महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०७
राजनीति और साहित्य साथ-साथ नहीं चलते। इसका कारण यह नहीं कि राजनीतिज्ञ अच्छा साहित्यकार नहीं हो सकता या फिर एक साहित्यकार अच्छी राजनीति नहीं कर सकता.. बल्कि यह है कि उस साहित्यकार को लोग "राजनीति" के चश्मे से देखने लगते हैं। उसकी रचनाओं को पसंद या नापसंद करने की कसौटी बस उसकी प्रतिभा नहीं रह जाती, बल्कि यह भी होती है कि वह जिस राजनीतिक दल से संबंध रखता है, उस दल की क्या सोच है और पढने वाले उस सोच से कितना इत्तेफ़ाक़ रखते हैं। अगर पढने वाले उसी सोच के हुए या फिर उस दल के हिमायती हुए तब तो वो साहित्यकार को भी खूब मन से सराहेंगे, लेकिन अगर विरोधी दल के हुए तो साहित्यकार या तो "उदासीनता" का शिकार होगा या फिर नकारा जाएगा... कम हीं मौके ऐसे होते हैं, जहाँ उस राजनीतिज्ञ साहित्यकार की प्रतिभा का सही मूल्यांकन हो पाता है। वैसे यह बहस बहुत ज्यादा मायना नहीं रखती, क्योंकि "राजनीति" में "साहित्य" और "साहित्यकार" के बहुत कम हीं उदाहरण देखने को मिलते है, जितने "साहित्य" में "राजनीति" के। "साहित्य" में "राजनीति" की घुसपैठ... हाँ भाई यह भी होती है और बड़े जोर-शोर से होती है, लेकिन यह मंच उस मुद्दे को उठाने का नहीं है, इसलिए "साहित्य में राजनीति" वाले बात को यहीं विराम देते हैं और "राजनीति" में "साहित्य" की ओर ओर मुखातिब होते हैं। अगर आपसे पूछा जाए कि जब भी इस विषय पर बात होती है तो आपको सबसे पहले किसका नाम याद आता है.. (मैं यहाँ पर हिन्दी साहित्य की बात कर रहा हूँ, इसलिए उम्मीद है कि अपने जवाब एक हीं होंगे), तो निस्संदेह आपका उत्तर एक हीं इंसान के पक्ष में जाएगा और वे इंसान हैं हमारे पूर्व प्रधानमंत्री "श्री अटल बिहारी वाजपेयी"। यहाँ पर यह ध्यान देने की बात है कि इस आलेख का लेखक यानि कि मैं किसी भी दलगत पक्षपात/आरक्षण के कारण अटल जी का ज़िक्र नहीं कर रहा, बल्कि साहित्य में उनके योगदान को महत्वपूर्ण मानते हुए उनकी रचना को इस महफ़िल का हिस्सा बना रहा हूँ। अटल जी की इस रचना का चुनाव करने के पीछे एक और बड़ी शक्ति है और उस शक्ति का नाम है "स्वर-कोकिला", जिन्होंने इसे गाने से पहले वही बात कही थी, जो मैंने अभी-अभी कही है: "मैं उन्हें एक कवि की तरह देखती हूँ और वो मुझे एक गायिका की तौर पे.. हमारे बीच राजनीति कभी भी नहीं आती।"
अटल जी.. इनका कब जन्म हुआ और इनकी उपलब्धियाँ क्या-क्या हैं, मैं अगर इन बातों का वर्णन करने लगा तो इनकी राजनीतिक गतिविधियों से बचना मुश्किल होगा, इसलिए सही होगा कि हम सीधे-सीधे इनकी रचनाओं की ओर रुख कर लें। लेकिन उसके पहले हम इन्हें जन्मदिवस की शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ देते हैं। इन्होंने पिछले २५ दिसम्बर को हीं अपने जीवन के ८७वें वसंत में कदम रखा है। "कवि के रूप में अटल" इस विषय पर "हिन्दी का विकिपीडिया" कुछ ऐसे विचार रखता है:
मेरी इक्यावन कविताएं वाजपेयी का प्रसिद्ध काव्यसंग्रह है। अटल बिहारी वाजपेयी को काव्य रचनाशीलता एवं रसास्वाद विरासत में मिले हैं। उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर रियासत में अपने समय के जाने-माने कवि थे। वे ब्रजभाषा और खड़ी बोली में काव्य रचना करते थे। पारिवारिक वातावरण साहित्यिक एवं काव्यमय होने के कारण उनकी रगों में काव्य रक्त-रस घूम रहा है। उनकी सर्व प्रथम कविता ताजमहल थी। कवि हृदय कभी कविता से वंचित नहीं रह सकता। राजनीति के साथ-साथ समष्टि एवं राष्ट्र के प्रति उनकी वैयक्तिक संवेदनशीलता प्रकट होती रही। उनके संघर्षमय जीवन, परिवर्तनशील परिस्थितियां, राष्ट्रव्यापी आन्दोलन, जेलवास सभी हालातों के प्रभाव एवं अनुभूति ने काव्य में अभिव्यक्ति पायी। उनकी कुछ प्रकाशित रचनाएँ हैं:
मृत्यु या हत्या
अमर बलिदान (लोक सभा मे अटल जी वक्तव्यों का संग्रह)
कैदी कविराय की कुन्डलियाँ
संसद में तीन दशक
अमर आग है
