महफ़िल-ए-ग़ज़ल #१०५
इससे पहले कि हम आज की महफ़िल की शुरूआत करें, मैं अश्विनी जी (अश्विनी कुमार रॉय) का शुक्रिया अदा करना चाहूँगा। आपने हमें पूरी की पूरी नज़्म समझा दी। नज़्म समझकर हीं यह पता चला कि "और" कितना दर्द छुपा है "छल्ला" में जो हम भाषा न जानने के कारण महसूस नहीं कर पा रहे थे। आभार प्रकट करने के साथ-साथ हम आपसे दरख्वास्त करना चाहेंगे कि महफ़िल को अपना समझें और नियमित हो जाएँ यानि कि ग़ज़ल और शेर लेकर महफ़िल की शामों (एवं सुबहों) को रौशन करने आ जाएँ। आपसे हमें और भी बहुत कुछ सीखना है, जानना है, इसलिए उम्मीद है कि आप हमारी अपील पर गौर करेंगे। धन्यवाद!
आज हम अपनी महफ़िल को उस गायिका की नज़र करने वाले हैं, जो यूँ तो अपनी सूफ़ियाना गायकी के लिए मक़बूल है, लेकिन लोगों ने उन्हें तब जाना, तब पहचाना जब उनका "इकतारा" सिद्दार्थ (सिड) को जगाने के लिए फिल्मी गानों के गलियारे में गूंज उठा। एकबारगी "इकतारा" क्या बजा, फिल्मी गानों और "पुरस्कारों" का रूख हीं मुड़ गया इनकी ओर। २००९ का ऐसा कौन-सा पुरस्कार है, ऐसा कौन-सा सम्मान है, जो इन्हें न मिला हो!
इन्हें सुनकर एक अलग तरह की अनुभूति होती है.. ऐसा लगता है मानो आप खुद "ट्रांस" में चले गए हों और आपके आस-पास की दुनिया स्वर-विहीन हो गई हो.. शांति का वातावरण-सा बुन गया हो कोई... ।
आत्मा में कलम डुबोकर लिखी गई किसी कविता की तरह हीं हैं ये, जिनका नाम है "कविता सेठ"। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के बरेली में हुआ, वहीं इनका पालन-पोषण हुआ और वहीं पर स्नातक तक की शिक्षा इन्होंने ग्रहण की। शादी के बाद ये दिल्ली चली आई और फिर ऑल इंडिया रेडिया एवं दूरदर्शन के लिए गाना शुरू कर दिया। इसी दौरान इन्होंने दिल्ली के हीं "गंधर्व महाविद्याल" से "संगीत अलंकार" (संगीत के क्षेत्र में स्नातकोत्तर) की उपाधि प्राप्त की .. साथ हीं साथ दिल्ली विश्वविद्यालय से "हिन्दी साहित्य" में परा-स्नातक की डिग्री भी ग्रहण की। इन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ग्वालियर घराने के "एन डी शर्मा", गंधर्व महाविद्यालय के विनोद एवं दिल्ली घराने के उस्ताद इक़बाल अहमद खान से प्राप्त की है।
इन्होंने बरेली के "खान-कहे नियाज़िया दरगाह" से अपनी हुनर का प्रदर्शन प्रारंभ किया, फिर आगे चलकर ये पब्लिक शोज़ एवं म्युज़िकल कंसर्ट्स में गाने लगीं। कविता मुख्यत: सूफ़ी गाने गाती हैं, अगरचे गीत, ग़ज़ल एवं लोकगीतों में भी महारत हासिल है। इन्होंने देश-विदेश में कई सारी जगहों पर शोज़ किए हैं। ऐसे हीं एक बार मुज़फ़्फ़र अली के अंतरराष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव इंटरनेशल सूफ़ी फ़ेस्टिवल) में इनके प्रदर्शन को देखकर/सुनकर सतीश कौशिक ने इन्हें अपनी फिल्म "वादा" में "ज़िंदगी को मौला" गाने का न्यौता दिया था। आगे चलकर जब