महफ़िल-ए-ग़ज़ल #३४
१८वें एपिसोड में हमने आपको "तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे" सुनवाया था जिसे अपनी पुरकशिश आवाज़ से रंगीन किया था मोहतरमा "इक़बाल बानो" ने। उस एपिसोड के ९ एपिसोड बाद यानी कि २७ वें एपिसोड में हम लेकर आए थे "मोहे आई न जग से लाज, मैं इतनी जोर से नाची आज कि घुंघरू टूट गए"। यूँ तो उस नज़्म में आवाज़ थी "रूना लैला" की लेकिन जिसकी कलम ने उस कलाम को शिखर तक पहुँचाया उस शख्स का नाम था "क़तील शिफ़ाई"। तो हाँ आज हम इ़क़बाल बानो और क़तील शिफ़ाई की मिलीजुली मेहनत को सलाम करने के लिए जमा हुए हैं। हम आज जो गज़ल लेकर हाज़िर हुए हैं उसकी फ़रमाईश श्री शरद तैलंग जी ने की थी। जानकारी के लिए बता दें कि अगली कड़ी में हम दिशा जी की फ़रमाईश की हीं गज़ल प्रस्तुत करेंगे। अब चूँकि उनकी गज़लों की फ़ेहरिश्त हमें देर से हासिल हुई, इसलिए वक्त लगना लाजिमी है। आज की गज़ल इसलिए भी खास है क्योंकि टिप्पणियों के माध्यम से कई बार शरद जी इसकी खूबसूरती का ज़िक्र कर चुके हैं। इतना होने के बावजूद हम इस गज़ल को टालने की सोच रहे थे क्योंकि इक़बाल बानो और क़तील शिफ़ाई के बारे में हम पहले हीं लिख चुके हैं और इक़बाल बानो पर तो एक पूरा का पूरा आलेख आवाज़ पर लिखा जा चुका है, फिर इनके बारे में कुछ नया कहना तो मुश्किल हीं होगा। लेकिन गज़ल की शोखी के सामने हमारी एक न चली और हमें इस गज़ल को सुनवाने पर बाध्य होना पड़ा। फिर हमने सोचा कि क्यों न क़तील शिफ़ाई के बारे में नए सिरे से खोज की जाए। और ढूँढते-ढूँढते हम पहुँच गए प्रकाश पंडित की पुस्तक "क़तील शिफ़ाई और उनकी शायरी" तक। जनाब प्रकाश पंडित से तो आप अब तक परिचित हो हीं गए होंगे। "फ़ैज़" साहब पर प्रस्तुत की गई कड़ी इन्हीं के पुस्तक के कारण मुमकिन हो पाई थी। आज की कड़ी का भी कुछ ऐसा हीं हाल है। वैसे "प्रकाश" साहब इतना बढिया लिखते हैं कि हमें उनका लिखा आप सबके सामने लाने पर बड़ा हीं फ़ख्र महसूस होता है। उम्मीद करते हैं कि हमारा और प्रकाश पंडित का साथ आगे भी इसी तरह बना रहेगा। चलिए अब प्रकाश पंडित की पुस्तक से क़तील शिफ़ाई का परिचय प्राप्त करते हैं।
किसी शायर के शेर लिखने के ढंग आपने बहुत सुने होंगे। उदाहरणतः 'इक़बाल’(मोहम्मद अल्लामा इ़क़बाल) के बारे में सुना होगा कि वे फ़र्शी हुक़्क़ा भरकर पलंग पर लेट जाते थे और अपने मुंशी को शेर डिक्टेट कराना शुरू कर देते थे। ‘जोश’ मलीहाबादी सुबह-सबेरे लम्बी सैर को निकल जाते हैं और यों प्राकृतिक दृश्यों से लिखने की प्रेरणा प्राप्त करते हैं। लिखते समय बेतहाशा सिगरेट फूँकने, चाय की केतली गर्म रखने और लिखने के साथ-साथ चाय की चुस्कियाँ लेने के बाद ,यहाँ तक कि कुछ शायरों के सम्बन्ध में यह भी सुना होगा कि उनके दिमाग़ की गिरहें शराब के कई पैग पीने के बाद खुलनी शुरू होती हैं। लेकिन यह