधुर गानें। फ़िल्म की नायिका थीं कल्पना कार्तिक। साहिर के निजी कड़वे अनुभव उभर कर सामने आए हेमन्त कुमार के गाए "तेरी दुनिया में जीने से तो बेहतर है कि मर जाएँ" गीत में। साहिर साहब की काव्य प्रतिभा का एक बहुत ही सुंदर उदाहरण है हेमन्त दा का ही गाया हुआ "चुप है धरती चुप है चाँद सितारे, मेरे दिल की धड़कन तुझको पुकारे"। 'हाउस नंबर ४४' देव आनंद और कल्पना कार्तिक की शादी के बाद की पहली फ़िल्म थी। आपको याद दिलाना चाहेंगे कि 'टैक्सी ड्राइवर' के सेट्स पर ही इन दोनों ने शादी की थी। इस फ़िल्म में जो मनोरम लोकेशन्स् दिखाए गए हैं, वो महाराष्ट्र के महाबलेश्वर की पहाड़ियाँ हैं। लता जी के गाए प्रस्तुत गीत भी इन्ही सह्याद्री की पहाड़ियों में ही फ़िल्माया गया था। दूर दूर तक फैली पहाड़ों और उन पर सांपों की तरह रेंगती हुई सड़कों के साथ फैले हुए सपनों की जो तुलना की गई है, गीत के फ़िल्मांकन से और भी ज़्यादा पुरसर हो गई है। इस गीत में लता जी की आवाज़ इतनी मीठी लगती है कि बस एक बार सुन कर दिल ही नही भरता। मुझे पूरा यकीन है कि आप कम से कम इस गीत को दो बार तो ज़रूर सुनेंगे ही। बस अपनी आँखे बंद कीजिए और निकल पड़िए किसी हिल स्टेशन के रोमांटिक सफ़र पर। चलते चलते आपको यह भी बता दूँ कि साहिर और सचिन दा की जोड़ी का यह गीत मेरा सब से पसंदीदा गीत रहा है। मैं शुक्रिया अदा करता हूँ 'आवाज़' का कि इस मंच के ज़रिए अपने बहुत ही प्रिय गीत को आप सब के साथ बाँटने का मौका मुझे मिला। तो सुनिए यह गीत और बस सुनते ही जाइए।
और अब बूझिये ये पहेली. अंदाजा लगाइये कि हमारा अगला "ओल्ड इस गोल्ड" गीत कौन सा है. हम आपको देंगे तीन सूत्र उस गीत से जुड़े. ये परीक्षा है आपके फ़िल्म संगीत ज्ञान की. याद रहे सबसे पहले सही जवाब देने वाले विजेता को मिलेंगें 2 अंक और 25 सही जवाबों के बाद आपको मिलेगा मौका अपनी पसंद के 5 गीतों को पेश करने का ओल्ड इस गोल्ड पर सुजॉय के साथ. देखते हैं कौन बनेगा हमारा अगला (अब तक के चार गेस्ट होस्ट बने हैं शरद तैलंग जी, स्वप्न मंजूषा जी, पूर्वी एस जी और पराग सांकला जी)"गेस्ट होस्ट".अगले गीत के लिए आपके तीन सूत्र ये हैं-
१. साहिर का रचा एक क्लासिक.
२. कल होगा २५० वां एपिसोड सचिन दा की इस अद्भुत रचना को समर्पित.
३. एक अंतरे की पहली पंक्ति में शब्द आता है -"खिलौना".
पिछली पहेली का परिणाम -
शरद जी आपका स्कोर ३२ अंकों पर आ गया है. अवध जी जहाँ तक हमारा ख्याल है "ये तन्हाई हाय रे हाय" हसरत जयपुरी का लिखा हुआ है. दिलीप जी आपकी आवाज़ में बर्मन दा को दी गयी श्रद्धाजंली मन को छू गयी...धन्येवाद.
खोज और आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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9 श्रोताओं का कहना है :
ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है
फ़िल्म प्यासा
ये महलों, ये तख्तों, ये ताजों की दुनिया
ये इन्सां के दुश्मन समाजों की दुनिया
ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
हर इक जिस्म घायल, हर इक रूह प्यासी
निगाहों में उलझन, दिलों में उदासी
ये दुनिया है या आलम-ए-बदहवासी
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
यहाँ इक खिलौना है इन्साँ की हस्ती
ये बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती
यहाँ पर तो जीवन से है मौत सस्ती
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
जवानी भटकती है बदकार बन कर
यहाँ जिस्म सजते हैं बाज़ार बन कर
जहाँ प्यार होता है व्यौपार बन कर
ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है ।
शरद जी ने तो उत्तर दे ही दिया है. वाकई 'यह दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है ' एक क्लासिक कालजयी रचना है. इसे सुन कर हमेशा मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं (goose bumps).
अवध लाल
सुजॉय दा,
मैं यह समझ सकता हूँ कि साहिर - सचिन दा की जोड़ी के इतने उत्कृष्ट गीतों में से आपको यह सबसे पसंदीदा गाना क्यों लगता है. वाकई लता दीदी के स्वर माधुर्य का क्या कहना. ऐसा लगता है कानों में शहद घुलता जा रहा है.
क्या बात है सचिन दा और साहिर का लाजवाब संगम. एक से बढ़ कर एक नायाब नग्मे. और उनमें से दस मोती की माला आपने पिरो दी.
मुझे यह स्वीकारना है कि मैं गीत को बिना दो सुने रह ही न सका.
आभार सहित
अवध लाल
सुजॉय दा,
मैं यह समझ सकता हूँ कि साहिर - सचिन दा की जोड़ी के इतने उत्कृष्ट गीतों में से आपको यह सबसे पसंदीदा गाना क्यों लगता है. वाकई लता दीदी के स्वर माधुर्य का क्या कहना. ऐसा लगता है कानों में शहद घुलता जा रहा है.
क्या बात है सचिन दा और साहिर का लाजवाब संगम. एक से बढ़ कर एक नायाब नग्मे. और उनमें से दस मोती की माला आपने पिरो दी.
मुझे यह स्वीकारना है कि मैं गीत को बिना दो बार सुने रह ही न सका.
आभार सहित
अवध लाल
बहुत खुबसूरत गीत.
फ़ैली हुई है....
ये गीत सुरीलेपन जी इंतेहां है.बडे सुकून के साथ इसके सुर सजाये हैं सचिन दा नें.
मेरी स्वरांजली सुन मेरे बंधु रे के लिये धन्यवाद...
बहुत ही सुन्दर गीत एक के बाद एक आ रहे है. शरद जी को बधाई. अब जब २५० एपिसोड हो चुके है, और ३०० के बाद अंकोंकी गिनती फिरसे शुरू होगी तब हम जो भी थोड़े बहुत अंक इकठ्ठा करेंगे वह तो शून्य बन जायेंगे. इसका क्या इलाज़ है सुजॉय जी ?
पराग
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