ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 328/2010/28
ओ-ल्ड इज़ गोल्ड' में जारी है सुरीले गीतों की परंपरा, और इन दिनों हम आनंद ले रहे हैं इंदु जी और शरद जी के पसंद के गीतों का। आप दोनों ने ही इतने अच्छे अच्छे गीतों की फ़रमाइश हम से की है कि इन्हे सुनवाते हुए भी हम फ़क्र महसूस कर रहे हैं। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' को जैसे कुछ और ही मुकाम तक पहुँचा दिया है आप दोनों ने। बहुत शुक्रिया आपका। आज शरद जी की पसंद का जो गीत हमने चुना है वह एक युगल गीत है लता मंगेशकर और मन्ना डे का गाया हुआ। एक हल्का फुल्का युगल गीत, लेकिन उतना ही सुरीला उतना ही बेहतर। फ़िल्म 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' का यह गीत है "मेरे दिल में है एक बात कह दो तो ज़रा क्या है"। इसी फ़िल्म का लता और हेमन्त दा का गाया "नींद ना मुझको आए" भी एक बेहतरीन गीत है जिसे भी आप 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर भविष्य में ज़रूर सुनेंगे। 'पोस्ट बॊक्स नंबर ९९९' बनकर बाहर आई सन् १९५८ में। रवीन्द्र दवे निर्मित व निर्देशित यह फ़िल्म दरअसल एक मर्डर मिस्ट्री थी जिसे सुलझाया सुनिल दत्त और शक़ीला ने। मेरा मतलब है कि कहानी कुछ इस तरह की है कि मोहन (कुंदन) अपनी विधवा माँ गंगादेवी (लीला चिटनिस) के साथ रहता है और उसे श्यामा (साधना) नाम की लड़की से प्यार है। दोनों शादी करने ही वाले हैं कि श्यामा की कोई गोली मार कर हत्या कर देता है। पुलिस आती है और चश्मदीद गवाह बिंदिया (पूर्णिमा) मोहन को ख़ूनी ठहराती है। इस तरह से मोहन को सज़ा हो जाती है। केवल उसकी माँ को यह विश्वास है कि उसका बेटा निर्दोष है। इसलिए वो अख़बार में विज्ञापन देती है कि जो कोई भी उसके बेटे को निर्दोष साबित कराएगा, उसे वो १०,००० रुपय का इनाम देंगी (५० के दशक में १०,००० रुपय भारी भरकम रकम हुआ करती थी)। और वो पाठकों से अपना रेस्पॊन्स पोस्ट बॊक्स ९९९ पर भेजने के लिए उस विज्ञापन में लिख देती हैं। कई सालों तक तो कोई भी ख़त नहीं आता, पर वो हार नहीं मानती। ५ साल के बाद किसी प्रकाशन संस्था में कार्यरत एक नौजवान विकास (सुनिल दत्त) उस विज्ञापन को पढ़ लेता है और वो गंगादेवी के बेटे को निर्दोष साबित कराने की ठान लेता है। इस मिशन में उसका साथी बनती है नीलिमा (शक़ीला) जो कि फ़िल्म की नायिका हैं। इस तरह से फ़िल्म की कहानी आगे बढ़ती है और अंत में यह मर्डर मिस्ट्री सुलझती है।
आज लोग इस फ़िल्म की कहानी को तो भूल चुके हैं, लेकिन इस फ़िल्म का संगीत उस समय भी जवान था, आज भी जवान है। फ़िल्म में संगीत था कल्याणजी वीरजी शाह का। जी नहीं, इसमें आनंदजी नहीं थे। कल्याणजी-आनंदजी की जोड़ी बनने से पहले की यह फ़िल्म थी, और केवल कल्याणजी भाई ने ही फ़िल्म का संगीत दिया था। लेकिन इस फ़िल्म में आनंदजी ने बतौर संगीत सहायक काम ज़रूर किया था। वैसे कल्याणजी की पहली एकल फ़िल्म थी 'सम्राट चन्द्रगुप्त', जो इसी साल, यानी कि १९५८ में बनी थी। दोनों फ़िल्मों के गानें सुपर डुपर हिट। ख़ुद संगीतकार बनने से पहले कल्याणजी शंकर जयकिशन के सहायक हुआ करते थे। फिर दोनों भाइयों ने ऒर्केस्ट्रा में वादक के रूप में काम किया, जीवंत संगीत परिवेशन भी किया। जोड़ी के रूप में कल्याणजी-आनंदजी की पहली फ़िल्में आईं सन् १९५९ में, सट्टा बाज़ार और मदारी, जिनके गानों की भी ख़ूब वाह वाही हुई। और इस सुरीली जोड़ी ने जैसे फ़िल्म इंडस्ट्री में हंगामा कर दिया। दोस्तों, क्योंकि आज का गीत स्वरबद्ध किया है कल्याणजी भाई ने, तो क्यों ना हम आनंदजी से उनके उद्गार सुनें अपने बड़े भाई साहब के बारे में! उनसे सवाल पूछ रहें हैं विविध भारती पर वरिष्ठ उद्घोषक कमल शर्मा।
प्र: आनंदजी, इस फ़िल्म इंडस्ट्री में आप ने बहुत लोगों के साथ काम किया, लेकिन आप जिनके सब से करीब थे, वो थे कल्याणजी भाई। आप ने कैसा पाया उन्हे एक भाई की हैसीयत से और एक पार्टनर की हैसीयत से?
उ: अब आप ने ऐसी बात छेड़ दी शुरु में ही, कल्याणजी भाई मेरे बड़े भाई ही नहीं बल्कि एक फ़ादर फ़िगर थे मेरे लिए। उनका साया हमेशा मेरे साथ था, वो मेरे साथ थे, शायद इसीलिए मैं किसी ग़लत रास्ते पे नहीं गया। होता है ना कि फ़िल्म इंडस्ट्री में आ गए तो इधर उधर भटक जाने का डर होता है, लेकिन क्योंकि वो मेरे साथ रहते थे तो मैं भी काबू में था और किसी ग़लत रास्ते पे नहीं गया।
प्र: कोई गाना बनाते वक़्त क्या आप दोनों एक जैसा ही सोचते थे? क्या कभी ऐसा हुआ कि आप ने कोई ट्युन बनाई जो उनको पसंद नहीं आया?
उ: देखिए, अब हम दोनों का नज़रिया थोड़ा अलग ज़रूर था, लेकिन जो गाना बन के आता था उसमें हम दोनों का कन्ट्रिब्युशन होता था। वो मुझसे ५ साल बड़े थे, इसलिए ५ साल का जेनरेशन गैप तो रहेगा ही। अब जैसे उनको क्लासिकल म्युज़िक ज़्यादा इस्तेमाल करना अच्छा लगता था, जब कि मुझे थोड़ा वेस्टर्ण अच्छा लगता था। वो कहते थे कि म्युज़िक उतनी ही किसी गीत में भरनी चाहिए जितनी ज़रूरत हो। आपके पास साज़ हैं, इसका मतलब यह नहीं कि हर गाने में सब कुछ इस्तेमाल करना है।
दोस्तों, इस बातचीत का सिलसिला हम आगे भी जारी रखेंगे जब भी कभी इस जोड़ी के गीत पेश होंगे इस महफ़िल में। फिलहाल इस बातचीत को विराम देते हुए आपको सुनवाते हैं शरद तैलंग जी की फ़रमाइश पर सुनहरे दौर का यह सुनहरा नग़मा।
चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-
वो तो चल दिया लूट मेरी दुनिया,
उजड गया पल भर में दिल का घर,
हमने उल्फत में एक संगदिल के,
फूलों को छोड काटों पे किया गुजर...
अतिरिक्त सूत्र -नौशाद की संगीत रचना है ये
पिछली पहेली का परिणाम-
वाह जी अवध जी लौटे हैं एक बार फिर, २ अंकों के लिए बधाई...शरद जी को धन्येवाद दे ही चुके हैं, निर्मला जी और अनुराग जी का भी बहुत आभार
खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी
ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.
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3 श्रोताओं का कहना है :
जब दिल ही टूट गया हम जी कर क्या करेंगे.
'शाहजहाँ'
मखमली आवाज़ के शहंशाह - कुंदन लाल सहगल
उल्फत का दिया हमने इस दिल में सजाया था.
उम्मीद के फूलों से इस घर को सजाया था.
इक भेदी लूट गया, इक भेदी लूट गया.
हम जी कर क्या करेंगे.
वाह, शरद जी क्या गाना पसंद किया है.
धन्यवाद
अवध लाल
अवध जी
आपका भी जवाब नहीं !
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