महफ़िल-ए-ग़ज़ल #५८
आज की महफ़िल में हम हाज़िर हैं शरद जी की पसंद की पहली नज़्म लेकर। शरद जी ने जिस नज़्म की फ़रमाईश की है, वह मुझे व्यक्तिगत तौर पर बेहद पसंद है या यूँ कहिए कि मेरे दिल के बेहद करीब है। इस नज़्म को महफ़िल में लाने के लिए मैं शरद जी का शुक्रिया अदा करता हूँ। यह तो हुई मेरी बात, अब मुझे "मैं" से "हम" पर आना होगा, क्योंकि महफ़िल का संचालन आवाज़ का प्रतिनिधि करता है ना कि कोई मैं। तो चलिए महफ़िल की विधिवत शुरूआत करते हैं और उस फ़नकार की बात करते हैं जिनके बारे में मोहम्मद रफ़ी साहब ने कभी यह कहा था: आप मेरे गाने सुनते हैं, मैं बस मन्ना डे के गाने सुनता हूँ। उसके बाद और कुछ सुनने की जरूरत नहीं होती। इन्हीं फ़नकार के बारे में प्रसिद्ध संगीतकार अनिल विश्वास यह ख्याल रखते थे: मन्ना डे हर वह गीत गा सकते हैं, जो मोहम्मद रफी, किशोर कुमार या मुकेश ने गाये हो लेकिन इनमें कोई भी मन्ना डे के हर गीत को नही गा सकता है। सुनने में यह बात थोड़ी अतिशयोक्ति-सी लग सकती है, लेकिन अगर आप मन्ना दा के गाए गीतों को और उनके रेंज को देखेंगे तो कुछ भी अजीब नहीं लगेगा। मन्ना दा ने जितनी आसानी से किसी हास्य-गाने पर काम किया है(उदाहरण के लिए: एक चतुर नार) उतनी हीं आसानी से वे किसी गमगीन गाने(ऐ मेरे प्यारे वतन) को गा जाते हैं और उतनी हीं आसानी और तन्मयता से शास्त्रीय गाने(लागा चुनरी में दाग) में अपनी गलाकारी का परिचय देते हैं। मन्ना दा के बारे में सुप्रसिद्ध संगीतकार खैय्याम के विचार कुछ इस तरह हैं: शास्त्रीय संगीत पर उनकी पकड़ बहुत मज़बूत थी ही साथ ही लोकगीत गाने का अंदाज़ भी बढ़िया था- जैसे चलत मुसाफिर मोह लियो रे। दो बीघा ज़मीन का मन्ना का गाया गाना अपनी निशानी छोड़ जा मुझे बेहद पसंद है। इसके अलावा पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई भी बढ़िया है। हालांकि खैय्याम साहब ने मन्ना दा के लिए "था" का प्रयोग किया है और इसका कारण यह है कि फिल्मों में अब उनके गाने नहीं आते, लेकिन मन्ना दा आज भी उसी जोश-खरोश के साथ रियाज़ करते हैं और आज भी मंच पर उनका जादू कायम है। फिल्मों में नहीं गाते क्योंकि उनके अनुसार उनकी आवाज़ आज के नायकों को सूट नहीं करेगी। वैसे क्या आपको पता है कि गत २१ अक्टूबर को मन्ना दा को २००७ के दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाज़ा गया है। पूरी आवाज़-टीम की ओर से उनको इस उपलब्धि की बधाईयाँ।
यह उपलब्धि एक ऐसा मुकाम है,जिसे हासिल करके कोई भी खुश होगा। लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि मन्ना दा को यह बहुत पहले हीं मिल जाना चाहिए था। उनके साथ कई बार मंच बाँट चुकी कविता कृष्णमूर्त्ति जी भी यही विचार रखती हैं: मन्ना डे को दादा साहब फालके पुरस्कार मिलना बहुत ख़ुशी की बात है. वैसे मैं तो कहूंगी कि ये उन्हें बहुत पहले ही मिल जाना चाहिये था। वो ऐसे कलाकार हैं जिन्हें शास्त्रीय संगीत की बहुत अच्छी समझ थी. उनके गाये हुए सभी गानों में एक शालीनता है। पिछले जमाने के लगभग सारे हीं संगीतकार मन्ना दा से प्रभावित नज़र आते हैं। एल-पी के नाम से विख्यात संगीतकार जोड़ी के प्यारेलाल जी को हीं देख लीजिए: मन्ना डे की आज अपनी एक जगह है। हर सांचे में ढल जाते थे वो, उनकी क्या तारीफ़ करूं। पानी की तरह वो किसी भी रंग में घुल जाते थे। हम अगर मन्ना दा की पहली फिल्म की बात करें तो उन्होंने अपने कैरियर की शुरूआत १९४३ में रीलिज हुई फिल्म "तमन्ना" से की, लेकिन उन्हें लोकप्रियता मिली १९५० में बनी "मशाल" के "ऊपर गगन विशाल..." गाने से। मन्ना दा अपने शुरूआती दिनों को याद करते हुए कहते हैं(सौजन्य: बीबीसी, सलमा जैदी): के०सी० डे साहब मेरे चाचा जी थे। पढाई खत्म होने के बाद चाचा ने बोला कि अब तुम गाना शुरू करो। शुरूआत तो गुरू से हीं होनी