Wednesday, December 30, 2009

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब... शोभा गुर्टू ने फिर से ज़िंदा किया खुसरो को



महफ़िल-ए-ग़ज़ल #६४

पिछली ग्यारह कड़ियों से हम आपको आपकी हीं फ़रमाईश सुनवा रहे थे। सीमा जी की पसंद की पाँच गज़लें/नज़्में, शरद जी और शामिख जी की तीन-तीन पसंदीदा गज़लों/नज़्मों को सुनवाने के बाद हम वापस अपने पुराने ढर्रे पर लौट आए हैं। तो हम आज जिस गज़ल को लेकर इस महफ़िल में हाज़िर हुए हैं, उसका अंदाज़ कुछ अलहदा है। अलहदा इसलिए है क्योंकि इसे लिखा हीं अलग तरीके से गया है और जिसने लिखा है उसकी तारीफ़ में कुछ कहना बड़े-बड़े ज्ञानियों को दुहराने जैसा हीं होगा। फिर भी हम कोशिश करेंगे कि उनके बारे में कुछ जानकारियाँ आपको दे दें..वैसे हम उम्मीद करते हैं कि आप सब उनसे ज़रूर वाकिफ़ होंगे। इस गज़ल के गज़लगो हीं नहीं बल्कि इस गज़ल की गायिका भी बड़ी हीं खास हैं। यह अलग बात है कि गज़लगो मध्य-युग से ताल्लुक रखते हैं तो गायिका बीसवीं शताब्दी से..फिर भी दोनों अपने-अपने क्षेत्र में बड़ा हीं ऊँचा मुकाम रखते हैं। हम गज़लगो के बारे में कुछ कहें उससे पहले क्यों न गायिका से अपना और आप सबका परिचय करा दिया जाए। इन्हें "ठुमरी क़्वीन" के नाम से जाना जाता रहा है। ८ फरवरी १९२५ को कर्नाटक के बेलगाम में जन्मीं इन फ़नकारा का वास्तविक नाम "भानुमति शिरोडकर" था। इन्हें इनकी प्रारंभिक शिक्षा/दीक्षा अपनी माँ मेनकाबाई शिरोडकर से मिली, जो कि खुद जयपुर-अतरौली घराने के उस्ताद अल्लादिया खान की शिष्या थीं। भानुमति ने उस्ताद अल्लादिया खान के सबसे छोटे बेटे उस्ताद भुर्जी खान से संगीत की विधिवत शिक्षा ली। फिर उस्ताद अल्लादिया खान के भतीजे उस्ताद नत्थन खान से खयाल सीखा, लेकिन इनकी गायकी पर सबसे ज्यादा असर उस्ताद घम्मन खान का था, जिनकी छत्रछाया में इन्हें ठुमरी, दादरा, कजरी, चैती और संगीत की ऐसे हीं कई रूपों को सुनने और गुनने का मौका मिला। पंडित नारायण नाथ गुर्टू के सुपुत्र विश्वनाथ गुर्टू से शादी के बाद भानुमति शोभा गुर्टू हो गईं। शोभा गुर्टू यूँ तो शास्त्रीय संगीत में पारंगत थीं, लेकिन इन्हें जाना गया सेमि-क्लासिकल फार्म्स के कारण..जैसे कि ठुमरी, दादरा, कजरी और होरी। ठुमरी में इनका कोई सानी न था। ये न सिर्फ शास्त्रीय गानों तक हीं सीमित रहीं, बल्कि इन्होंने मराठी और हिन्दी फिल्मों में भी कई सारे गाने गाए। कमाल अमरोही की फिल्म "पाकीज़ा" इनकी प्रारंभिक फिल्मों में शुमार की जाती है। हाल के सालों में इन्हें २००० में रीलिज हुए "जन गण मन" वीडियो में भी देखा गया। १९८७ में इन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया था। पंडित बिरजु महाराज के साथ एक हीं मंच पर कला का प्रदर्शन कर चुकीं शोभा गुर्टू को २००२ में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। सब कुछ सही चल रहा था... तभी लगभग पाँच दशकों तक हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के आसमान पर चाँद की तरह चमकने वालीं इन महान फनकारा का २७ दिसम्बर २००४ को दु:खद अंत हो गया। हमारी यह बदकिस्मती की थी कि हमने एक अमूल्य धरोहर को बड़े हीं सस्ते में खो दिया। शोभा जी इस नाम और मुकाम से कहीं ज्यादा की काबिलियत रखती थीं।

