ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 618/2010/318
पार्श्वगायन को छोड़ कर हिंदी फ़िल्म निर्माण के अन्य सभी क्षेत्रों में पुरुषों का ही शुरु से दबदबा रहा है। लेकिन कुछ साहसी और सशक्त महिलाओं नें फ़िल्म निर्माण के सभी क्षेत्रों में क़दम रखा और दूसरों के लिए राह आसान बनायी. ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण महिला कलाकारों को समर्पित 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की इस लघु शृंखला 'कोमल है कमज़ोर नहीं' में आप सब का हम फिर एक बार स्वागत करते हैं। कल की कड़ी में हमने बातें की मशहूर लेखिका इस्मत चुगताई की, और आज बातें फिर एक बार एक लेखि्का व निर्देशिका की। इन्होंने अपनी कलम को अपना 'साज़' बनाकर ऐसी 'कथा' लिखीं कि वह न केवल सब के मन को 'स्पर्श' कर गईं बल्कि फ़िल्म निर्माण को भी एक नई 'दिशा' दी। उनकी लाजवाब फ़िल्मों को देख कर केवल पढ़े लिखे लोग ही नहीं, बल्कि 'अंगूठा-छाप' लोगों ने भी एक स्वर कहा 'चश्म-ए-बद्दूर'!!! जी हाँ, हम आज बात कर रहे हैं साईं परांजपे की। १९ मार्च १९३८ को लखनऊ मे जन्मीं साईं के पिता थे रशियन वाटरकलर आर्टिस्ट यूरा स्लेप्ट्ज़ोफ़, और उनकी माँ थीं शकुंतला परांजपे, जो ३० और ४० के दशक की हिंदी और मराठी सिनेमा की जानीमानी अभिनेत्री थीं। वी. शांताराम की मशहूर फ़िल्म 'दुनिया न माने' में भी शकुंतला जी ने अभिनय किया था। बाद में शकुंतला जी एक लेखिका व समाज सेविका बनीं और राज्य सभा के लिए भी मनोनीत हुईं। वो १९९१ में पद्मभूषण से सम्मानित की गई। दुर्भाग्यवश सई के जन्म के कुछ दिनों में ही उनके माता-पिता अलग हो गए और सई को उनकी माँ ने बड़ा किया अपने पिता श्री आर. पी. परांजपे के घर में, जो एक प्रसिद्ध गणितज्ञ और शिक्षाविद थे। इस तरह से साईं को बहुत अच्छी शिक्षा मिली और कई शहरों में रहने का मौका भी मिला, जिनमें पुणे का नाम उल्लेखनीय है। बचपन में सई अपने चाचा अच्युत राणाडे के पास जाया करतीं, जो ४० और ५० के दशकों के जानेमाने फ़िल्मकार थे। उन्हीं से साईं को पटकथा लेखन की पहली शिक्षा मिली। साईं ने भी लिखना शुरु किया और केवल आठ वर्ष की आयु में उनकी पहली पुस्तक 'मूलांचा मेवा' (मराठी) प्रकाशित हुई। १९६३ में साईं ने 'नैशनल स्कूल ऒफ़ ड्रामा' से स्नातक की डिग्री प्राप्त की।
साईं परांजपे का करीयर आकाशवाणी पुणे से आरंभ हुआ बतौर उद्घोषिका, और जल्दी ही वहाँ के बाल-कार्यक्रम के माध्यम से लोकप्रियता हासिल कर लीं। साईं ने अपने करीयर में मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी में बहुत से नाटक लिखे और निर्देशित कीं। सई नें न केवल फ़ीचर फ़िल्मों का निर्माण किया बल्कि बच्चों की फ़िल्में और वृत्तचित्रों का भी निर्माण व निर्देशन किया। उनकी लिखी किताबों में ६ किताबों को राष्ट्रीय या राज्य स्तर के पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। दूरदर्शन के लिए साईं ने महत्वपूर्ण योगदान दिया और कई वर्षों तक बतौर प्रोड्युसर व डिरेक्टर जुड़ी रहीं। टीवी के लिए उनकी पहली फ़िल्म 'दि लिट्ल टी शॊप' को तेहरान में 'एशियन ब्रॊडकास्टिंग् युनियन अवार्ड' से सम्मानित किया गया था। बम्बई दूरदर्शन के सर्वप्रथम कार्यक्रम को प्रोड्युस करने का दायित्व उन्हें ही दिया गया था, जो उनके लिए बड़ा सम्मान था। ७० के दशक में साईं को दो बार 'चिल्ड्रेन फ़िल्म सोसायटी ऒफ़ इण्डिया' के सचिव के लिए चुना गया, और उस दौरान उन्होंने चार बाल-फ़िल्में बनाईं, जिनमें 'जादू का शंख' और 'सिकंदर' को पुरस्कृत किया गया था। उनकी पहली फ़ीचर फ़िल्म 'स्पर्श' (१९८०) को उस साल राष्ट्रीय पुरस्कार के साथ साथ अन्य पाँच पुरस्कारों से भी सम्मानित किया गया था। 