कुछ लेख कुछ भाषण
सेक्युलर वाद
राजनीति की रपटीली राहें
बिन्दु बिन्दु विचार
न दैन्यं न पलायनम
मेरी इक्यावन कविताएँ...इत्यादि
बात जब अटल जी की कविताओं की हीं हो रही है तो क्यों न इनकी कुछ पंक्तियों का आनंद लिया जाए:
क) हमें ध्येय के लिए
जीने, जूझने और
आवश्यकता पड़ने पर—
मरने के संकल्प को दोहराना है।
आग्नेय परीक्षा की
इस घड़ी में—
आइए, अर्जुन की तरह
उद्घोष करें :
"न दैन्यं न पलायनम्।" ("न दैन्यं न पलायनम्" से)
ख) पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूँ
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पाता हूँ ("दो अनुभूतियाँ" से)
ग) ऊँचे पहाड़ पर,
पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है।
जमती है सिर्फ बर्फ..
....
न वसंत हो, न पतझड़,
हो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,
मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
मेरे प्रभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,
ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत देना। ("ऊँचाई" से)
रचनाएँ तो और भी कई सारी हैं, लेकिन "वक़्त" और "जगह" की पाबंदी को ध्यान में रखते हुए आईये आज की नज़्म से रूबरू होते हैं। "आओ फिर से दिया जलाएँ" एक ऐसी नज़्म है, जो मन से हार चुके और पथ से भटक चुके पथिकों को फिर से उठ खड़ा होने और सही राह पर चलने की सीख देती है। शुद्ध हिन्दी के शब्दों का चुनाव अटल जी ने बड़ी हीं सावधानी से किया है, इसलिए कोई भी शब्द अकारण आया प्रतीत नहीं होता। अटल जी ने इसे जिस खूबसूरती से लिखा है,उसी खूबसूरती से लता जी ने अपनी आवाज़ का इसे अमलीजामा पहनाया है.. इन दोनों बड़ी हस्तियों के बीच अपने आप को संयत रखते हुए "मयूरेश पाई" ने भी इसे बड़े हीं "सौम्य" और "सरल" संगीत से संवारा है। लेकिन इस गीत की जो बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है, वह है "गीत की शुरूआत में बच्चों का एक स्वर में हूक भरना"। यह गीत "अंतर्नाद" एलबम का हिस्सा है, जो २००४ में रीलिज हुई थी और जिसमें अटल जी के लिखे और लता जी के गाए सात गाने थे। "अटल" जी और "लता" जी की यह जोड़ी कितनी कारगर है यह तो इसी बात से जाहिर है कि "अंग्रेजी में अटल को उल्टा पढने से लता हो जाता है" (यह बात खुद लता जी ने कही थी इस एलबम के रीलिज के मौके पर) इसी "ट्रीविया" के साथ चलिए हम और आप सुनते हैं यह नज़्म:
आओ फिर से दिया जलाएँ
भरी दुपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोड़ें-
बुझी हुई बाती सुलगाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ
हम पड़ाव को समझे मंज़िल
लक्ष्य हुआ आंखों से ओझल
वतर्मान के _______ में-
आने वाला कल न भुलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
आहुति बाकी यज्ञ अधूरा
अपनों के विघ्नों ने घेरा
अंतिम जय का वज़्र बनाने-
नव दधीचि हड्डियां गलाएँ।
आओ फिर से दिया जलाएँ।
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल/नज़्म हमने पेश की है, उसके एक शेर/उसकी एक पंक्ति में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल/नज़्म को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "नगर" और मिसरे कुछ यूँ थे-
आ बस हमरे नगर अब
हम माँगे तू खा..
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
मेरे नगर के लोग बडे होशियार हैं
रातें गुजारते है सभी जाग जाग कर - शरद जी
मेरे नगर में खुशबू रचते हाथ ,
महकाते समाज-देश-संसार - मंजु जी
नगरी नगरी फिरा मुसाफ़िर घर का रस्ता भूल गया
क्या है तेरा क्या है मेरा अपना पराया भूल गया - मोहम्मद सनाउल्लाह सानी ’मीराजी’
जिस नगर में अब कोई याद करता नहीं
उसकी गलियों से भी अब वास्ता है नहीं. - शन्नो जी
तेरे नगर में वो कैसी कशिश थी ,कैसी मस्ती थी
जो अब तक तो देखी न थी,पर अब सबमे दिखती है - नीलम जी
पत्थर के नगर मैं इंसान भी
पत्थर सा हो गया है !
