महफ़िल-ए-ग़ज़ल #७४
इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को,
तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया ।
तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका,
अब अपने सुख़न परवर ज़हनों में सवाल आया ।
सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी,
अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है ।
उर्दू के ताल्लुक से कुछ भेद नहीं खुलता,
यह जश्न, यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है ।
जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों,
उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी ।
आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन,
मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी ।
जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली,
उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है ।
ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था,
उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है ।
ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं,
कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ ।
जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं,
मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएँ ।
यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,
हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।
गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,
हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं ।
"जश्न-ए-ग़ालिब" नाम की यह नज़्म उर्दू के जानेमाने शायर "साहिर लुधियानवी" की है। यह नज़्म उन्होंने १९६८ में लिखी थी। गौरतलब है कि १९६८ में हीं तत्कालीन राष्ट्रपति ज़ाकिर हुसैन की देखरेख में एक समिति बनाई गई थी, जिसने यह निर्णय लिया था कि ग़ालिब की मृत्यु के सौ साल होने के उपलक्ष्य में अगले साल यानि कि १९६९ में एक ग़ालिब मेमोरियल की स्थापना की जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को उस समिति की अध्यक्षा और फ़खरूद्दीन अली अहमद (जो कि १९७४ में देश के राष्ट्रपति बने) को उस समिति का सेक्रेटरी नियुक्त किया गया। समिति के प्रयासों के बाद १९६९ में तो नहीं लेकिन १९७१ में ग़ालिब इन्स्टीच्युट (ऐवान-ए-ग़ालिब) की स्थापना की गई जिसका उद्धाटन श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया था। इन्स्टीच्युट बन तो गया लेकिन लोगों को इसकी याद साल में एक या दो बार हीं आती है। बशीर बद्र साहब लिखते हैं कि यह इन्स्टीच्युट जिस उद्देश्य से बनाया गया था, वह उद्देश्य कहीं भी फ़लित होता नहीं दीखता... हाँ कभी-कभार मुशायरों का आयोजन हो जाता है, लेकिन उन मुशायरों का रंग शायराना होने से ज़्यादा बेमतलब के चमक-धमक से पुता दिखता है। "साहिर" साहब को इसी बात का अंदेशा था। तभी तो वो कहते हैं कि अगर ग़ालिब को याद करना हीं था तो इसमें २१ साल क्यों लगे। २१ साल तक किसी को यह याद नहीं रहा कि ग़ालिब उर्दू के सर्वश्रेष्ठ (अगर मीर को ध्यान में न रखा जाए क्योंकि ग़ालिब खुद को मीर से बहुत नीचे मानते थे) थे, हैं और रहेंगे, फिर उन्हें नवाज़नें में इतनी देर क्यों। यह महज़ एक खानापूर्ति तो नहीं। तभी तो वो कहते हैं कि पहले जिन गलियों में ग़ालिब बसते थे, वहाँ अब उर्दू कहाँ और फिर उर्दू को मारकर उर्दू के शायर को पहचानना कहाँ की समझदारी है, कहाँ का इंसाफ़ है। कहीं यह मुस्लिम कौम को खुश करने की एक सियासती चाल तो नहीं। साहिर का यह गुस्सा कितना जायज है, यह तो वही जानते हैं (या शायद हम भी जानते हैं, लेकिन खुलकर सामने आना नहीं चाहते), लेकिन इतना तो सच है हीं कि "ग़ालिब हो या गाँधी, इन्हें मारने वाले भी हम हीं हैं और पूजने वाले भी हम हीं हैं।"
