महफ़िल-ए-ग़ज़ल #९१
"जगजीत सिंह ने आठ गज़लें गाईं और उनसे एक लाख रुपए मिले, अपने जमाने में गालिब ने कभी एक लाख रुपए देखे भी नहीं होंगे।" - शाइरी की बदलती दुनिया पर बशीर बद्र साहब कुछ इस तरह अपने विचार व्यक्त करते हैं। वे खुद का मुकाबला ग़ालिब से नहीं करते, लेकिन हाँ इतना तो ज़रूर कहते हैं कि उनकी शायरी भी खासी मक़बूल है। तभी तो उनसे पूछे बिना उनकी शायरी प्रकाशित भी की जा रही है और गाई भी जा रही है। बशीर साहब कहते हैं- "पाकिस्तान में मेरी शाइरी ऊर्दू में छपी है, खूब बिक रही है, वह भी मुझे रायल्टी दिए बिना। वहां किसी प्रकाशक ने कुलयार बशीर बद्र किताब छापी है। जिसे हिंदी में तीन अलग अलग पुस्तक "फूलों की छतरीयां", "सात जमीनें एक सितारा" और "मोहब्बत खुशबू हैं" नाम से प्रकाशित किया जा रहा है। अभी हरिहरन ने तीस हजार रुपए भेजे हैं, मेरी दो गजलें गाईं हैं। मुझसे पूछे बगैर पहले गा लिया और फिर मेरे हिस्से के पैसे भेज दिए। मेरे साथ तो सभी अच्छे हैं। अल्लामा इकबाल, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी ये सब इंकलाबी शायरी करते थे, लेकिन मैं तो मोहब्बत की शाइरी करता हूं, मोहब्बत की बात करता हूं। आज मेरी शाइरी हिन्दी, ऊर्दू, अंग्रेजी सभी भाषाओं में दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में मिल जाएगी। इंकलाबी शाइरी करने वालों के शेर आज कहां पढ़े जा रहे हैं? कई लोग मेरे शेरों को चुराकर छपवा कर लाखों कमा रहे हैं, जब कहता हूं, तो मुझे भी हिस्सा दे देते हैं।"
शायरी क्या है? शायरी की जुबान क्या है? इस सवाल पर बशीर बद्र कहते हैं - "शायरी की जुबान दिल की जुबान होती है। जज्बात शायरी है। जिंदगी शायरी है। उर्दू और हिंदी का सवाल नहीं। यह तो महज लिखने का तरीका है। जो नीरज हिंदी में लिखते हैं । और जो बशीर उर्दू में रचते हैँ। वहीं शायरी है। वहीं मुक्कमल कविता है। शायरी के लिए उर्दू आनी चाहिए। शायरी के लिए हिंदी की जानकारी चाहिए। शायरी वह है इल्म है जिसके लिए जिंदगी आनी चाहिए। मेरी शाइरी लेटेस्ट संस्कृत भाषा में है। ऊर्दू और हिन्दी दोनों ही संस्कृत भाषा की देन है।"
शायरी की जुबान किस तरह बदलती है या फिर किस तरह उस जुबान का हुलिया बदल जाता है, इस मुद्दे पर बशीर कहते हैं - " एक ज़बान दो तीन शाइर पैदा कर सकती है और उस वक्त तक कोई दूसरा काबिले जिक्र शाइर पैदा नहीं हो सकता जब तक वो ज़बान अपनी दूसरी शख़सियत (personality) में न जाहिर हो। हम देखते हैं कि अंग्रेज़ी जैसी ज़बान में रोमेंटिक पीरियड के बाद आलमगीर सतह की दस लाइनें भी नहीं लिखी जा सकीं और दो-तीन सदियों से इंग्लिश पोएट्री ऑपरेशन टेबल पर पड़ी हुई है। यही हाल फ़ारसी ज़बान का भी था कि वो हाफ़िज़, सादी, बेदिल, उर्फ़ी और नज़ीरी के बाद आज तक नींद से नहीं जागी और मीर और ग़ालिब जो इन फ़ारसी के शाइरों की हमसरी के आरज़ूमंद रहे वह बाज़ारी उर्दू ज़बान के तकदुस, तहारत और मोहब्बत के वसीले से उनसे भी बड़े शाइर हो गए। उसी फ़ारसी तहजीबयाफता उर्दू का सिलसिला फ़ैज़ और मजरूह तक सर बलंद होकर अपनी विरासत उस