Sunday, October 16, 2011

‘जा दिन जनम लियो आल्हा ने, धरती धँसी अढ़ाई हाथ.....’ बुन्देलखण्ड की लोकप्रिय लोक-गायकी शैली



सुर संगम- 39 – वीर रस का संचार करती लोक-काव्य की अजस्र धारा- आल्हा पर एक चर्चा


शास्त्रीय तथा लोक संगीत के साप्ताहिक स्तम्भ ‘सुर संगम’ के आज एक नए अंक में, मैं कृष्णमोहन मिश्र आप सब संगीत-प्रेमियों का हार्दिक स्वागत करता हूँ। आज हम उत्तर भारत में प्रचलित लोक गीत-संगीत की एक ऐसी विधा पर आपसे चर्चा करेंगे, जो श्रोताओं में वीर रस का संचार करने में सक्षम है। लोक संगीत की यह शैली ‘आल्हा’ के नाम से लोकप्रिय है।

आल्हा, वीरगाथा काल के महाकवि जगनिक द्वारा प्रणीत और परमाल रासो पर आधारित बुन्देली और अवधी का एक महत्त्वपूर्ण छन्दबद्ध काव्य है। इस काव्य का प्रणयन लगभग सन १२५० में माना जाता है। इसमें महोबा के वीर आल्हा और ऊदल के वीरता की गाथा होती है। यह उत्तर प्रदेश के अवध और मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड की सर्वाधिक लोकप्रिय वीर-गाथा है। पावस ऋतु के अन्तिम चरण से लेकर पूरे शरद ऋतु तक समूहिक रूप से अथवा व्यक्तिगत स्तर पर इन दोनों प्रदेशों में आल्हा-गायन होता है। आल्हा के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें कहीं ५२ तो कहीं ५६ लड़ाइयाँ वर्णित हैं। इस लोकमहाकाव्य की गायकी की अनेक पद्धतियाँ प्रचलित हैं। जगनिक के लोककाव्य “आल्ह-खण्ड” की लोकप्रियता देशव्यापी है। महोबा के शासक परमाल के दोनों शूरवीर भाइयों- आल्हा और ऊदल की शौर्य-गाथा केवल बुन्देलखण्ड तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि अवध, कन्नौज, रूहेलखण्ड, ब्रज आदि क्षेत्रों की बोलियों में भी विकसित हुईं। आल्हा या वीर छन्द अर्द्धसम मात्रिक छन्द है, जिसके हर पद (पंक्ति) में क्रमशः १६-१६ मात्राएँ, चरणान्त क्रमशः दीर्घ-लघु होता है। यह छन्द वीररस से ओत-प्रोत होता है। इस छन्द में अतिशयोक्ति अलंकार का प्रचुरता से प्रयोग होता है। एक लोककवि ने आल्हा के छन्द-विधान को इस प्रकार समझाया है-

आल्हा मात्रिक छन्द, सवैया, सोलह-पन्द्रह यति अनिवार्य।
गुरु-लघु चरण अन्त में रखिये, सिर्फ वीरता हो स्वीकार्य।
अलंकार अतिशयताकारक, करे राई को तुरत पहाड़।
ज्यों मिमयाती बकरी सोचे, गुँजा रही वन लगा दहाड़।


आल्हा-गायन में प्रमुख संगति वाद्य ढोलक, झाँझ, मँजीरा आदि है। विभिन्न क्षेत्रों में संगति-वाद्य बदलते भी हैं। ब्रज क्षेत्र की आल्हा-गायकी में सारंगी के लोक-स्वरूप का प्रयोग किया जाता है, जबकि अवध क्षेत्र के आल्हा-गायन में सुषिर वाद्य क्लेरेनेट का प्रयोग भी किया जाता है। आल्हा का मूल छन्द कहरवा ताल में निबद्ध होता है। प्रारम्भ में आल्हा गायन विलम्बित लय में होता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है। आइए, ब्रज क्षेत्र की परम्परागत आल्हा-गायकी का एक उदाहरण आपको लोक-गायक बलराम सिंह के स्वरों में सुनवाते हैं।

आल्हा गायन : स्वर – बलराम सिंह : प्रसंग – इन्दल हरण


राजा परमाल देव चन्देल वंश के अन्तिम राजा थे। तेरहवीं शताब्दी के आरम्भ में यह वंश समाप्त हो गया। वर्तमान में महोबा एक साधारण कस्बा है, परन्तु ११वीं और १२वीं शताब्दी में चन्देलों की राजधानी था। आल्हा और ऊदल इसी राजा परमाल देव के दरबार के योद्धा थे। यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनके पिता जसराज एक लड़ाई में मारे गए। राजा को अनाथ बच्चों पर दया आई। राजा परमाल आल्हा और ऊदल को राजमहल में ले आए और अपनी रानी मलिनहा को सौंप दिया। रानी ने उन दोनों भाइयों की परिवरिश और लालन-पालन अपने पुत्र के समान ही किया। युवा होते ही दोनों भाई वीरता में अद्वितीय हुए। आल्हा-काव्य इन दोनों भाइयों की वीरता की ही गाथा है।