साहिर ने तो बस उर्दू की बात की है, लेकिन आज जो हालात हैं उसमें हिन्दी की दुर्दशा भी कुछ कम नहीं। आज की अवाम अगर उर्दू के किसी शब्द का अर्थ न जाने तो यह कहा जा सकता है कि उर्दू अब स्कूलों में उतनी पढाई नहीं जाती, जितनी आजादी के वक्त या पहले पढी-पढाई जाती थी, लेकिन अगर किसी को हिन्दी का कोई शब्द मालूम न हो तो इसे आप क्या कहिएगा। कहने को हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है(वैसे कई लोग यह बात नहीं मानते, लेकिन दिल में सभी जानते हैं) लेकिन ऐसे कई सारे लोग हैं जो हिन्दी को रोमन लिपि में हीं पढ पाते है, देवनागरी पढने में उन्हें अपनी पिछली सात पुश्तें याद आ जाती हैं। तो कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि आज इस देश में इसी देश की भाषाएँ (हिन्दी, उर्दू...) नकारी जाने लगी हैं, जो किसी भी भाषा के साहित्य और साहित्यकारों के लिए एक शाप के समान है। चलिए ग़ालिब और साहिर के बहाने हमने कई घावों को कुरेदा, कई ज़ख्मों को महसूस किया.. अब हम ज़रा ग़ालिब के इजारबंद की बात कर लें वो भी उर्दू के जानेमाने शायर निदा फ़ाज़ली के शब्दों में।
ग़ालिब म्यूज़ियम से निकलकर पुरानी दिल्ली की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों से गुज़रकर मैं बल्लीमारान में सहमी सिमटी उस हवेली में पहुँच गया जहाँ ग़ालिब आते हुए बुढ़ापे में गई हुई जवानी का मातम कर रहे थे. इस हवेली के बाहर अंग्रेज़ दिल्ली के गली-कूचों में १८५७ का खूनी रंग भर रहे थे. ग़ालिब का शेर है -
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमाँ अपना
हवेली के बाहर के फाटक पर लगी लोहे की बड़ी सी कुंडी खड़खड़ाती है. ग़ालिब अंदर से बाहर आते हैं तो सामने अंग्रेज़ सिपाहियों की एक टोली नज़र आती है. ग़ालिब के सिर पर अनोखी सी टोपी, बदन पर कढ़ा हुआ चोगा और इसमें से झूलते हुए ख़ूबसूरत इज़ारबंद
को देखकर टोली के सरदार ने टूटी फूटी हिंदुस्तानी में पूछा, “तुमका नाम क्या होता?”
ग़ालिब - “मिर्जा असदुल्ला खाँ ग़ालिब उर्फ़ नौश.”
अंग्रेज़ -“तुम लाल किला में जाता होता था?”
ग़ालिब-“जाता था मगर-जब बुलाया जाता था.”
अंग्रेज़-“क्यों जाता होता था?”
ग़ालिब- “अपनी शायरी सुनाने- उनकी गज़ल बनाने.”
अंग्रेज़- “यू मीन तुम पोएट होता है?”
ग़ालिब- “होता नहीं, हूँ भी.”
अंग्रेज़- “तुम का रिलीजन कौन सा होता है?”
ग़ालिब- “आधा मुसलमान.”
अंग्रेज़- “व्हाट! आधा मुसलमान क्या होता है?”
ग़ालिब- “जो शराब पीता है लेकिन सुअर नहीं खाता.”
ग़ालिब की मज़ाकिया आदत ने उन्हें बचा लिया.
मैंने देखा उस रात सोने से पहले उन्होंने अपने इज़ारबंद में कई गाठें लगाई थीं. ग़ालिब की आदत थी जब रात को शेर सोचते थे तो लिखते नहीं थे. जब शेर मुकम्मल हो जाता था तो इज़ारबंद में एक गाँठ लगा देते थे. सुबह जाग कर इन गाठों को खोलते जाते थे और इस तरह याद करके शेरों को डायरी में लिखते जाते थे.