नई आलसी उर्दू के हवाले करके खुश है कि इसकी तमाजत में सैकड़ों अंग्रेजी और दूसरी मग़रिबी ज़बानों के लफ़्ज़ (words) हिंदुस्तानी आत्मा और तमाज़त में कुछ-कुछ तहलील होकर हमारी ग़ज़ल में नई बशारतों के दरवाजे़ खोल रही है।" बशीर यह भी मानते हैं कि वही शायरी ज्यादा मक़बूल होती है, जो लोगों को आसानी से समझ आए। तभी १८०००० से ज्यादा ग़ज़ल लिख चुके मीर कम जाने जाते हैं बनिस्पत महज़ १५०० शेरों के मालिक "ग़ालिब" से।
बशीर बद्र पर यह बात मुकम्मल तरीके से लागू होती है कि जो शायरी जानता है, समझता है, वह बशीर की इज्जत करता है। जो नहीं जानता वह बशीर को पूजता है। अपने बारे में बशीर खुद कहते हैं -"मैं ग़ज़ल का आदमी हूँ। ग़जल से मेरा जनम-जनम का साथ है। ग़ज़ल का फ़न मेरा फ़न है। मेरा तजुर्बा ग़ज़ल का तजुर्बा है। मैं कौन हूँ ? मेरी तारीख़ हिन्दुस्तान की तारीख़ के आसपास है।" बशीर कौन हैं? अगर यह सवाल अभी भी आपके मन में घूम रहा है तो हम उनका छोटा-सा परिचय दिए देते हैं-
भोपाल से ताल्लुकात रखने वाले बशीर बद्र का जन्म कानपुर में हुआ था। किस दिन हुआ था, यह ठीक-ठीक बताया नहीं जा सकता क्योंकि कहीं यह दिन ३० अप्रैल १९४५ के रूप में दर्ज है तो कहीं १५ फरवरी १९३६ के। इनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद बशीर है। साहित्य और नाटक आकेदमी में किए गये योगदानो के लिए इन्हें १९९९ में पद्मश्री में सम्मानित किया गया था। अपनी पुस्तक "आस" के लिए उसी साल इन्हें "साहित्य अकादमी पुरस्कार" से भी नवाज़ा गया। आज के मशहूर शायर और गीतकार नुसरत बद्र इनके सुपुत्र हैं।
बशीर के शेर दुनिया के हर कोने में पहुँचे हैं। कई बार तो लोगों को यह नहीं मालूम होता कि यह शेर बशीर बद्र साहब का लिखा हुआ है मगर उसे लोग उद्धत करते पाए जाते हैं। मसलन इसी शेर को देख लीजिए:
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो
न जाने किस गली में ज़िंदगी की शाम हो जाए
सियासी ज़िम्मेदारियों और अजमतों की शख़सियत इंदिरा गांधी ने अपनी एक राज़दार सहेली ऋता शुक्ला, टैगोर शिखर पथ, रांची-4 को अपने दिल का कोई अहसास इसी शे’र के वसीले से वाबस्ता किया था। यही वो शे’र है जो मशहूर फिल्म एक्ट्रेस मीना कुमारी ने (अंग्रेजी रिसाला) स्टार एण्ड स्टाइल (English magazine star & style) में अपने हाथ से उर्दू में लिखकर छपवाया था और हिंदुस्तान के सद्र ज्ञानी ज़ैल सिंह ने अपनी आख़री तकरीर को इसी पर समाप्त किया था। (सौजन्य: आस - बशीर बद्र)
बशीर के और भी ऐसे कई शेर हैं, जो लोगों की जुबान पर हैं। इनमें तजुर्बे से निकली नसीहत भी है, एक आत्मीय संवाद भी। कुछ शेर यहाँ पेश किए दे रहा हूँ:
कोई हाथ भी न मिलाएगा जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है ज़रा फ़ासले से मिला करो
दुश्मनी जम कर करो लेकिन ये गुंजाइश रहे
जब कभी हम दोस्त हो जाएँ तो शर्मिन्दा न हों
मुसाफ़िर हैं हम भी मुसाफ़िर हो तुम भी
किसी मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी
कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी
यों कोई बेवफ़ा नहीं होता
बड़े लोगों से मिलने में हमेशा फ़ासला रखना
जहाँ दरया समन्दर से मिला, दरया नहीं रहता
हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है
हम जहाँ से जाएँगे, वो रास्ता हो जाएगा
मुझसे बिछड़ के ख़ुश रहते हो
मेरी तरह तुम भी झूठे हो
बड़े शौक़ से मेरा घर जला कोई आँच न तुझपे आयेगी
ये ज़ुबाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है
सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है
यहाँ लिबास की क़ीमत है आदमी की नहीं
मुझे गिलास बड़े दे शराब कम कर दे
बशीर के शेरों के बारे में कन्हैयालाल नंदन कहते हैं: ("आज के प्रसिद्ध शायर - बशीर बद्र" पुस्तक से)
किसी भी शेर को लोकप्रिय होने के लिए जिन बातों की ज़रूरत होती है, वे सब इन अशआर में हैं। ज़बान की सहजता, जिन्दगी में रचा-बसा मानी, दिल को छू सकने वाली संवेदना, बन्दिश की चुस्ती, कहन की लयात्मकता—ये कुछ तत्व हैं जो उद्धरणीयता और लोकप्रियता का रसायन माने जाते हैं। बोलचाल की सुगम-सरल भाषा उनके अशआर की लोकप्रियता का सबसे बड़ा आधार है। वे मानते हैं कि ग़ज़ल की भाषा उन्हीं शब्दों से बनती है जो शब्द हमारी ज़िन्दगी में घुल-मिल जाते हैं। ‘बशीर बद्र समग्र’ के सम्पादक बसन्त प्रतापसिंह ने इस बात को सिद्धान्त की सतह पर रखकर कहा कि ‘श्रेष्ठ साहित्य की इमारत समाज में अप्रचलित शब्दों की नींव पर खड़ी नहीं की जा सकती। कविता की भाषा शब्दकोषों या पुस्तकों-पत्रिकाओं में दफ़्न न होकर, करोड़ों लोगों की बोलचाल को संगठित करके और उनके साधारण शब्दों को जीवित और स्पंदनशील रगों को स्पर्श करके ही बन पाती है। यही कारण है कि आजकल बोलचाल और साहित्य दोनों में ही संस्कृत, अरबी और फ़ारसी के क्लिष्ट और बोझिल शब्दों का चलन कम हो रहा है। बशीर बद्र ने ग़ज़ल को पारम्परिक क्लिष्टता और अपरिचित अरबी-फ़ारसी के बोझ से मुक्त करके जनभाषा में जन-जन तक पहुँचाने का कार्य किया है। बशीर बद्र इस ज़बान के जादूगर हैं।’
बशीर के बारे में उनके हमसुखन और समकालीन अदीब "निदा फ़ाज़ली" कहते हैं: "वे जहाँ भी मिलते हैं, अपने नए शेर सुनाते हैं। सुनाने से पहले यही कहते हैं कि भाई, नए शेर हैं, कोई भूल-चूक हो गई हो तो बता दो, इस्लाह कर दो। लेकिन सुनाने का अन्दाज़ ऐसा होता है जैसे कह रहे हों: क्यों झक मारते हो—ग़ज़ल कहना हो तो इस तरह कहा करो। मिज़ाज से रुमानी हैं लेकिन उनके साथ अभी तक किसी इश्क़ की कहानी मंसूब नहीं हुई। जिस उम्र में इश्क के लिए शरीर ज्यादा जाग्रत होता है, वह शौहर बन कर घर-बार के हो जाते हैं। अब जो भी अच्छा लगता है, उसे बहन बना कर रिश्तों की तहज़ीब निभाते हैं।" इस तरह निदा ने उनके रूमानी अंदाज़ पर भी चिकोटी काटी है।