ये मुंबई आ गईं तो इन्हें २००६ में अनुराग बसु की फिल्म "गैंगस्टर" में "मुझे मत रोको" गाने का मौका मिला। इस गाने में इनकी गायकी को काफी सराहा गया, लेकिन अभी भी इनका फिल्मों में सही से आना नहीं हुआ था। ये अपने आप को प्राइवेट एलबम्स तक हीं सीमित रखी हुई थीं। इन्होंने "वो एक लम्हा" और "दिल-ए-नादान" नाम के दो सूफ़ी एलबम रीलिज किए। फिर आगे चलकर एक इंडी-पॉप एलबम "हाँ यही प्यार है" और दो सूफ़ी अलबम्स "सूफ़ियाना (२००८)" (जिससे हमने आज की नज़्म ली है) एवं "हज़रत" भी इनकी नाम के साथ जुड़ गए। "सूफ़ियाना" सूफ़ी कवि "रूमी" की रूबाईयों और कलामों पर आधारित है.. कविता ने इन्हें लखनऊ के ८०० साल पुराने "खमन पीर के दरगाह" पर रीलिज किया था।
कुछ महिनों पहले हीं कविता "कारवां" नाम के सूफ़ी बैंड का हिस्सा बनीं हैं, जब एक अंतर्राष्ट्रीय सूफ़ी महोत्सव में इनका ईरान और राजस्थान के सूफ़ी संगीतकारों से मिलना हुआ था। तब से यह समूह सूफ़ी संगीत के प्रचार-प्रसार में पुरज़ोर तरीके से लगा हुआ है। आजकल ये अपने बेटे को भी संगीत की दुनिया में ले आई हैं।
कविता से जब उनके पसंदीदा गायक, संगीतकार, गीतकार के बारे में पूछा गया, तो उनका जवाब कुछ यूँ था: (साभार: प्लैनेट बॉलीवुड)
पसंदीदा गायक: एल्टन जॉन, ए आर रहमान, सुखविंदर, शंकर महादेवन, आबिदा परवीन
पसंदीदा संगीतकार: ए आर रहमान, अमित त्रिवेदी, शंकर-एहसान-लॉय
पसंदीदा गीतकार/शायर: वसीम बरेलवी, ज़िया अल्वी, जावेद अख़्तर, गुलज़ार साहब
पसंदीदा वाद्य-यंत्र: रबाब, डफ़्फ़, बांसुरी, ईरानी डफ़्फ़
पसंदीदा सूफ़ी कवि: कबीरदास, मौलाना रूमी, हज़रत अमिर खुसरो, बाबा बुल्लेशाह
पसंदीदा गीत: ख़्वाजा मेरे ख़्वाजा (जोधा-अकबर)
उनसे जब यह पूछा गया कि नए गायकों को "रियालिटी शोज़" में हिस्सा लेना चाहिए या नहीं, तो उनका जवाब था: "रियालिटी शोज़ के बारे में कभी न सोचें, बल्कि यह सोचें कि "रियालिटी" में उनकी गायकी कितनी अच्छी है। जितना हो सके शास्त्रीय संगीत सीखने की कोशिश करें। कहा भी गया है कि - नगमों से जब फूल खिलेंगे, चुनने वाले चुन लेंगे, सुनने वाले सुन लेंगे, तू अपनी धुन में गाए जा।" वाह! क्या खूब कहा है आपने!
चलिए तो अब आज की नज़्म की ओर रूख करते हैं। कविता को यह नज़्म बेहद पसंद है और उन्हें इस बात का दु:ख भी है कि यह नज़्म बहुत हीं कम लोगों ने सुनी है, लेकिन इस बात की खुशी है कि जिसने भी सुनी है, वह अपने आँसूओं को रोक नहीं पाया है। आखिर नज़्म है हीं कुछ ऐसी! आप यह तो मानेंगे हीं कि सूफ़ियाना कलामों में ख़ुदा को जिस नज़रिये से देखा जाता है, वह नज़रिया बाकी कलामों में शायद हीं नज़र आता है। कविता इसी नज़रिये को अपनी इस नज़्म के माध्यम से हम सबके बीच लेकर आई हैं। "शब को सहर" मे बदलने वाला वह ख़ुदा आखिरकार कैसा लगता है, आप खुद सुनिए:
बदल रहा है जो शब सहर में,
ख़ुदा वही है..