बारहवीं शताब्दी में चन्देल राजपूतों की वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा-महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली होगी, जितनी आल्हा गीत के नायकों आल्हा और ऊदल को मिली। आल्हा और ऊदल का अपने स्वामी और अपने राजा के लिए प्राणों का बलिदान करना ही इस लोक-गाथा का मूल तत्व है। आल्हा और ऊदल की वीरता के कारनामे चन्देली कवि ने उन्हीं के काल में गाये थे। वीर रस के इस काव्य में अलंकारों का प्रयोग अत्यन्त रोचक है। अतिशयोक्ति अलंकार का एक उदाहरण देखें- “जा दिन जनम लियो आल्हा ने धरती धँसी अढ़ाई हाथ...”। आल्हा-ऊदल और महोबा की सेना की वीरता के सन्दर्भ में “आल्ह-खण्ड” में थोड़े शाब्दिक हेर-फेर के साथ यह पंक्ति कई बार दोहराई गई है- “बड़े लड़इया महोबे वाले, जिनके बल को वार न पार...”। एक महाकाव्य मे जो साहित्यिक गुण होने चाहिए, वह सब इस लोक-गाथा में हैं। “आल्ह-खण्ड” का साहित्यिक विवेचना करने वाले तथा परम्परागत आल्हा गायकी के दीवानों के मानस में तो आल्हा और ऊदल यथार्थ चरित्र के रूप में बसे हुए हैं, किन्तु वैज्ञानिक ढंग से विवेचना करने वाले इन्हें काल्पनिक चरित्र ही मानते हैं। इस सम्बन्ध में हमने बुन्देलखण्ड की लोक कलाओं और लोक साहित्य के वरिष्ठ अध्येता और शोधकर्त्ता अयोध्याप्रसाद गुप्त ‘कुमुद’ से आल्हा की ऐतिहासिकता के विषय पर बातचीत की है, जिसे हम अगले सप्ताह ‘सुर संगम’ में प्रस्तुत करेंगे। आज के अंक को विराम देने से पहले आइए आपको अवध क्षेत्र में प्रचलित आल्हा का एक उदाहरण सुनवाते हैं। उत्तर प्रदेश के उन्नाव ज़िले के सुप्रसिद्ध लोक-गायक लल्लू बाजपेयी के स्वरों में यह आल्हा है। गायन के बीच-बीच में विभिन्न चरित्रों द्वारा गद्य संवाद भी बोले गए हैं।

आल्हा गायन : स्वर – लल्लू बाजपेयी : प्रसंग – मचला हरण


अब समय आ चला है आज के 'सुर-संगम' के अंक को यहीं पर विराम देने का। अगले रविवार को हम आल्हा गायकी के सम्बन्ध में इस आलेख के दूसरे भाग के साथ पुनः उपस्थित होंगे। आशा है आपको यह प्रस्तुति पसन्द आई होगी। हमें बताइये कि किस प्रकार हम इस स्तम्भ को और रोचक बना सकते हैं! आप अपने विचार व सुझाव हमें लिख भेजिए oig@hindyugm.com के ई-मेल पते पर। शाम ६:३० 'ओल्ड इज़ गोल्ड' की महफ़िल में पधारना न भूलिएगा, नमस्कार!

चित्र परिचय : वीर आल्हा


आवाज़ की कोशिश है कि हम इस माध्यम से न सिर्फ नए कलाकारों को एक विश्वव्यापी मंच प्रदान करें बल्कि संगीत की हर विधा पर जानकारियों को समेटें और सहेजें ताकि आज की पीढ़ी और आने वाली पीढ़ी हमारे संगीत धरोहरों के बारे में अधिक जान पायें. "ओल्ड इस गोल्ड" के जरिये फिल्म संगीत और "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" के माध्यम से गैर फ़िल्मी संगीत की दुनिया से जानकारियाँ बटोरने के बाद अब शास्त्रीय संगीत के कुछ सूक्ष्म पक्षों को एक तार में पिरोने की एक कोशिश है शृंखला "सुर संगम". होस्ट हैं एक बार फिर आपके प्रिय सुजॉय जी.

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7 श्रोताओं का कहना है :

Smart Indian का कहना है कि -

आल्हा ऊदल की लोक परम्परा का मान - बहुत अच्छा लगा यह प्रयास.

Amit का कहना है कि -

बहुत ही बढ़िया जानकारी. इस श्रृंखला को पढ़ने के लिए रात के १२ बजे तक इंतज़ार करता रहता हूँ.बहुत बहुत धन्यवाद

manoj yadav का कहना है कि -

bundelkhand ki sanskriti aur dharohar ko sanjone k liye sadhuvaad...

©®ishabh का कहना है कि -

बहुत बढिया जानकारी।। मै इच्छुक था जानने के लिए।

Vikram Pratap Singh का कहना है कि -

अदभुत जानकारी, आपका आभार

Vikram Pratap Singh का कहना है कि -

अदभुत जानकारी, आपका आभार

निवेदिताश्री का कहना है कि -

आल्हा ऊदल की कथा,छंद अदभुत।

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