जिन शायर के बारे में अबुल फ़ैज़ सहर ने यहाँ तक कहा है कि "आलमी सतह पर बशीर बद्र से पहले किसी भी ग़ज़ल को यह मक़बूलियत नहीं मिली। मीरो, ग़ालिब के शेर भी मशहूर हैं लेकिन मैं पूरे एतमाद से कह सकता हूँ कि आलमी पैमाने पर बशीर बद्र की ग़ज़लों के अश्आर से ज़्यादा किसी के शेर मशहूर नहीं हैं। वो इस वक़्त दुनिया में ग़ज़ल के सबसे मशहूर शायर हैं।" - उनकी लिखी गज़ल को महफ़िल में पेश करने का सौभाग्य मिलना कोई छोटी बात नहीं। सोने पर सुहागा यह कि आज की गज़ल को अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया अहमद और मुहम्मद हुसैन यानि कि हुसैन बंधुओं ने। बशीर साहब के बारे में जितना कहा जाए उतना कम है, इसलिए बाकी बातों को अगली महफ़िल के लिए बचा कर रखते हैं और अभी इस ग़ज़ल का लुत्फ़ उठाते हैं:
कभी यूँ भी आ मेरी आँख में के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे मगर उसके बाद सहर न हो
वो बड़ा रहीम-ओ-करीम है मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ तो दुआ में मेरी असर न हो
मेरे बाज़ुओं में थकी-थकी, अभी महव-ए-ख़्वाब है चांदनी
न उठे सितारों की ______, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के कभी शब के फूल को चूम के
यूँ ही साथ साथ चलें सदा कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ ज़रा और दिल के क़रीब आ
तुझे धड़कनों में बसा लूँ मैं के बिछड़ने का कोई डर न हो
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "तसल्ली" और शेर कुछ यूँ था-
और तो कौन है जो मुझको तसल्ली देता
हाथ रख देती हैं दिल पर तेरी बातें अक्सर
पिछली महफ़िल की शोभा बनीं सीमा जी। आपने तसल्ली से "तसल्ली" पर शेर कहे, जिन्हें पढकर हमारे दिल को काफ़ी सुकून, काफ़ी तसल्ली मिली। शन्नो जी, आपने हमारी मेहनत का ज़िक्र किया, हमारी हौसला-आफ़जाई की... इसके लिए आपका तहे-दिल से आभार! आपने "घोस्ट राईटर" का मतलब पूछा... तो "घोस्ट" शब्द न सिर्फ़ राईटर के लिए इस्तेमाल होता है, बल्कि "डायरेक्टर", "म्युजिक डायरेक्टर" यहाँ तक कि "प्राईम मिनिस्टर" (मनमोहन जी या सोनिया जी... असल प्राईम मिनिस्टर है कौन? :) ) तक पर लागू होता है। अगर कोई इंसान नाम तो अपना रखे लेकिन उसके लिए काम कोई और करे.. तो दूसरे इंसान को "घोस्ट" कहते हैं यानि कि भूत यानि कि आत्मा... अब समझ गईं ना आप? अनुराग जी, शायद आपकी बात सच हो.. क्योंकि और किसी के मुँह से मैंने जांनिसार और साहिर के बारे में ऐसी बातें नहीं सुनीं। अवनींद्र जी, शरद जी और मंजु जी ने अपनी-अपनी झोली से शेरों के फूल निकालकर उन्हें महफ़िल के नाम किए। महफ़िल में सुमित जी का भी आना हुआ.. लेकिन वही ना-नुकुर वाला स्वभाव.... अब इन्हें कौन समझाए कि अपना शेर ना हो तो किसी और का शेर लाकर हीं महफ़िल के हवाले कर दें। शेर याद होना जरूरी नहीं.. गूगल किस मर्ज़ की दवा है। महफ़िल खत्म होते-होते नीलम जी की आमद हुई और उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज़ में नियम लागू किए जाने का कारण पूछा। अवनींद्र जी और शन्नो जी की कोशिशों के बाद उन्होंने भी नियम स्वीकार कर लिए। अवनींद्र जी और नीलम जी... आप दोनों में से किसी को महफ़िल छोड़ने की जरूरत नहीं। हाँ.. अगर आप लोगों से किसी ने भी ऐसी बात की तो मैं हीं महफ़िल छोड़ दूँगा... ना रहेगा बाँस, ना बजेगी बाँसुरी... लेकिन मुझे यकीन है कि आप लोग ऐसा होने नहीं देंगे... ऐसी नौबत नहीं आएगी.. है ना?