घात लपेटे हर रिश्ता
बदतर सा हो गया है ! - अवनींद्र जी
ख्वाबों के मीठे फूल,
ख्यालों के रंगीन झरने,
बहारों का नगर है यह,
यहाँ खुशियों के फल हैं मिलते. - पूजा जी
सबसे पहले आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ एवं बधाईयाँ।
पिछली महफ़िल में फिर से वही हुआ जो पहले की न जाने कई सारी महफ़िलों में हो चुका था। बस फ़र्क यह था कि पहले यह गलती शन्नो जी किया करती थीं, लेकिन इस बार बारी अवध जी की थी। आपने गलत शब्द "नज़र" सुन लिया और उस पर अपनी पंक्तियाँ भी लिख डालीं, ये तो शरद जी थे जिन्होंने "नगर" को पकड़ा और अपना स्वरचित शेर महफ़िल के हवाले किया। शरद जी ने हमारी भी ख़बर ली, अच्छी ख़बर ली :) लेकिन बस इसी वज़ह से हम इन्हें "शान-ए-महफ़िल" की पदवी से अलग नहीं कर सकते, बल्कि इन्होंने हमारी सहायता करके अपनी पदवी और मजबूत कर ली है। शरद जी के बाद महफ़िल में मंजु जी, शन्नो जी और नीलम जी का आना हुआ... अपने-अपने स्वरचित शेरों के साथ। आप तीनों की तिकड़ी कमाल की है और सच कहूँ तो यही तिकड़ी महफ़िल की जान है। यह मेल-मिलाप इसी तरह कायम रखिएगा... । तीन महिलाओं के बाद बारी आई मीराजी की। मीराजी खुद तो नहीं आए महफ़िल में, बल्कि उनका शेर लेकर हाज़िर हुए सुमित जी, जो खुद नहीं जानते थे कि उनकी पोटली में पड़ा शेर किसका है.. यह तो "गूगल" बाबा का कमाल है कि हमें "मीराजी" के शेर और उनकी जीवनी के बारे में जानकारी हासिल हुई। आप सबों के बाद महफ़िल में चार चाँद लगाए अवनींद्र जी और पूजा जी ने। अवनींद्र जी तो इस महफ़िल को अपना घर समझते हीं हैं, अच्छी बात यह है कि पूजा जी भी अब महफ़िल के रंग में रंगने लगी हैं और टिप्पणी करने से नहीं मुकरती/कतराती। आशा करता हूँ कि इस नए साल में भी आप सब अपना प्यार यूँ हीं बनाए रखेंगे।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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13 श्रोताओं का कहना है :
बहुत अच्छा लगा पढ़कर इस महफिल के बारे में..
गायब शब्द है ' मोह जाल '
शेर पेश करना नहीं भूल रही हूँ इस बार..ये रहा:
मोह जाल से रखकर नाता
ये इंसा भूल गया मानवता.
और हाँ, तन्हा जी, ये कौन सी बात हुई..इंसान गलतियों का पुतला ही तो है...हमसे गलती नहीं ''गलतियाँ'' हो गईं तो कौन सी क़यामत आ गयी इस महफिल पे...हूँ..बताइये :) इस पर एक जल्दी में शेर पेश है( बिना माँगे या पूछे हुये )
हम किसी के इल्जाम से सुधर नहीं पायेंगे
अनजाने में हुई गलतियाँ भी करते जायेंगे.
खुदा हाफिज...
इस बार तो अच्छी तरह सुन और जांच लिया है. गायब शब्द तो 'मोहजाल' ही प्रतीत होता है.
इस शब्द पर कविता फिलहाल तो नहीं सूझ रही है.
थोड़ी देर बाद कोशिश कर फिर हाज़िर होता हूँ.
अवध लाल
( हे राम! एक मिनट के फर्क से बाल-बाल बच गयी )
एक REMINDER:
'मोह जाल' पर पेश किया हुआ शेर स्वरचित है. सोचा कि ये भी बता दूँ इसके पहले कि न बताना भी कहीं किसी मिस्टेक में शामिल न कर लिया जाये...उम्मीद है कि अब कोई कन्फ्यूजियत वाली बात नहीं होगी :)
Byeeeee
सभी अपनों को नववर्ष २०११ की हार्दिक शुभकामनाएँ.
जवाब - मोह जाल
शेर हाजिर है -
जान लिखकर लगा दिए चार चाँद ,
सृजन कराता लिखने का मोह जाल .