'स्पर्श' के बाद दो हस्य फ़िल्में उन्होंने बनाईं - 'चश्म-ए-बद्दूर' (१९८१) और 'कथा' (१९८२)। उन्होंने १९८४ में 'अड़ोस-पड़ोस' और १९८५ में 'छोटे-बड़े' जैसी टीवी सीरियल्स बनाये। उनकी अन्य फ़िल्मों में शामिल हैं - 'अंगूठा छाप' (राष्ट्रीय साक्षरता मिशन पर केन्द्रित), 'दिशा' (स्थानांतरित मज़दूरों पर केन्द्रित), 'पपीहा' (जंगल पर केन्द्रित), 'साज़' (दो गायिका बहनों के जीवन की कहानी पर केन्द्रित), और 'चकाचक' (वातावरण-दूषण पर केन्द्रित)। इस तरह से साईं परांजपे एक ऐसी फ़िल्मकार हैं जिन्होंने हमेशा ही अर्थपूर्ण फ़िल्में बनाईं हैं। सन् २००६ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया। आइए आज उनको सलाम करते हुए सुनते हैं फ़िल्म 'चश्म-ए-बद्दूर' से एक बड़ा ही मशहूर गीत "कहाँ से आये बदरा, घुलता जाये कजरा"। हमनें इस गीत को इसलिए भी चुना क्योंकि इस गीत को लिखा है एक महिला गीतकार नें। इंदु जैन ने इस गीत को लिखा है और संगीत दिया है राजकमल साहब नें। युगल आवाज़ें हैं हेमंती शुक्ला और येसुदास के। महिला गीतकारों की अगर बात करें तो एक और नाम जो याद आता है, वह है माया गोविंद जी का। तो दोस्तों, 'कोमल है कमज़ोर नहीं' की आज की कड़ी में हमनें जिन महिला कलाकारों का नाम लिया, वो हैं साईं परांजपे, शकुंतला परांजपे , इंदु जैन, माया गोविंद और हेमंती शुक्ला। सुनते हैं राग वृंदावनी सारंग पर आधारित इस सुमधुर गीत को।
क्या आप जानते हैं...
१९९३ में साईं परांजपे की फ़िल्म 'चूड़ियाँ' को 'National Film Award for Best Film on Social Issues' से सम्मानित किया गया था।
दोस्तों अब पहेली है आपके संगीत ज्ञान की कड़ी परीक्षा, आपने करना ये है कि नीचे दी गयी धुन को सुनना है और अंदाज़ा लगाना है उस अगले गीत का. गीत पहचान लेंगें तो आपके लिए नीचे दिए सवाल भी कुछ मुश्किल नहीं रहेंगें. नियम वही हैं कि एक आई डी से आप केवल एक प्रश्न का ही जवाब दे पायेंगें. हर १० अंकों की शृंखला का एक विजेता होगा, और जो १००० वें एपिसोड तक सबसे अधिक श्रृंखलाओं में विजय हासिल करेगा वो ही अंतिम महा विजेता माना जायेगा. और हाँ इस बार इस महाविजेता का पुरस्कार नकद राशि में होगा ....कितने ?....इसे रहस्य रहने दीजिए अभी के लिए :)
पहेली 09/शृंखला 12
गीत का ये हिस्सा सुनें-
अतिरिक्त सूत्र - नारी शक्ति की आवाज़ भी है ये गीत.
सवाल १ - हालाँकि एक मशहूर गायिका पे केंद्रित है ये कड़ी, पर इस फिल्म की नायिका का भी इसमें सम्मान है, कौन है ये जबरदस्त लाजवाब अभिनेत्री - ३ अंक
सवाल २ - गीतकार कौन हैं - २ अंक
सवाल ३ - फिल्म के निर्देशक कौन हैं - १ अंक
पिछली पहेली का परिणाम -
अवध जी २ अंको की बधाई के साथ जानकारी देने का आभार, अमित जी और अंजाना जी तो हैं ही सदाबहार
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
इन्टरनेट पर अब तक की सबसे लंबी और सबसे सफल ये शृंखला पार कर चुकी है ५०० एपिसोडों लंबा सफर. इस सफर के कुछ यादगार पड़ावों को जानिये इस फ्लेशबैक एपिसोड में. हम ओल्ड इस गोल्ड के इस अनुभव को प्रिंट और ऑडियो फॉर्मेट में बदलकर अधिक से अधिक श्रोताओं तक पहुंचाना चाहते हैं. इस अभियान में आप रचनात्मक और आर्थिक सहयोग देकर हमारी मदद कर सकते हैं. पुराने, सुमधुर, गोल्ड गीतों के वो साथी जो इस मुहीम में हमारा साथ देना चाहें हमें oig@hindyugm.com पर संपर्क कर सकते हैं या कॉल करें 09871123997 (सजीव सारथी) या 09878034427 (सुजॉय चटर्जी) को
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6 श्रोताओं का कहना है :
Smita Patil
Smita Patil
गीतकार-राजेश रोशन
निर्देशक: राकेश कुमार
अवध लाल
निर्देशक-जे.ओमप्रकाश
जो काम सरकार के किसी विभाग को करना चाहिए वो आप कर रहे है बहुत शुभकामनाये
सरकार को चाहिए की वह आपको कुछ अनुदान दे
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