है जिसका जलवा नज़र-नज़र में,
ख़ुदा वही है..
जो फूल खुशबू गुलाब में है,
ज़मीं, ______, आफ़ताब में है,
है जिसकी रंगत शज़र-शज़र में,
खुदा वही है..
चलिए अब आपकी बारी है महफ़िल में रंग ज़माने की... ऊपर जो गज़ल हमने पेश की है, उसके एक शेर में कोई एक शब्द गायब है। आपको उस गज़ल को सुनकर सही शब्द की शिनाख्त करनी है और साथ ही पेश करना है एक ऐसा शेर जिसके किसी भी एक मिसरे में वही खास शब्द आता हो. सही शब्द वाले शेर ही शामिल किये जायेंगें, तो जेहन पे जोर डालिए और बूझिये ये पहेली!
इरशाद ....
पिछली महफिल के साथी -
पिछली महफिल का सही शब्द था "सांवला" और शेर कुछ यूँ था-
हो छल्ला पाया ये गहने, दुख ज़िंदरी ने सहने,
छल्ला मापे ने रहने, गल सुन सांवला
ढोला,
ओए सार के कित्ते कोला
इस शब्द पर ये सारे शेर/रूबाईयाँ/नज़्म महफ़िल में कहे गए:
मेरा हर लफ़्ज़ लकीर, अहसास स्याही है "आजाद"
चेहरा एक सांवला-सा ग़ज़ल में दिख रहा होगा. -आजाद
सांवले की आमद से हर चीज़ खिल गयी है.
मौसम हुआ है खुशनुमा दुनिया बदल गयी है. -अवध लाल जी
सांवला सभी को मेरा लगे है सजन
मगर मुझे ऐसा लागे जैसे किशन । - शरद तैलंग जी
कोई सांवला यहाँ कोई सफेद है
कोई खुश तो किसी को खेद है
एक खुदा ने बनाया हम सबको
फिर सबके रंगों में क्यों भेद है? - शन्नो जी (जबरदस्त....... )
सांवला सा मन और उजली सी धूप,
बस इसके सिवा कुछ नहीं,कैसा भी हो रूप - नीलम जी
चितचोर सांवला सजन , करता है नित शोर .
नदी पर करे इशारा , आजा मेरी ओर . - मंजु जी
मन के वीरान कोने मैं एक सांवला सा गम
मन के अँधेरे मैं कुछ घुल मिल सा गया है !!
सिसकियों की स्याह गोद मैं
सहमी सहमी सी यादों के
शूल भरे फूलों से कुछ छिल सा गया है !! - अवनींद्र जी
पिछली महफ़िल की शुरूआत हुई सजीव जी के प्रोत्साहन के साथ। आपके बाद शन्नो जी की आमद हुई। अपने बहुचर्चित मज़ाकिया लहजे में शन्नो जी ने फिर से हमें डाँट की खुराक पिलाई, लेकिन हमारे आग्रह करने के बाद उन्होंने गीत को फिर से सुना और अंतत: गायब शब्द की शिनाख्त करने में सफ़ल हुईं। तो इस तरह से कुछ कोशिशों के बाद महफ़िल का गायब शब्द सब के सामने प्रस्तुत हुआ। शन्नो जी, आपने शब्द तो पहचान लिया, लेकिन आपसे एक गलती हो गई। अगर आप उस शब्द पर कोई शेर कह देतीं तो हम "शान-ए-महफ़िल" के खिताब से आप हीं को नवाज़ते। अब चूँकि "साँवला" शब्द पर शेर लेकर पूजा जी सबसे पहले हाज़िर हुईं, इसलिए हम उन्हें हीं "शान-ए-महफ़िल" घोषित करते हैं। पूजा जी के बाद अवध जी, शरद जी , नीलम जी, मंजु जी एवं अवनींद्र जी का महफ़िल में आना हुआ। आप सभी के स्वरचित शेर एवं नज़्म कमाल के हैं। बधाई स्वीकारें! इन सबके बाद शन्नो जी फिर से महफ़िल में आईं, लेकिन इस बार वो खाली हाथ न थीं.. आपकी झोली में तीन-तीन रूबाईयाँ थीं और तीनों एक से बढकर एक। हमारी पिछली महफ़िल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही अश्विनी जी का महफ़िल में आना। यूँ तो आपका शुक्रिया हम शुरूआत में हीं कर चुके हैं, लेकिन आपका जितना भी आभार प्रकट किया जाए कम होगा। उम्मीद करता हूँ कि हमारे बाकी मित्र भी भविष्य में इसी तरह हमारी सहायता करेंगे।
चलिए तो इन्हीं बातों के साथ अगली महफिल तक के लिए अलविदा कहते हैं। खुदा हाफ़िज़!
