Friday, February 12, 2010

दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल....दौड़ती भागती जिंदगी को तूफ़ान मेल से जोड़ती कानन देवी की आवाज़



ओल्ड इस गोल्ड शृंखला # 343/2010/43

'प्योर गोल्ड' की तीसरी कड़ी मे आप सभी का स्वागत है। दोस्तों, १९४२ का साल सिर्फ़ भारत का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व के इतिहास का एक बेहद महत्वपूर्ण पन्ना रहा है। एक तरफ़ द्वितीय विश्व युद्ध पूरे शबाब पर थी, और दूसरी तरफ़ भारत का स्वाधीनता संग्राम पूरी तरह से ज़ोर पकड़ चुका था। 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो' के नारे गली गली में गूंज रहे थे। उस तरफ़ पर्ल हार्बर कांड को भी इसी साल अंजाम दिया गया था। इधर फ़िल्म इंडस्ट्री में ब्रिटिश सरकार ने फ़िल्मों की लंबाई पर ११,००० फ़ीट का मापदंड निर्धारित कर दिया ताकि 'वार प्रोपागंडा' फ़िल्मों के लिए फ़िल्मों की कोई कमी न हो। दूसरी तरफ़ फ़िल्म सेंसर बोर्ड ने सख़्ती दिखाते हुए फ़िल्मों में 'गांधी', 'नेहरु', 'आज़ादी' जैसे शब्दों का इस्तेमाल बंद करवा दिया। 'प्योर गोल्ड' में आज बारी है सन्‍ १९४२ के एक सुपरहिट गीत की। दोस्तों, पहली कड़ी में हमने आपको बताया था कि १९४० की फ़िल्म 'ज़िंदगी' निर्देशक प्रमथेश बरुआ की न्यु थिएटर्स में अंतिम फ़िल्म थी। उस ज़माने में कलाकार फ़िल्म कंपनी के कर्मचारी हुआ करते थे जिन्हे मासिक वेतन मिलती थी आम नौकरी की तरह। ४० के दशक के आते आते फ़्रीलैन्सिंग्‍ शुरु होने लगी थी। इसी के तहत कई नामचीन कलाकार अपनी पुरानी कंपनी को छोड़ कर फ़्रीलान्स करने लगे। प्रमथेश बरुआ भी इन्ही में से एक थे। उन्होने १९४२ में एम. आर. प्रोडक्शन्स के बैनर तले फ़िल्म 'जवाब' का निर्देशन किया। कानन बाला या कानन देवी, जो न्यु थिएटर्स की एक मज़बूत स्तंभ थीं, उन्होने भी न्यु थिएटर्स को अपना इस्तिफ़ा सौंप दिया, और इसी फ़िल्म 'जवाब' में अपना सब से लोकप्रिय अभिनय और गायन प्रस्तुत किया। कमल दासगुप्ता के संगीत निर्देशन में कानन देवी का गाया गीत "दुनिया ये दुनिया तूफ़ान मेल" इतना मशहूर हुआ कि जैसे पूरे देश भर में एक तूफ़ान सा खड़ा कर दिया। १९४२ की साल को सलाम करने के लिए यह एक सार्थक गीत है जो आज 'ओल्ड इज़ गोल्ड' पर आप सुनने जा रहे हैं। "तूफ़ान मेल" गीत के अलावा इस फ़िल्म में उनके गाए दो और गीत "ऐ चांद छुप ना जाना" और "कुछ याद रहे तो सुन कर जा" हिट हुए थे। पंकज मल्लिक के साथ उन्होने इस फ़िल्म में एक डुएट गाया था "दूर देश का रहनेवाला आया देश पराये"। कानन बाला एक 'सो कॊल्ड' निम्न वर्गीय परिवार से ताल्लुख़ रखती थी और उनके पिता रतन चन्द्र दास की मृत्यु के बाद उन्हे और उनकी माँ को जीवन यापन करने के लिए और भारी कर्ज़ को चुकाने के लिए कर्मक्षेत्र में उतरना पड़ा। १० वर्ष की आयु में कानन ज्योति स्टुडियो में भर्ती हो गईं और एक बंगला फ़िल्म 'जयदेव' में एक छोटी सी भूमिका अदा की बतौर बाल कलाकार। यह साल था १९२६। उन्हे इस फ़िल्म के लिए कुल ५ रुपय मिले थे। उसके बाद उन्होने ज्योतिष बैनर्जी के साथ काम किया उनकी बैनर राधा फ़िल्म्स के तले बनने वाली फ़िल्मों में। 'चार दरवेश ('३३), 'हरिभक्ति' ('३४), 'ख़ूनी कौन' ('३६) और 'माँ' ('३६) जैसी फ़िल्मों में काम करने के बाद प्रमथेश चन्द्र बरुआ ने उन्हे नोटिस किया और इस तरह से न्यु थिएटर्स का दरवाज़ा उनके लिए खुल गया। आर. सी. बोराल ने कानन बाला को सही हिंदी उच्चारण से परिचित करवाया, लखनऊ के उस्ताद अल्लाह रखा से उन्हे विधिवत शास्त्रीय संगीत की तालीम दिलवाई। लय और ताल को समझने के लिए कानन बाला ने तबला भी सीखा (तबला बजाना उन दिनों लड़कियों के लिए दृष्टिकटु समझा जाता था)। उसके बाद कानन बाला को मेगाफ़ोन ग्रामोफ़ोन कंपनी मे गायिका की नौकरी मिल गई और वहाँ पर भीष्मदेव चटर्जी से आगे की संगीत शिक्षा मिली। अनादि दस्तिदार ने उन्हे रबीन्द्र संगीत की बारीकियों से अवगत करवाया। इस तरह से पूरी तरह से तैयारी के बाद पी. सी. बरुआ ने कानन बाला को १९३७ में अपनी फ़िल्म 'मुक्ति' में लौंच किया, जिसके बाद कानन बाला ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। एक नए सिंगिंग्‍ सुपरस्टार का जन्म हो चुका था और गायिकाओं में उनकी जगह वही बन गई जो गायकों में कुंदन लाल सहगल का था। 'मुक्ति' के संगीतकार थे पंकज मल्लिक। इस फ़िल्म में कानन के गाए गीत ख़ूब पसंद किए गए। बरुआ साहब कानन को 'देवदास' में लेना चाहते थे लेकिन किन्ही कारणों से यह संभव ना हो सका। 'मुक्ति' और उसके बाद उसी साल 'विद्यापति' के गीतों ने कानन देवी को न्यु थिएटर्स का टॊप स्टार बना दिया।

दोस्तों, कानन देवी की बातें हमने की, अगर इस गीत के संगीतकार कमल दासगुप्ता की बातें ना करें तो यह आलेख अधूरा ही रह जाएगा। ४० के दशक में जब फ़िल्म संगीत लोकप्रियता के पायदान चढ़ता जा रहा था , तो परिवर्तन के इस दौर में ग़ैर फ़िल्मी हिंदी गीतों का सर्जन करके कमल दासगुप्ता ने एक नई दिशा खोल दी। उस दौर के जगमोहन 'सुरसागर' और जुथिका रॊय के गाए ग़ैर फ़िल्मी गीतों का उतना ही महत्व है जो हिंदी फ़िल्मों के लिए लता मंगेशकर के गाए गीतों का है। फ़िल्मों में कमल दासगुप्ता बहुत ज़्यादा सक्रीय नहीं हुए, उपलब्ध जानकारी के अनुसार (सौजन्य: 'लिस्नर्स बुलेटिन' पत्रिका) हिंदी की कुल १६ फ़िल्मों में उन्होने संगीत दिया, जिनकी फ़ेहरिस्त इस प्रकार है: १९४२ - जवाब, १९४३ - हॊस्पिटल, रानी, १९४५ - मेघदूत, १९४६ - अरेबीयन नाइट्स, बिन्दिया, कृष्ण लीला, पहचान, ज़मीन आसमान, १९४७ - फ़ैसला (अनुपम घटक के साथ), गिरिबाला, मनमानी, १९४८ - चन्द्रशेखर, विजय यात्रा, १९४९ - ईरान की एक रात, १९५१ - फुलवारी। यह बहुत ही दुखद बात है कि बोराल और मल्लिक जैसे महान संगीतकारों के स्तर वाले कमल दासगुप्ता को आज बिल्कुल ही भुला दिया गया है। 'ओल्ड इज़ गोल्ड' आज श्रद्धांजली अर्पित कर रहा है कमल दासगुप्ता, कानन देवी और इस गीत के गीतकार पंडित मधुर को। १९४२ के समय के हिसाब से यह गीत काफ़ी मोडर्न रहा होगा। यह गीत कानन देवी पर ही फ़िल्माया गया था। फ़िल्मांकन में एक स्टीम ईंजन वाली रेलगाड़ी दिखाई जाती है जिसका नाम है 'तूफ़ान मेल'। सही में उन दिनों 'तूफ़ान मेल' के नाम से एक ट्रेन हुआ करती थी, और ८० के दशक में 'तूफ़ान एक्स्प्रेस' नाम से भी हावड़ा - दिल्ली के बीच एक ट्रेन दौड़ा करती थी। प्रस्तुत गीत शायद रेल पर बने गीतों में सब से पुराना गीत होगा! आइए सुना जाए...



चलिए अब बूझिये ये पहेली, और हमें बताईये कि कौन सा है ओल्ड इस गोल्ड का अगला गीत. हम रोज आपको देंगें ४ पंक्तियाँ और हर पंक्ति में कोई एक शब्द होगा जो होगा आपका सूत्र. यानी कुल चार शब्द आपको मिलेंगें जो अगले गीत के किसी एक अंतरे में इस्तेमाल हुए होंगें, जो शब्द बोल्ड दिख रहे हैं वो आपके सूत्र हैं बाकी शब्द बची हुई पंक्तियों में से चुनकर आपने पहेली सुलझानी है, और बूझना है वो अगला गीत. साथ ही जवाब देना है उन सवालों का जो नीचे दिए गए हैं. हर सही जवाब के आपको कितने अंक मिलेंगें तो सवाल के आगे लिखा होगा. मगर याद रखिये एक व्यक्ति केवल एक ही सवाल का जवाब दे सकता है, यदि आपने एक से अधिक जवाब दिए तो आपको कोई अंक नहीं मिलेगा. तो लीजिए ये रही आज की पंक्तियाँ-

चुपके से आ इन नैनों की गलियों में,
सपना बन बस जा मेरी अखियों में,
मंजिल है तेरी ये दिल का फूल मेरा,
मत जा मुसाफिर बेपरवा कलियों में...

1. बताईये इस गीत की पहली पंक्ति कौन सी है - सही जवाब को मिलेंगें ३ अंक.
2. ये एक ट्रेंडसेटर फिल्म थी जिसकी नायिका थी मुमताज़ शांति, बताईये इस फिल्म के नायक का नाम- सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
3. इस गीत के गीतकार ने इसी फिल्म में एक ऐसा गीत लिखा था जो आजादी के मतवालों में नया जोश भर गया था, कौन सा था वो गीत, और कौन थे वो गीतकार -सही जवाब के मिलेंगें २ अंक.
4. इस गीत के संगीतकार का नाम - सही जवाब के मिलेंगें १ अंक.

पिछली पहेली का परिणाम-
इंदु जी जवाब सही नहीं है....

खोज व आलेख- सुजॉय चटर्जी
पहेली रचना -सजीव सारथी


ओल्ड इस गोल्ड यानी जो पुराना है वो सोना है, ये कहावत किसी अन्य सन्दर्भ में सही हो या न हो, हिन्दी फ़िल्म संगीत के विषय में एकदम सटीक है. ये शृंखला एक कोशिश है उन अनमोल मोतियों को एक माला में पिरोने की. रोज शाम 6-7 के बीच आवाज़ पर हम आपको सुनवाते हैं, गुज़रे दिनों का एक चुनिंदा गीत और थोडी बहुत चर्चा भी करेंगे उस ख़ास गीत से जुड़ी हुई कुछ बातों की. यहाँ आपके होस्ट होंगे आवाज़ के बहुत पुराने साथी और संगीत सफर के हमसफ़र सुजॉय चटर्जी. तो रोज शाम अवश्य पधारें आवाज़ की इस महफिल में और सुनें कुछ बेमिसाल सदाबहार नग्में.

फेसबुक-श्रोता यहाँ टिप्पणी करें
अन्य पाठक नीचे के लिंक से टिप्पणी करें-

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

3 श्रोताओं का कहना है :

शरद तैलंग का कहना है कि -

धीरे धीरे आ रे बादल धीरे धीरे आ
मेरा बुलबुल सो रहा है शोर तू न मचा

Anonymous का कहना है कि -

2. ashok kumar

ROHIT RAJPUT

संगीता पुरी का कहना है कि -

बस गीत सुन रही हूं .. बाकी का पता नहीं !!

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

संग्रहालय

25 नई सुरांगिनियाँ

ओल्ड इज़ गोल्ड शृंखला

महफ़िल-ए-ग़ज़लः नई शृंखला की शुरूआत

भेंट-मुलाक़ात-Interviews

संडे स्पेशल

ताजा कहानी-पॉडकास्ट

ताज़ा पॉडकास्ट कवि सम्मेलन