शोभा जी के बारे में विस्तार से जानने के बाद अब वक्त है आज की गज़ल के गज़लगो, आज की रचना के रचनाकार से रूबरू होने का। आज हम जिनका ज़िक्र करने जा रहे हैं, वो खास-तौर पर अपनी कह-मुकरियों, बूझ-पहेलियों, बिन-बूझ पहेलियों और दोहों के लिए जाने जाते हैं। यूँ नाम तो इनका था "अबुल हसन यमीनुद्दी मुहम्मद", लेकिन दुनिया इन्हें अमीर खुसरो दहलवी या फिर खुसरो के नाम से जानती है। सुखन के दीवाने इन्हें तूती-ए-हिंद भी कहते हैं और सच मानिए इनकी तूती अब भी बोलती है। यकीन न आए तो किसी भी सूफियाना गायक से पूछ लीजिए..इनका नाम उन सबकी जुबानों पर दर्ज मिलेगा। खुसरो..खुसरो कैसे बने,इसके पीछे की कहानी जाननी हो तो आईये हमारे साथ। कहते हैं कि बचपन से ही अमीर खुसरो का मन पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा शेरो-शायरी व काव्य रचना में अधिक लगता था। वे हृदय से बड़े ही विनोदप्रिय, हसोड़, रसिक, और अत्यंत महत्वकांक्षी थे। वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी। खुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे। उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी। उस समय खुसरो केवल सात वर्ष के थे। अमीर सैफुद्दीन महमूद (खुसरो के पिता) अपने दोनों पुत्रों को लेकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में उपस्थित हुए। उनका आशय दीक्षा दिलाने का था। संत निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह के द्वार पर वे पहुँचे। वहाँ अल्पायु अमीर खुसरो को पिता के इस महान उद्देश्य का ज्ञान हुआ। खुसरो ने कुछ सोचकर न चाहते हुए भी अपने पिता से अनुरोध किया कि मुरीद 'इरादा करने' वाले को कहते हैं और मेरा इरादा अभी मुरीद होने का नहीं है। अत: अभी केवल आप ही अकेले भीतर जाइए। मैं यही बाहर द्वार पर बैठूँगा। अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई सच्चे सूफ़ी हैं तो खुद बखुद मैं उनकी मुरीद बन जाऊँगा। आप जाइए। जब खुसरो के पिता भीतर गए तो खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाए और अपने मन में विचार किया कि यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो वे मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों के द्वारा मेरे पास उत्तर भेजेंगे। तभी में भीतर जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त कर्रूँगा अन्यथा नहीं। खुसरो के ये पद निम्न लिखित हैं -

'तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज गरदद।
गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद।।'

अर्थात: तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा से बाज़ बन ज़ाए।

खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा -

'बयायद अंद र्रूँ मरदे हकीकत, कि बामा यकनफस हमराज गरदद।
अगर अबलह बुअद आँ मरदे - नादाँ। अजाँ राहे कि आमद बाज गरदद।।'

अर्थात - "हे सत्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको। यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते से लौट जाए।' खुसरो ने ज्यों ही यह पद सुना, वे आत्मविभोर और आनंदित हो उठे और फौरन भीतर जा कर संत के चरणों में नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात गुरु ने शिष्य को दीक्षा दी। यह घटना जाने माने लेखक व इतिहासकार हसन सानी निज़ामी ने अपनी पुस्तक तजकि-दह-ए-खुसरवी में पृष्ठ ९ पर सविस्तार दी है। इस घटना के पश्चात अमीर खुसरो जब अपने घर पहुँचे तो वे मस्त गज़ की भाँती झूम रहे थे। वे गहरे भावावेग में डूबे थे। अपनी प्रिय माताजी के समक्ष कुछ गुनगुना रहे थे। आज क़व्वाली और शास्रीय व उप-शास्रीय संगीत में अमीर खुसरो द्वारा रचित जो 'रंग' गाया जाता है वह इसी अवसर का स्मरण स्वरुप है। हिन्दवी में लिखी यह प्रसिद्ध रचना इस प्रकार है -

"आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री।
अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर रंग है री।
मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।
अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।
कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया, मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।
आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया। वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।"