चाहिए। सही गुरू ही सही सुर-लय बताते हैं, सा रे गा मा क्या है, ये बताते हैं। तो मेरे चाचा जी ने बताया। चाचा जी बम्बई आ रहे थे, वो अंधे थे तो उनके साथ किसी को आना था, चाचा ने शादी नहीं की थी, मैं उनके बेटे जैसा था तो मुझे हीं आना पड़ा। बंबई आने के बाद मुझे चाचा जी संगीत सीखाने के लिए अमन अली खान के पास ले गए। लेकिन जल्द हीं खान साहब का इंतकाल हो गया। उनके बाद मैंने अब्दुल रहमान खान के पास सीखना शुरू किया। उनके पास ३-४ साल सीखा। फिर मैंने अनिल बिश्वास, खेमचंद प्रकाश, एस डी बर्मन को एसिस्ट किया। मैंने कई पिक्चर्स में म्युजिक भी दिया..इस तरह मैं जो कुछ भी सीखता गया उसका फल मुझे मिलता गया। हालांकि मैंने शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली है, लेकिन फिल्मों में इसलिए आ गया क्योंकि उन दिनों शास्त्रीय गाने वालों को अच्छा प्लेटफ़ार्म नहीं मिलता था, वे लोग भूखे मर रहे थे। जहाँ तक मेरी बात है, मैं अपने फिल्मी सफ़र से संतुष्ट हूँ। मेरा मानना है कि मैंने जिनके साथ भी काम किया है, उनकी जो देन है इस देश को, वह बहुत बड़ी है। १९६९ में फिल्म मेरे हुजूर और १९७१ में बांग्ला फिल्म निशी पद्मा के लिए दो बार राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किए गए मन्ना दा की बातों को अब यहीं विराम देते हैं। और अब आगे बढते हैं उस दूसरे फ़नकार की ओर जिसने आज के नज़्म की रचना की है। हमारी बदकिस्मती है कि इनके बारे में ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है, इसलिए हमें "मधुकर राजस्थानी" साहब की एक बेमिसाल रचना की कुछ बेमिसाल पंक्तियाँ से हीं काम चलाना होगा:
सजनी, सजनी
कजरारी अँखियां रह गईं रोती रे
नथली से टूटा मोती रे...
इस रचना के बारे में रेडियोवाणी के युनूस खान साहब लिखते हैं: कुल मिलाकर चार मि0 बाईस सेकेन्ड का गीत है ये। बेहद भारतीय गीत है। अगर आप इसे ध्यान से सुनें और पढ़ें तो पायेंगे कि एक बेहद निषिद्ध विषय पर मधुकर राजस्थानी ने ये गीत लिखा है, जिसमें अश्लील हो जाने की पूरी संभावनाएं थीं। मगर ऐसा नहीं हुआ बल्कि जिस अंदाज़ में इसे लिखा गया है उससे गीत का लालित्य कुछ और बढ़ ही गया है। पिछले कुछ लेखों में मैंने आपको मधुकर राजस्थानी के गीतों से अवगत कराया है। इन सबको क्रम से पढ़ने के बाद आप जान चुके होंगे कि सादगी, सरलता और शिष्टता इन गीतों की सबसे बड़ी विशेषता है। गीत सितार की तान से शुरू होता है। फिर मन्ना दा की नर्म आवाज़ में ‘सजनी सजनी’ की पुकार और फिर ‘नथली से टूटा मोती रे’। इसी गीत में मन्ना दा जब गाते हैं ‘रूप की अगिया अंग में लागी, कैसे छिपाए लाज अभागी’ तो लाज शब्द पर मन्ना डे अपनी आवाज़ में जिस तरह का भाव लाते हैं वो अनमोल है, नये गायक अगर ये भाव व्यक्त करना सीख जाएं तो हमारा संगीत बहुत कुछ सुधर जाए। युनूस साहब की इन पंक्तियों से हमें मधुकर साहब और मन्ना दा दोनों की हुनर का सही-सही अंदाज़ा लग जाता है। आने वाली कड़ियों में कभी हम आपको यह राजस्थानी गीत जरूर सुनवाएँगे।
अब पेश है वह नज़्म जिसके लिए आज की महफ़िल सजी है। हमें पूरा यकीन है कि यह आपको बेहद पसंद आएगी। तो लुत्फ़ उठाने के लिए तैयार हो जाईये। हाँ, इस नज़्म को सुनने से पहले जान लीजिए कि युनूस भाई इसके बारे में क्या ख्याल रखते हैं: ये भी अजीबोग़रीब गीत है—पहले रूबाईनुमा चार पंक्तियां आती हैं, जिन्हें धीमी रफ्तार में गाया गया है। इसके बाद आता है अंतरा। जो काफी तेज़ गति में गाया गया है। लेकिन मन्ना दा की आवाज़ के कोमल स्पर्श ने इन पंक्तियों को जिंदा कर दिया है। मेरा मानना ये है कि ये गीत नहीं है बल्कि एक नाटक या बैले जैसा है। ये गीत है ही नहीं। मिनिमम तुकबंदियां हैं इसमें। यूं लगता है किसी पारसी ड्रामे के संवाद हैं। पर जज्बात के मामले में ये गाना बहुत गहरा है। मुझे लगता है कि आज के गीतकारों को इस तरह की रचनाओं से सबक़ लेना चाहिये। ये प्रयोगधर्मिता की एक और मिसाल है। ये और बात है कि हमें मधुकर साहब के बारे में ज्यादा कुछ नहीं मालूम, लेकिन उनकी रचनाएँ और खासकर यह गीत उनकी पहचान के लिए काफ़ी है। आप सुनेंगे तो आप भी यहीं कहेंगे। तो देरी काहे की, यह रही वह दर्द से लबरेज सुमधुर नज़्म:
सुनसान जमुना का किनारा,
प्यार का अंतिम सहारा,
चाँदनी का कफ़न ओढे,
सो रहा किस्मत का मारा,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!
पत्थरों की ओट में महकी हुई तन्हाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
डालियों की झूमती और डोलती परछाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
खेलती साहिल पे लहर ले रहीं अंगड़ाईयाँ,
कुछ नहीं कहतीं,
ये जानके चुपचाप हैं मेरे ______ की तरह,
हमने तो इनके सामने खोला था दिल के राज को,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!
ये जमीं की गोद में कदमों का धुंधला-सा निशां,
खामोश है,
ये रूपहला आसमां, मद्धम सितारों का जहां,
खामोश है,
ये खुबसूरत रात का खिलता हुआ गुलशन जवां,
खामोश है,
रंगीनियाँ मदहोश हैं अपनी खुशी में डूबकर,
किस तरह इनको सुनाऊँ अब मेरी आवाज़ को,
किससे पुछूँ मैं भला अब
देखा कहीं मुमताज़ को?
मेरी भी इक मुमताज़ थी!!
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "पशेमाँ" और शेर कुछ यूं था -
तुझको रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमाँ न हुये
इश्क़ की रस्म को इस तरह निभाया हमने....
गज़ल को सुनकर इस शब्द की सबसे पहले शिनाख्त की शरद जी ने। आपने इस शब्द पर एक शेर भी पेश किया:
अपने किए पे कोई पशेमान हो गया
लो और मेरी मौत का सामान हो गया।
शरद जी के बाद महफ़िल में चचा ग़ालिब के शेर के साथ नज़र आईं अल्पना जी। अल्पना जी, यह कैसी लुकाछिपी है, कभी दिखती हैं कभी नहीं। हमें उम्मीद है कि हमारी महफ़िल आपको पसंद ज़रूर आती होगी तो थोड़ा नियमित हो जाईये :) यह रहा आपका शेर:
की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाये उस ज़ोदपशेमाँ का पशेमाँ होना
मुरारी जी, महफ़िल में आपका स्वागत है, लेकिन यह क्या आपने किस शब्द पर गज़ल कह दी। इसमें तो "पशेमाँ" शब्द की आमद हीं नहीं है। अगली बार से ध्यान रखिएगा।
सीमा जी, थोड़ी देर हो गई- क्या बात है? ये तो आपकी हीं महफ़िल थी। खैर कोई बात नहीं...यह रही आपकी पेशकश:
वो ख़ुद नज़र आते हैं जफ़ाओं पे पशेमाँ
क्या चाहिये और तुम को "शकील" इस के सिवा और (शकील बँदायूनी)
हुस्न को नाहक़ पशेमाँ कर दिया,
ऐ जुनूँ ये भी कोई अन्दाअज़ है| (मजाज़ लखनवी)
एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे (मोमिन)
कुलदीप जी, बातों-बातों में आप कहाँ निकल गएँ? बस शिकायत करने के लिए आए थे क्या? :) कोई शेर भी तो कहना था।
शामिख जी ने कैफ़ी आज़मी साहब के लिखे हक़ीक़त फिल्म के गाने(होके मजबूर मुझे) से कुछ पंक्तियाँ पेश की:
बेमहल छेड़ पे जज़्बात उबल आये होँगे
ग़म पशेमा तबस्सुम में ढल आये होँगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आये होँगे
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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10 श्रोताओं का कहना है :
आपने शरद साहब की पसन्द पर यह गीत सुनाया लेकिन एक शरद और है जिसे यह पसन्द है.. बचपन से उसकी ओर से भी बहुत बहुत धन्यवाद ।
तनहा जी नमस्कार
इस बार कतई वक़्त पे हैं
सही शब्द है "मुकद्दर "
ये रहा एक खुबसूरत शेर साकी अमरोही साहब का
काम आपने मुकद्दर का अँधेरा नहीं होता
सूरज तो निकलता है सवेरा नहीं होता
वैसे साकी अमरोही साहब कि दास्ताँ भी आपने आप में प्रेरणा श्रोत है
हर घडी खुद से उलझना है मुक़द्दर मेरा
मैं ही कश्ती हूँ मुझी में है समंदर मेरा
- निदा फाजली
सही लफ्ज़ मुक़द्दर.
