महफ़िल-ए-ग़ज़ल #८७
आज हम जिस शायर की ग़ज़ल से रूबरू होने जा रहे हैं, उन्हें समझना न सिर्फ़ औरों को लिए बल्कि खुद उनके लिए मुश्किल का काम है/था। कहते हैं ना "पल में तोला पल में माशा"... तो यहाँ भी माज़रा कुछ-कुछ वैसा हीं है। एक-पल में हँसी-मज़ाक से लबरेज रहने वाला कोई इंसान ज्वालामुखी की तरह भभकने और फटने लगे तो आप इसे क्या कहिएगा? मुझे "अली सरदार जाफ़री" की "कहकशां" से एक वाक्या याद आ रहा है। "फ़िराक़" साहब को उनके जन्मदिन की बधाई देने उनके हीं कॉलेज से कुछ विद्यार्थी आए थे। अब चूँकि फ़िराक़ साहब अंग्रेजी के शिक्षक(प्रोफेसर शैलेश जैदी के अनुसार वो शिक्षक हीं थे , प्राध्यापक नहीं) थे, तो विद्यार्थियों ने उन्हें उनकी हीं पसंद की एक अंग्रेजी कविता सुनाई और फिर उनसे उनकी गज़लों की फरमाईश करने लगे। सब कुछ सही चल रहा था, फ़िराक़ दिल से हिस्सा भी ले रहे थे कि तभी उनके घर से किसी ने (शायद उनकी बीवी ने) आवाज़ लगाई और फ़िराक़ भड़क उठे। उन्होंने जी भरके गालियाँ दीं। इतना हीं काफ़ी नहीं था कि उन्होंने अपने जन्मदिन के लिए लाया हुआ केक उठाकर एक विद्यार्थी के मुँह पर फेंक दिया और सबको भाग जाने को कहा। तो इस तरह के "मूडियल" इंसान थे फ़िराक़ साहब।
फ़िराक़ जब खुश रहते तो माहौल को खुशनुमा बनाए रखना अपना फ़र्ज़ समझते थे। उनसे जुड़े कई सारे रोचक किस्से हैं। जैसे कि एक बार जब वो कानपुर के एक मुशायरे में शिरकत करने गए थे, तो उनके पढ़ लेने के बाद एक शायर को आमंत्रित किया गया। कवि महोदय ने संकोचवश कहा- फिराक साहब जैसे बुजुर्ग शायर के बाद अब मेरे पढने का क्या मतलब है ? फिराक साहब खामोश नहीं रहे। तत्काल यह वाक्य चिपका दिया- मियाँ जब तुम मेरे बाद पैदा हो सकते हो तो मेरे बाद शेर भी पढ़ सकते हो।
फ़िराक़ के बारे में "शैलेश जैदी" लिखते हैं: छोटा सा नाम रघुपति सहाय और अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी हिन्दी भाषाओं की योग्यता ऐसी, कि उनसे जो भी मिला दांतों तले उंगली दबा कर रह गया। प्रस्तुत है "फ़िराक़" की पुस्तक "बज़्मे-ज़िंदगी: रंगे-शायरी" से "फ़िराक़" की कहानी उन्हीं की जुबानी:
मैं २८ अगस्त १८९६ ई. को गोरखपुर में पैदा हुआ। मेरे पिता थे बाबू गोरखप्रसाद जो उस समय से लेकर १९१८ तक, जब तक उनकी मृत्यु हुई, गोरखपुर और आस-पास के ज़िलों में सबसे बड़े वकीले-दीवानी थे। मैं कई लेहाज़ से एक असाधारण बालक था। घर और घरवालों से असाधारण हद तक गहरा और प्रबल प्रेम था। सहपाठियों और साथियों से भी ऐसा ही प्रेम था मुहल्ले-टोले के लोगों से अधिक-से-अधिक लगाव था। मैं इस लगाव-प्रेम की तीव्रता, गहराई, प्रबलता और लगभग हिला देनेवाले तूफानों को जन्म-भर भूल नहीं सका। इतना ही नहीं, घर की हर वस्तु-बिस्तर, घड़े, दूसरे सामान, कमरे, बरामदे, खिड़कियाँ, दरवाजे, दीवारें, खपरैल-मेरे कलेजे के टुकड़े बन गये थे।
जब मैं लगभग ९-१0 बरस का हो गया था मुझे स्कूल में दाख़िल कर दिया गया। स्कूल में भी और घर पर भी पढ़ाने को मुझे सौभाग्य से बहुत योग्य अध्यापक मिले। बचपन में पढ़ी जानेवाली किताबों में ही जहाँ-जहाँ शैली और भाषा का रचाव या सौन्दर्य था, वह रचाव और सौन्दर्य मेरे दिल में डूब जाता था। आवाज़ की पहचान और परख मुझमें बचपन ही से थी। मातृभाषा की शिक्षा ने खड़ी बोली का रूप धारण कर लिया था और खड़ी बोली का प्रचलित स्वाभाविक, सर्वव्यवहृत, सबसे उन्नत और विकसित रूप ऊर्दू थी। मुझे हिन्दी भी पढ़ायी गयी थी, उर्दू के के साथ-साथ। लेकिन हिन्दी खड़ी बोली के रूप में मुझे उर्दू से कम जानदार और कम रची, कम स्वाभाविक और बिलकुल अप्रचलित नजर आयी।
मैंने १९१३ ई. में जुबली हाई स्कूल, गोरखपुर से हाई स्कूल पास किया। मैंने और दूसरों ने पिताजी को यह राय दी कि मुझे प्रान्त के सबसे सुप्रसिद्ध विद्यालय म्योर सेण्ट्रल कॉलेज, इलाहाबाद में दाखिल कर दिया जाये। ऐसा ही हुआ और रहने के लिए मैंने हिन्दू बोर्डिग हाउस पंसद किया, जो आज महामना पं. मदनमोहन मालवीय कॉलेज कहा जाता है। मैं उम्र के १७ वें साल में था। जहाँ तक अँगरेज़ी भाषा का सम्बन्ध है, मेरी शिक्षा की नींव की ईंटें ऐसी ठीक और जँची-तुली रखी गयी थीं कि छठे दर्जे से अब तक मुझे याद है कि मैंने अँगरेज़ी लिखने के व्याकरण या शब्द-प्रयोग की कोई ग़लती नहीं की। कॉलेज में आकर लॉजिक (न्यायशास्त्र), इतिहास और अँगरेज़ी साहित्य के गद्य-पद्य की ऐसी किताबें पढ़ने को मिलीं, जिनसे मेरे अँगरेज़ी ज्ञान को असाधारण बढ़ावा मिला।
अभी मैं एफ.ए. में ही था कि मेरे पिताजी को, परिवार को और मुझे धोखा देकर मेरा ब्याह कर दिया गया। यह ब्याह मेरे जीवन की एकमात्र दुःखान्त और विनाशकारी दुर्घटना साबित हुआ। इस दुर्घटना के बाद से ही मेरे शरीर, मेरे दिल, मेरे दिमाग़ मेरी आत्मा में विनाशकारी भूकम्प, ज्वालामुखियों का फटना, घृणा और क्रोध के तूफ़ान उठते रहे हैं। मैं अपने लिए वही चाहता था, जो हिन्दू-शास्त्रों में एक सन्तोषजनक जीवन के सम्बन्ध में कहा गया है-यानी एक ऐसी अर्धांगिनी, जिसे मैं पसन्द कर सकूँ और प्यार कर सकूँ और जो मुझे भी अपना प्यार दे सके। बी.ए. में मुझे संग्रहणी का असाध्य रोग हो गया, जिससे वैद्यराज स्व. श्री त्र्यम्बक शास्त्री ने मुझे बचाया। एक साल बी.ए. में पढ़ना छोड़ देना पड़ा। मुझे बहुत-से लोग एक हँसमुख और ज़िन्दादिल आदमी समझते हैं। मेरी ज़िन्दादिली वह चादर है, परदा है, जिसे मैं अपने दारुण जीवन पर डाले रहता हूँ। ब्याह को छप्पन बरस हो चुके और इस लम्बे अरसे में एक दिन भी ऐसा नहीं बीता कि मैं दाँत पीस-पीसकर न रह गया हूँ। बी.ए. पास करने के पहले ही मेरे पूज्य पिताजी की मृत्यु हो चुकी थी। बी०ए० पास करने के बाद मैं कुछ कॉलेजों में अध्यापक की हैसियत से दो-तीन साल काम करता रहा और उसी हैसियत से प्राइवेट तौर पर आगरा विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी और प्रथम स्थान में एम.ए. पास किया।
ए.एम का नतीजा निकलते ही मेरी मातृ-संस्था इलाहाबाद युनिवर्सिटी ने मुझे अँगरेज़ी का अध्यापक बे–अर्ज़ी दिए ही नियुक्त कर दिया। युनिवर्सिटी में अध्यापक का पद ग्रहण करने के बाद मुझे चुनी हुई किताबों के अध्ययन, जीवन और जीवन की समस्याओं पर मनन-चिन्तन, अपने मानसिक जीवन की पृष्ठभूमि को भरपूर बनाने, अपनी रचना और लेखन-शैली को क्रमशः अधिक विकसित करने का अवसर मिलने लगा। अँगरेज़ी साहित्य और विश्व-साहित्य के पठन-पाठन से मेरी लेखन-शैली में प्रौढ़ता आती गयी। मुझे उर्दू कविता को अधिक रचाने और सँवारने के मौक़े हाथ आने लगे।
फ़िराक़ के बारे में इतना कुछ जाना तो क्यों न उनकी शायरी के दर्शन भी कर लिए जाएँ। वो कहते हैं ना "प्रत्यक्षं किम प्रमाणम":
सर में सौदा भी नहीं, दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
शिकवा-ए-शौक करे क्या कोई उस शोख़ से जो
साफ़ कायल भी नहीं, साफ़ मुकरता भी नहीं
आज हम जो गज़ल लेकर आप सबके सामने हाज़िर हुए हैं उन्हें अपनी आवाज़ से मुकम्मल किया है गज़लजीत "जगजीत सिंह" जी ने। तो पेश-ए-खिदमत है यह गज़ल:
ग़ज़ल का साज़ उठाओ बड़ी उदास है रात
नवा-ए-मीर सुनाओ बड़ी उदास है रात
कहें न तुमसे तो फ़िर और किससे जाके कहें
____ ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात
दिये रहो यूं ही कुछ देर और हाथ में हाथ
अभी ना पास से जाओ बड़ी उदास है रात
सुना है पहले भी ऐसे में बुझ गये हैं चिराग़
दिलों की ख़ैर मनाओ बड़ी उदास है रात
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "बदनसीब" और शेर कुछ यूँ था-
बेहोश हो के जल्द तुझे होश आ गया
मैं बदनसीब होश में आया नहीं हनोज़
इस शब्द पर सबसे पहले मुहर लगाई शन्नो जी ने, लेकिन शेर लेकर हाज़िर होने के मामले में अव्वल आ गईं सीमा जी। ये रहे सीमा जी के पेश किए शेर:
कितना है बदनसीब ज़फर दफ़न के लिए
दो गज ज़मीन भी न मिली कूचा -ए-यार में. (बहादुर शाह ज़फर)
मिलने थे जहाँ साये , बिछुडे वहां पर हम
साहिल पे बदनसीब कोई डूबता गया ।
शन्नो जी, आप भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। ये रहे आपके स्वरचित शेर:
वो खुशनसीब हैं जिन्हें आता है हँसाना
हम हैं बदनसीब जो रोते और रुलाते हैं..
किसी बदनसीब का कसूर नहीं होता है
जब किस्मत को ही मंजूर नहीं होता है
अवनींद्र जी, "बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब".. अब हम जो आपके शेरों पर बेखुद हुए जा रहे हैं तो उसका कुछ तो सबब होगा हीं। हमें वह कारण पता है, आपको न पता हो तो ढूँढिए अपने इन शेरों में:
टूटे मन की दर पे कोई फ़रियाद लाया है
कितना बदनसीब है वो जो मेरे पास आया है
इक बदनसीब हम जो तू भुला गया हमें
इक बदनसीब वो जिसे तेरा साथ मिल गया
नीलम जी और मंजु जी, हम आपके शेरों को प्रस्तुत किए देते हैं, लेकिन इनमें कई सारी कमियाँ है.. अगली बार से ध्यान दीजिएगा:
बदनसीब ख्याल था ,या कोई ख्वाब था
खुशनसीब जहाँ भी था और हमनवा वहाँ भी था
जीवन में उसके बदनसीब का साया यूँ मडराया ,
आतंक के फाग ने उसके सुहाग को था उजाडा .
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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17 श्रोताओं का कहना है :
कहें न तुमसे तो फ़िर और किससे जाके कहें
सियाह ज़ुल्फ़ के सायों बड़ी उदास है रात
regards
हद-ए-निगाह तक ये ज़मीं है सियाह फिर
निकली है जुगनुओं की भटकती सिपाह फिर
( शहरयार )
जिसे नसीब हो रोज़-ए-सियाह मेरा सा
वो शख़्स दिन न कहे रात को तो क्यों कर हो
( ग़ालिब )
सुना है उसकी सियाह चश्मगी क़यामत है
सो उसको सुरमाफ़रोश आह भर के देखते हैं
(अहमद फ़राज़ )
फ़र्द-ए-अमल सियाह किये जा रहा हूँ मैं
रहमत को बेपनाह किये जा रहा हूँ मैं
(जिगर मुरादाबादी )
regards
सियाह पर शेर याद नहीं आ रहा लेकिन फ़िराक साहब का ही कलाम पेश है।
फ़िराक एक नयी सूरत निकल तो सकती है,
ये आंख कहती है कि दुनिया बदल तो सकती है।
कडे हैं कोस बहुत मंजिले मोहब्बत के,
कडी है धूप मगर छांव ढल तो सकती है।
सुना है बर्फ़ के टुकडे हैं दिल हसीनों के,
जरा सी आंच से ये चांदी पिघल तो सकती है।
गजल लाजबाब है....और सुनकर समझ में तो आ गया था फिल इन द गैप वाला लफ्ज...लेकिन देर हो जाने से हम प्रथम नंबर पाने से बंचित रह गये ( हा हा हा हा ) कोई बात नहीं वो कहते हैं ना की..There is always a next time...तो फिलहाल हमारे इस फ्रेश शेर से ( नज्म ) काम चलाइये...ग़लतफ़हमी ना हो इसलिये कहना पड़ रहा है की ये हम जैसी नाचीज़ के हाथों से लिखा गया है :) तो पेश करती हूँ :
स्याह को सफ़ेद और सफ़ेद को स्याह करते हैं
यहाँ दिन को रात कहने से लोग नहीं डरते हैं
न किसी को किसी की परवाह है इस दुनिया में
खुदा के नाम पर क्या-क्या अंधेर हुआ करते हैं.
-शन्नो
नीलम जी और अंग्रेजों के ज़माने के जेलर साहब जो अदालत में वकालत करने को पढ़ रहे हैं...कहाँ हो..??????
bye...bye...
जवाब -सियाह
सियाह रातों में मिलन की ऋतु आई ,
हर दिशा में फूलों ने भी खुशबु है लुटाई .
( स्वरचित )
shanno jee
hum to yehi par hain...par kabhi kabhi jab shabd se koi sher nahi aata to bus ghazal sun kar chale jaate hain...
aapka likha sher accha laga...abhi to mujhe is shabd se koi sher nahi aata jab yaad aayega tab mehfil mein fir aayenge
tab tak k liye bbye.....
डिअर सुमीत...सो गुड टू सी यू ...क्या हाल हैं ? मेरा शेर पसंद आया इसे जानकर बड़ा अच्छा लगा...बहुत दिनों बाद अपने शेर की तारीफ़ सुनी..हा हा..हौसला बरक़रार रखने के लिये बहुत शुक्रिया..आप भी अपने दिमाग में कुछ आते ही लिख डालो....हमें और नीलम जी दोनों को आपकी कमी अखरने लगी थी...दर्शन देते रहा करो..चलो इस ख़ुशी में एक शेर और पेश करती हूँ...इसे भी हमने ही लिखा है...
कोई दूर हो गया यूँ ही खफा होकर
अकस्मात स्याह अंधेरों में खोकर.
- शन्नो
bye...bye..
गब्बर सदमे में है .....................
उसका शेर - बकरी बना दिया है
बहुत नाइंसाफी है दोस्तों ..............
शन्नो जी सिर्फ आपके शेर के जवाब में अपनी बकरी हाजिर है ,
स्याह अँधेरे दिल में थे
और बेवफा महफ़िल में थे
(फ़ौरन रचित )
हा हा हा आ आआअ हाआआ
नीलम जी उर्फ़ गब्बर साहिबा...आपके सवा सेर पर हमने भी सेर लिखे और इस महफ़िल में वो शरमाते हुए ही आये...और आज कुछ मिमियाने की आवाज़ सुनी..पता लगा की आज आप एक बकरी लाई हैं ( यह हम नहीं कह रहे हैं आपने कहा है क्योंकि ऐसी गुस्ताखी हम नहीं कर सकते..आपकी बकरी या शेर को बकरी नहीं कह सकते...हमारा कोई हक़ नहीं है उस शेर को बकरी कहने का..किसी को बुरा लग गया तो..? क्योंकि हमें इस महफ़िल में इज़ाज़त नहीं है ) तो आगे बात ये है की आपकी बकरी की मिमियाहट सुनकर हमारे एक और शेर से रहा नहीं गया... और वह आपकी बकरी से मिलने आया है...तो लीजिये :
जलने वालों के दिल जल के सियाह हुए
जलाने वाले जलाकर अपनी राह हुए..
( स्वयं रचित )
कोई मिस्टेक हो इस शेर में या आपकी बकरी को कोई आब्जेक्शन हो तो हमें इंतज़ार रहेगा की आप लोग बतायें..सुमित से भी दरखास्त है की जरूर बतायें और अपनी बकरी, शेर या फिर चूहा ही लायें..अगली बार हमें पता नहीं हम क्या लायेंगे....माफ़ कीजिये..आपकी बकरी को बहुत शुक्रिया..जिसके आने और मिमियाने ख़ुशी में हमारा एक और शेर मिलने आ गया... अब आपके अगले शेर/बकरी का इंतज़ार है...हम क्या बात कर रहे हैं...कुछ समझ में आया किसी की ..? क्या कहा... नहीं.... हमारी भी समझ में नहीं आया..हा हा हा हा...इसी बात पर चलो फिर हम जाते हैं...
आज बहुत दिल लगा के लिखी है विश्व जी आपकी जर्रानवाजी से मन खुल सा गया है और खूब लिखने का मन किया कैसा लिखा है ये तो आप ही बता पाएंगे मगर अच्चा लिखने की कोशिश की है बिना edit किये आपकी mehfil
मैं प्रस्तुत है
ये चाँद भी स्याह हो जाये
सारे तारे भी तबाह हो जायें
करीब बैठ के तू मेरी दास्ताँ तो सुन
कैसे जीना भी गुनाह हो जाये
तरसती रूह का वो आतिश मंज़र
चाँद भी देख ले तो फना हो जाये
गुलाब की बांहों में गर कांटे न रहे
उसके खिलना खराब हो जाये
तेरे होठों पे ठहरी ख़ामोशी
गर खुले तो शराब हो जाये
की तेरा इश्क मेरा गुनाह था लेकिन
तू जो चाहे तो सबाब हो जाये
ग़र रात है सियाह तो उसकी है ये फ़ितरत
पर दिन का उजाला भी अंधेरा तेरे बगैर ।
(स्वरचित)
शे'र- मैने चाँद और सितारो की तमन्ना की थी,
मुझको रातो की सियाही के सिवा कछ ना मिला
ये शे'र रफी साहब की एक गज़ल का है
शन्नो जी और निलम जी आप दोनो के लिखे शे'र अच्छे लगे
अच्छा अब चलता हूँ, अगली महफिल मे मिलते है तब तक के लिए bbye
शे'र- मैने चाँद और सितारो की तमन्ना की थी,
मुझको रातो की सियाही के सिवा कछ ना मिला
ये शे'र रफी साहब की एक गज़ल का है
शन्नो जी और निलम जी आप दोनो के लिखे शे'र अच्छे लगे
अच्छा अब चलता हूँ, अगली महफिल मे मिलते है तब तक के लिए bbye
क्यूट सुमित जी, नमस्कार ! आपने हमारे शेर की तारीफ़ की लिहाजा हम आपको उसके लिए शुक्रिया अदा करते हैं...और आपका शेर भी बहुत अच्छा है...और एक बार में ही दो बार की हाजिरी रजिस्टर में भर देने का आपका स्टाइल बहुत पसंद आता है हमें..हा हा हा...ओह ! मेरा हँसना बुरा तो नहीं लगा...चूँकि आप वकील बनने जा रहे हो तो इसीलिए डर लगने लगता है की अगर हमने कुछ हँसकर चूँ की तो आप कहीं नाराज़ ना हो जाओ और फिर हमारे हँसने पर कोई केस....समझ गये ना..?..हा हा...लीजिये इस पर भी एक शेर ( या बकरी जो भी समझिये इसे आप और नीलम जी ) फ़ौरन बन गया...
ये मंजर अब स्याह नजर आते हैं
हम हँसते हैं तो लोग भाग जाते हैं.
( स्वयं रचित )
हा हा हा हा...bye..bye..
रौशनी के न आदी बनो इतने
उजाले भी स्याह होने लगे हैं..
( स्वयंरचित )
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)