अब चलिए जानते हैं इनके जन्म की कहानी। वो कौन-सी जमीं थी, जिन्हें इन्होंने मिट्टी से सोना कर दिया था। आप हैं ना हमारे साथ इस सफर में? अमीर खुसरो दहलवी का जन्म उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। गाँव पटियाली उन दिनों मोमिनपुर या मोमिनाबाद के नाम से जाना जाता था। इस गाँव में अमीर खुसरो के जन्म की बात हुमायूँ काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ 'तज़किरा सैरुल आरफीन' में सबसे पहले कही। तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में दिल्ली का राजसिंहासन गुलाम वंश के सुल्तानों के अधीन हो रहा था। उसी समय अमीर खुसरो के पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद (मुहम्मद) तुर्किस्तान में लाचीन कबीले के सरदार थे। कुछ लोग इसे बलख हजारा अफ़गानिस्तान भी मानते हैं। कुछ लोग ऐसी भी मानते हैं कि ये कुश नामक शहर से आए थे जो अब शर-ए-सब्ज के नाम से जाना जाता है। अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं। ये दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। ये बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था। जब खुसरो पैदा हुए थे तब इनके पिता इन्हें एक कपड़े में लपेट कर एक सूफ़ी दरवेश के पास ले गए थे। दरवेश ने नन्हे खुसरो के मासूम और तेजयुक्त चेहरे के देखते ही तत्काल भविष्यवाणी की थी - "आवरदी कसे राके दो कदम। अज़ खाकानी पेश ख्वाहिद बूद।" अर्थात तुम मेरे पास एक ऐसे होनहार बच्चे को लाए हो खाकानी नामक विश्व प्रसिद्ध विद्वान से भी दो कदम आगे निकलेगा। अब यह कहने की जरूरत भी है कि दरवेश की यह बात कितनी सच साबित हुई? नहीं ना। खुसरो के बारे में बाकी बातें कभी अगले आलेख में करेंगे। अभी आगे बढने से पहले खुसरो की लिखी ये चार पंक्तियाँ को समझने की कोशिश करते हैं, जिनमें इन्होंने निजाम को अपना पिया कहा है..और खुद को उनकी सुहागन। यह आत्मा-परमात्मा के मिलन की कामना की पराकाष्ठा है। आप खुद देखिए:

सब सखियन में चुनर मेरी मैली,
देख हसें नर नारी, निजाम...
अबके बहार चुनर मोरी रंग दे,
पिया रखले लाज हमारी, निजाम....


इन दो शेरों के बाद हम जिस गज़ल तक पहुँचे हैं..वह भी एक सूफ़ी गज़ल हीं है यानि कि जिसे यार कहा गया है वह कोई प्रेमी या प्रेमिका नहीं है, बल्कि निर्गुण ब्रह्म है। पहली मर्तबा देखने पर आपको यह भ्रम हो सकता है कि यह गज़ल भी कोई साधारण गज़ल हीं है। लेकिन "छाप-तिलक तज दीनी मोसे नैना मिलाइके" लिखने वाले खुसरो परमात्मा से नीचे सोचते हीं नहीं। आप सुनेंगे तो आपको खुद इस बात का अंदाजा हो जाएगा। तो लुत्फ़ उठाईये आज की गज़ल का:

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर।

तू तो हमारा यार है, तुझ पर हमारा प्यार है
तुझे दोस्ती बिसियार है एक शब मिलो तुम आय कर।

खुसरो कहै बातें ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
____ खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर।




चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!

इरशाद ....

पिछली महफिल के साथी -

पिछली महफिल का सही शब्द था "दस्तक" और शेर कुछ यूं था -

न दस्तक ज़रूरी, न आवाज़ देना
मैं सांसों की रफ़्तार से जान लूंगी

इस शब्द की सबसे पहले शिनाख्त की शरद जी ने। आपने इस मौके पर एक स्वरचित शेर पेश किया तो एक दुष्यंत कुमार का। दोनों का उल्लेख करना लाजिमी जान पड़ता है:

दस्तकों का अब किवाडों पर असर होगा ज़रूर,
हर हथेली ख़ून से तर और ज़्यादा बेक़्ररार। (दुष्यन्त कुमार)

दस्तक देने से पहले मैं यही खुदा से कहता हूँ
दरवाज़ा जब खुल जाए तो वही सामने हो मेरे। (स्वरचित)

शरद जी के बाद महफ़िल में हाज़िर हुई सीमा जी। आपकी पोटली से एक के बाद एक कई सारे लाजवाब शेर बाहर आए। मसलन:

प्यार की इक नई दस्तक दिल पे फिर सुनाई दी
चाँद सी कोई मूरत ख़्वाब में दिखाई दी (बशीर बद्र)

ये कैसी अजनबी दस्तक थी कैसी आहट थी
तेरे सिवा था किसे हक़ मुझे जगाने का (शहरयार)

रोज़ आता है दर-ए-दिल पे वो दस्तक देने
आज तक हमने जिसे पास बुलाया भी नहीं (क़तील शिफ़ाई)

शामिख जी, हमारा सौभाग्य है कि हमें आपकी सेवा करने का मौका मिला। आगे भी इसी तरह हमारी महफ़िल की शोभा बनते रहिएगा। ये रहे आपके पेश किए हुए शेर:

सबा ने फिर दरे-ज़िंदां पे आके दी दस्तक
सहर करीब है दिल से कहो न घबराए॥ (फ़ैज़)

दिल-ए-बरबाद से निकला नहीं अब तक कोई
एक लुटे घर पे दिया करता हैं दस्तक कोई (कैफ़ी आज़मी)