ज़िन्दगी का मुक़द्दर सफ़र दर सफ़र
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी (nida fazili)
हाथ में जाम जहाँ आया मुक़द्दर चमका
सब बदल जायेगा क़िस्मत का लिखा, जाम उठा (basheer badra)
मुक़द्दर मेरे चश्म-ए-पुर'अब का
बरसती हुई रात बरसात की (basheer badra)
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो (kaisfi aazmi)
इश्क़ की राह के मुसाफ़िर का मुक़द्दर मालूम
दश्त-ए-उम्मीद में अन्देशे का बादल मिलना (parveen shaKIR)
प्यारे ' तन्हा ',
तन्हा नहीं हो दोस्त आप . क्या क्या महफिलें सजाते रहते हो .हम उन किस्मतवालों में हैं जो आपकी महफ़िल की मस्ती और मज़ा तो उठा लेते हैं पर कुछ ' वाह वाह ' कहने से भी खुद को महरूम पाते हैं . कारण......
न जाने कितने और रोग लगे हैं ,या लगा बैठे हैं ,जिन्दगी जीने के लिए .वैसे अगर कहूं की फुर्सत नहीं मिलती तो कोई बड़ा आदमी न समझ लेना .बड़े आदमियों को ही ज्यादा फुर्सत नसीब होती है. हम जैसों को नहीं .आप का और पूरी 'आवाज़ ' की टीम का तहे दिल से शुक्रिया .कि जब भी थके मांदे थोड़ी सी फुर्सत मिलती है ,आप के यहाँ पहुँच ,पढ़ सुन ,सुकून में डूब जाते हैं . याद भी आ जाता है कि भीतर कोई मन भी है और उसका तो मुकाम ही है, ' आवाज़ '.
इस सुकून को बड़े सारे लफ्जों में नहीं कह सकता ,क्योंकि कहा ही नहीं जा सकता .बस ये समझ लें कि कभी लम्बा दौर हो जाता है गैर हाजिरी का तो खुद से ही कह बैठता हूँ ........
दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझसे भी दिल फरेब हैं गम रोज़गार के .
आप और आपकी पूरी 'आवाज़ ' टीम को हमारी भी उम्र लगे ,क्योंकि आजकल जो बज रहा है उस में हम खुद को नहीं पाते ,और जहां हमें मिलता है सुकून, उसे बस आप हैं सुनते सुनाते !
आमीन !
जवाब -मुकद्दर
मुकद्दर ने ही संघषों की अमावस्या - सी काली रात को ,
दीये की रोशनी की तरह जीवन में उजाला भर दिया है . swrchit .
आज तो बहुत देर हो गयी लकिन \ शेर तो कह कर ही जायेंगे
पेशानियों पे लिखे मुक़द्दर नहीं मिले|
दस्तार कहाँ मिलेंगे जहाँ सर नहीं मिले
(राहत इन्दौरी )
क़फ़स में खींच ले जाये मुक़द्दर या नशेमन में।
हमें परवाज़ से मतलब है, चलती हो हवा कोई॥
(सीमाब अकबराबादी )
हम चिराग़-ए-शब ही जब ठहरे तो फिर क्या सोचना
रात थी किस का मुक़द्दर और सहर देखेगा कौन
मेरी क़िस्मत की लकीरें मेरे हाथों में न थीं
तेरे माथे पर कोई मेरा मुक़द्दर देखता
जुदाइयां तो मुक़द्दर हैं फिर भी जाने सफ़र
कुछ और दूर ज़रा साथ चलके देखते हैं
(अहमद फ़राज़ )
regards
आदरणीय शरद जी की पसंद की ये नज़्म सच में समा बाँध गयी खुबसूरत....
regards
बहुत खुबसूरत नज़्म ....!!
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