अन्दाज़ शायद ही आपने सुना हो कि शायर शेर लिखने का मूड लाने के लिए सुबह चार बजे उठकर बदन पर तेल की मालिश करता हो और फिर ताबड़तोड़ दंड पेलने के बाद लिखने की मेज पर बैठता हो। यदि आपने नहीं सुना तो सूचनार्थ निवेदन है कि ये शायर ‘क़तील शिफ़ाई’ हैं। इनके शेर लिखने के इस अन्दाज़ को और लिखे शेरों को देखकर आश्चर्य होता है कि इस तरह लंगर–लँगोट कसकर लिखे गये शेरों में कैसे झरनों का-सा संगीत फूलों की-सी महक और उर्दू की परम्परागत शायरी के महबूब की कमर-जैसी लचक मिलती है। अर्थात् ऐसे वक़्त में जबकि इनके कमरे से ख़म ठोकने और पैंतरें बदलने की आवाज़ आनी चाहिए, वहां के वातावरण में एक अलग तरह की गुनगुनाहट बसी होती है। और इसके साथ यदि आपको यह भी मालूम हो जाए कि ‘क़तील शिफ़ाई’ जाति के पठान हैं और एक समय तक गेंद-बल्ले, रैकट, लुंगियाँ और कुल्ले बेचते रहे हैं, चुँगीख़ाने में मुहर्रिरी और बस-कम्पनियों में बुकिंग-क्लर्की करते रहे हैं तो इनके शेरों के लोच-लचक को देखकर आप अवश्य कुछ देर के लिए सोचने पर विवश हो जाएँगे। इन सारी रोचक बातों के बाद ’क़तील शिफ़ाई’ की जि़स बात का ज़िक्र आता है, वह है उनकी असफ़ल प्रेम कहानी। किस तरह एक परंपरागत गज़लें लिखने वाला इंसान यथार्थ के धरातल पर कदम रखने को मजबूर हो गया, इसका बड़ा हीं बढिया तरीके से इस पुस्तक में वर्णन किया हुआ है।
पहली नज़र में वह इंसान जो भी नज़र आता हो, दो-चार नज़रों या मुलाक़ातों के बाद बड़ी सुन्दर वास्तविकता खुलती है-कि वह डकार लेने के बारे में नहीं, अपनी किसी प्रेमिका के बारे में सोच रहा होता है-उस प्रेमिका के बारे में जो उसे विरह की आग में जलता छोड़ गई, या उस प्रेमिका के बारे में जिसे इन दिनों वह पूजा की सीमा तक प्रेम करता है। प्रेम और पूजा की सीमा तक प्रेम उसने अपनी हर प्रेमिका से किया है और उसकी हर प्रेमिका ने वरदान-स्वरूप उसकी शायरी में निखार और माधुर्य पैदा किया है, जैसे ‘चन्द्रकान्ता’ नाम की एक फिल्म ऐक्ट्रेस ने किया है जिससे उसका प्रेम केवल डेढ़ वर्ष तक चल सका और जिसका अन्त बिलकुल नाटकीय और शायर के लिए अत्यन्त दुखदायी सिद्ध हुआ। चन्द्रकान्ता से प्रेम और विछोह से पहले ‘क़तील शिफ़ाई’ आर्तनाद क़िस्म की परम्परागत शायरी किया करते थे और ‘शिफ़ा’ कानपुरी नाम के एक शायर से अपने कलाम पर इस्लाह लेते थे (इसी सम्बन्ध से वे अपने को ‘शिफ़ाई’ लिखते हैं)। फिर उन्होंने अहमद नदीम क़ासमी से मैत्रीपूर्ण परामर्श लिये। लेकिन किसी की इस्लाह या परामर्श तब तक किसी शायर के लिए हितकर सिद्ध नहीं हो सकते जब तक कि स्वयं शायर के जीवन में कोई प्रेरक वस्तु न हो। चन्द्रकान्ता उन्हें छोड़ गई लेकिन उर्दू शायरी को एक सुन्दर विषय और उस विषय के साथ पूरा-पूरा न्याय करने वाला शायर ‘क़तील’ शिफ़ाई दे गई। अपने व्यक्तिगत गम और गुस्से के बावजूद तब ‘क़तील’ ने चन्द्रकान्ता