चलिए अब महफ़िल में पेश किए शेरों पर भी नज़र दौड़ा लते हैं:
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
इम्तिहां और भी बाक़ी हो तो ये भी न सही (ग़ालिब)
ये तसल्ली है कि हैं नाशाद सब
मैं अकेला ही नहीं बरबाद सब (जावेद अख़्तर)
देखा था उसे इक बार बड़ी तसल्ली से
उस से बेहतर कोई दूसरा नहीं देखा (अवनींद्र जी)
आ गया अखबार वाला हादिसे होने के बाद
कुछ तसल्ली दे के वो मेरी कहानी ले गया। (शरद जी)
तुम तसल्ली न दो सिर्फ बैठे रहो वक़्त कुछ मेरे मरने का टल जायेगा
क्या ये कम है मसीहा के होने से ही मौत का भी इरादा बदल जायेगा (गुलज़ार)
भूखे बच्चों की तसल्ली के लिए
माँ ने फिर पानी पकाया देर तक (नवाज़ देवबंदी)
सारे जमाने का दर्द है जिसके सीने में
वो तसल्ली भी दे किसी को तो कैसे. (शन्नो जी)
मेरे ख्वाबों का जनाजा उनकी गली से गुजरा ,
बेवफा !तसल्ली के दो शब्द भी न बोल सका . (मंजु जी)
तसल्ली नहीं थी ,आंसू भी न थे
किस्मत थी किसकी ,किसकी वफ़ा थी (नीलम जी या कोई और? )
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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25 श्रोताओं का कहना है :
गायब शब्द है -पालकी
सीमा जी गुस्ताखी कर रही हूँ मुआफ कीजिये
सोचता था कैसे दम दूं इन बेदम काँधों को अपने
पिता ने काँधे से लगाया जब ,मेरी पालकीको अपने
दीपक जी वो शेर भी हमने यानी की गब्बर ने ही लिखा था शरारत करने से बाज आईये
(maan -haani ke baare me to pata hi hoga aapko )
वो हम न थे वो तुम न थे वो रहगुज़र थी प्यार की
लुटी जहाँ पे बेबज़ह पालकी कहार की ।
(नीरज)
जैसे कहार लूट लें दुल्हन की पालकी
हालत वही है आजकल हिन्दोस्तान की ।
(नीरज)
जवाब -पालकी
शेर बयाँ कर रही हूँ -(स्वरचित )
यह गुस्ताखी थी किसने करी ,
पालकी घर के द्वार पे न उतरी .
दूसरा शेर -
अल्लाउदीन से मिलने गई जब रानी पदमनी ,
उसे हर पालकी में नजर आई रानी पदमनी .
बशीर बद्र साहब की जितनी तारीफ की जाये कम है.उनके एक एक शेर जैसे करीने से जड़े मोती किसी कंठ हार में.
हुसैन बंधू लाजवाब है बेशक.उन्हें वो प्रसिद्धि फिर भी नही मिली है जो वे डिजर्व करते हैं.कमाल गाते हैं दोनों .
आज भी मन जैसे जा डूबा.जाने कहाँ.
इनके भजन भी सुनिए और सुनाइयेगा 'कान्हा तोरी जोहत रह गई बाट'
शानदार प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई.आज तो लिख देने को बाध्य कर दिया विश्व जी और इसी को कहते हैं शानदार प्रस्तुति.
very nice...
ujaale apni yaadon ke.....
good...