इज़ारबंद से ग़ालिब का रिश्ता अजीब शायराना था. इज़ारबंद दो फारसी शब्दों से बना हुआ एक लफ्ज़ है. इसमें इज़ार का अर्थ जामा होता है और बंद यानी बाँधने वाली रस्सी. औरतों के लिए इज़ारबंद में चाँदी के छोटे छोटे घुँघरु भी होते थे और इनमें सच्चे मोती भी टाँके जाते थे. लखनऊ की चिकन, अलीगढ़ की शेरवानी, भोपाल के बटुवों और राजस्थान की चुनरी की तरह ये इज़ारबंद भी बड़े कलात्मक होते थे। ये इज़ारबंद आज की तरह अंदर उड़स कर छुपाए नहीं जाते थे. ये छुपाने के लिए नहीं होते थे. पुरुषों के कुर्तों या महिलाओं के ग़रारों से बाहर लटकाकर दिखाने के लिए होते थे. पुरानी शायरी में ख़ासतौर से नवाबी लखनऊ में प्रेमिकाओं की लाल चूड़ियाँ, पायल, नथनी और बुंदों की तरह इज़ारबंद भी सौंदर्य के बयान में शामिल होता था। ग़ालिब तो रात के सोचे हुए शेरों को दूसरे दिन याद करने के लिए इज़ारबंद में गिरहें लगाते थे और उन्हीं के युग में एक अनामी शायर नज़ीर अकबराबादी इसी इज़ारबंद के सौंदर्य को काव्य विषय बनाते थे।
ग़ालिब की बात हो गई और ग़ालिब के इज़ारबंद की भी। अब हम ग़ालिब के चंद शेरों पर नज़र दौड़ा लेते हैं:
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
ताक़त-ए-बेदाद-ए-इन्तज़ार नहीं है
तू ने क़सम मयकशी की खाई है "ग़ालिब"
तेरी क़सम का कुछ ऐतबार नहीं है
ग़ालिब के इन शेरों के बाद अब वक्त है आज की गज़ल से रूबरू होने का। इस गज़ल को उस्ताद बड़े गुलाम अली खां साहब के छोटे भाई और आज के दौर के महान फ़नकार गुलाम अली के गुरू उस्ताद बरकत अली खां साहब ने गाया है। बरकत अली साहब का जन्म १९०७ में हुआ था और १९६३ में जहां-ए-फ़ानी से उनकी रूख्सती हुई। उन्होंने ग़ालिब को बहुत गाया है। आज की यह गज़ल उनकी इसी बेमिसाल गायकी का एक प्रमाण है। बरकत साहब के बारे में फिर कभी विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी तो मुहूर्त है ग़ालिब के शब्दों और बरकत साहब की आवाज़ में गोते लगाने का। तो तैयार हैं ना आप? :
आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर होने तक
हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक
पर्तौ-ए-खुर से है शबनम को फ़ना की ____
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होने तक
ग़मे-हस्ती का 'असद' किस से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्म'अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफ़िल में मैं गैर-हाज़िर था और सजीव जी आवाज़ के हीं दूसरे कामों में व्यस्त थे, इसलिए महफ़िल में नियमानुसार पिछली महफ़िल के साथी पेश नहीं हो सका। इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। इस महफ़िल से मैं वापस आ चुका हूँ और इस कारण हर चीज ढर्रे पर वापस आ गई है। तो लुत्फ़ लें पिछली महफ़िल की टिप्पणियों का।
पिछली महफिल का सही शब्द था "आस्ताँ" और शेर कुछ यूँ था-
दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें उठाये क्यूँ
इस शब्द की सबसे पहले पहचान की सीमा जी ने। सीमा जी आपने ये सारे बेश-कीमती शेर पेश किए:
हर आस्ताँ पे अपनी जबीने-वफ़ा न रख
दिल एक आईना है इसे जा-ब-जा न रख (लाल चंद प्रार्थी 'चाँद' कुल्लुवी )
वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-ए-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यों हो (ग़ालिब)
कोई जबीं न तेरे संग-ए-आस्ताँ पे झुके
कि जिंस-ए-इज्ज़-ओ-अक़ीदत से तुझ को शाद करे
फ़रेब-ए-वादा-ए-फ़र्द पे अएतमाद् करे
ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि तुझ को याद आये (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ )
शरद जी, आपके ये दोनों शेर कमाल के हैं। ख्वातीन-ओ-हज़रात गौर फ़रमाएँगे:
शऊरे सजदा नहीं है मुझको तो मेरे सजदों की लाज रखना ।
ये सर तेरे आस्ताँ से पहले किसी के आगे झुका नहीं है । (शायर पता नहीं)
मै तेरे आस्ताँ के सामने से क्यों गुज़रूँ
जब नहीं सीढियाँ , तू छत पे कैसे आएगी।
निर्मला जी, दिनेश जी, सतीश जी, अरविंद जी... आप सभी का इस महफ़िल में तह-ए-दिल से स्वागत है। उम्मीद करता हूँ कि आपको हमारी महफ़िल पसंद आई होगी इसलिए इल्तज़ा करता हूँ कि आगे भी अपनी उपस्थिति बनाए रखिएगा। एक बात और.. हमारी महफ़िल में खाली हाथ नहीं आते.... मतलब कि एकाध शेर की नवाजिश तो करनी हीं होगी। क्या कहते हैं आप? :)
शन्नो जी.. सुमित जी और नीलम जी आपके जिम्मा हैं। इनमें से कोई भी गैर-हाज़िर रहा तो आपकी हीं खबर ली जाएगी :) चलिए इस बार सुमित जी आ गए हैं, अब दूसरे यानि कि नीलम जी की फ़िक्र कीजिए। बातों-बातों में आपकी पंक्तियाँ तो भूल हीं गया:
ना वो हर चमन का फूल थी
ना वो किसी रास्ते का धूल थी
ना थी वीराने में कोई आस्ताँ
वो थी गुजर गयी एक दास्ताँ। (स्वरचित.. मैने कुछ बदलाव किए हैं, जो मुझे सही लगे :) )
शामिख जी, आखिरकार आप को हमारी महफ़िल की याद आ हीं गई। चलिए कोई बात नहीं.. देर आयद दुरूस्त आयद। ये रहे आपके शेर:
ता अर्ज़-ए-शौक़ में न रहे बन्दगी की लाग
इक सज्दा चाहता हूँ तेरी आस्तां से दूर (फ़ानी बदायूँनी)
शाख़ पर खून-ऐ-गुल रवाँ है वही,
शोखी-ऐ-रंग-गुलिस्तान है वही,
सर वही है तो आस्तां है वही (अनाम)
सुमित जी, महफ़िल में आते रहिएगा नहीं तो शन्नो जी की छड़ी चल जाएगी.. हा हा हा। यह रहा आपका शेर:
फिर क्यूँ तलाश करे कोई और आस्ताँ,
वो खुशनसीब जिसको तेरा आस्ताँ मिले। (अनाम)
अवनींद्र जी, हमें पता नहीं था कि आप इस कदर कमाल लिखते हैं। आपके ये दोनों दो-शेर (चार पंक्तियाँ) खुद हीं इस बात के गवाह हैं:
मेरे कांधे से अपना हाथ उठा ले ऐ दोस्त
इतना टूटा हूँ कि छूने से बिखर जाऊंगा ......!!
मेरी आस्तां से तुम चुप चाप गुजर जाना
हाल जो पूछ लिया मेरा तो मर जाऊंगा ( स्वरचित )
रूह से लिपटे हुए सितम उठ्ठे
आँखों में लिए जलन उठ्ठे
ओढ़ के आबरू पे कफ़न उठ्ठे
यूँ तेरी आस्तां से हम उठ्ठे (स्वरचित )
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
25 श्रोताओं का कहना है :
लाजवाब प्रस्तुती। धन्यवाद।
शब्द है : तालीम
कभी तालीम हमने जो थी पाई
जवाँ उसको कहाँ अब मानते हैं
गुज़ारा अब नहीं उसके सहारे
ये हम भी और वे भी जानते हैं ।
(स्वरचित)
जवाब -तालीम
स्वरचित शेर -
उनकी निगाहों से तालीम का सबक लेते हैं पर ,
जीवन के पन्ने को भरने के लिए सागर - सी स्याही भी कम पड़ जाती है .