को अपना काव्य-विषय बनाया-एक ऐसी नारी को जो अपना पवित्र नारीत्व खो चुकी थी और खो रही थी। चन्द्रकान्ता के प्रेम और विछोह के बाद उन पर यह नया भेद खुला कि काव्य की परम्पराओं से पूरी जानकारी रखने, शैली में वृद्धि करने तथा नए विचार और नए शब्द देने के साथ-साथ केवल वही शायरी अधिक अपील कर सकती हैं जिसमें शायर का व्यक्तित्व या ‘मनोवृत्तान्त’ विद्यमान हों। मुहब्बत की नाकामी ने ‘क़तील’ को सोचने की प्रेरणा दी। समय, अनुभव और साहित्य की प्रगतिशील धारा से सम्बन्धित होने के बाद जिस परिणाम पर वे पहुँचे, उनकी आज की शायरी उसी की प्रतीक है। इस तरह प्रकाश पंडित को पढने के बाद हमें क़तील के बारे में बहुत कुछ जानने को मिलता है। अपनी पुस्तक में इन्होंने क़तील साहब के बारे में और भी बहुत कुछ लिखा है, लेकिन वो सब आगे कभी। वैसे एक बात जो ’क़तील’ साहब की सबको बहुत भाती है, वह है उनका मज़ाकिया लहज़ा। ’मोहे आई न जग से लाज’ के बारे में वे कहते हैं: जब तक भारत और पाकिस्तान का कोई भी गायक इस गीत को गा नहीं लेता वो गवैया नहीं कहलाता। आप माने या ना माने लेकिन इस बात में सच्चाई तो है...लगभग सभी गायकों ने इस नज़्म पर अपनी आवाज़ साफ की है। क़तील साहब की यही तो खासियत है, कुछ ऐसा लिख जाते हैं जो चाहने से भी नहीं छूटता। इसी बात पर क्यों ना उन्हीं का लिखा एक शेर देख लिया जाए जो आजकल के इश्क़ पर फिट बैठता है:
हौसला किसमें है युसुफ़ की ख़रीदारी का
अब तो महंगाई के चर्चे है ज़ुलैख़ाओं में।
क़तील शिफ़ाई एक ऐसे शख्स हैं जिनपर जितना लिखा जाए उतना कम है। इन्हें नज़र-अंदाज़ करना मुश्किल हीं नहीं नामुमकिन है और इसीलिए हम यह फ़ैसला करते हैं कि कुछ हीं दिनों में इनकी अगली गज़ल/नज़्म लेकर जरूर हाज़िर होंगे। तब तक के लिए इक़बाल बानो की दर्दभरी आवाज़ में इस गज़ल का लुत्फ़ उठाया जाए:
उल्फ़त की नयी मंज़िल को चला तू बाहें डाल के बाहों में
दिल तोड़ने वाले देख के चल, हम भी तो पड़े हैं राहों में
क्या-क्या न जफ़ाएं दिल पे सहीं, पर तुमसे कोई शिक़वा न किया
इस जुर्म को भी शामिल कर लो मेरे मासूम ग़ुनाहों में
जब चांदनी रातों में तूने, ख़ुद हम से किया इक़रार-ए-वफ़ा
फिर आज हैं क्यों हम बेगाने, तेरी बे-रहम निग़ाहों में
हम भी हैं वही तुम भी हो वही ये अपनी-अपनी क़िस्मत है
तुम खेल रहे हो खुशियों से, हम डूब गये हैं आहों में
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की. एक शेर हम आपकी नज़र रखेंगे. उस शेर में कोई एक शब्द गायब होगा जिसके नीचे एक रिक्त स्थान बना होगा. हम आपको चार विकल्प देंगे आपने बताना है कि उन चारों में से सही शब्द कौन सा है. साथ ही पेश करना होगा एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली -
__ को दर्द मिला, दर्द को ऑंखें न मिली,
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं...
आपके विकल्प हैं -
a) रूह, b) दिल, c) होश, d) इश्क
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बला" और शेर कुछ यूं था -
ये दुनिया भर के झगड़े घर के किस्से काम की बातें
बला हर एक टल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ।
इस शेर का सबसे पहले संधान शरद जी ने किया। और अगले हीं क्षण बला पर एक शेर दाग दिया-
बला कैसी भी हो अपने को उसके पास रखता हूँ
तभी तो लोग कहते हैं हुनर कुछ ख़ास रखता हूँ ।
दिशा जी कहाँ कम थीं। उन्होने एक नहीं बल्कि दो-दो स्वरचित शेर डाले। दो में से एक यह था-
बला छू न सके उनको,जिनका हाफिज हो खुदा
इस सच का एहसास लेकर मैं तेरे दर से उठा
निर्मला जी आपको हमारी महफ़िल और हमारे लिखने का अंदाज़ अच्छा लग रहा है, इसके लिए हम आपका तहे-दिल से शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन यह क्या आपकी तरफ़ से कोई भी शेर नहीं। अगर अपना कोई ध्यान नहीं आ रहा तो किसी दूसरे शायर का हीं डाल दें। चलिए अगली बार आप से उम्मीद रहेगी।
मंजु जी हमेशा से हीं हमारी श्रोता/पाठिका रही हैं। आगे भी इसी तरह हम पर अपना स्नेह डालती रहेंगी, यही दुआ है।
मनु जी, आखिरकार आपने हमारा पोस्ट पढ हीं लिया :) आपको गज़ल पसंद आई तो इसी फ़नकार की दूसरी गज़ल (बदकिस्मती से उनकी दो हीं गज़लें उपलब्ध हैं) लेकर हम ज़ल्द हीं महफ़िल-ए-गज़ल पर हाज़िर होंगे, इस बात का आपको हम यकीन दिलाते हैं।
शामिख जी, धीरे-धीरे आप हमारे लिए गज़लों का एक स्रोत होते जा रहे हैं। आप अपनी टिप्पणियों के माध्यम से हमें कई सारी गज़लों की जानकारी देते हैं, जो हमारे लिए लाभप्रद साबित होता है। आपने ना सिर्फ़ "जावेद अख्तर" साहब के इस शेर को पकड़ा बल्कि उनकी एक और गज़ल हमें मुहैया करा दी। साथ-साथ मनु जी के बड़े चाचा (मिर्ज़ा ग़ालिब) के इस शेर से महफ़िल को रंगीन भी कर दिया:
क़हर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश के तुम मेरे लिये होते
कुलदीप जी आपकी बात सोलह आने सच है कि अगर मास्टर मदन कुछ दिन/साल और जीते तो भारतीय संगीत का रंग हीं अलहदा होता। आप इस शेर के साथ महफ़िल में हाज़िर हुए:
बला की खूबसूरती जब सफ़ेद ताज पे नौश फरमाती है .
क्या कहें तब तो जन्नत से मुमताज़ की चांदनी भी उतर आती है .
निकलते-निकलते कुलदीप जी भी ग़ालिब के रंग में रंग गए। ये रही बानगी:
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब्-ऐ-गम बुरी बला है
मूझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
मनु जी, यह क्या आपके रहते एक और शब्दकोष :) ...वैसे हमारे लिए अच्छा है, ज्यादा से ज्यादा लोग गज़लों का मज़ा लें तो हमें और क्या चाहिए....
इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए दीजिये इजाज़त, खुदा हाफिज़ !!
प्रस्तुति - विश्व दीपक तन्हा
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर मंगलवार और शुक्रवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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26 श्रोताओं का कहना है :
सही शब्द है - रुह
रुह को दर्द मिला, दर्द को ऑंखें न मिली,
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं...
sahi jawaab hai "rooh"
Meri rooh ki haqeeqat, merey aaNsu’oN sey poocho
Mera maj’lisi tabassum, mera tar’jumaaN nahiN hai.
Mera tujh se lafzon ka nahi rooh ka Rishta hai..
Tu meri rooh main Thehlil hai Kushbo ki tarha..
NB: this is not mine, got it from the net.
सही शब्द है - रुह
स्वरचित शेर
काँप उठती है रुह मेरी याद कर वो मंजर
जब घोंपा था अपनों ने ही पीठ में खंजर
सही शब्द है - रुह
रुह को दर्द मिला, दर्द को ऑंखें न मिली,
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं...