प्रस्तुति - विश्व दीपक
ग़ज़लों, नग्मों, कव्वालियों और गैर फ़िल्मी गीतों का एक ऐसा विशाल खजाना है जो फ़िल्मी गीतों की चमक दमक में कहीं दबा दबा सा ही रहता है. "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" श्रृंखला एक कोशिश है इसी छुपे खजाने से कुछ मोती चुन कर आपकी नज़र करने की. हम हाज़िर होंगे हर बुधवार एक अनमोल रचना के साथ, और इस महफिल में अपने मुक्तलिफ़ अंदाज़ में आपके मुखातिब होंगे कवि गीतकार और शायर विश्व दीपक "तन्हा". साथ ही हिस्सा लीजिये एक अनोखे खेल में और आप भी बन सकते हैं -"शान-ए-महफिल". हम उम्मीद करते हैं कि "महफ़िल-ए-ग़ज़ल" का ये आयोजन आपको अवश्य भायेगा.
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16 श्रोताओं का कहना है :
तन्हा जी,
ये महफिल आपकी मुट्ठी में है...जो चाहिये वो कीजिये :)और जहाँ तक हमारी वेवकूफियों का सवाल है...तो हम अपनी बदकिस्मती से कहीं न कहीं जरूर फिसल जाते हैं और करीब-करीब हर बार कहीं न कहीं किसी से पटकी खा जाते हैं ( अब आदत सी पड़ गयी है ):) पर ये गम जरा सी देर को रहता है..उसके बाद हम अपने को झाड़-पूँछ कर फिर तैयार कर लेते हैं...और फिर से मैदान में आकर डट जाते हैं. और किसी दूसरे को ख़िताब मिलते हुये देखकर हमें उतनी ही खुशी होती है जितनी हमें खुद के लिये होती ( अगर ख़िताब मिलता ) लेकिन इसमें कोई इतना दुखी होने वाली बात नहीं है...हा हा हा..
पूजा को वधाई !
इस बार की गजल बहुत अच्छी लगी और कविता जी के बारे में जानना भी. मेरे ख्याल से इस बार का गायब शब्द है '' तलक ''
लाओ फिर चलते-चलते एक शेर भी लिख जाऊँ :
कोशिशों से मुँह ना मोड़ेंगे कभी
रहेगी खुदा की इनायत जब तलक.
( स्वरचित )
खुदा हाफिज...
और हाँ, मेरे शेर की तारीफ़ करने का बहुत शुक्रिया.
शन्नो जी आपने सुनने मैं थोड़ी गलती कर दी गायब शब्द तलक नहीं फलक है मुझे खेद है !
रफ़ी साहेब का गया हुआ है ये गीत
फलक पे जितने सितारे हैं वो भी शर्माए
ओ देने वाले मुझे इतनी जिन्दगी दे दे
येही सजा है मेरी मौत भी न आये मुझे
किसी को चैन मिले मुझको बेकसी दे दे
अभी अभी ताज़ा बन पड़ा है
उसका चेहरा आंसुओं से धुआं धुआं सा हुआ
फलक पे चाँद तारों मैं गुमशुदा सा हुआ
उसके साथ बीता ख़ुशी का हर लम्हा
उसीकी याद से ग़मों का कारवाँ सा हुआ !! (स्वरचित)
एक और बन पड़ा है अर्ज़ है
रफ्ता रफ्ता सेहर शब् को निगल रही है
चारसू फलक की रंगत बदल रही है
रात भर देखे जो ख्वाबों की खुमारी
उनकी अंगड़ाई यों मैं मचल रही है !!(स्वरचित)
है जिसकी कीमत हर एक कण मे ,खुदा वही है
है जिसने की,झुक के इबादत,फलक है उसका,खुदा वही है.