सबसे पहले हाजरी लगा देते है,नही तो शन्नो जी से डाट पडेगी :-)
तालीम शब्द से शे'र याद नही
जैसे ही याद आयेगा महफिल मे फिर आयेंगे
शन्नो जी को धमकाया ,अब तेरा क्या होगा कालिया इधर हम तीन (सुमित ,शन्नो ,नीलम )उधर तुम अकेले धमकी.................... किसको देते हो ,
बहुत नाइंसाफी है ,गब्बर तुम को सायरी सुनाएगा कल हा हा हा हा हा (गब्बर की हंसी है कोई मजाक नहीं )
माई डिअर नीलम जी और सुमीत जी, सो नाइस टू सी यू हिअर...हमको तो बहुत डर लग रहा था आप दोनों के बिना यहाँ पर...और सुमीत जी आप हमसे मत डरिये...वो तो तनहा जी ने हमारे कंधे पर अपनी बन्दूक रख के हमसे चलाने को कहा :):)...मेरा मतलब की डराने को कहा...तो हम फिर यहाँ से भाग गये...अब झाँका तो आप लोगों को देखा...हमें अक्सर खुद से ही डर लगने लगता है...बिला वजह के...कई बार तो हम लोगों की बे-इन्तहां खामोशी से ही खौफ खा जाते हैं...पता नहीं सब लोग मुझको ही क्यों डराने और धमकाने पर लगे रहते हैं और हम तो बस सबको खुश करते रहते हैं...किस्मत ही है ऐसी...तो फिर आप दोनों बताओ की हम आपको तो क्या एक चींटी को भी नहीं डरा सकते...अब आप चल दिये तो हम भी खिसकते हैं...इसके पहले की तनहा जी हमें बुदबुदाते हुये सुन लें या देख लें :) कल फिर मिलते हैं...
परतव-ए-ख़वुर से है शबनम को फ़ना की तालीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते तक
(ग़ालिब »)
मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ
फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती.
(मुनव्वर राना )
दुनिया में कहीं इनकी तालीम नहीं होती
दो चार किताबों को घर में पढ़ा जाता है
(बशीर बद्र)
regards
कहीं रदीफ़, कहीं काफ़िया, कहीं मतला,
शे’र के दाँव-पेच मक्ता-ओ-बहर क्या है ?
अगर मिले मुझे तालीम देने वाला कोई
तो देखना मैं बताऊंगा फिर ग़ज़ल क्या है ?
ग़ज़ल भी सुन चुकी हूँ और आलेख भी पढ़ा....लेकिन समझ में नहीं आता की ग़ालिब साहेब अपने इजारबंद में शे'रों को कैसे बाँध कर रात भर रखते थे...ये बात कुछ अटपटी नहीं लगती क्या आपको? खैर, 'तालीम' शब्द को गायब जगह पर पाया और फिर अपने दिमाग का इस्तेमाल करके एक शे'र भी लिख के ले आई हूँ...अब देखिये तन्हा जी,...मैं धमकी तो नहीं दे सकती आपको ना ही रिश्वत दे रही हूँ...तो अब आपके हाथ में है की आप हमको पास करते हैं या फेल :)....गलती हो कहीं पे तो जरा आप हमारे शेर को मेहरबानी करके खुद लिख दें या ठीक कर दें जैसा समझें. आपने पिछ्ले वाले शे'र को भी ठीक किया था. बहुत अच्छा लगा हमें देखकर. अब हमारे लिये तो यही महफ़िल है और यही कक्षा है...क्या हम अगले हफ्ते भी आयें हाजिरी लगाने को जरा इतना भी हमें जाहिर कर दें????? वर्ना हमें हर बार यहाँ आते डर सा लगता है... तो इस बार का तो आने-जाने का हिसाब निपट गया...लेकिन ये नीलम जी और सुमीत का आना आज कब होगा? खैर हुई की कल सुमीत जी मेरे बिना डराये-धमकाये ही हाजिर हो गये यहाँ. तो हमारी जान तो बच गयी कम से कम....की वह दोनों यहाँ आकर टपके तो सही...नीलम जी को तो मैं हिन्दयुग्म पर टटोलती हुई ढूंढ कर ले आई और मेरी जान बचाने की खातिर झटपट यहाँ आकर चार बातें भी सुना गयी आपको...तन्हा जी आप तो शायद सुन्न हो गये होंगे नीलम जी की बातें सुनकर, जिस स्पीड और अंदाज़ से उन्होंने धमकाया...वैसे हैं बहुत अच्छी वह दिल की..उनकी बातों का आपने बुरा तो नहीं माना? :) अब आपने ही तो कहा था ना...की अगर सुमीत और नीलम जी को मैं ना हाजिर कर पायी तो....हमारा भी पत्ता साफ़...यही सोचकर नीलम जी ताव में आ गयी होंगी..शायद. वैसे जैसी आपकी मर्जी...आप हमको यहाँ से भगायेंगे तो हम ख़ुशी-ख़ुशी चले जायेंगे..ठीक कहा ना, मैंने? बोलिये ना. लेकिन ये भी पूछना बेकार है...क्योंकि आप कुछ बोलते ही नहीं...अब मेरा भी जाने का टाइम हो रहा है...तो ये रहा अपना शे'र भी:
हरफन मौला ने पूरी तालीम से रखी दूरी
दवाओं से भी पहचान थी उनकी अधूरी
नीम हकीम खतरे जान बनकर ही सही
एक दिन उन्होंने की अपनी तमन्ना पूरी.
-शन्नो
खुदा हाफ़िज़..
शब्द है -तालीम
अभी अभी बन पड़ा है पेश है
उसका चेहरा उसकी आंखें और थरथराते लब
किसी और तालीम की अब जरूरत कहाँ रही .......!(स्वरचित )
आपने मेरे शेरोन को इस महफ़िल मैं जगह देकर जो हौसला और इज्ज़त-अफजाई की है उसका तहे दिल से शुक्र गुज़ार हूँ मैं इस महफ़िल का मुझे पूरे हफ्ते इंतज़ार रहता है !शंनोजी सुमित जी और नीलम जी की मजेदार चुहल अच्छी है !ऐसा लगता है किन्ही दोस्तों के ग्रुप मैं झिझकता सा कोई अनजान आ गया हो मगर बुरा नही लगता !
शुक्रिया
अवनींद्र
गब्बर को सायरी तो आती नहीं ,बहर-काफिया भी नहीं मालूम पर -
मौला ! तालीम पाकर कहीं वो बेवतन न हो जाएँ
कुछ तो कशिश माँ बाप के घोसले में भी हो जाए
तालीम तो देना पर इतना इल्म भी देना उनको
बुजुर्गों कोदिलसे सिजदे का शऊर भी देना उनको
गब्बर को दाद दोगे तो खुस होजायेगा तो सबासी मिलेगी नहीं तो गोली मिलेगी ....................
चुहलबाजी की नीलम की कक्षा में अविन्द्र जी आपका स्वागत है ,झिझकते हुए आ ही जाईए ,हम लोग जरा senior student hain is class............... ke dadagiri kaise krni hai ,wo to hm teenon ki sohbat me aap seekh hi jaayenge
आज हमको अभी-अभी कुछ ख्याल आया...की ये जो मैंने हरफन मौला वाला शेर लिखा है जहाँ ' तालीम ' का जिक्र हुआ है...तो अपना भी कुछ मिलता-जुलता यही हिसाब है की हमें बहर-लहर और काफिया-आफिया का कोई इल्म नहीं है..बस जो मन में आता है बेफिक्री से हम लिख देते हैं...क्योंकि तन्हा जी ने ही मुझे तसल्ली देकर ऐसा करने की इज़ाज़त दी थी एक दिन...तो अब वह इस बात से इनकार करेंगे तो अच्छी बात नहीं होगी :) नीलम जी और सुमीत जी की भी याददास्त दुरुस्त होनी चाहिये इस मामले में. और आप सब लोग बेशक कह सकते हैं की हमें शेरो-शायरी करने की अकल नहीं...हमें कोई एतराज़ नहीं है इस बात पर...वो इसलिए की हमने कभी इसकी तालीम हासिल ही नहीं की...फिर भी हम कुछ न कुछ ऊल-जलूल लिख कर ले आते हैं क्योंकि बिना उसके तन्हा जी हमें यहाँ घुसने भी नहीं देंगे...तो बस कम से कम एक शेर काम कर जाता है एंट्री करने के लिये. अब ये मेरा आना भी उनके मूड पर ही टिका हुआ है की जब चाहें हमें यहाँ से निकाल सकते हैं...क्योंकि ये महफ़िल उनकी ही सजाई हुई है...और उनको पूरा हक है हमें यहाँ से उठा कर बाहर फेंक देने का...बस और कुछ नहीं कहना अब हमें... हम चुपचाप अब चले जाते हैं...खुदा हाफिज़.
shanno ji naam to bataati jaayiye apna .hahahahahahahahahaahah
नीलम जी, उर्फ़ गब्बर जी, ...आप तो हमारी सरदार हैं तो फिर 'सरदारों' जैसे सवाल क्यों पूंछ्तीं की हमारा नाम क्या है..ये भी कोई बात हुई..हाहाहा..आप खुद ही रख दो कोई नाम..अगर हमारा ये नाम अच्छा नहीं लगता है आपको...हम तो वैसे ही काफी दुखी रहते थे अपने नाम के मारे...क्योंकि बचपन में हमारे नाम के साथ एक दुर्घटना हो गयी थी..फिर सबने बहुत समझाया-बुझाया तब हमने रोना-धोना बंद किया...अब आप पूंछेगी की कहानी क्या है..तो वो जरा लम्बी है..इसलिए बताने से क्या फायदा...सुनते-सुनते या तो लोग यहाँ से भाग जायेंगे, या खर्राटे लेने लगेंगे या फिर तनहा जी हमारी बातों से ऊबकर अपनी महफ़िल की ख़ूबसूरती बरकरार रखने के वास्ते हमारी ही यहाँ से हमेशा के लिए छुट्टी कर देंगे. आपके दिमाग में कोई नाम-वाम हो तो बतायें...सुमीत की सलाह भी ले लेना...वर्ना वह उदास हो जायेंगे...अपनी टीम में हम लोग साथ-साथ हैं...ये सुमीत के भी किस्से अजीब होते हैं...कह कर जाते हैं की दोबारा आ रहा हूँ ...लेकिन फिर रास्ता भूल जाते हैं...या आधे रास्ते से वापस लौट जाते हैं..आप जरूर आती रहना वर्ना हमारी खैर नहीं.
shanno ji aap ne "SHOLEY "movie nahi dekhi hai shaayad humne usi lahje me poocha tha .
par khair jaane dijiye ,aapne yaad kiya aur ye shaitan urf sardar haajir ,hum logon ko tanha ji suspend karne waale hai
नीलम जी, आपको सूचित करना है की 'शोले' मूवी मैंने भी देखी है...जिसमें अमजद खान हैं. मैं पढ़ते ही जान गयी थी की आप उनका स्टाइल मार रही हैं. वाह! वाह! क्या अंदाज़ था आपका...तनहा जी की तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी होगी... (कहीं सुन तो नहीं लिया उन्होंने...की फिर मेरी मुसीबत आ जाये)..आप बस यूँ ही मस्ती में रहिये और अक्सर आती रहिये तो हम भी आपके रहमो करम से इस महफ़िल में बरक़रार रहेंगे.. आपकी दुआ से अगर सुमीत जी भी प्रकट हो जाया करें तो कितना अच्छा हो. वैसे हमको जिम्मेदारी दी गयी है आप दोनों को खींचतान कर यहाँ लाने की...लेकिन मेरी गुजारिश है आप दोनों अपने आप ही आ जाया करें यहाँ...तो बड़ी मेहरबानी होगी इस नाचीज़ पर. इस बार सुमीत जी ने यहाँ दोबारा आने की तकलीफ ही नहीं की...क्या आपको इसकी वजह पता है?