हम किसी दर पे न ठिठके न कहीं दस्तक दी,
सैकड़ों दर थे मेरी जां तेरे दर से पहले| (इब्ने-इंशा)

निर्मला जी,हमें पूरा यकीन है कि आज की और आज के आगे की सारी महफ़िलें आपको पसंद आएँगीं। बस आप आती रहें।

अवध जी, बहुत दिनों बाद आपके दर्शन हुए। सप्ताह में एक बार हीं तो यह महफ़िल सजती है। इतना वक्त तो आप निकाल हीं सकते हैं। यह रही आपकी पेशकश:

किसने दी ये दरे-दिल दस्तक
ख़ुद-ब-ख़ुद घर मेरा बज रहा है| (क़तील शिफाई)

और अंत में महफ़िल की शमा बुझाई मंजु जी ने। यह रहा आपका स्वरचित शेर:

दरे दिल पर दस्तक की पहले जैसी कशिश न रही ,
क्या वे दिन थे साकी ! आज वे दिन न रहे।

चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!

प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा


ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.

फेसबुक-श्रोता यहाँ टिप्पणी करें
अन्य पाठक नीचे के लिंक से टिप्पणी करें-

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

11 श्रोताओं का कहना है :

seema gupta का कहना है कि -

खुसरो कहै बातों ग़ज़ब, दिल में न लावे कुछ अजब
कुदरत खुदा की है अजब, जब जिव दिया गुल लाय कर
regards

seema gupta का कहना है कि -

कुदरत का ये करिशमा भी क्या बेमिसाल है
चेहरे सफेद काले लहू सब का लाल है
(जगदीश रावतानी आनंदम )
वो आये घर में हमारे ख़ुदा की कुदरत है
कभी हम उन को कभी अपने घर को देखते हैं
(ग़ालिब )
सब में महिमा थांरी देखी कुदरत के करबान।
बिप्र सुदामा को दालद खोयो बाले की पहचान॥
(मीराबाई )
चश्म्-ए-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
दस्त-ए-कुदरत को बे-असर कर दे
(फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
जिस्म के ज़िन्दाँ में उम्रें क़ैद कर पाया है कौन.
दख्ल कुदरत के करिश्मों में भला देता है कौन.
(ज़ैदी जाफ़र रज़ा )
regards

seema gupta का कहना है कि -

भानुमति यानि शोभा गुर्टू जी से परिचय कराने का आभार , नाम तो सुना था मगर इतना विस्तार से परिचय आज ही हुआ....

regards

neelam का कहना है कि -

जब यार देखा नैन भर दिल की गई चिंता उतर
ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर।

bahut badhiya post .khusro nijaam ke bali bali jaaun mohe suhaagan ....................
baht dinon ke baad khusro se milwaya ,deepak ji shukriya .

निर्मला कपिला का कहना है कि -

कुछ दिनों से आपकी प्रस्तुति से वंचित हूँ 3 ज. के बाद पिछल्ली सभी पोस्ट देखती हूँ धन्यवाद्

Manju Gupta का कहना है कि -

कुदरत -जवाब है .
पंक्तियाँ हाजिर हैं -
कुदरत की महिमा की नहीं है मिसाल ,
सृष्टि में भरे हैं रंग बेमिसाल .
प्रकृति रंगीन फूलों से करती श्रंगार ,
फूलों की खुशबू से महकती बहार .

AVADH का कहना है कि -

शब्द है कुदरत.
"कुछ ऐसी प्यारी शक्ल मेरे दिलरुबा की है.
जो देखता है कहता है कुदरत ख़ुदा की है.
अवध लाल

Shamikh Faraz का कहना है कि -

एक दिन माँ कुदरत कहेगी,

"अब चलो ...

अब और न हँसी, न आँसू,

मेरे बच्चे ..."

और अन्तहीन एक बार

और ये शुरू होगी

ज़िन्दगी जो न देखे, न बोले,

और न सोचा करे

(Nazim Nikhat)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

कुदरत ने देखो पत्तों को
है एक नया परिधान दिया
दुल्हन जैसे करके श्रृंगार
सकुची शरमाई है
क्या पतझड़ आया है?
(tejendra sharma)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

खेत, शजर, गुल बूटे महके, पग—पग पर हरियाली लहके

लफ़्ज़ों में क्या रूप बयाँ हो कुदरत के इस पैराहन का

(suresh chandra)

Shamikh Faraz का कहना है कि -

पीपल के चार चफेरे जातरा का लोभी जग आया
खेल खिलँदड़ अँगड़-बँगड़
बोले खोल फेंक दे
तन-मन अँतर है भरा कबाड़
नदी थमे क्यों तेरे पास पहाड़ झुके क्यों बतलाओ
चलो-चलो जी रमते जोगी
नहीं रुकेगा कुदरत का खेल
anoop sethi

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन