ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 428/2010/128
'दिल लूटने वाले जादूगर' - कल्याणजी-आनंदजी के धुनों से सजी इस लघु शृंखला में आज हम और थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए पहुँच जाते हैं सन १९७८ में। ७० के दशक के मध्य भाग से हिंदी फ़िल्मों का स्वरूप बदलने लगा था। नर्मोनाज़ुक प्रेम कहानियो से हट कर, ऐंग्री यंग मैन की इमेज हमारे नायकों को दिया जाने लगा। इससे ना केवल कहानियों से मासूमीयत ग़ायब होने लगी, बल्कि इसका प्रभाव फ़िल्म के गीतों पर भी पड़ा। क्योंकि गानें फ़िल्म के किरदार और सिचुयशन को केन्द्र में रखते हुए ही बनाए जाते हैं, ऐसे में गीतकारों और संगीतकारों को भी उसी सांचे में अपने आप को ढालना पड़ा। जो नहीं ढल सके, वो पीछे रह गए। कल्याणजी-आनंदजी एक ऐसे संगीतकार थे जिन्होने हर बदलते दौर को स्वीकारा और उसी के हिसाब से सगीत तैयार किया। और यही वजह है कि १९५८ में उनके गानें जितने लोकप्रिय हुआ करते थे, ८० के दशक में भी लोगों ने उनके गीतों को वैसे ही हाथों हाथ ग्रहण किया। हाँ, तो हम ज़िक्र कर रहे थे १९७८ के साल की। इस साल अमिताभ बच्चन की मशहूर फ़िल्म आई थी 'डॊन', जिसमें इस जोड़ी का संगीत था। सुपर स्टार नम्बर-१ पर पहुँचे अमिताभ बच्चन अभिनीत कई फ़िल्मों में संगीत देकर कल्याणजी-आनंदजी अपनी व्यावसायिक हैसीयत को आगे बढ़ाते रहे। बिग बी के साथ इस जोड़ी की कुछ माह्त्वपूर्ण फ़िल्मों के नाम गिनाएँ आपको? 'ज़ंजीर', 'डॊन', 'मुक़द्दर का सिकंदर', 'गंगा की सौगंध', 'ख़ून पसीना', 'लावारिस', आदि। वापस आते हैं 'डॊन' पर। किरदार और कहानी के हिसाब से इस फ़िल्म के गानें बनें और ख़ूब हिट भी हुए। अनजान के लिखे और किशोर दा के गाए "खइ के पान बनारसवाला", "अरे दीवानों मुझे पहचानो", और "ई है बम्बई नगरीय तू देख बबुआ" जैसे गीतों ने तहलका मचा दिया चारों तरफ़। लता-किशोर का डुएट "जिसका मुझे था इंतेज़ार" भी काफ़ी सुना गया। लेकिन एक और गीत जिसका एक ख़ास और अलग ही मुक़ाम है, वह है आशा भोसले का गाया और हेलेन पर फ़िल्माया हुआ "ये मेरा दिल यार का दीवाना"। यह एक कल्ट सॊंग् है जिसकी चमक कुछ इस तरह की है कि आज ३० साल बाद भी वैसी की वैसी बरकरार है। ज़बरदस्त ऒरकेस्ट्रेशन से सजी यह गीत उस समय का सब से ज़्यादा पाश्चात्य रंग वाला गीत था। कल्याणजी-आनंदजी ने जिस तरह का संयोजन इस गाने में किया है कि इस गीत को बजाए बग़ैर आगे बढ़ने को दिल नहीं चाहता। आज की कड़ी में इसी गीत की धूम!
आशा भोसले और कल्याणजी-आनंदजी के शुरु शुरु में बहुत कम ही गानें आए। जैसा कि पंकज राग अपनी किताब 'धुनों की यात्रा' में (पृष्ठ संख्या ५५७) में लिखते हैं कि आशा के तो कल्याणजी-आनंदजी के साथ सातवें और आठवें दशक के म्ध्य तक कम ही उल्लेखनीय गीत हैं। आशा भोसले आश्चर्यजनक रूप से कल्यानजी-आनंदजी खेमे से गायब सी रही हैं। यदि लता नहीं उपलब्ध हुईं तो इन्होनें सुमन कल्याणपुर, गीता दत्त या फिर नई गायिकाओं जैसे कमल बारोट, उषा तिमोथी, हेमलता, कृष्णा कल्ले को मौका दिया, पर आशा को सातवें दशक के मध्य तक तो बिलकुल नहीं। इस तथ्य की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया है, हालाँकि कारण सम्भवत: किसी निर्माता द्वारा आरम्भ में ही दोनों के बीच न चाहते हुए एक ग़लतफ़हमी ही रही। पर उसके बाद 'दिल ने पुकारा' (१९६७) के "किस ज़ालिम हो क़ातिल" से आशा भी शामिल हो गईं कल्याणजी-आनंदजी कैम्प में। ख़ैर, हम बात रहे थे "ये मेरा दिल यार का दीवाना की"। इस गीत की खासियत मुझे यही लगती है कि इसका जो ऒरकेस्ट्रेशन हुआ है, इसके जो म्युज़िक पीसेस हैं, वो बहुत ज़्यादा प्रोमिनेण्ट हैं। इतने प्रोमिनेण्ट कि अगर इन्हे गीत से अलग कर दिया जाए तो गीत की आत्मा ही चली जाएगी। अक्सर इस गीत को गुनगुनाते हुए इन पीसेस को भी साथ में गुनगुनाना पड़ता है। इस गीत के इंटरल्युड में से एक पीस को एक नामी टीवी चैनल ने अपने किसी कार्यक्रम के शीर्षक संगीत में इस्तेमाल किया है। तो दोस्तों, इस ज़बरदस्त नग़में को सुनिए और सलाम कीजिए आशा जी की गायकी और कल्याणजी-आनंदजी भाई की वक़्त के साथ साथ अपने आप को ढालने की प्रतिभा को!
क्या आप जानते हैं...
कि लक्ष्मीकांत और प्यारेलाल करीब ९ सालों तक कल्याणजी-आनंदजी के सहायक रहे।
पहेली प्रतियोगिता- अंदाज़ा लगाइए कि कल 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर कौन सा गीत बजेगा निम्नलिखित चार सूत्रों के ज़रिए। लेकिन याद रहे एक आई डी से आप केवल एक ही प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं। जिस श्रोता के सबसे पहले १०० अंक पूरे होंगें उस के लिए होगा एक खास तोहफा :)
१. कल्याणजी आनंदजी ने इस राग पर कई सारे कामियाब गीत बनाये, "छोड दे सारी दुनिया" भी इसी राग पर है जिस पर कल का ये गीत होगा, राग बताएं -३ अंक.
२. मुकेश और लता के गाये इस युगल गीत को किसने लिखा है - २ अंक.
३. ये इस फिल्म का शीर्षक गीत है, किन पर फिल्माया गया है ये गीत - २ अंक.
४. फिल्म का नाम बताएं - २ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
एक बार फिर अब शरद जी आगे हो गए हैं, पर अवध जी अभी भी मौका है आपके पास, कल का गीत हमारे महिला श्रोताओं के लिए खास रहा, इसे पसंद करने के लिए धन्येवाद
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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3 श्रोताओं का कहना है :
आज ३ अंको वाला प्रश्न दूसरों के लिए छोड़ दे रहा हूँ क्योंकि यह बहुत आसान है । दूसरे प्रश्न का जवाब : आनन्द बख्शी होना चाहिए
राग के बारे में मेरा जैसा कानसेन क्या कहेगा.
अलबत्ता कलाकारों के नाम का अंदाज़ा लगाने की कोशिश ज़रूर करूँगा - जीतेंद्र व शर्मीला
अवध लाल
ऐसा दर्पन मुझे मेरे साईं दें।
जिसमें मेरी कमी दिखाई दे।।
गति मेरी साँसों की ठहर जाए।
जब आवाज तेरी सुनाई दे।।
अल्ला मालिक🙏
सबका मालिक एक☝🏻
साईँ दूर तुझसे रहके मैं बीमार हूँ।
पास आकर मुझे दवाई दे।।
वस्त्र वापस दे साधनाओं के।
आस्था को ना मेरी यूँ जग हँसाई दे।।
दे कलम अपने क्रस्पर्श की ऐसी।
"श्रद्धा सबुरी" के रंग की मुझे रोशनाई दे।।
पानी से दीपक जलायें तूने साई। भक्ति परखने की मेरी तू चाहे कितनी भी परीक्षायें ले।।
बयजामाई से किया वादा, भक्तों का उधार है तुझ पर।
हक़ म्हालसापति का पाई-पाई दे।।
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