यहाँ पे सन्नाटा क्यूँ नहीं है भाई ये मैं नहीं कह रहा कहीं आप लोग मुझे इतना बूढा न समझ लेना
नीलम जी आपकी कक्षा मैं हाज़िर हूँ, आपका नाम क्या है शन्नो जी नीलम जी ने आपसे येही पुछा था ! नीलम जी आपकी कक्षा मैं एक और अच्चा बच्चा आगया है अब उम्मीद है आप इस ठाकुर से गब्बर जैसा व्यवहार नहीं करेंगी वेरना लिखने के लिए मुझे एक पढ़ा लिखा रामलाल ढूँढना पड़ेगा !आने बहुत अच्चा लिखा तालीम पर उसके जबाब मैं कुछ लिखा है
तालीम तो ली थी मगर शहूर न आया
संजीदगी से चेहरे पे कभी नूर न आया
तह पड गयी जीभ मैं कलमा रटते रटते
तहजीब का इल्म फिर भी हुज़ूर न आया (स्वरचित )
छुट्टी की घंटी बज़ रही है अब इजाज़त चाहूँगा
राकेश जी ,
इस महफ़िल में कोई बूढा नहीं है ,बस आप ठाकुर के रोल में बिलकुल फिट हैं धीरे धीरे पूरी टीम बन ही जायेगी
आपने जो भी लिखा क्या खूब लिखा है ठाकुर...........
अरे गलती हो गयी एक,,,, मैंने अपने मित्र राकेश कि आई डी से दो कमेंट्स भेज दिए
please consider avenindra instead of rakesh
अरे नीलम जिए मैं ही हूँ राकेश नहीं वो तो बेचारा ये पूछता फिरता है ये सुसाट क्या होता है
अवनींद्र
राकेश जी, अगर ये कक्षा नीलम जी की हो गयी तो क्या हमारे मौलवी साहब...मेरा मतलब तन्हा जी से है...वो क्या फिर यहाँ कक्षा की चौकीदारी करेंगे..दरवाजे के बाहर बैठ कर ?? :):) और आप तो बहुत ही पहुँचे हुए सायर निकले... नीलम जी की सायरी से भी आगे..अब तो हमारा सेर भी सरमा गया..आपने सबके कान क़तर दिये कक्षा में दाखिला लेते ही...हमारे सेर पर आपने सवा सेर मार दिया...अब हमारा क्या होगा?...और नीलम जी अब आपको धमकायेंगी..जरा बच कर रहना...अब तो अल्लाह ही रखवाला है...और हमें अपने सेर को सरम के मारे कहीं छुपाना पड़ेगा. आपके सेर को पढ़कर हँसी बहुत आ रही है. आगे से हँसने के लिये भी तैयार रहना होगा आपके सेरों के वास्ते....सुमीत जी की अब भी सकल नहीं दिखी, कब उनको अकल आयेगी....की उनके गैर हाजिर होने से हमारी खबर ली जायेगी...अब कौन जायेगा सुमीत को ढूँढने...नीलम जी आप कहाँ भाग गयीं...लगता है की सुमीत जी कहीं खो गये....अब तो उनकी रिपोर्ट दर्ज करनी ही होगी कहीं जाकर..खोये हुये लोगों की लिस्ट में...तो फिर चलती हूँ रिपोर्ट लिखवाने..
कितनी बार लगता था कि ..जैसे हम भी आधे ही हिन्दू हैं...
पर लोग कहते हैं कि आधे भी नहीं हैं...
हम कहाँ के दाना थे किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमाँ अपना
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