मांग भर चली के एक जब नई नई किरन
ढोल से धुनक उठी ठुमक उठे चरण चरण
शोर मच गया कि लो चली दुल्हन चली दुल्हन
गांव सब उमड़ पड़ा बहक उठे नयन नयन
पर तभी ज़हर भरी गाज एक वोह गिरी
पुंछ गया सिंदूर तार तार हुई चुनरी
और हम अजान से, दूर के मकान से
पालकी लिए हुए कहार देखते रहे
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे.
गोपाल दास 'नीरज'
अवध लाल
' घोस्ट राइटर ' का मतलब बताने के लिये आपको बहुत शुक्रिया तन्हा जी.... इस बार का आलेख भी हर बार की तरह प्रशंसनीय है....ग़ज़ल बेहद अच्छी और हार्ट टचिंग है...जिसे जितनी बार सुना रोना आ गया पता नहीं क्यों....यही कारण है शायद कि मैं अपने को इस महफ़िल से दूर न रख सकी...और गायब वाला शब्द है ' पालकी '..अब अगला काम है अपने शेर को महफ़िल के हवाले करना..तो ये रहा स्वयं रचित शेर भी :
उसे लेकर गयी पालकी जहाँ उसकी कोई कदर न थी
जो जहान था उसके लिये उसकी नजर कहीं और थी.
-शन्नो
aaj jaana shri bashir bhadr ji ke baare mein|
शब्द की नित पालकी उतरी सितारों की गली में
हो अलंकॄत गंध के टाँके लगाती हर कली में
और पाकर अंजनी के पुत्र से कुछ प्रेरणायें
झूलती अमराई में आकर हिंडोले नित हवायें
(राकेश खंडेलवाल )
regards
avnindra ji kaha hain ??????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????????aap
माफ़ करना कोई शेर याद नहीं आ रहा है ठीक से लिख भी नहीं पा रहा टूटा फूटा सा लिखा है सम्हाल लीजियेगा
मन की पालकी मैं वेदना निढाल सी
अश्क मैं डूबी हुई भावना निहाल सी
नयन खोजते हैं किस राह हम चलें
तपती हुई डगर बिछी यादों के जाल सी (स्वरचित )
सब कुछ खाक हुआ है लेकिन चेहरा क्या नूरानी है
पत्थर नीचे बैठ गया है, ऊपर बहता पानी है
बेहतरीन प्रस्तुति तारीफ़-ए-क़ाबिल
मेरी तरह तुम भी कभी प्यार करके देखो ना कितना मजा है कैसा नशा है
रोज नई एक चाल चलता है आदमी
रंग गिरगिट की तरह बदलता है आदमी
भूलके भी सुनो इस पर भरोसा न करना
है सांप आस्तीन का,डसता है आदमी
रचनाकार -सपना मांगलिक
वाह
वो सामने है मेरे और जुदा भी है ।
वो गुनाहगार है मेरा और खुदा भी है ।।
Piyush
तजुर्बा मेरा लिखने का बस इतना सा है ।
मैं सुनता हूँ वाह-वाह,अपनी ही तबाही पर ।।
कमजोर पड़ गए मुझसे तेरे ताल्लुक...
या कहीं और सिलसिले मजबूत हो गए हैं ।।
छोरा घर छोरा परिवार छोरा अपना भविस्य छोरा जिस्केलिय उसने मुझे ही छोर दिया
ना कोई झूठ ना में सच ना ही कुछ खास लिखता हूँ ।
ग़ज़ल में अपने ही मैं दर्द का अहसास लिखता हूँ ।।
ना कोई झूठ ना में सच ना ही कुछ खास लिखता हूँ ।
ग़ज़ल में अपने ही मैं दर्द का अहसास लिखता हूँ ।।
Hr pal yaad aati h aapki
Nazre bi6aye rehta hu,
Kb kaha se aa jaaye palki
Khud ko hr or failaye rehta hu
Hme v apni mehfil me shamil karen plz..
AAP sabhi logo ki Shero shayri dekh kar acha LGA me AAP sabhi ke bache saman hu AAP loge mujhe bhi pyaar de ki me bhi khuch likh saku
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