जवाब - फलक
शेर हाजिर है -
जैसे फलक पर चाँद चांदनी संग चमचमा रहा ,
वैसे ही खुदा फूलों की खुशबू बन जग महका रहा .
स्वरचित - मंजू गुप्ता
is nazm se roobaroo karaane ke liye shukriya VD bhai :)
-Kuhoo
चंद अशआर हाज़िर हैं:
नहीं पस्तो - बुलंद यकसां देख
कि फ़लक कुछ है और ज़मीन कुछ है.- बहादुर शाह ज़फर.
ये किसको देख फ़लक से गिरा है गश खा कर
पड़ा ज़मीं पे जो नूरे-क़मर को देखते हैं. शेख इब्राहीम ज़ौक़
कहीं क़रीब था ये गुफ़्तगू क़मर ने सुनी
फ़लक पे आम हुई अख्तर-ए-सहर ने सुनी
सहर ने तारे से सुन कर सुनाई शबनम को
फ़लक की बात बता दी ज़मीं के महरम को.अल्लामा इकबाल
अवध लाल
अवनीन्द्र जी, मुझे मेरी गलती बताने का शुक्रिया..और आपको बहुत बधाई :) आप लिखते भी बहुत अच्छा हैं.
जब मैंने गजल सुनी थी तो असल में मुझे खुद ही अपने पर पूरा एतबार नहीं था..केवल ख्याल ही था..क्योंकि मुझे तलक, फलक, और पलक में कन्फ्यूजन सा हो रहा था..लेकिन सबसे अधिक मुझे वहाँ पर ( पता नहीं क्यों ) तलक फिट लगता नजर आया. अब देखो फिर पछाड़ खा गयी..है न ? हा हा..अब आदत भी हो गयी है इसकी..फिर भी कोशिशों से बाज नहीं आती :)
अब तन्हा जी से गुजारिश है कि मुझे इस महफिल से आउट कर दें..या खुदा के नाम पर मैं खुद ही आउट हो जाऊँ :) यही सबके हित में होगा...
लीजिये ये रहे अपने दो शेर:
1.
तुफ है उन कोशिशों पे जो हुईं फना
क्या पता फलक में कुछ ऐब रहा हो.
2.
कहते है जिंदगी है फकत चार दिनों की
क्या पता फलक में कितना इंतज़ार हो.
स्वयं रचित किये हैं :)
आज शन्नो जी का जन्मदिन है गाँव वालों ........
शन्नो जी आप भी न इतनी छोटी सी बात पे इतना ज्यादा परेशां हो जाती हैं सुनने मैं तो किसी से भी गलती हो सकती है ,,afterall हम इंसान हैं जो की गलतियों का पुतला होता है और ये गलती नहीं ग़लतफहमी है ,,और नीलम जी ने बताया आज आपका जन्मदिन है आप के लिए शुभकामना के साथ एक शेर अर्ज़ है--
-सारी कायनात तेरी खुशियों मैं शामिल हो जाये
खुदा का हर चेहरा तुझसे नाजिल हो जाये !
आज दिल से ये दुआ है मेरे दोस्त
तू जहाँ कदम रखे वो तेरी मंजिल हो जाये !!(स्वरचित)
और हाँ, मेरे शेर की तारीफ़ करने का बहुत शुक्रिया.
अवनीन्द्र जी,
एक बेहतरीन शेर और आपकी शुभकामनाओं के लिए शुक्रिया..शुक्रिया..बहुत शुक्रिया :)
खुशी हुई इतनी जो मिलीं आपकी दुआयें
कि जैसे फलक को छू लिया हो जमीं से.
( स्वरचित )
बहुत बढ़िया कलाम सुनवाया आपने दीपक जी, शुक्रिया.
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