सही है ’रूह’
शे’र :
हरेक रूह में इक ग़म छुपा लगे है मुझे,
ए ज़िन्दगी तू कोई बददुआ लगे है मुझे ।
उल्फ़त की नई मन्ज़िल को चला ’ - सुनवाने का शुक्रिया । आपने पूरा लेख ही उतना ही शानदार लिखा है । बधाई !
वो ग़ज़ल जिसका यह शे'र है. शायद मुज़फ्फर वारसी साहब की है.
मेरी तस्वीर में रंग और किसी का तो नहीं
घेर लें मुझको सब आ के मैं तमाशा तो नहीं
ज़िन्दगी तुझसे हर इक साँस पे समझौता करूँ
शौक़ जीने का है मुझको मगर इतना तो नहीं
रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं
सोचते सोचते दिल डूबने लगता है मेरा
ज़हन की तह में 'मुज़फ़्फ़र' कोई दरिया तो नही.
अब एक साहिर साहब की नज़्म का एक हिस्सा जिसमे रूह लफ्ज़ आता है.
मुझे तुम्हारे तग़ाफ़ुल से क्यूँ शिकायत हो
मेरी फ़ना मेरे एहसास का तक़ाज़ा है
मैं न जानता हूँ के दुनिया का ख़ौफ़ है तुमको
मुझे ख़बर है ये दुनिया अजीब दुनिया है
यहाँ हयात के पर्दे में मौत चलती है
शिकस्त साज़ की आवाज़ में रूह नग़्मा है
ये ऊँचे ऊँचे मकानों की देवड़ीयों के तले
हर काम पे भूके भिकारीयों की सदा
हर एक घर में अफ़्लास और भूक का शोर
हर एक सिम्त ये इन्सानियत की आह-ओ-बुका
ये करख़ानों में लोहे का शोर-ओ-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा
एक शे'र और ध्यान आ रहा है.
हम दिल तो क्या रूह में उतरे होते
तुमने चाहा ही नहीं चाहने वालों की तरह
मुज़फ्फर वारसी की एक ग़ज़ल और.
मेरी जुदाईयों से वो मिलकर नहीं गया
उसके बगैर मैं भी कोई मर नहीं गया
दुनिया में घूम-फिर के भी ऐसे लगा मुझे
जैसे मैं अपनी जात से बाहर नहीं गया
क्या खूब हैं हमारी तरक्की-पसंदियाँ
जीने बना लिए कोई ऊपर नहीं गया
जुग्राफिये ने काट दिए रास्ते मेरे
तारीख को गिला है के मैं घर नहीं गया
ऎसी कोई अजीब इमारत थी जिंदगी
बाहर से झांकता रहा अन्दर नहीं गया
सब अपने ही बदन पे “मुज़फ्फर” सजा लिए
वापस किसी तरफ कोई पत्थर नहीं गया
क्योंकि मुजफ्फर वारसी की ग़ज़लों का ज़िक्र हो रहा है एक ग़ज़ल जिसे चित्र सिंह ने गाया है शायद की याद आई है, उसके कुछ शेर याद आगये हैं मुलाहीज़ा फ़रमाएँ :
अब के बरसात की रुत और भी भड़कीली है
जिस्म से आग निकलती है क़वा गीली है
सोचता हूँ अब अंजाम-ए-सफ़र क्या होगा
लोग भी कांच के हैं राह भी पथरीली है
मुझको बेरंग ही न करदी कहीं रंग इतने
सब्ज़ मौसम है हवा सुर्ख फिज़ा नीली है
एक और शेर पढ़ा था इन्ही का कहीं:
तशनगी जम गयी पत्थर की तरह होठों पर
डूब कर तेरे दरिया में मैं प्यासा निकला
नाम तेरा रूह पर लिखा है मैने
कहते हैं मरता है जिस्म रूह मरती नहीं
हुई रूह घायल अपनों की धात से
रहे हम फरेब में आप की बात से
पता नहीं ठीक है या नहीं ये यही सूझा उत्तर रूह है
सादर
रचना
जवाब -रूह है
स्व रचित शेर -
रूह काँप जाती है देखकर बेरुखी उनकी
अरे! कब आबाद होगी दिल लगी उनकी.
निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं
ek aur yaad ayaa apnaa hi...
हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़
मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा
सही शब्द दिल या रूह लग रहा है इसलिए दोनों शब्द जिस शेर में थे लिख दिया......
शेर- रूह को शाद करे,दिल को जो पुरनूर करे,
हर नज़ारे में ये तन्जीर कहाँ होती है
शाद शब्द का अर्थ होता है ख़ुशी
पर मुझे पुरनूर और तन्जीर शब्द का अर्थ नहीं पता
वाह वाह तनहा जी
मज़ा आ गया क्या ग़ज़ल सुनवाई है
क्या कहने
बहुत बहुत शुक्रिया ........................
मूझे बहुत ही पसंद है ये ग़ज़ल
जी सही शब्द "रूह " ही है
बड़ी ही प्यारी ग़ज़ल का शेर है ...........भाई
रूह को दर्द मिला, दर्द को आँखें न मिली
तुझको महसूस किया है तुझे देखा तो नहीं
शायर जनाब मुजफ्फर वारसी साहब है
मुजफ्फर साहब की ग़ज़ल जो मूझे सबसे ज्यादा पसंद है .............
शोला हूँ भड़काने की गुजारिश नहीं करता
सच मुंह से निकल जाता है कोशिश नहीं करता
गिरती हुई दीवार का हमदर्द हूँ लेकिन
चढ़ते हुए सूरज की परस्तिश नहीं करता
[परस्तिश=pooja ,bandagi ]
माथे के पसीने की महक आये तो देखें
वो खून मेरे जिस्म में गर्दिश नहीं करता
हमदर्दी-ऐ-अहबाब से डरता हूँ 'मुज़फ्फर '
मैं ज़ख्म तो रखता हूँ नुमाइश नहीं करता
[अहबाब=apne priya , doston )
- janab mujaffar warsi sahab
आज के शब्द पर हमारे महान शायर जॉन एलिया साहब बड़े मेहरबान रहे हैं
उनके दो शेर याद आ रहे हैं ............
रूह प्यासी कहां से आती है
ये उदासी कहां से आती है
बड़ी ही मशहूर ग़ज़ल है जॉन साहब की यह ...................
दिल में जिनका कोई निशान ना रहा
क्यूँ ना चेहरों पे ऐसे रंग खिलें
अब तो खली है रूह ज़ज्बों से
अब भी क्या हम तपाक से ना मिलें
पूछा की रूह जिस्म से नकलती है किस तरह ?
हाथों से उसने हाथ छुडा कर दिखा दिया ,
अब जॉन एलिया साहब कि वोह ग़ज़ल जिसपर मैं जान छिड़कता हूँ ........................
दिल ने वफ़ा के नाम पर कार-ऐ-वफ़ा नहीं किया
खुद को हलाक कर लिया खुद को फ़िदा नहीं किया
जाने तेरी नहीं के साथ कितने ही जब्र थे कि थे
मैंने तेरे लिहाज़ में तेरा कहा नहीं किया
कैसे कहें कि तुझ को भी हमसे है वास्ता कोई
तूने तो हमसे आज तक कोई गिला नहीं किया
तू भी किसी के बाब में अहद शिकन हो गालिबन
मैंने भी एक शख्स का क़र्ज़ अदा नहीं किया
जो भी हो तुम पे मौतरिज़ उस को यही जवाब दो
आप बहुत शरीफ हैं आप ने क्या नहीं किया
जिसको भी शेख-ओ-शाह ने हुक्म-ऐ-खुदा दिया करार
हमने नहीं किया वो काम हाँ बा-खुदा नहीं किया
निस्बत-ऐ-इल्म है बहुत हाकिम-ऐ-वक़्त को अजीज़
उस ने तो कार-ऐ-जेहल भी बे-उलामा नहीं किया
- जनाबे जॉन एलिया साहब
रिश्ता ऐ दिल तेरे ज़माने में रस्म ही क्या निबाहनी होती
मुस्कुराये हम उससे मिलते वक़्त रो ना पड़ते अगर ख़ुशी होती
-जनाब जॉन एलिया
sumit bhaai----------
tanjeer matlab shaauad----misaal denaa,,udaaharan denaa
purnoor--- roshan, roshani se bharaa huaa,,,,
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