दूसरा शेर -
अच्छा लगता छुट्टियों का मोह जाल ,
नववर्ष में हाजिर हो महफिल के साथ .
हम अपनी गलतियों-अलतियों की परवाह नहीं करते..कभी-कभी गलत होकर दूसरों को भी बधाई देना चाहिये..इससे भी रूह को बहुत सुकून मिलता है :)
दो और शेर महफिल के नाम करने के मकसद से आई थी..तो पेश करती हूँ:
1.
ये काया है धोखा और धोखा जहाँ है
मोह जाल में लिपटा फिर भी जहाँ है.
2.
भूल गया इंसानियत तू कैसा इंसा है
मोह जाल में क्यों तू इतना फँसा है?
( स्वरचित )
नव -वर्ष में तेरे सपनो को
उन्मुक्त अनंत उड़ान मिले !!
हर ख्वाब को पूरा कर दे जो
तुझको ऐसा अरमान मिले !!
कोई हृदय से तुझको चाहे
तुझे प्रीत का हर सम्मान मिले !!
नदियों की तरह का प्राण मिले
पर्वत जैसा अभिमान मिले !!
कोई राह तुझे न वीरान मिले
हर राह को एक अंजाम मिले !!
चेहरे पे नहीं दिल पर भी हो
तुझको ऐसी मुस्कान मिले !!
हर सुबह तेरी उम्मीद भरी
हर शाम को तेरी शान मिले !!
हर रात तुम्हारी नींदों को
किसी लोरी का आराम मिले !!
हम नाज़ करे तुझ पे ऐ -दोस्त
तुझको ऐसा ईमान मिले !!
इस साल तू ऐसा कर जाये
दुश्मन से तुझे सम्मान मिले !!
कोई दुखी न हो तेरी बस्ती में
सबको खुशियों का जाम मिले !!
अन्तंक के भड़कते शोलों को
एक चिर अनंत विराम मिले !!
और अब गायब शब्द मोह-जाल के लिए एक पंक्ति इसी में जोड़ रहा हूँ
मोह-जाल का जाल न मोह सके
जीवन को सच का प्राण मिले (स्वरचित)
मेरे सभी दोस्तों एवं विश्व जी आप-को नव वर्ष की तहे दिल से शुभकामनाएं !
तन्हा जी, मंजू जी और अवनीन्द्र जी को नववर्ष की तमाम शुभकामनाओं के लिये बहुत धन्यबाद. मैं भी आप लोगों और महफिल के सभी मित्रों को नववर्ष की शुभकामना देती हूँ और इसके उपलक्ष्य में अपने कुछ उदगार प्रस्तुत करती हूँ:
नूतन वर्ष का आगमन हुआ
अब मैं करती हूँ कामना यही
हर दिन मंगलमय हो सबको
छू पाये ना दुख का अंश कहीं.
निश्छल, निष्कपट भावना हो
स्नेह से हो हर मन सुरभित
उलझे ना कोई भी मोहजाल में
उल्लास से हो हर मन कुंजित.
( स्वरचित )
अंजाम जिसका कोई नहीं , ऐसा भ्रम का जाल था वो मोह का कोई जाल नहीं , ऐसा एक आगाज था वो
नव वर्ष आप सभी की जिन्दगी में शांति ,सौहाद्र और सारी खुशियाँ लेकर आये, यही मेरी ईश्वर से आप सबके लिए प्रार्थना है
शन्नों जी , अवनींद्र जी को नववर्ष कविता पर मोहजाल का सुंदर प्रयोग करने के लिए मेरा मोहजाल धन्यवाद प्रस्तुत करता है .
मन्जू गुप्ता
प्रिय मंजू जी, हम सबके लिये ये आपका मोहजाल हमें बहुत अच्छा लगा. और इससे प्रेरित होके ये एक और शेर लिखा है:
दुनिया में मोहजाल नहीं मोहब्बत का जाल हो
हो अमन चैन हर जगह तो न कोई ववाल हो.
( स्वरचित )
शन्नों जी ,
नमस्ते .
मोहब्बत से भरा शब्द लाजवाब है , काश जग समझ सके ............!
मोहब्बत के साथ -
मंजू
महफ़िल में एक बहुत अलग प्रस्तुति के लिये बधाई दीपक जी. अटल जी की कविता को लता की आवाज़ में सुनना बहुत अच्छा लग रहा है. उनकी अन्य कविताओं से परिचय कराने का आभार :)
आज शेर नहीं, एक कविता का हिस्सा पेश है :)
शुभ रेखांकित सप्त पदी से,
सरस नेत्र ने थामी अंगुल,
लिये हाथ में हाथ सदी से,
नव निर्मित बादामी अंगुल.
किंचित सरस नेत्र शरमाया,
मधुर मोह जाल यह पाया,
अधर पहन कर अधरों पर,
भरती लजीली हामी अंगुल.
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